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कहानी: एहसानमंद

घड़ी के अलार्म की घंटी बजी और डाक्टर विवेक जागा. साथ में सोती हुई उस की पत्नी सुधा भी उठ रही थी.

‘‘शादी की सालगिरह बहुतबहुत मुबारक हो, डार्लिंग,’’ विवेक ने उस का आलिंगन किया.


‘‘आप को भी बहुतबहुत मुबारक हो,’’ सुधा ने उत्तर दिया.


नहाधो कर जब विवेक नाश्ता खाने बैठा तो सुधा ने उस के सामने उस के मनपंसद गरमागरम बेसन के चीले और पुदीने की चटनी रखी. विवेक बहुत खुश हुआ.


‘‘पत्नी हो तो तुम्हारे जैसी,’’ उस ने सुधा से कहा, ‘‘बोलो, आज तुम्हारे लिए क्या उपहार लाऊं? जो जी चाहे मांग लो.’’


‘‘मुझे कोई उपहार नहीं चाहिए, बस, एक अनुरोध है,’’ सुधा ने कहा.


‘‘अनुरोध क्यों, आदेश दीजिए, डार्लिंग,’’ विवेक ने उदारतापूर्ण स्वर


में कहा.


‘‘मैं सिर्फ इतना चाहती हूं कि कम से कम आज जल्दी घर आने की कोशिश कीजिएगा. आज हमारी शादी की दूसरी सालगिरह है. मैं आप के साथ कहीं बाहर, किसी अच्छे से रैस्टोरैंट में खाना खाने जाना चाहती हूं.’’


‘‘मैं पूरी कोशिश करूंगा,’’ विवेक ने उसे आश्वासन दिया, पर वह जानता था कि घर लौटने का समय उस के हाथ में नहीं था. और वह यह भी जानता था कि सुधा को भी इस बात का पूरी तरह पता था. आखिरकार, वह भी एक डाक्टर की बेटी थी और, पिछले 2 सालों से एक डाक्टर की पत्नी भी.


अस्पताल जाते हुए ट्रैफिक जाम में फंसा विवेक सोचने लगा कि डाक्टरों का जीवन भी कितना विचित्र होता है. अगर उन की जिम्मेदारी का कोई रोगी ठीक हो जाए तो वह और उस के संबंधी आमतौर से डाक्टर के एहसानमंद नहीं होते हैं.


वे सोचते हैं कि मेहनताना दे कर उन्होंने सारा कर्ज चुका दिया है. आखिरकार डाक्टर अपना काम ही तो कर रहा था. पर अगर किसी कारण से रोगी की हालत न सुधरे, उस का देहांत हो जाए, तो गलती हमेशा डाक्टर की ही होती है, चाहे कितनी ही बुरी हालत में रोगी को चिकित्सा के लिए लाया गया हो.


ऐसी स्थिति में मृतक के घर वाले और अन्य रिश्तेदार कई बार डाक्टर को दोष देते हुए मारामारी और तोड़फोड़ करना आरंभ कर देते हैं. और ऐसे हालात में कुछ लोग तो डाक्टर और अस्पताल पर रोगी की अवहेलना का मुकदमा भी ठोक देते हैं.


विवेक को उसी के अस्पताल में डेढ़ साल पहले हुए एक हादसे का खयाल आया. वह उस हादसे को भला कैसे भूल सकता था, जिस का बेहद गंभीर परिणाम निकला था.


एक अमीर घराने का नाबालिग लड़का अपनी 2 करोड़ रुपए की गाड़ी अंधाधुंध रफ्तार से चला रहा था. गाड़ी बेकाबू हो कर सड़क के बीच के डिवाइडर से टकराई. फिर पलट कर सड़क के दूसरी ओर जा गिरी.


उस तरफ एक युवक मोबाइल पर बात करते हुए अपने स्कूटर पर आ रहा था. कलाबाजी मारती हुई कार, उस के ऊपर गिरी. कार चलाने वाले लड़के की वहीं मौत हो गई. स्कूटर चालक बुरी तरह घायल था. जिस से वह बात कर रहा था, वह शायद कोई उस के घर वाला था, क्योंकि पुलिस के आने से पहले लड़के के रिश्तेदार उसे उठा कर विवेक के अस्पताल ले आए. इमरजैंसी वार्ड में विवेक उस समय ड्यूटी कर रहा था.


6-7 लोग घायल लड़के को ले कर अंदर घुस गए. कुछ विवेक को जल्दी करने को कह रहे थे, कुछ आपस में हादसे की बात कर रहे थे. विवेक ने लड़के की जांच की. वह मर चुका था. जब उस ने यह सच उस के रिश्तेदारों को बताना चाहा तो उन्होंने मानने से इनकार किया.


‘पर वह अभी तक तो जीवित था,’ एक ने बहस की, ‘वह एकदम मर कैसे सकता है, तुम उसे बचाने की कोशिश नहीं करना चाहते हो.’


बीच में एक और रिश्तेदार बोलने लगा, ‘आजकल के डाक्टर सब एकजैसे निकम्मे हैं. ये लोग भारी पगार चाहते हैं, पर पूरे कामचोर हैं.’


विवेक ने मुश्किल से अपने गुस्से को संभाला, ‘देखिए मिस्टर…’ तब तक एक नर्स उस के पास आई और बोली, ‘डाक्टर साहब, एक मरीज आया है, लगता है उसे दिल का दौरा पड़ा है. जरा जल्दी चलिए.’


विवेक उस के साथ जाने के लिए घूमा पर तभी लड़के के चाचा ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘पहले मेरे भतीजे की अच्छी तरह जांच करो, फिर तुम यहां से जा सकोगे. मुझे तो लगता है कि मेरा भतीजा अभी जिंदा है.’


एक नर्सिंग अरदली ने विवेक का हाथ छुड़ाने की कोशिश की. एक और डाक्टर और कुछ रिश्तेदार बीच में घुसे. देखते ही देखते हाथापाई शुरू हो गई. कई लोगों को चोट लगी. अस्पताल का सामान भी तोड़ा गया. सिक्योरिटी गार्ड बुलाए गए और उन्होंने सब को शांत किया. विवेक के माथे पर, जहां किसी की अंगूठी से चोट लगी थी, 5 टांके लगाए गए.


इस घटना के बाद विवेक के अस्पताल ने एक सख्त नियम बनाया. किसी भी मरीज के साथ 2 से अधिक साथवाले, अस्पताल के अंदर नहीं आ सकते, चाहे वे जो हों. इस नियम को कुछ लोगों ने कानूनी चुनौती दी थी और मामला अब भी अदालत में था.


गाडि़यों के जाम के खुलने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी. विवेक की विचारधारा वर्तमान में लौट आई.


रहा डाक्टरों का निजी जीवन, वह भी काफी अनिश्चित होता है. कुछ पता नहीं कब किस रोगी की तबीयत अचानक बिगड़ जाए, या किसी हादसे में घायल हुए व्यक्ति को डाक्टर की जरूरत पड़े. ऐसी हालत में डाक्टर होने के नाते, उन्हें सबकुछ छोड़ कर, अपना कर्तव्य निभाने जाना पड़ता है, चाहे पत्नी के साथ सिनेमा देख रहे हों, या बच्चों के साथ उन का जन्मदिन मना रहे हों. डाक्टर बनने से पहले उन को ऐसा व्यवहार करने की प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है.


 


जाम आखिर खुलने लगा और विवेक ने गाड़ी बढ़ाई. अस्पताल पहुंच कर विवेक ने डाक्टरों के लौकर में जा कर अपना सफेद कोट निकाल कर पहन लिया. फिर उस ने, हमेशा की तरह, उन 3 वार्डों के चक्कर लगाने लगा, जिन के मरीजों के रोगों के बारे में रिकौर्ड रखने के लिए वह जिम्मेदार था.


हर वार्ड में 10-12 मरीज थे. उन में हर एक की अपनी ही एक खास कहानी थी.


पहले वार्ड में उस की मरीज राधा नामक एक विधवा थी. वह पीलियाग्रस्त थी. तकरीबन 1 महीने से वह अस्पताल में पड़ी हुई थी. उस के साथ उस की 5 साल की बेटी भी भरती कराई गई थी क्योंकि घर पर उस की देखभाल करने वाला कोई नहीं था. लड़की का नाम मीनू था और वह डाक्टर विवेक की दोस्त बन गई थी.


मीनू रोज सुबह एक नर्स के साथ अस्पताल के बगीचे में घूमने जाती थी. और जब विवेक अपने राउंड पर आता, तो पहले मीनू उसे बताती थी कि उस ने बगीचे में क्या देखा, फिर उसे बाकी काम करने देती.


आज वह बहुत उत्तेजित लग रही थी, जैसे उस के पास कोई बड़ी खबर हो. विवेक को देखते ही वह बोलने लगी, ‘‘अंकल अंकल, आप कभी नहीं बता सकेंगे कि मैं ने आज क्या देखा. मैं ने तितली देखी. बड़ी सुंदर रंग वाली. वह इधरउधर उड़ रही थी जैसे कोई परी हो. मैं ने उस से बात करने की कोशिश की, पर वह चली गई. किसी दिन मैं एक तितली से दोस्ती करूंगी.’’


उस की मासूमियत देख कर विवेक ने सोचा, ‘काश, यह बच्ची जीवनभर ऐसी ही रह सकती. पर मतलबी दुनिया में यह संभव नहीं है.’


अगले वार्ड में, एक पलंग पर वृद्ध गेनू लेटा था. वह मौत के द्वार पर खड़ा था और वह यह जानता था कि वह अब केवल मशीनों के जरिए जी रहा है. उस के दोनों बेटे विदेश में बसे हुए थे. गेनू की पत्नी का देहांत कुछ साल पहले हो चुका था. 6 महीने पहले, गेनू को दिल का दौरा पड़ा.


उस का एक पड़ोसी उसे अस्पताल ले आया. जांच के बाद पता चला कि उस के दिल को भारी नुकसान पहुंचा है. उस की उम्र 70 वर्ष से ऊपर थी और वह बहुत कमजोर भी था. सो, डाक्टरों ने औपरेशन करना उचित नहीं समझा और उस के अधिक से अधिक एक साल और जीने की संभावना बताई.


उस के बेटों को जब उस की हालत का पता चला और उस के अस्पताल में भरती होने का समाचार मिला, तो वे विदेश से भागेभागे आए. उन्हें यहां आ कर यह मालूम हुआ कि पिताजी के बचने की कोई उम्मीद नहीं है और वे इस दुनिया में अब कुछ ही दिनों के मेहमान हैं.


 


दोनों ने आपस में बात की होगी कि पिताजी की मृत्यु तक वे रुकना नहीं चाहते. चूंकि अस्पताल का खर्चा बीमा कंपनी दे रही थी, उन्होंने साथ मिल कर सोचा कि पिताजी को अब पैसों की जरूरत नहीं होगी. सो, पिताजी को दोनों बेटों ने बताया कि उस के घर में काफी लंबीचौड़ी मरम्मत करवा कर उस को बिलकुल नया बनाना चाहते हैं.


काम के लिए काफी पैसे लगेंगे. इस बहाने उन्होंने कोरे कागज और कोरे चैक पर पिताजी के हस्ताक्षर ले लिए. फिर क्या कहना. चंद दिनों में उन्होंने घर भी बेच दिया और पिताजी का खाता भी खाली कर दिया. और तो और, उस के बाद पिताजी को बताए बिना वे विदेश लौट गए. उन की धांधली के बारे में पिताजी को तब पता चला, जब उस के पड़ोस में रहने वाला दोस्त उस से मिलने आया था.


अगले वार्ड में एक शराबी, मीनक पड़ा था. 2 हफ्ते पहले वह नशे की हालत में सीढि़यों से नीचे गिर कर बुरी तरह घायल हो गया था. अस्पताल में भरती होने के बाद वह रोज शाम को ऊंची आवाज में शराब मांगता था और शराब न मिलने पर काफी शोर मचाता था. पूरा स्टाफ उस से दुखी था. इसलिए सब बहुत खुश थे कि अब वह ठीक हो गया था और आज उसे अस्पताल से छुट्टी मिल रही थी.


पिछली शाम, जब यह खबर उस की पत्नी को दी गई, तो वह खुश होने के बजाय, घबरा गई. वह भागीभागी विवेक के पास गई. उस के सामने वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘डाक्टर साहब, मुझ पर दया कीजिए. मेरे पति कुछ काम नहीं करते हैं. घर को चलाने का और 2 बच्चों को पढ़ाने का पूरा खर्चा मैं संभालती हूं. मेरी अच्छी नौकरी है पर फिर भी हमें पैसों की कमी हमेशा महसूस होती है. अभी महीने की शुरुआत है. मुझे हाल में वेतन मिला है. अगर आप कल मेरे पति को डिस्चार्ज कर देंगे, तो वह घर आ कर मुझे पीटपाट कर, सारे पैसे बैंक से निकलवाएगा. फिर सब पैसा शराब में उड़ा देगा.


‘‘अभी मुझे पिछले महीने का कर्ज भी चुकाना है. इस महीने का खर्च चलाना है. बच्चों की स्कूल की फीस भी देनी है. मैं कैसे काम चलाऊंगी. मैं आप से हाथ जोड़ कर विनती करती हूं, मेरे पति को कम से कम 4-5 दिन और अस्पताल में रख लीजिए.’’


‘‘माफ करना बहनजी,’’ विवेक ने जवाब दिया, ‘‘पर आप के पति को अस्पताल में रखना या न रखना मेरे हाथ में नहीं. वैसे भी, हम किसी रोगी को ठीक होने के बाद यहां रखना नहीं चाहते हैं क्योंकि बहुत और बीमार लोग हैं जो यहां बैड के खाली होने का इंतजार कर रहे हैं.’’


रोगियों की और रिश्तेदारों की कोईर् कमी नहीं थी. कहीं बेटी मां के बारे में चिंतित थी, कहीं चाचा भतीजे के बारे में. हर रोगी की रिपोर्ट जांचना और उस की आगे की चिकित्सा का आदेश देना आवश्यक था और ऊपर से उस को आश्वासन भी देना होता था कि डाक्टर पूरी कोशिश कर रहे हैं कि वह जल्द से जल्द पूरी तरह से स्वस्थ हो जाएगा.


 


विवेक मैटरनिटी वार्ड के सामने से निकल रहा था कि वार्ड का दरवाजा अचानक खुला और वरिष्ठ डाक्टर प्रशांत बाहर आए. वे काफी चिंतित लग रहे थे पर विवेक को देख कर उन का चेहरा खिल उठा.


‘‘डाक्टर विवेक,’’ वे बोले, ‘‘अच्छा हुआ कि तुम मिल गए. हमारे वार्ड में इस समय कोईर् खाली नहीं है, और एक जरूरी संदेश वेटिंगरूम तक पहुंचाना था. कृपा कर के, क्या तुम यह काम कर दोगे?’’


‘‘कर दूंगा, सर’’ विवेक ने उत्तर दिया, ‘‘संदेश क्या है और किस को पहुंचाना है?’’


‘‘वेटिंगरूम में एक मिस्टर विनोद होंगे,’’ डाक्टर प्रशांत ने कहा, ‘‘उन को यह बताना है कि उन की पत्नी को एक प्रिमैच्योर यानी उचित समय से पहले बच्चा हुआ है और वह लड़का है. हम पूरी कोशिश कर रहे हैं पर उसे बचाना काफी कठिन लग रहा है. और उन को यह भी कहना कि इस समय वे अपनी पत्नी और बच्चे से नहीं मिल सकेंगे. पर शायद 3-4 घंटे के बाद यह संभव होगा.’’


 


वेटिंगरूम की ओर जाते हुए विवेक सोचने लगा कि यह क्यों होता है कि बुरा समाचार देने के लिए हमेशा जूनियर डाक्टर को ही जिम्मेदारी दी जाती है. डरतेडरते विवेक ने बच्चे के बाप को अपना परिचय दिया और फिर संदेश सुनाया. बाप कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘मैं जानता हूं कि आप लोग बच्चे को बचाने के लिए जीजान लगाएंगे.’’


विवेक ने वापस जा कर बच्चे की मां की फाइल निकाली और पढ़ कर उस को पता लगा कि उस औरत को इस से पहले 2 मिसकैरिज यानी गर्भपात हुए थे, और दोनों वक्त बच्चा मृतक पैदा हुआ था. यह उस औरत का तीसरा गर्भ था.


डाक्टरों ने बच्चे को बचाने की जितनी कोशिश कर सकते थे, उतनी की. बच्चा 5 दिन जीवित रहा. इस दौरान उस के बाप ने उस का नाम विजय रख दिया. चंद गिनेचुने रिश्तेदार भी उस से मिल सके. विवेक भी दिन में 2-3 बार जा कर बच्चे की हालत पता करता था.


पर 5वें दिन विजय का छोटा सा दिल हमेशाहमेशा के लिए शांत हो गया. विवेक भी उन डाक्टरों में था जिन्होंने अस्पताल के दरवाजे के पास खामोश खड़ेखड़े उस के पिता को विजय का नन्हा मृतक शरीर अपनी छाती से लगा कर बाहर जाते देखा.


कुछ दिनों बाद डाक्टर विवेक के नाम अस्पताल में एक पत्र आया. उस ने लिफाफा खोला और पढ़ा, ‘डाक्टर विवेक, मैं यह पत्र आप को भेज रहा हूं, क्योंकि मुझे सिर्फ आप का नाम याद था, पर यह उन सब डाक्टरों के लिए है जिन्होंने मेरे बेटे विजय की देखभाल की थी.


‘आप लोगों ने उस को इतनी देर जीवित रखा ताकि हम उस को नाम दे सकें, उस को हम अपना प्यार दे सकें, उस के दादादादी और नानानानी उस से मिल सकें. दवाइयों ने उसे जिंदा नहीं रखा, बल्कि आप लोगों के प्यार ने उसे चंद दिनों की सांसें दीं. धन्यवाद डाक्टर साहब. मैं आप सब का एहसानमंद हूं.’ नीचे हस्ताक्षर की जगह लिखा था, ‘विजय का पिता.’


विवेक की आंखें भर आईं और उस के गाल गीले हो गए. पर उस ने अपने आंसुओं को रोकने की कोई कोशिश नहीं की.

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