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कहानी: खोखली रस्में

ओह…यह एक साल, लमहेलमहे की कसक ताजा हो उठती है. आसपड़ोस, घरखानदान कोई तो ऐसा नहीं रहा जिस ने मुझे बुराभला न कहा हो. मैं ने आधुनिकता के आवेश में अपनी बेटी का जीवन खतरे के गर्त में धकेल दिया था. रुपए का मुंह देख कर मैं ने अपनी बेटी की जिंदगी से खिलवाड़ किया था और गौने की परंपरा को तोड़ कर खानदान की मर्यादा तोड़ डाली थी. इस अपराधिनी की सब आलोचना कर रहे थे. परंतु अंधविश्वास की अंधेरी खाइयों को पाट कर आज मेरी बेटी जिंदा लौट रही है. अपराधिनी को सजा के बदले पुरस्कार मिला है- अपने नवासे के रूप में. खोखली रस्मों का अस्तित्व नगण्य बन कर रह गया.

कशमकश के वे क्षण मुझे अच्छी तरह याद हैं जब मैं ने प्रताड़नाओं के बावजूद खोखली रस्मों के दायरे को खंडित किया था. मैं रसोई में थी. ये पंडितजी का संदेश लाए थे. सुनते ही मेरे अंदर का क्रोध चेहरे पर छलक पड़ा था. दाल को बघार लगाते हुए तनिक घूम कर मैं बोली थी, ‘देखो जी, गौने आदि का झमेला मैं नहीं होने दूंगी. जोजो करना हो, शादी के समय ही कर डालिए. लड़की की विदाई शादी के समय ही होगी.’


‘अजीब बेवकूफी है,’ ये तमतमा उठे, ‘जो परंपरा वर्षों से चली आ रही है, तुम उसे क्यों नहीं मानोगी? हमारे यहां शादी में विदाई करना फलता नहीं है.’


‘सब फलेगा. कर के तो देखिए,’ मैं ने पतीली का पानी गैस पर रख दिया था और जल्दीजल्दी चावल निकाल रही थी. जरूर फलेगा, क्योंकि तुम्हारा कहा झूठ हो ही नहीं सकता.’


‘जी हां, इसीलिए,’ व्यंग्य का जवाब व्यंग्यात्मक लहजे में ही मैं ने दिया.


‘क्योंकि अब हमारी ऐसी औकात नहीं है कि गौने के पचअड़े में पड़ कर 80-90 हजार रुपए का खून करें. सीधे से ब्याह कीजिए और जो लेनादेना हो, एक ही बार लेदे कर छुट्टी कीजिए.’ मैं ने अपनी नजरें थाली पर टिका दीं और उंगलियां तेजी से चावल साफ करने लगीं, कुछ ऐसे ही जैसे मैं परंपरा के नाम पर कुरीतियों को साफ कर हटाने पर तुली हुई थी. एक ही विषय को ले कर सालभर तक हम दोनों में द्वंद्व युद्ध छिड़ा रहा. ये परंपरा और मर्यादा के नाम पर झूठी वाहवाही लूटना चाहते थे. विवाह के सालभर बाद गौने की रस्म होती है, और यह रस्म किसी बरात पर होने वाले खर्च से कम में अदा नहीं हो सकती. मैं इस थोथी रस्म को जड़ से काट डालने को दृढ़संकल्प थी. क्षणिक स्थिरता के बाद ये बेचारगी से बोले, ‘विमला की मां, तुम समझती क्यों नहीं हो?’


‘क्या समझूं मैं?’ बात काटते हुए मैं बिफर उठी, ‘कहां से लाओगे इतने पैसे? 1 लाख रुपए लोन ले लिए, कुछ पैसे जोड़जोड़ कर रखे थे, वे भी निकाल लिए, और अब गौने के लिए 80-90 हजार रुपए का लटका अलग से रहेगा.’


‘तो क्या करूं? इज्जत तो रखनी ही पड़ेगी. नहीं होगा तो एक बीघा खेत ही बेच डालूंगा.’


‘क्या कहा? खेत बेच डालोगे?’ लगा किसी ने मेरे सिर पर हथौड़े का प्रहार किया हो. क्षणभर को मैं इज्जत के ऐसे रखरखाव पर सिर धुनती रह गई. तीखे स्वर में बोली, ‘उस के बाद? सुधा और अंजना के ब्याह पर क्या करोगे? तुम्हारा और तुम्हारे लाड़लों के भविष्य का क्या होगा? तुम्हारे पिताजी तो तुम्हारे लिए 4 बीघा खेत छोड़ गए हैं जो तुम रस्मों के ढकोसले में हवन कर लोगे, लेकिन तुम्हारे बेटे किस का खेत बेच कर अपनी मर्यादा की रक्षा करेंगे?’ सत्य का नंगापन शायद इन्हें दूर तक झकझोर गया था. बुत बने ये ताकते रह गए. फिर तिक्त हंसी हंस पड़े, ‘तुम तो ऐसे कह रही हो, विमला की मां, मानो 4 ही बच्चे तुम्हारे अपने हों और विमला तुम्हारी सौत की बेटी हो.’


‘हांहां, क्यों नहीं, मैं सौतेली मां ही सही, लेकिन मैं गौना नहीं होने दूंगी. शादी करो तब पूरे खानदान  को न्योता दो, गौना करो तब फिर पूरे खानदान को बुलाओ. कपड़ा दो,  गहना दो, यह नेग करो वह जोग करो. सिर में जितने बाल नहीं हैं उन से ज्यादा कर्ज लादे रहो, लेकिन शान में कमी न होने पाए.’ इन के होंठों पर विवश मुसकान फैल गई. जब कभी मैं ज्यादा गुस्से में रहती हूं, इसी तरह मुसकरा देते हैं, मानो कुछ हुआ ही न हो. इन के होंठों की फड़कन कुछ कहने को बेताब थी, परंतु कह नहीं सके. उठ खड़े हुए और आंगन पार करते हुए कमरे की ओर चले गए. जब से विमला की शादी तय हुई, शादी संपन्न होने तक यही सिलसिला जारी रहा. ये कंजूसी से ब्याह कर के समाज में अपनी तौहीन करवाने को तैयार नहीं थे, और मैं रस्मों के खोखलेपन की खातिर चादर से पैर निकालने को तैयार नहीं थी. ‘गौने की रस्म अलग से करनी ही होगी. सदियों से यह हमारी परंपरा रही है,’ मैं इस थोथेपन में विश्वास करने को तैयार न थी.


छोटी ननद के ब्याह पर ही मैं ने यह निर्णय कर के गांठ बांधी थी. याद आता है तो दिल कट कर रह जाता है. ब्याह पर जो खर्च हुआ वह तो हुआ ही, सालभर घर बिठा कर उस का गौना किया गया तो 80 हजार रुपए उस में फूंक दिए गए. गौना करवाने आए वर पक्ष के लोगों की तथा खानदान वालों की आवभगत करतेकरते पैरों में छाले पड़ गए, तिस पर भी ‘मुरगी अपनी जान से गई, खाने वालों को मजा न आया’ वाली बात हुई. चारों ओर से बदनामी मिली कि यह नहीं दिया, वह नहीं दिया. ‘अरे, इस से अच्छी साड़ी तो मैं अपनी महरी को देती हूं… कंजूस, मक्खीचूस’ तथा इसी से मिलतीजुलती असंख्य उपाधियां मिली थीं.


मुझे विश्वास था कि मैं वर्तमान स्थिति और परिवेश में गौना करने में आने वाली कठिनाइयां बता कर इन्हें मना लूंगी. जल्दी ही मुझे इस में सफलता भी मिल गई. मेरी सलाह इन के निर्णय में परिवर्तित हो गई, किंतु ‘ये नहीं फलता है’ की आशंका से ये उबर नहीं पाए. विवाह संबंधी खरीदफरोख्त की कार्यवाहियां लगभग पूरी हो चुकी थीं. रिश्तेदारों और बरातियों का इंतजार ही शेष था. रिश्तेदारों में सब से पहले आईं इन की रोबदार और दबंग व्यक्तित्व वाली विधवा मौसी रमा, खानदानभर की सर्वेसर्वा और पूरे गांव की मौसी. दोपहर का समय था. विवाह हेतु खरीदे गए गहने, कपड़े एकएक कर मैं मौसीजी को दिखा रही थी. बातों ही बातों में मैं ने अपना फैसला कह सुनाया. सुनते ही मौसीजी ज्वालामुखी की तरह फट पड़ीं. क्रोध से भरी वे बोलीं, ‘क्यों नहीं करोगी तुम गौना?’


‘दरअसल, मौसीजी, हमारी इतनी औकात नहीं कि हम अलग से गौने का खर्च बरदाश्त कर सकें,’ मैं ने गहनों का बौक्स बंद कर अलमारी में रख दिया और कपड़े समेटने लगी.


‘अरे वाह, क्यों नहीं है औकात?’ मौसीजी के आग्नेय नेत्र मेरे तन को सेंकने लगे, ‘क्या तुम जानतीं नहीं कि शादी के समय विदाई करना हमारे खानदान में अच्छा नहीं समझा जाता?’


‘लेकिन इस से होता क्या है?’


‘होगा क्या…वर या वधू दोनों में से किसी एक की मृत्यु हो जाएगी. सालभर के अंदर ही जोड़ा बिछुड़ जाता है.’ मैं तनिक भी नहीं चौंकी. पालतू कुत्ते की तरह पाले गए अंधविश्वासों के प्रति खानदान वालों के इस मोह से मैं पूर्वपरिचित थी.


अलमारी बंद कर पायताने की ओर बैठती हुई मैं ने जिज्ञासा से फिर पूछा, ‘लेकिन मौसीजी, हमारे खानदान में शादी के समय विदाई करना अच्छा क्यों नहीं समझा जाता, इस का भी तो कोई कारण अवश्य होगा?’


‘हां, कारण भी है, तुम्हारे ससुर के चचेरे चाचा की सौतेली बहन हुआ करती थीं. विवाह के समय ही उन का गौना कर दिया गया था. बेचारी दोबारा मायके का मुंह नहीं देख पाईं. साल की कौन कहे, महीनेभर में ही मृत्यु हो गई.’’


अब क्या कहूं, सास का खयाल न होता तो ठठा कर हंस पड़ती. तर्कशास्त्र की अवैज्ञानिक परिभाषा याद हो आई. किसी घटना की पूर्ववर्ती घटना को उस कार्य का कारण कहते हैं. आज वैज्ञानिक धरातल पर भी यह परिभाषा किसी न किसी रूप में जिंदा है. परंतु मुंहजोरी से कौन छेड़े मधुमक्खियों के छत्ते को. मैं सहज स्वर में बोली, ‘लेकिन मौसीजी, उन से पहले जो विवाह के समय ही ससुराल जाती थीं क्या उन की भी मृत्यु हो जाया करती थी?’


‘अरे, नहीं,’ अपने दाहिने हाथ को हवा में लहराती हुई मौसीजी बोलीं, ‘उन के तो नातीपोते भी अब नानादादा बने हुए हैं.’ प्रसन्नता का उद्वेग मुझ से संभल न सका, ‘फिर तो कोई बात ही नहीं है, सब ठीक हो जाएगा.’


‘कैसे नहीं है कोई बात?’ मौसीजी गुर्राईं, ‘गांवभर में हमारे खानदान का नाम इसीलिए लिया जाता है…दूरदूर के लोग जानते हैं कि हमारे यहां शादी से भी बढ़चढ़ कर गौना होता है. देखने वाले दीदा फाड़े रह जाते हैं. तेरी फूफी सास के गौने में परिवार की हर लड़की को 2-2 तोले की सोने की जंजीर दी गई थी और ससुराल वाली लड़कियों को जरी की साड़ी पहना कर भेजा गया था.’ तब की बात कुछ और थी, मौसीजी. तब हमारी जमींदारी थी. आज तो 2 रोटियों के पीछे खूनपसीना एक हो जाता है. महीनेभर नौकरी से बैठ जाओ तो खाने के लाले पड़ जाएं. फिर गौना का खर्च हम कहां से जुटा पाएंगे?’


इसे अपना अपमान समझ कर मौसीजी तमतमा कर उठ खड़ी हुईं, ‘ठीक है, कर अपनी बेटी का ब्याह, न हो तो किसी ऐरेगैरे का हाथ पकड़ा कर विदा कर दे, सारा खर्च बच जाएगा. आने दे सुधीर को, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकती. जहां बहूबेटियों का कानून चले वहां ठहरना दूभर है.’ मौसीजी के नेत्रों से अंगार बरस रहे थे. वे बड़बड़ाती हुईं अपने कमरे की ओर बढ़ीं तो मैं एकबारगी सकते में आ गई. मैं लपक कर उन के कमरे में पहुंची. वे अपनी साड़ी तह कर रही थीं. साड़ी उन के हाथ से खींच कर याचनाभरे स्वर में मैं बोली, ‘मौसीजी, आप तो यों ही राई का पर्वत बनाने लगीं. मेरी क्या बिसात कि मैं कानून चलाऊं?’


‘अरे, तेरी क्या बिसात नहीं है? न सास है, न ननद है, खूब मौज कर, मैं कौन होती हूं रोकने वाली?’ उन की आवाज में दुनियाजहान की विवशता सिमट आई. उन की आंखों में आंसू आ गए थे. लगा किसी ने मेरा सारा खून निचोड़ लिया हो. मैं विनम्र स्वर में बोली, ‘मौसीजी, आज तक कभी हम लोगों ने आप की बात नहीं टाली है. मैं हमेशा आप को अपनी सास समझ कर आप से सलाहमशविरा करती आई हूं. फिर भी आप…’


परंतु मौसीजी का गुस्सा शांत नहीं हुआ. मैं उन का हाथ पकड़ कर उन्हें आंगन में ले आई और उन्हें आश्वस्त करने का प्रयत्न करने लगी. ये शाम को आए. मौसीजी बैठी हुई थीं. दोपहर का सारा किस्सा मैं ने सुना डाला. मौसीजी का क्रोध सर्वविदित था. ये हारे हुए जुआरी के स्वर में बोले, ‘तब?’


‘तब क्या?’ मैं बोली, ‘50 हजार रुपए मौसीजी से बतौर कर्ज ले लीजिए. 60-70 हजार रुपए चाचाजी से ले लेना. मिलाजुला कर किसी तरह कर दो गौना. मैं और क्या कहूं अब?’


‘बेटी मेरी है, उन्हें क्या पड़ी है?’


‘क्यों नहीं पड़ी है?’ मेरा रोष उमड़ आया, ‘जब बेटी के ब्याह की हर रस्म उन लोगों की इच्छानुसार होगी तो खर्च में भी सहयोग करना उन का फर्ज बनता है.’ संभवतया मेरे व्यंग्य को इन्होंने ताड़ लिया था. बिना उत्तर दिए तौलिया उठा कर बाथरूम में घुस गए. रात में भोजन करने के बाद ये और मौसीजी बैठक में चले गए. बच्चे अपने कमरे में जा चुके थे. पप्पू को सुलाने के बहाने मैं भी अपने कमरे में आ कर पड़ी रही. दिमाग की नसों में भीषण तनाव था. सहसा मैं चौंक पड़ी. मौसीजी का स्वर वातावरण में गूंजा, ‘अरे सुधीर, तेरी बहू कह रही थी कि गौना नहीं होगा. अब बता भला, जब विवाह में विदाई करना हमारे यहां फलता ही नहीं है तब भला गौना कैसे नहीं होगा?’


‘अब तुम से क्या छिपाना, मौसी?’ यह स्वर इन का था, ‘मैं सरकारी नौकर जरूर हूं, लेकिन खर्च इतना ज्यादा है कि पहले ही शादी में 1 लाख रुपए का कर्ज लेना पड़ गया. 2 और बेटियां ब्याहनी हैं सो अलग. 20-30 हजार रुपए से गौने में काम चलना नहीं है, और इतने पैसों का बंदोबस्त मैं कर नहीं पा रहा हूं.’ मौसीजी के मीठे स्वर में कड़वाहट घुल गई, ‘अरे, तो क्या बेटी को दफनाने पर ही तुले हो तुम दोनों? इस से तो अच्छा है उस का गला ही घोंट डालो. शादी का भी खर्च बच जाएगा.’


‘अरे नहीं, मौसीजी, तुम समझीं नहीं. गौना तो मैं करूंगा ही. देखो न, विवाह से पहले ही मैं ने गौने का मुहूर्त निकलवा लिया है. अगले साल बैसाख में दिन पड़ता है.’


‘सच?’ मौसीजी चहक पड़ीं.


‘और नहीं तो क्या? 50 हजार रुपए तुम दे दो, 60-70 हजार रुपए चाचाजी से ले लूंगा. कुछ यारदोस्तों से मिल जाएगा, ठाठ से गौना हो जाएगा.’


‘क्या, 50 हजार रुपए मैं दे दूं?’ मौसीजी इस तरह उछलीं मानो चलतेचलते पैरों के नीचे सांप आ गया हो.


‘अरे, मौसी, खैरात थोड़े ही मांग रहा हूं. पाईपाई चुका दूंगा.’


‘वह तो ठीक है, लेकिन इतने रुपए मैं लाऊंगी कहां से? मेरे पास रुपए धरे हैं क्या?’ मेरी आंखें उल्लास से चमकने लगीं. भला मौसी को क्या पता था कि परंपरा की दुहाई उन की भी परेशानी का कारण बनेगी? मैं दम साधे सुन रही थी. इन का स्वर था, ‘अरे, मौसी, दाई से कहीं पेट छिपा है? तुम हाथ झाड़ दो तो जमीन पर नोटों की बौछार हो जाए. हर कमरे में चांदी के रुपए गाड़ रखे हैं तुम ने, मुझे सब मालूम है.’ ‘अरे बेटा, मौत के कगार पर खड़ी हो कर मैं झूठ बोलूंगी? लोग पराई लड़कियों का विवाह करवाते हैं, और मैं अपनी ही पोती के ब्याह पर कंजूसी करूंगी? लौटाने की क्या बात है, जैसे मेरा श्याम है वैसे तू भी मेरा बेटा है.’ मेरी हंसी फूट पड़ी. लच्छेदार शब्दों के आवरण में मन की बात छिपाना कोई मौसीजी से सीखे. भला उन की कंजूसी से कौन नावाकिफ था.


क्षणिक निस्तब्धता के बाद इन की थकी सी आवाज फिर उभरी, ‘तब तो मौसी, अब इस परंपरा का गला घोंटना ही होगा. न मैं इतने रुपए का जुगाड़ कर पाऊंगा और न ही गौने का झंझट रखूंगा. बोलो, तुम्हारी क्या राय है?’ ‘जो तुम अच्छा समझो,’ जाने किस आघात से मौसीजी की आवाज को लकवा मार गया और वह गोष्ठी समाप्त हो गई. दूसरे दिन चाचाजी का भी सदलबल पदार्पण हुआ. परंपरा और रस्मों के खंडन की बात उन तक पहुंची तो वे भी आगबबूला हो उठे, ‘सुधीर, यह क्या सुन रहा हूं? मैं भी शहर में रहता हूं. मेरी सोसाइटी तुम से भी ऊंची है. लेकिन हम ने कभी अपने पूर्वजों की भावना को ठेस नहीं पहुंचाई. तुम लोग लड़की की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हो.’


‘चाचाजी, आप गलत समझ रहे हैं,’ ये बोले थे, ‘गौने के लिए तो मैं खूब परेशान हूं. लेकिन करूं क्या? आप लोगों की मदद से ही कुछ हो सकता है.’


चाचाजी के चेहरे पर प्रश्नचिह्न लटक गया. उन की परेशानी पर मन ही मन आनंदित होते हुए ये बोले, ‘मैं चाहता था, यदि आप 80 हजार रुपए भी बतौर कर्ज दे देते तो शेष इंतजाम मैं खुद कर लेता और किसी तरह गौना कर ही देता. आप ही के भरोसे मैं बैठा था. मैं जानता हूं कि आप पूर्वजों की मर्यादा को खंडित नहीं होने देंगे.’ चाचाजी का तेजस्वी चेहरा सफेद पड़ गया. उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. थूक निगलते हुए बोले, ‘तुम तो जानते ही हो कि मैं रिटायर हो चुका हूं.


फंड का जो रुपया मिला था उस से मकान बनवा लिया. मेरे पास अब कहां से रुपए आएंगे?’ सुनते ही ये अपना संतुलन खो बैठे. क्रोधावेश में इन की मुट्ठियां भिंच गईं. परंतु तत्काल अपने को संभालते हुए सहज स्वर में बोले, ‘चाचाजी, जब आप लोग एक कौड़ी की सहायता नहीं कर सकते, फिर सामाजिक मर्यादा और परंपरा के निर्वाह के लिए हमें परेशान क्यों करते हैं? यह कहां का न्याय है कि इन खोखली रस्मों के पीछे घर जला कर तमाशा दिखाया जाए? मुझ में गौना करने की सामर्थ्य ही नहीं है.’ इतना कह कर ये चुप हो गए. चाचाजी निरुत्तर खड़े रहे. उन के होंठों पर मानो ताला पड़ गया था. थोड़ी देर पहले तक जो विमला के परम शुभचिंतक बने हुए थे, अब अपनीअपनी बगले झांक रहे थे. अब कोई व्यक्ति मेरी बेटी के प्रति सहानुभूति प्रकट करने वाला नहीं था. आज विमला भरीगोद लिए सहीसलामत अपने मायके लौट रही है. अंधविश्वास और खोखली रस्मों की निरर्थकता पाखंडप्रेमियों को मुंह चिढ़ा रही है. शायद वे भी कुछ ऐसा ही निर्णय लेने वाले हैं.

 
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