कहानी: सपनों की बगिया
एकएक कर के सभी चले गए.मेहमानों के शोरगुल से भरा घर सूना सा लगने लगा. दिनेश के पिता औफिस जाने लगे. रतना और महेश कालेज जाने के लिए किताबें समेटे सुबह घर से निकलने लगे. दिनेश की भी छुट्टियां समाप्त हो गईं. वह भी उठते ही झटपट नहाधो कर व खाना खा कर औफिस रवाना होने लगा. सुजाता ने भी औफिस फिर जौइन कर लिया पर सारे दिन उसे दिनेश की याद आती रही. जब घड़ी देखती तो उसे लगता, उस की घड़ी चलना भूल गई है. दिन था कि किसी तरह काटे नहीं कटता था. सारा ध्यान शाम के 7 बजने पर अटका रहता, जब उस का दिनेश से मिलना हो.
सुजाता और दिनेश का प्रेमविवाह था. सुजाता के पिता साधारण परिवार के थे पर ऊंची जाति थी. वे श्रेष्ठ ब्राह्मणों में से गिने जाते थे. दिनेश के परिवार के लोग कुर्मी थे पर दिनेश के पिता ने पढ़लिख कर एक निजी दफ्तर में नौकरी कर ली थी और सुजाता और दिनेश दोनों एक अस्पताल में पैरामैडिकल जौब करने लगे थे, जिस में ठीकठाक वेतन था. दोनों की शिफ्टें अलगअलग थीं.
पर धीरेधीरे उसे लगने लगा, जैसे उस के जीवन माधुर्य में कुछ कमी होने लगी है. शादी से पहले दोनों अपनी नौकरियों के बाद घंटों साथ रहते थे. अब अकेले में मिलने का सवाल ही नहीं था. रातें अलार्म घड़ी की कटु ध्वनि से टकरा कर बिखरने लगी हैं. दोनों अस्पतालों से लौट कर दोचार मिनट ही साथ व्यतीत कर पाते कि शीघ्र ही दिनेश के मित्रों की एक टोली उसे घेर लेती और उस की शामें मित्रों के हिस्से चली जाती हैं. ऐसा 10 वर्षों से हो रहा था और शादी के बाद अचानक दोस्ताना छोड़ना दिनेश के लिए मुश्किल हो चला था. प्रतीक्षा करती सुजाता का मन व्याकुलता से भर उठता कि पहले वे दोनों घंटों साथ रहते, अब बस बिस्तर पर थके से साथ होते.
वह मित्रों के साथ इतना समय बिताने पर दिनेश से रुष्ट भी होती परंतु उस के मित्र थे कि किसी तरह पीछा ही नहीं छोड़ते थे. अगर वे उसे घर से बाहर निकाल पाने में सफल न होते तो वे वहीं धरना दे कर बैठ जाते. ड्राइंगरूम में चायकौफी के दौर चलते रहते और सुजाता अपने कमरे में अकेली बैठी कुढ़ती रहती.
इतना ही क्यों, विवाह की सजावट और धूमधाम से भरे घर का एकाएक जैसे सारा नक्शा ही बदल गया था. घर में सफाई और व्यवस्था का अभाव एक तरह से स्वाभाविक ही था.
सुजाता ऐसे घर से आई थी, जहां साफसफाई स्वाभाविक तौर पर की जाती थी. दिनेश का परिवार साफसफाई के प्रति काफी उदासीन रहता था. साफ हो गया तो ठीक, वरना जैसा है पड़ा रहने दो.
खानेपीने और हंसीचुहल के बीच किसी को अवकाश ही कहां था कि इस ओर ध्यान दे परंतु सब के चले जाने के बाद भी व्यवस्था में कोई विशेष अंतर नहीं पड़ा था. सब मेहमान अपनीअपनी चीजें बटोर कर चले गए थे. घर की चीजें जिसतिस दशा में थीं. जहांतहां कपड़ों के अंबार, बेतरतीब बिखरे संदूक और फर्नीचर, जमीन पर पड़ा कूड़ा, कोनों में पत्तलों और दोनों के ढेर, मिलने आने वालों को नाश्तापानी करा कर कूड़ा कहीं भी फेंक दिया जाता. जूठन और हरदम भनभन करने वाली मक्खियों के कारण घर की दशा अनाथ की सी लग रही थी. किसी को इस से कुछ परेशानी नहीं थी. सुजाता ने शादी से पहले इस बारे में सोचा था ही नहीं.
स्टोर में खाली टोकरों और बासी मिठाई पर मक्खियां मंडराती रहतीं जिस में घुसते ही सुजाता का दिल मिचलाने लगता. उस का मन होता, वह झाड़ू ले कर जुट जाए और सारे घर को एक सिरे से दूसरे सिरे तक साफसुथरा कर के सजासंवार दे पर झाड़ू पर हाथ रखते ही सास दौड़ी आती, ‘‘अरे सुजाता, यह क्या कर रही हो? अभी तो हाथों की मेहंदी नहीं छूटी और तू झाड़ू को हाथ लगा रही है. क्या तेरे यह करने के दिन हैं? तुम हंसोखेलो. तु झे क्या करने की जरूरत है? इतने सारे करने वाले हैं. देख, अब कुछ न करना. कोई देखता तो क्या कहेगा? कितनी बदनामी होगी? लोग कहेंगे, बहू आई नहीं कि सास ने हाथ में झाड़ू पकड़ा दी. चल, अपने कमरे में बैठ, कुछ कहानीवहानी पढ़ ले.’’
दिनेश की मां को यह एहसास था कि ब्राह्मण की बेटी कैसे उन के घर में सफाई कर दे.
उन्होंने एक बूढ़ी नौकरानी रखी हुई थी, जो इधरउधर सरका कर, उलटीसीधी झाड़ू लगा कर काम खत्म कर देती. सुजाता के कुछ कहने पर वह उसे ऐसे देखती जैसे कह रही हो, ‘तू ऊंची जात की कल की छोकरी, हमें सिखाने चली है और सुजाता का सारा उत्साह भंग हो जाता. उसे रहरह कर अपने घर का स्मरण हो आता और दिल भारी हो जाता. उसे लगता, उस के मातापिता ने अनेक कष्ट सह कर भी जो ट्रेनिंग उसे दी थी, वह उस का अंश मात्र भी घर में प्रयोग नहीं कर पा रही है. मातापिता ने दोनों बहनों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दी थी. कालेज से डिगरी लेने के साथसाथ उस ने हर खेल में भाग लिया था, तैराकी भी सीखी थी. इस के साथ ही साथ घर का हर काम सीखा था. उस के पिता का वेतन अच्छा था पर बहुत अच्छा भी नहीं मगर उस के कितने ही रिश्तेदार ऊंचे ओहदों पर थे.
बिना दहेज लिए उसे बड़े मानमनुहार से इस घर की बहू बना कर लाया गया था कि ऊंचे घर की बेटी आ रही है, उन के दिन फिर अपनेआप फिर जाएंगे. सादगी और मितव्ययिता से चलने वाले सुजाता के मातापिता के घर में गंदगी या अव्यवस्था का नाम भी नहीं था. उन का छोटा सा घर सुखसंतोष से महकते फूलों की तरह भरा रहता था. सुखी परिवार के लिए धन ही तो सब से आवश्यक वस्तु नहीं. घर की स्वच्छता तथा सुचारु संचालन क्या कभी धन से खरीदा जा सकता है? विरासत में मिले बहुत से गुण कहीं न कहीं दिखते ही हैं. सुजाता के पिता को जाति का एहसास था और वे खुद वर्णव्यवस्था के खिलाफ थे और इसीलिए उन्होंने बड़ी खुशी से दिनेश का शादी का प्रस्ताव मान लिया था.
दिनेश की मां दिनभर चूल्हेचक्की में फंसी रहती. दिनभर घर के लोगों को वक्तबेवक्त खानानाश्ता देने के अतिरिक्त उसे किसी बात से सरोकार नहीं था. सुजाता कभी रसोईघर में घुसती तो वे मीठी िझड़की देतीं, ‘‘तुम बाहर चलो सुजाता रसोई से रंग काला पड़ जाएगा.’’ सुजाता किस मुंह से कहे कि उस के घर में भी खाना मां ही बनाती हैं.
हरदम फिल्मी पत्रिकाओं, फिल्मी कहानियों और फिल्मी तारिकाओं में डूबे रहने वाले महेश व फैशन की दीवानी रतना को वह देखती तो देखती ही रह जाती. फिल्मी बातों, फिल्मी कहानियों और गीतों में महेश को जितनी रुचि थी, इस की शतांश भी कालेज की पढ़ाई में न थी.
रतना नईनई फिल्में देखदेख कर नए
से नए फैशन के कपड़े बनवाने में
मग्न रहती. महेश और रतना कालेज जाने के लिए घर से निकलते पर शायद ही कालेज जाते, कभी किसी के घर, कभी किसी चौराहे पर चाय वाले के पास और कभी कैंटीन में बैठ कर ही शाम को घर वापस आ जाते.
और गुड्डू…? वह बस्ता ले कर निकलता तो गली के मोड़ पर ही गुल्लीडंडा खेलने बैठ जाता. घर के लोगों में से कोई देख लेता तो कान खींच कर चिचचियाते हुए स्कूल पहुंचा देता, वरना उस का दिन इन्हीं खेलों में निकल जाता, सालदो साल फेल हो कर अगली क्लास में पहुंचना स्वाभाविक बात हो चुकी थी. नतीजा निकलने पर थोड़ी पिटाई करने के बाद सब कर्तव्य की पूर्ति कर देते और उसे फिर से उस के हाल पर छोड़ दिया जाता. दिनेश इन सब से अलग था और इसीलिए वह अच्छा कमा रहा था व साफसुथरा था.
हर व्यक्ति के पास कुछ काम था और वह उस में मस्त था, दूसरा क्या कर रहा है, इस से किसी को सरोकार नहीं था.
कभीकभी सुजाता को लगता, वह अकेली रह गई है, बिलकुल अकेली. सब से स्नेह और आदर पाने पर भी यह भावना कैसे उस के मन में प्रवेश कर गई है, यह वह किसी तरह सम झ नहीं पाती और उस के दिल के तार कसने लगते.
विवाह से पहले उस ने अपने जीवन की रूपरेखा कुछ दूसरी ही तरह की बनाई थी. दिनेश सा प्रेमी पति और स्नेही आदर देने वाला ससुराल पा कर उस की बहुतकुछ इच्छा पूरी हो गई थी, परंतु फिर भी बहुत दरारें थीं, जो उसे पूरा होने से रोक रही थीं. उसे डर लग रहा था कि कहीं ये दरारें बढ़ कर उस की सुखशांति को न भंग कर दें. वह जानती थी कि ब्राह्मण और कुर्मी के विवाह पर न जाने कितनों ने कानाफूसी की होगी.
वह सोचा करती थी कि जब उस का विवाह होगा तो उस का पति होगा, छोटा सा एक घर होगा, जिस में हर वस्तु कलात्मक और सुंदर होगी. घर में फूलों से भरी क्यारियां होंगी, हमेशा हरेभरे रहने वाले पौधे होंगे. घर की हवा ताजगी और खुशबुओं से भरी होगी पर अब उसे ऐसा लग रहा था, जैसे जेठ की तपती धूप ने उस के सारे फूलों को जला डाला है और किसी भीषण आंधी ने उस के छोटे से घर की हर कलात्मक, खूबसूरत चीज को धूल से ढक कर एकदम बदरंग कर दिया है.
उसे यह दयाशंकर शर्मा की याद दिलाता था, जिस के मांबाप ने सुजाता का हाथ मांगा था पर वह जानती थी कि दयाशंकर एक नंबर का निकम्मा है. जब दयाशंकर ने उसे दिनेश के साथ घूमते देखा तो एक दिन एक छोटे रैस्तरां, जहां दोनों चाय पी रहे थे, में आ धमका और दिनेश से कहने लगा कि वह अपनी औकात में रहे. उसे भी धमकी दे गया कि यदि उस ने जाति से बाहर कदम रखा तो बवाल करा देगा. यह तो दिनेश के दोस्तों की देन थी कि वे दयाशंकर को सही से सम झाने आए थे और दोनों का विवाह हो गया.
कई बार सुजाता सोचती कि क्या उस की अपनी जाति का दयाशंकर उसे ढंग से रखता पर जब वह दयाशंकर की बड़ी भाभी से मिली तो साफ हो गया कि उस घर में तो हर समय क्लेश रहता है. हर जना गरूर में रहता है और कोई भी मेहनत से कमाना ही नहीं जानता. हरेक को मुफ्तखोरी की आदत पड़ी थी. कुछ महीने पहले उस ने दयाशंकर को कुछ लफंगों के साथ बाजार में एक आम बेचने वाले को पीटते देखा था, जो उन से पूरे पैसे मांगने की हिमाकत कर चुका था. उसे अपने फैसले पर पूरा गर्व हो उठा था.
वह अपने सपनों के टूटे टुकड़ों को फेंक कर जो पा सकी है, उसे ले कर जीवन सार्थक मान ले या इस परिवाररूपी वृक्ष की एक डाली यहां से कहीं दूर ले जा कर अपने सपनों की बगिया को सजा ले. बहुत सोचने पर भी उसे कोई उत्तर नहीं मिल पा रहा था. बहुत सम झनेसोचने पर उसे लगा कि वह दोनों ही काम करने में असमर्थ है. न तो वह अपने सपनों को कभी मन से निकाल सकेगी और न ही इतनी इज्जत देने वाले सासससुर, ननददेवरों को छोड़ कर पति के साथ नई गृहस्थी बना कर ही सुखी रह सकेगी.
उसे अपने सपनों को इसी घर में रह कर पूरा करना होगा. इन्हीं लोगों के साथ रह कर विरोधों को झेल कर, उसे धीरेधीरे बहुतकुछ बदलना होगा. उस ने अपनी चचेरी बहनों की दुर्गति देखी थी, जो उसी जाति में ब्याही गईं पर रातदिन दहेज पर कमैंट सुनतीं, जराजरा सी बात पर उन की सांसें तुनक जातीं.
मित्रों के साथ ताश और गपबाजी में दिनेश का समय गुजरे, यह बात सुजाता को बहुत सताती. एक दिन मित्रों की बुलाहट होने पर दिनेश उठा ही था कि सुजाता ने उस का हाथ पकड़ लिया.
‘‘मैं भी चलूंगी आप के साथ,’’ सुजाता हंसती हुई बोली.
दिनेश अचकचा गया, ‘‘वहां, मेरे मित्रों में?
‘‘पर वहां तो एक भी औरत नहीं होती है. तुम बोर हो जाओगी और फिर माताजी और पिताजी क्या कहेंगे?’’
‘‘यही कि नववधू को अकेला छोड़ कर मित्रों के पास बैठना आप को शोभा नहीं देता.’’
‘‘बस, मैं अभी आता हूं. जब आ ही गए हैं तो कुछ देर बैठ ही लें.’’
सुजाता मचल उठी, ‘‘नहींनहीं, मैं आप को आज नहीं जाने दूंगी. हम लोगों ने पिक्चर चलने का प्रोग्राम बनाया है. आज तो मित्रों को विदा करना ही पड़ेगा.’’
दिनेश को सुजाता के हठ के आगे झुकना ही पड़ा और धीरेधीरे उस की सारी शामें सुजाता की हो गईं.
गुड्डू तिमाही इम्तिहान में हमेशा की तरह फेल हो गया था. पिताजी और महेश से अच्छी तरह पिटने के बाद वह सुबक रहा था.
सुजाता का दिल उमड़ पड़ा. बेचारे बालक का दोष ही क्या था? यह सब घर वालों की उस के प्रति लापरवाही का ही नतीजा था. वह इसी तरह पढ़ेगा तो कितना पढ़ पाएगा? उस का भविष्य क्या होगा? नतीजा खराब निकलने पर मारपीट करने तक की जिम्मेदारी तो सब लेते हैं, परंतु पढ़ाने की जिम्मेदारी लेने का अवकाश किसी को नहीं जाता. स्कूल नहीं जाता, इसलिए पढ़ाई नहीं कर पाता. शायद यह एक चक्कर था, जो घूम रहा था. क्या वह भी उस की बरबादी की दर्शिका बन कर रह जाए? क्या वह इस अबोध बालक की कोई सहायता नहीं कर सकती?
गुड्डू की परीक्षा लेने पर उसे पता
चला कि वह शिक्षा के हर पहलू
से अनजान है और उस की अधूरी शिक्षा को पहली सीढ़ी से शुरू करना पड़ेगा. उसे एक ध्येय मिल गया था. वह पूरे उत्साह से उस में जुट गई. उस ने पूरे 10 दिन की अस्पताल से छुट्टी ले ली. सारा दिन उसे पढ़ाया. बचे समय में उस ने घर पर ध्यान देना शुरू किया.
धीरेधीरे घर में पौधों पर गमलों का प्रवेश होने लगा था. आंगन की सीमेंट तोड़ कर, ईंटें निकाल कर किनारेकिनारे क्यारियां बना दी गईं. अब तो दिनेश ने स्वयं इस काम में सुजाता की सहायता की थी. सब लोगों ने पढ़ीलिखी सम झदार घर की बहू की उस की सनक सम झा पर जब नन्हेनन्हे पौधे हरेहरे दिखने लगे तो सब को अच्छा लगा. उसे पता था किसी दिन इन बेजान से पौधों से पत्ते निकलेंगे और फूल खिलेंगे, फिर उन में से रंग उभरेंगे और खुशबू की लहरें उठेंगी पर यह सब धीरेधीरे होगा. उसे बड़े धैर्य से उन की देखभाल करनी होगी.
सुजाता ने सास की झाड़ू तो नहीं उठाई, परंतु जब समय मिलता वह घर में फैले हुए कपड़ों, बरतनों और फर्नीचर को सहेजने में लग जाती थी. घर की व्यवस्था सुधारने का हर छोटा सा प्रयत्न उस के लिए संतोष का विषय हो गया था.
खूंटी, अलगनी और गुसलखाने में पुराने स्टाइल से लटके रतना के नए से नए डिजाइन के कपड़े देखरेख के अभाव में बहुत जल्दी अपना रूपरंग खो देते थे. पुरानों को फेंक रतना नए कपड़ों के ढेर लगाती रहती. उस के कपड़ों और दर्जी का बढ़ता बिल घर में तनातनी का विषय बना रहता.
इस बात को ले कर काफी चखचख और बहस भी होती. कभी खुशामद कर के, कभी रोधो कर रतना किसी न किसी तरह नए कपड़े सिलवाने के लिए रुपए पा ही लेती थी.
सुजाता यह सब देखतीसुनती तो दंग रह जाती. एक मध्यवर्गीय परिवार कैसे इतनी रकम इस तरह स्वाहा कर सकता है, आवश्यकताओं की बलि दे कर बेकार के शौक पूरे कर सकता है? कोई उन्हें यथार्थ से अवगत क्यों नहीं कराता? क्या मिलता है इन नएनए फैशनों से? क्या वह उस से कुछ सीख कर लाभ उठा सकती है? यदि वह स्वयं ही कपड़े डिजाइन कर सकती तो कम से कम एक कला तो आती.
सुजाता को लगा कि उसे समस्या का समाधान मिल गया है. वह रतना को अपने कपड़े स्वयं डिजाइन करने का सु झाव देगी, जितना वह स्वयं जानती है, उस से उसे सीखने में मदद देगी. उसे विश्वास था कि कपड़ों की शौकीन रतना इस क्षेत्र में अवश्य रुचि लेगी.
उस का अनुमान ठीक ही था. इंटर की परीक्षा देने के बाद उस ने घोषणा कर दी थी कि वह बीए में न बैठ कर डिजाइन स्कूल में भरती होगी. मातापिता उस के इस निश्चय पर बहुत नाराज थे. बीए, एमए की डिगरी के सामने सिलाई में निपुणता का मतलब फिर पुराने जातिगत काम करना जो वे अब छोड़ना चाहते थे, क्योंकि उन में पैसा नहीं था, की दृष्टि में मूल्य ही क्या था? परंतु एक बार निश्चय कर लेने की रतना की जिद कोई सरलता से तोड़ नहीं सकता था.
इस बात को रतना के दिमाग में बैठाने के लिए सुजाता को भी भर्त्सना का कुछ न कुछ हिस्सा जरूर मिला था, परंतु वह प्रसन्न थी कि वह एक बेकार शौक और थोथी पढ़ाई की जगह, जो केवल डिगरी के लिए की जा रही थी, ठोस कार्य के लिए सु झाव दे सकी थी.
सुजाता सुबह से शाम तक सास को खाना बनाते, सब को खिलाते देखती. वह कंघी तक करने की फुरसत न जुटा पाती थी. सुजाता उसे रसोईघर से खींच लाती, उस के सिर में शैंपू करती. वह हंसती, ‘‘अरे सुजाता, तुम्हारे संजनेसंवरने के दिन हैं. भला मैं सिंगारपिटार करती अच्छी लगती हूं?’’ पर सुजाता एक न सुनती. उसे नई साड़ी पहनवाती, फेसपैक लगा कर स्किन साफ करती. हलका सा मेकअप कर बिंदी लगा कर छोड़ती. सास मुंह से मना करती पर उसे कुछ देर रसोईघर से छुट्टी पा कर, सजसंवर कर अच्छा ही लगता. थका शरीर और मन ताजा हो उठता.
सुजाता सब से शिकायत करती, ‘‘तुम लोग जब चाहे आतेजाते हो, जब चाहे खाना खाते हो. मांजी को कितनी मेहनत करनी पड़ती है. दिनभर उन्हें रसोईघर से छुट्टी नहीं मिलती. क्या तुम लोगों का फर्ज नहीं कि उन का काम कुछ हलका करो? सब एक ही साथ बैठ कर खाना खा लें तो काम कितनी जल्दी खत्म हो जाए.’’
कभी हंस कर, कभी बनावटी क्रोध दिखा कर वह सब को एकसाथ खाना खाने पर विवश करने लगी. नई बहू का मन रखने के लिए ससुर भी ताश छोड़ कर उठ जाते और खाने की मेज पर पहुंच जाते. इस नियम में सब ढिलाई करने की कोशिश करते, परंतु सुजाता अपनी पकड़ ढीली न होने देती.
सुजाता के सु झाव पर महेश ने
नाटकों में बहुत िझ झकते हुए
भाग लिया था, परंतु अभिनय के क्षेत्र में कदम रखते ही उसे लगा कि उस ने ऐसी नई दिशा में कदम रखा है, जहां उसे अपने सपनों को साकार करने का अवसर मिलेगा. फिल्मों का शौकीन महेश इस नए शौक में गले तक इस तरह डूब गया कि उस के मन में मचलती उमंगें निकास पाने को उमड़ती चली जा रही थीं. बेटे को नाटकों में भाग लेते देख पिता ने काफी डांटफटकार की. वे सब से शिकायत करते, ‘‘लड़का हाथों से निकल गया है. वह नचनिया होता जा रहा है. पढ़नालिखना तो गया भाड़ में.’’
उन की दृष्टि में पिक्चर देखना एक बात थी, परंतु नाटकों में भाग लेना दूसरी. उन्होंने जहां दिनरात फिल्में देखने पर महेश को कभी नहीं रोका था, वहां अब वे उस पर बातबात पर बिगड़ने लगे थे, परंतु कालेज के एक नाटक में उस का अभिनय देख कर उन्हें अपनी राय बदलनी पड़ी.
दिनेश की मौसी आई हुई थी. वह बहन को रसोईघर से निकाल कर, मुंहहाथ धो कर कंघीचोटी करते देख रही थी. वह हंस कर बोली, ‘‘वाह दीदी, घर में नई बहू क्या आई, लगता है कि तुम पर ही जवानी आ गई. इस उम्र में सजनेसंवरने का शौक लग गया है. तुम्हीं क्या, देख रही हूं, तुम्हारे सारे घर की रंगत बदल गई है. मु झे लगता ही नहीं कि यह पहले वाला घर है.’’
माथे पर बिंदी लगाती बड़ी बहन भी हंसी, ‘‘हमारी तो जैसेतैसे गुजर गई पर जब घर में पढ़ीलिखी, होशियार बहू आ जाए तो अपने को बदलना ही पड़ता है.’’
सुजाता बाहर खड़ी सब सुन रही थी. वह मुसकराई. उस ने सुरुचिपूर्ण सजे घर को देखा और उस की निगाह हरेभरे पौधों पर अटक गई. नन्हेनन्हे पौधे युवा हो कर पत्तों से लदे थे. उन में नन्हीनन्ही कलियां सिर निकाले झांक रही थीं. उसे लगा, अब देर नहीं, शीघ्र ही उस की बगिया में रंगबिरंगे फूल खिल उठेंगे और उस का घर महकती हवाओं से भर उठेगा. वह प्रसन्न थी कि उस ने परिवार के बाग से पौधा उखाड़ कर अपनी दुनिया अलग नहीं बसाई, वरन उस बाग को ही संवार दिया. उस ने अपना सपना टूटने नहीं दिया था. वह साकार हो उठा. सुख जाति के बड़प्पन में नहीं है, गुणों के सही इस्तेमाल से मिलता है.
अब जब भी सुजाता के मातापिता उस से मिलने आते, न दिनेश को संकोच होता, न दिनेश के मातापिता को और न ही सुजाता के मातापिता को एहसास होता कि उन के परिवारों में कभी कोई खाई भी थी.