कहानी: प्रैस वाला
जवानी दीवानी होती है ससुरी… पढ़लिख गया है इसलिए मानेगा नहीं. और मैं भी तो तुझे यहां रखने का नहीं. चला जा बचवा अपनी मेम को ले कर. और मैं भी तो तुझे यहां रखने का नहीं. चला जा बचवा अपनी मेम को ले कर… मैं भी एक कानी कौड़ी नहीं देने का तुझे… घर का काम नहीं करेगा, नौकरी करेगा… हूं…’’
धर्मवीर बुत की तरह खड़ा रहा, बोला कुछ नहीं. सोचता रहा कि क्या घर छोड़ देना चाहिए? लेकिन घर छोड़ कर रहेगा कहां? अभी तो नौकरी लगी ही है. बापू को क्या हर्ज है, यदि मैं यहीं रहूं? कुछ काम नहीं करूंगा तो कुछ लूंगा भी नहीं इन से. क्या यह जरूरी है कि यहां रह कर मुझे कपड़े धोने ही पड़ें?
वह हिम्मत कर के बोला, ‘‘मैं तुम से कुछ मांगूंगा नहीं बापू, जो किराया बाहर खर्च करूंगा, वही तुम्हें दे दिया करूंगा.’’
‘‘तू तो मुझे हजारों दे दिया करेगा, लेकिन मुझे कुछ नहीं चाहिए. मुझे मेरा बेटा चाहिए, जो मेरा काम संभाल सके. मैं ने तुझे इसलिए नहीं पढ़ाया कि पढ़लिख कर कहीं बाबूगीरी करेगा. मैं ने इसलिए पढ़ाया था कि तू अपने ही धंधे को ज्यादा अक्ल से कर सकेगा. अब पढ़लिख कर तुझे अपने ही काम से नफरत होने लगी है, तो निकल जा मेरे घर से.’’
धर्मवीर समझ गया कि अब उस की एक नहीं चलेगी. बापू पूरी तरह जिद पर अड़ गए हैं. उन की जिद से हर कोई परेशान है. अम्मां तो हर वक्त यही कहती रहती हैं कि इन में यह ‘जिद’ की ऐब नहीं होती, तो आज घर का हुलिया ही कुछ और होता.
यहां यह हाल है कि एक बार कोई कपड़े धुलवाने आता है, तो वह दोबारा नहीं आता. किसी को भी समय पर कपड़े नहीं मिलते, कभीकभी कपड़ों पर दाग भी लग जाते हैं. ऊपर से बापू का दिमाग हमेशा गरम ही रहता है. वह तो इस्तिरी करने से जिंदगी बचा दी, वरना कभी के सड़क पर होते. आजकल लोग वाशिंग मशीन में धोए कपड़े इस्तिरी करने देने लगे हैं. उस धंधे में ज्यादा कमाई है. पर छोगा सोचने लगा, अब इस धंधे में रखा ही क्या है. और फिर बापू के पास भी कौन लाखों की पूंजी है. लेदे कर यह मकान और 5,000 रुपए के अम्मां के जेवर ही तो हैं. सब छोटे को दे देंगे तो मैं कौन सा डूब जाऊंगा. फिर अभी तो मनीषा की शादी भी करनी है. कितनी बड़ी हो गई है. बड़ीबड़ी आंखों से ग्राहकों को देखती है. दिनभर कालोनियों के नौकर कपड़े लिए आते रहते हैं और खड़ेखड़े इस्तिरी करवा कर ले जाते हैं.
जब तक मनीषा इस्तिरी करती रहती है, तब तक नौकर लोग गपबाजी में लगे रहते हैं. कितनी बार बापू को मना किया है कि मनीषा को इस्तिरी पर मत लगाया करो. लेकिन मुझे बेवकूफ समझ कर अनसुनी कर देते हैं. उन्हें भी जैसे यह सब अच्छा लगता है. इसी बहाने दो पैसे की कमाई अधिक होती है. लेकिन अब मेरी जगह मेरी बीवी मिनी इस्तिरी करे और ग्राहक उसे घूरघूर कर देखते रहें, यही यह चाहते हैं न. लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगा. मुझे यह घर छोड़ ही देना चाहिए.
उसी दिन धर्मवीर एक कमरा तय कर आया. शाम को अपनी जरूरत का सामान बांध कर मिनी के साथ जाने लगा, तो अम्मां बापू से बोली, ‘‘वह जा रहा है. तुम्हारी तो अक्ल पर पत्थर पड़े हैं. जवान, पढ़ालिखा लड़का आज बाबू बना है तो तुम्हारी आंखों में चुभ रहा है. लोगों के गंदे कपड़े घाट पर… करता तो तुम्हारी छाती फूलती. तुम्हारी इसी जिद ने सारा घर चौपट कर दिया.’’
लेकिन बापू कुछ नहीं बोले. बेटे की तरफ देखते रहे, जैसे कह रहे हों, ‘‘मेरा कहा नहीं मानेगा न…? तो जा, मुझे ही यहां तेरी कौन जरूरत पड़ी है.”
धर्मवीर और मिनी घर से बाहर निकले तो मनीषा और छोटा भाई भी रो पड़े. धर्मवीर ने पीछे मुड़ कर देखा, मां उन्हें पुचकारते हुए घर में ले गई. बापू जेब से बीड़ी निकाल कर जलाने से पहले तीखी आंखों से उसे जाता हुआ देखते रहे.
नए घर में आ कर मिनी बहुत खुश हुई. वह धर्मवीर पर सात जान से न्योछावर हो रही थी. अपनेआप पर इतरा रही थी कि उसे ऐसा लायक घरवाला मिला. वह धर्मवीर के साथ घूमनेफिरने जाती. कभीकभी उस के साथ दूसरे बाबुओं के घर जाती. दूसरे बाबू भी अपनी औरतों को ले कर उन के घर आते.
मिनी भूल गई कि वह भी धोबिन की बेटी है. कभी वह भी सवेरेसवेरे स्कूटी पर कपड़े लाद कर बस्ती में बने घाट पर जाया करती थी. कभी वह भी घरों में कपड़े मांगने और देने जाया करती थी. ये सब बातें अब एक याद बन कर रह गई थीं. उसे लगता कि अब उस का पति बिलकुल बदल गया है. कौन कह सकता है कि वह धोबी के घर से है.
धर्मवीर ने बाबू की नौकरी तो कर ली, पर जल्दी ही उसे एहसास हो गया कि इस नौकरी में थोड़ी शान है, पर पैसा नहीं है. ऊपर से जो लोग उस से दोस्ती करते भी हैं, जाति जानते ही कन्नी काट लेते.
उसे लगने लगा कि इस से अच्छा तो वह घर पर ही रह कर कमा सकता है, पर अब क्या करे. अब तो मिनी ने भी एक गारमैंट फैक्टरी में काम करना शुरू कर दिया है. दिया तो उसे क्लर्क का काम था, पर जल्दी ही उस की फोल्डिंग कला को पहचानते हुए मैनेजर ने उसे प्रैसिंग यूनिट का सुपरवाइजर बना दिया. वह 20-25 लड़कियों का काम देखता और खुद भी प्रैस करने या फोल्ड करने में उसे हिचक नहीं होती. उस को भरपूर ओवरटाइम का पैसा मिलने लगा था.
मिनी बचपन से ही लड़कों को पटाना जानती थी. उस ने मैनेजर ही नहीं, बल्कि मालिक के बेटे को भी पटा लिया. अब वह कईकई रात घर नहीं आती. घर में पैसा आ गया था. फ्रिज था, कूलर था, टीवी था, सैकंड हैंड सोफा भी था. पर धर्मवीर को यह सब नहीं सुहाता. वह अब न अपने बापू का रह गया था, न मिनी का. मिनी उस को कुछ न कहती.
जब धर्मवीर रात को हाथ बढ़ाता तो वह बढ़चढ़ कर सैक्स का आनंद लेती, पर धर्मवीर को लगता रहता कि वह न जाने किनकिन के साथ सोती होगी. उस के पास वह गर्भनिरोधक पिल्स देख चुका था, पर पूछने की हिम्मत नहीं थी, क्योंकि मिनी ज्यादा कमा रही थी.
अब धर्मवीर के दिमाग में कुछ और कीड़ा कुलबुलाने लगा था. एक दिन वह अपने पुराने घर गया. बापू कुछ ही दिनों में बहुत अधिक कमजोर हो गए थे. वह अम्मां से मिल कर घर का सारा हाल जान लेने को बेचैन हो उठा.
धर्मवीर को देखते ही अम्मां का रोमरोम खिल उठा. पास आते ही उस का मुंह चूम लिया, ‘‘बड़े दिनों के बाद याद आई है.’’
‘‘याद तो रोज ही आती है अम्मां, लेकिन बापू से डर लगता है.’’
मनीषा को इस्तिरी पर न देख कर वह पूछ बैठा, ‘‘मनीषा कहां है अम्मां?’’
‘‘वह भी अभीअभी घाट पर गई है, मसाले का थैला ले कर. अब उस का इस्तिरी पर रहना ठीक नहीं. परसों कालोनी के प्रेजीडैंट का नौकर शराब पी कर कितनी ही देर यहां खड़ा रहा और मनीषा से जाने कैसीकैसी बातें करता रहा.
मनीषा ने बापू से कहा, तो वे आगबबूला हो उठे. नौकर को ऐसा फटकारा कि सारा महल्ला जमा हो गया. अब उन्होंने मनीषा से कह दिया है कि वह घाट पर चली जाया करे, उन के साथ. अब तो इन गरमियों में उस के हाथ पीले करने ही पड़ेंगे.’’
‘‘फिर इस्तिरी तुम करती होगी, अम्मां.’’
‘‘और नहीं तो क्या, तेरी बीवी करती है.’’
धर्मवीर को लगा कि मजाक में अम्मां के मुंह से फिर एक तीखा ताना निकल गया है. वह धीरे से बोला, ‘‘पढ़नेलिखने से मन ऐसा हो जाएगा, यह मुझे मालूम नहीं था, वरना मैं पढ़ता ही नहीं.’’
‘‘पढ़नेलिखने से मन थोड़े ही बदलता है बेटा, मन तो घमंड से बदलता है बेटा. और पढ़नेलिखने से घमंड आ ही जाता है. फिर हम छोटी जात हैं न. इसलिए हमें जरा ज्यादा ही घमंड आ जाता है.’’
धर्मवीर ने कहा कि कल से वह इस्तिरी करने आएगा.
‘‘नहीं बेटा, जल्दबाजी ठीक नहीं होती. फिर अब तुझ से यह सब होगा नहीं, तू अपनी जिंदगी सुधार. हमारा तो जमाना निकल ही गया है.’’
‘‘अम्मां मेरी… मैं जिंदगी ही सुधारने आना चाहता हूं. जिंदगी बाबूगिरी में नहीं है, हाथ के काम में है.’’
मां की गोद में सिर छिपा कर छोगा फूटफूट कर रोने लगा. अम्मां ने उसे छाती से लगा लिया, माथा चूम लिया. फिर आंचल से आंसू पोंछ दिए.
खाना खा कर वह वापस चला गया.
अगले दिन वह एक नई आटोमैटिक प्रैस लाया. भारी पर 6 तरह के कपड़े के लायक बनी प्रैस से कपड़े जल्दी प्रैस होने लगे थे. महीनेभर में उन के पास 3 ऐसी प्रैसें हो गई थीं और मनीषा और मां मिल कर करतीं.
धर्मवीर ने मिनी को इन प्रैसों को ठीक करने की जगह भी बतार्ई थी और धर्मवीर खुद अब अपनी खराब प्रैसें भी ठीक करता और ऐक्सपोर्ट हाउसों की भी. रात को वह मिनी की बांहों में होता, पर अब मिनी की बांहों का खिंचाव बढ़ गया था. अब उस का पति निकम्मा बाबू नहीं था, वह मेहनतकश छोटा कारीगर था. घर जो बनाया था, अब पक्का होने लगा.
उस दिन मिनी ने कहा कि वह भी बापू के घर चलेगी. ‘‘ऐक्सपोर्ट हाउस में न जाने कौनकौन से मुंह लगने लगते हैं और फिर चबा कर पान मसालों की तरह पिर्च कर के निकाल देते हैं.’’ मिनी को बाइक पर बैठते हुए न जाने किसे कहां पर उसे इस का मतलब मालूम था.