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कहानी: छोटे रिश्ते बड़े काम

वह 13 वर्ष बाद शहर जा रहे थे. इस से पहले इरा के जन्म पर राकेश आ कर उन्हें लिवा ले गया था. आज लग रहा है कि पूरा एक युग समाप्त कर के वह एक नए युग में प्रवेश कर रहे हैं. ऐसा युग जो उन के कंठ से निकल कर एक समूची सृष्टि का सृजनकर्ता बन जाता था.

अपने कसबे के वहीं एकमात्र संगीतज्ञ थे. आंख मूंद कर ध्रुपद का आलाप जब वह लेते थे तो जानकार लोग झूमझूम उठते थे. सीधे हाथ की उंगलियां तानपुरे पर फिसलती रहतीं और कंठ का माधुर्य जनमानस पर बिखरता चला जाता.


कसबे में कोई प्रदर्शनी आती तो संगीत के कार्यक्रम का आरंभ उन के ही किसी गौड़सारंग या ठुमरी, दादरा से होता. अंत भी उन की ही भैरवी से किया जाता. बीच में कितने ही संगीतज्ञ अपने कंठ का जादू वहां फैलाते, पर कसबे वालों की वाहवाह तो उन के मंच पर पहुंचने के बाद ही सुनाई देती. उन के कंठ की यही विशेषता थी कि जो शास्त्रीय संगीत नहीं समझते थे, वे भी उन के स्वर में डूब जाते थे.


बीती हुई बातें अपनेआप में पूरा एक इतिहास छिपाए हुए हैं और उसे जब भी वह दोहराने बैठते हैं तो सब से पहले उभरता है पद्मिनी का चेहरा.पद्मिनी की याद आते ही उन का एकाकी संसार सुधियों के सागर से भर उठता है. घर का कोनाकोना जैसे महक उठता है, और वह गीली हो उठी आंखें मूंद कर कहते हैं, ‘‘पद्मा, इतनी जल्दी भी क्या थी तुम्हें जाने की.’’


राकेश स्टेशन पर लेने आ गया था. उन्होंने स्नेह से उसे गले लगा लिया. चरण छू कर राकेश ने कहा, ‘‘अच्छा किया आप ने, आ गए.’’‘‘हां, तुम ने जिद की इलाज करवाने की, फिर क्या करता, आना ही पड़ा,’’ वह अतिरिक्त प्यार उड़ेल कर बोले और राकेश के साथ जा कर कार में बैठ गए.


राकेश शहर का नामी वकील है. दो बच्चे हैं – इरा और लव. लव 7 वर्ष का है, पर उस के जन्म पर वह शहर नहीं पहुंच सके, न बहू ही उस के बाद उन के पास आई. राकेश बीच में एक  बार आया था. राकेश को भर दृष्टि प्यार से देखते वह समझते हैं. उस के चेहरे पर जैसे पद्मा के चेहरे की छाप है. वही नयननक्श, वही हंसी.


कच्ची अवस्था में ही उन का व पद्मा का ब्याह हो गया था. कसबे के विद्यालय में वह संगीत के अध्यापक थे. वेतन अधिक नहीं था, पर ट्यूशनें बहुत मिल जाती थीं, जिस से दोनों पतिपत्नी खूब अच्छा जीवन जी लेते थे.


उन के पिता भी अच्छे संगीतज्ञ थे और वह भी चाहते थे कि उन का इकलौता बेटा राकेश संगीतज्ञ ही बने. बच्चे तो बहुत हुए, पर बचा केवल राकेश ही था. पद्मा की इच्छा पर ही उस ने वकालत पढ़ी थी. पद्मा चाहती थी, राकेश संगीत भी जाने, पर उसे जीवनयापन का साधन न बनाए. उस का बेटा अपार धन का स्वामी हो, कुछ ऐसी ही महत्त्वाकांक्षा थी उस की.


घर पहुंच कर दो प्यारेप्यारे बच्चों ने उन का स्वागत किया. उन्होंने ध्यान से देखा, कैसा सु़ंदर, कितने चुस्त हैं बच्चे. भला कसबे का गवैया अध्यापक बन कर राकेश के बच्चे इतने अच्छे दिखार्ई देते? उन्हें अहसास है उस दुख का. सीमित वेतन और ट्यूशनों के बल पर किस तरह उन्होंने राकेश को वकालत पढ़ाई थी. सोचा, अच्छा ही किया पद्मा ने, इसे गवैया नहीं बनने दिया. वैसे, संगीत की शिक्षा राकेश को भी दी है उन्होंने.


बहू ममता आंचल सिर पर डाल कर उन के पैर छूने झुकी तो वह विचारों की श्रृंखला तोड़ चौंक उठे, बोले, ‘‘सदा सुखी रहो. बड़ा सुंदर घर बनाया है, बेटी, आज तुुहारी सास होती…’’ और वह चुप हो गए.


छुट्टी का दिन था. घर के उद्यान में नौकर ने कुरसियां डाल दी थीं. बच्चे भागभाग कर हरीहरी घास में खेल रहे थे और वह मंत्रमुग्ध भाव से देख रहे थेे. इतने दिनों तक वह पद्मा की याद लिए उसी घर में पड़े रहे. वहां से कहीं जाने का मन ही नहीं होता था. पद्मा की चूड़ियों की खनक, उस की प्यार भरी मीठी हंसी, सुखदुख में सहारा देती मधुर वाणी, उन्हें जैसे हर पल घेरे रहती. पैर में गठिया का रोग न बढ़ जाता तो शायद अब भी वह नहीं आते.


थोड़ी देर में ही हाल में गिटार की मधुर गूंज उन्हें तड़पा गई. शायद इरा बजा रही है और लोग सांस रोक कर सुन रहे हैं, तभी तो सारी आवाजें बंद हैं. उन का मन हुआ, तुरंत उठ कर देखें, इरा कैसी लग रही है, इतने लोगों के बीच में गिटार बजाती हुई. कोई बात नहीं, जो इरा को वह कुछ नहीं सिखा सके, पर प्रशंसा के योग्य तो वह है ही.


आधे घंटे तक वहां गिटार और केसियो पर ‘पौप’ संगीत ही गूंजता रहा. फिर अचानक ही बीच का परदा खिंचा और भिड़ा हुआ दरवाजा एकदम खुल गया. कमरा किशोरकिशोरियों से भर गया था. इरा आगेआगे फुदकती हुई कह रही थी, ‘‘यही हैं हमारे बाबाजी, अपने घर पर सब को संगीत सिखाते थे, पर अब नहीं गाते.’’‘शायद इरा को कुछ समझाना राकेश व बहू भूल गए होंगे, तभी तो मेरे दर्शनार्थ अपने साथियों को वह यों समेट लाई है,’


इरा ने कल ही तो उन से पूछा था, ‘‘बाबाजी, वहां अकेले आप को डर नहीं लगता.’’सुनते ही वह हंस दिए थे, ‘‘डर… नहीं तो,’’ कहतेकहते उन्हें चैतू और कृष्णा की याद आ गई थी. ये दोनों उन के पुराने शिष्य हैं. उसी कसबे में इन का ब्याह हुआ है, घरबार है. जब से पद्मा नहीं रही, कृष्णा उन का पिता समान ध्यान रखती है और चैतू बाजार से सामान आदि ला दिया करता है. जब भी जी घबराता है, वह कृष्णा या चैतू के घर चले जाते हैं. दोनों कैसेकैसे भाग कर उन का सत्कार करते हैं. कृष्णा गिलास में चाय भर लाती है और तस्तरी में मिठाई या फल. ब्राह्मïण हैं, अत: कप में चाय नहीं पीते. अपने हाथ से उठाउठा कर आग्रहपूर्वक देती है. तब भी उन्हें पद्मा बहुत याद आती है. उस की मृत्यु के बाद उतने आग्रहपूर्वक खिलाने वाली बस कृष्णा ही तो बची है. वह हमेशा से जातिपांति के खिलाफ थे और उसे गांव के बहुत से ऊंची जाति के लोग उन की पीठ पीछे उन्हें बुराभला भी कहते थे. पर चूंकि उन की संगीत पर पकड़ थी, कोई मुंह पर कुछ न कह पाता था.


राकेश आ कर दूसरी कुरसी पर बैठ गया था. बहू भी मोबाइल हाथ में लिए आ बैठी. थोड़ी देर वह राकेश से वकालत की पूछताछ करते रहे, फिर हंस कर बोले, ‘‘अच्छा, राकेश, तुम्हें अब संगीत का अभ्यास तो रहा नहीं होगा? इन बच्चों को सिखा देते.’’


राकेश ने पत्नी की ओर देखा और सगर्व बोला, ‘‘अपने काम से छुट्टी कहां मिलती है, बाबूजी. वैसे, इरा गिटार सीख रही है, एक म्यूजिक टीचर आते हैं सिखाने.’’


उन्होंने एक आह सी भर ली. शहर की बात है. भले ही वह संगीतज्ञ हैं, पर गिटार बजाना तो उन्हें भी नहीं आता. वायलिन बजा लेते थे. तबला, सितार, हारमोनियम भी बजा लेते थे, पर गिटार… पद्मा को कितना शौक था कि वह अधिक से अधिक वाद्य बजाना सीखें, कहती थी, ‘‘जब बूढ़े हो जाओगे और गाना नहीं गा सकोगे, तब बजाना ही काम आएगा.’’


एक बार पद्मा ने उन्हें इन नए इंस्ट्रूमेंट्स के सीखने के लिए उकसाया था, पर वह हंस कर बोल उठे थे, ‘‘पद्मा, इस कसबे में ड्रम सीखने वाले बच्चे भी नहीं हैं जितने मुझे आते हैं, ये नए इंस्ट्रूमैंट तो बहुत महंगे हैं, जो यहां किसी के काम के नहीं हैं.’’‘‘अपने लिए सीखो, अपने बच्चों के लिए सीखो, सब दूसरों के लिए थोड़े ही सीखा जाता है. पैसे चाहिए तो बताओ. मैं गहने बेच कर दे दूंगी. अब कोई और जिम्मेदारी तो है नहीं.’’


सोचतेसोचते उन की आंखें गीली होने लगीं, तो चुपके से उन्हें पोंछ डाला. ‘‘सुनो, राकेश,’’ एक दिन उन्होंने बैठेबैठे राकेश से कहा, ‘‘मेरे होते हुए बच्चों को बाहर का अध्यापक आ कर कुछ सिखाए, यह अच्छा नहीं लगता.’’राकेश कचहरी जाने को तैयार हो रहा था, बोला, ‘‘पर बाबूजी, आप गिटार और केसियो नहीं सिखा सकेंगे.’’‘‘कोई बात नहीं, बेटा, इरा सितार सीखेगी, वायलिन सीखेगी. लड़कियां ये दोनों वाद्य बजाती हुई बहुत अच्छी लगती हैं.’’


‘‘अरे नहीं बाबूजी,’’ राकेश ने लापरवाही से टाई का ‘नाट’ ठीक करते हुए कहा, ‘‘वे पुराने फैशन के वाद्य हैं… अब तो गिटार पर ‘पोप’ संगीत ही आधुनिक घरानों में चलता है. और उन के सारे इंस्ट्रूमैंट विदेशी हैं.’’राकेश बिना उन के चेहरे को देखे ही चला गया. उन्हें लगा, जैसे बेटे ने उन के मुंह पर तमाचा मारा है. जिन की विद्या पर सारा कसबा गर्व करता है, उन्हें ही निरर्थक बता कर वह चला गया है. अभी आने से पहले कृष्णा उन से कह रही थी, ‘‘गुरुजी, आप जा रहे हैं, मेरी रत्ना को कौन संगीत सिखाएगा.’’


वह हंस कर बोले थे, ‘‘रत्ना की मां को सबकुछ मैं ने सिखा दिया, अब गुरुपद तुम्हीं संभालो.’’कृष्णा की दृष्टि झुक गर्ई थी. ‘‘आप के होते हुए मैं गुरुपद कैसे संभाल सकती हूं.’’इस पल वह सब याद आया, तो मन भर आया. अभी इरा और लव दौड़ते हुए आए, बोले, ‘‘बाबाजी, कल मेरा जन्मदिन है.’’


‘‘अच्छा…’’ वह अपनी कसक बच्चों की हंसी में मिटाने लगे.‘‘इत्तेसारे लोग आएंगे. वह शची आंटी हैं न, बड़ा अच्छा गाती हैं. आप भी सुनेंगे न?’’वह सिर हिला कर मुसकरा दिए. इरा निकट आ कर उन की गरदन से लटक गई. ‘‘बाबाजी, आप भी तो गाना गाते हैं न?’’


उन्होंने धीरे से कहा, ‘‘गाता था, बेटी, अब नहीं गाता.’’‘‘अब क्यों नहीं गाते?’’‘‘अब बूढ़ा हो गया हूं, मुझ से अच्छी तरह गाया नहीं जाता.’’इरा नासमझ सी उन्हें देखती रही.


वह पूरी रात उन्होंने आंखों में काट दी. कल इरा की वर्षगांठ है और उन्हें पता भी नहीं. कसबे में जीवन के पूरे 65 वर्ष व्यतीत किए हैं. कौन नहीं जानता पंडित मधुकरनाथ को. आठ वर्ष के थे वह, तब से ही गायन विद्या में निपुण हो चले थे. पिता शास्त्रीय संगीत के ही विद्वान थे, पर उन्होंने बड़े हो कर पद्मा की प्रेरणा के बाद ही वाद्य संगीत में निपुणता प्राप्त की. छोटे से कसबे का एक छोटा सा व्यक्ति अपनी कला व परिश्रम से बहुत बड़ा दिखाई देने लगा. जबतब नौकरी में रहे, तब भी पूरे कसबे के एकमात्र लोकप्रिय गायक वही रहे, और उन से पहले के उन के पिता.


जब वह सेवानिवृत्त हुए, तब भी कसबे के छोटेछोटे दिलों में धड़कते रहे. ट्यूशन तब भी मिलती रही. स्कूल के नए संगीत अध्यापक पर किसी ने उतना ध्यान नहीं दिया, जितना स्नेह उन के हिस्से में आया. कई बार वह कृष्णा या चैतू से पूछ बैठते, ‘‘अब तो नए जमाने के अध्यापक आ गए हैं. मुझ पंडित को फिर भी लोग अपने बच्चों की ट्यूशन के लिए क्यों चिरौरी करते हैं?’’


उन्हें चैतू की भी याद थी. वह एक डोम का बेटा था और संगीत सीखना चाहता था, पर उन्हें उस घर में घुसने की इजाजत वे कैसे दे देते. पूरा समाज उन्हें जाति से बाहर निकाल देता.उन्होंने चैतू के बहुत पांव पकड़ने और रोनेधोने के बाद डरडर कर खेतों में जा कर उसे संगीत की थोड़ीबहुत शिक्षा दी. उन्हें नहीं मालूम था कि चैतू इतनी जल्दी हर चीज समझ जाएगा. फिर उस का बाप उसे दूसरे शहर ले गया. जातेजाते चैतू उन की ड्योढ़ी पर बहुत सोचता था. जो शास्त्रीय गायन नहीं जानते. आप को कैसे कोई भुलाएगा. सब से बढ़ कर है आप का विनम्र स्वभाव.’’


कृष्णा कहती, ‘‘सच्ची गुरुजी. यह तो आप की महानता थी कि हमारे इतने परदादार मांबाप भी हमें संगीत सिखाने पर तैयार हो गए. हरेक को थोड़े ही मांबाप अपनी बेटियों का अध्यापक रख सकते हैं.’’पूरी रात उन्हें कृष्णा और चैतू के साथ उन तमाम छात्रछात्राओं की याद आई, जो एकदो वर्ष उन के संपर्क में रहे या पूरी पढ़ाई वहां कर के किसी बड़े कालेज में पढ़ने के लिए कसबा छोड़ गए या किसी के मातापिता का स्थानांतरण ही बाहर हो गया. पर जातेजाते कैसे हरेक उन के पैर छू कर कहता था, ‘‘गुरुजी, पता नहीं, वहां आप जैसा अध्यापक कोई मिलेगा या नहीं?’’


वह हंस कर आशीर्वाद देते, ‘‘देखो, बड़े आदमी बन कर इस छोटे से गुरु को भूल मत जाना.’’सब की आंखें भरभर आतीं, ‘‘आप ने तो हमें पितातुल्य प्यार दिया है, आप को भला कैसे भूल सकते हैं.’’यह अलग बात है, उन में से फिर किसी को वह  देख नहीं सके.


अंधेरे में देर तक वह उन तमाम चेहरों को याद करते रहे. फिर पलट कर राकेश का चेहरा उन के सामने आ खड़ा हुआ. कितना कष्ट सह कर भी उसे इतना बड़ा आदमी बना दिया. संगीतज्ञ बनाना चाहते हुए भी वकील बना दिया, पद्मा के सपनों को पूरा देखने के लिए. पर क्या सपना पूरा हुआ? पद्मा कब चाहती थी कि उस का बेटा धनी वकील बन कर अपने पिता के ज्ञान की अवहेलना करने लगे. उसे भी तो संगीत की शिक्षा दी थी, पर वह संगीत के महात्म्य को भी आधुनिकता के कलेवर से लपेट रहा है, अपने पिता की सब से अमूल्य संपत्ति ‘संगीत’ की अवहेलना कर रहा है. बड़ी कठिनाई से उन्होंने उमड़ते हुए उद्गारों को आंखों से टपकने से रोका था.


पूरा घर शोर से भरता जा रहा था. बड़े हाल में खूब गुब्बारे सजाए गए थे और वहीं अल्पाहार का प्रबंध भी था.सुबह ही राकेश ने दबे स्वर में उन से पूछा था, ‘‘मेरे कमरे में ही कलई के गिलास में चाय भिजवा देना. मैं करूंगा भी क्या वहां.’’राकेश अति सकुचाया सा बोला था, ‘‘वास्तव में मैं ने अपने नए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश महोदय को भी बुलाया है. अभी एक माह पहले ही स्थानांतरित हो कर यहां आए हैं.’’


‘‘कोई बात नहीं, राकेश. तुम लोग राजीखुशी अपना कार्यक्रम करो. मैं देहाती आदमी बीच में कुछ गड़बड़ करने नहीं आऊंगा.’’राकेश ने लाज से उन के हाथ दबा दिए थे.बड़ी बैठक के बराबर में ही उन को कमरा मिला था. बीच के दरवाजे के किवाड़ पहले ही भिड़ा दिए गए. दरवाजे के आगे साटन का परदा झूल रहा था, अत: वे निश्चिंत थे. कानों में हर आवाज निरंतर पहुंच रही थी. ढेर सी हंसी लड़केलड़कियों की, ये लोग शायद इरा के साथी थे. फिर ठहाकेदार स्त्रीपुरुषों की आवाजें, आलोचनाओं व अफवाहों से भरी हुई, शायद इन्हीं कहकहों के मध्य राकेश के नए न्यायाधीश महोदय भी होंगे, उन्होंने सोचा.


बहू अपने हाथ से उन के लिए एक मेज पर कलई की तस्तरियों से नाश्ते का सामान चाय के साथ परोस गई थी. उन्होंने आंखें मूंद कर सोचा था, ‘शायद, यह भी सुख का अच्छा सा रूप होगा, विनम्रता की स्नेहिल मुसकान के साथ उन्हें यह एकाकी आदरसत्कार मिला.’


उन्होंने सोचा. एक पल तो लगा कि सब उन्हें एक अजूबे जैसी दृष्टि से निहार रहे हैं कि भला यह देहाती सा आदमी क्या गायक हो सकता है. इरा की इस हरकत का प्रभाव यह हुआ था कि राकेश को भी अपने साथियों सहित उस कमरे में आना पड़ा था और कहना पड़ा था, ‘‘यह हमारे बाबूजी हैं. अभी कुछ दिन पहले ही यहां आए हैं. पैर में कुछ तकलीफ है. इसी से यहीं बैठे रह गए.’’


सब उन को अभिवादन कर रहे थे. राकेश ने न्यायाधीश महोदय को भी उन से बड़ी ही विनम्रता से परिचित करवाया. उन्होंने चश्मे से आंख उठा कर देखा, लगा, यह चेहरा कहीं देखा है-कहां?


न्यायाधीश उन्हें ध्यान से देखते रहे, फिर पता नहीं क्या हुआ, इतनी भीड़ के बीच में भी शायद अपनी हैसियत भूल और लपक कर उन के चरणों में झुक गए, ‘‘आप ने पहचाना नहीं, गुरुजी?’’


उन का कंठ गदगद हो उठा, ‘‘बस, एक ही आवाज में पहचान लिया, बेटा. तू तो निहाल डोम का बेटा चैतू है न?’’ कहतेकहते उन की आंखें डबडबा आईं. जिन से बचाने के लिए राकेश ने उन्हें कमरे में अलग बैठाया था, वही सब के सामने उन के चरणों पर झुक गए थे. न्यायाधीश महोदय उन के पास ही पलंग पर पांयते बैठ गए और हाथ थाम कर बोले, ‘‘गुरुजी, पलट कर कभी आप के दर्शन करने न जा सका. लेकिन भूला नहीं कभी. जब भी किसी संगीत सभा में गया, आप को सब से पहले याद किया. मैं ने संगीत की शिक्षा भी ली और कानून की. आप का पढ़ाने का ढंग ऐसा था कि शहर आ कर जो किताब उठाता वह दिल में बैठ जाती.’’


राकेश के साथी अधिकांश वकील ही थे. न्यायाधीश महोदय उन के पिता के पास यों वात्सल्यभरा प्यार लूटने बैठ जाए, यह उन सब के लिए चमत्कारिक भी था और एक शुभ संयोग भी. शायद पिता का कम और मुख्य न्यायाधीश महोदय का अधिक ध्यान था, तभी वे  सब एक स्वर में चीखे, ‘‘पिताजी, बाबूजी, हम तो आप का गायन अवश्य सुनेंगे. इस के बिना तो इरा की पार्टी अधूरी रह जाएगी.’’


न्यायाधीश महोदय ने भी कहा, ‘‘हां गुरुजी, कितने वर्षों से आप का मधुर स्वर नहीं सुना, आज तो मैं जाऊंगा नहीं, आप का संगीत रस पिए बिना. उम्मीद है कि अब मेरी जाति इस घर को परेशान नहीं करेगी. आप ने तो उस समय प्यार दिया, जब गांव में मेरे पिता के साए को भी दूर रखा जाता था.’’


उन्होंने सिर उठा कर देखा, राकेश और बहू दृष्टि चुराए खड़े थे. हंसते हुए वह सामान्य हो उठे. उन्हें लगा, सारा मन का क्लेश इन छोटेछोटे रिश्तों के प्यार ने धोपोंछ दिया है. वह बोले, ‘‘पर, एक शर्त पर गाऊंगा.’’ सब ने चौंक कर देखा, तो वह राकेश से बोले, ‘‘देख राकेश, मेरे दो शागिर्द यहां उपस्थित हैं, एक चैतू और दूसरे तुम. पहले तुम दोनों गाओगे, फिर मैं.’’


उन की बात पर प्रभात कुमार, मुख्य न्यायाधीश महोदय मंदमंद मुसकरा उठे, पर राकेश सकपका कर बोला, ‘‘मुझे अब कहां याद है कुछ?’’वह उठते हुए बोले, ‘‘एक ही लाइन गाना, बाकी मैं संभाल लूंगा.’’ और न्यायाधीश महोदय को कंधे पकड़ कर उन्होंने उठा दिया, कहा, ‘‘चलो, प्रभात, पहले तुम्हारी ही परीक्षा ले लें. कितना खोया, कितना पाया इतने वर्षों में?’’न्यायाधीश महोदय फिर झुके और घुटने छू कर बोले, ‘‘आप को देख कर अब खोया हुआ भी लौट आएगा, गुरुजी.’’

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