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कहानी: स्टोरीज सैकंड हैंड

पहली पत्नी शाहीन को ले कर रेहाना के मन में कई शंकाएं थीं, आखिर अच्छेभले व्यक्ति से तलाक लेने का रहस्य क्या था? पर एक दिन जब परदा हट ही गया तो रेहाना मेरे कदमों में झुक गई.

मेरे मोबाइल फोन पर ईमेल सुविधा नहीं है, इसलिए मैं ने मित्र के कंप्यूटर पर ही अपना ईमेल अकाउंट सेट कर रखा है. मैसेज बड़ौदा से आया था. वहां मेरा छोटा भाई है. घर की देखभाल करते हुए वह वहीं पढ़ भी रहा है. कहीं उसे कुछ हुआ तो नहीं? 2 वर्ष पहले जब कोरोना फैला था शिक्षकों को कोचिंग क्लासों से निकाल दिया गया था, परिणामत: मैं अहमदाबाद चला आया और वहां छोटामोटा काम करने लगा. अहमदाबाद में मकानों की तंगी के कारण छोटे भाई को वहीं छोड़ आया.


पासवर्ड डाल कर मैसेज पढ़ा, शब्दों पर नजर पड़ते ही चेहरे का रंग पीला पड़ गया. बरबस ही होंठों पर मुसकान आ गई. संक्षिप्त सा मैसेज था, ‘‘भाभी आ गई हैं. जल्दी आ जाओ.’’


मैसेज पढ़ने के पहले चिंता के जो गहरे बादल चेहरे पर छा गए थे, वे हट गए. मैं सोच में पड़ गया. यह अभी कैसे आ गई? उसे गए अभी डेढ़ वर्ष ही तो हुआ है. हमेशा कहा करती थी, ‘देखना, अब की जाऊंगी तो कभी लौट कर नहीं आऊंगी. मैं अपने भाइयों के पास जिंदगी काट लूंगी.’


वैसे भी उस के जो मैसेज इधरउधर आते थे, उन से पता चलता था कि वह अभी एक वर्ष तक नहीं आएगी. मुझे तो उस ने ब्लौक कर रखा था. शायद उस के पास स्मार्टफोन था, पर मैं बिना इंटरनैट वाला फोन ही इस्तेमाल करता था. अब यह अचानक कैसे आ टपकी? सोचा, इतवार की छुट्टी में जाऊंगा. लेकिन वहां जाने पर सुख भी क्या मिलेगा? जब वह गई थी, शादी हुए 6 वर्ष हो गए थे. मैं ने उसे प्रसन्न रखने के लिए क्या नहीं किया? उस की ख्वाहिश का खयाल रखा. हर तरह से सुखी रखने का प्रयत्न किया, मगर बेगम साहिबा थीं कि बस गुमसुम, न हंसना, न बोलना. पर, इतना तो मानना पड़ेगा ही कि उस में एक प्रशंसनीय खूबी जरूर है. उस ने मेरे हर शारीरिक आराम का खयाल रखा. वक्त पर हर काम तैयार. मुझे कभी शिकायत का मौका ही नहीं दिया, लेकिन यह भी कोई जिंदगी है. बस मशीन की तरह काम किए जा रहे हैं. कई मर्तबा मैं ने उस को हंसाने का प्रयत्न किया. खुश रहना सिखाना चाहा. लेकिन हंसना तो दरकिनार, क्या मजाल कि होंठों पर मुसकराहट तो आ जाए. खुदा ने न जाने किस मिट्टी से बनाया है उस औरत को कि मुझे भी गंभीर मनोवृत्ति का बना कर रख दिया.


डेढ़ साल पहले वह मुझे बस इतना कह कर चली गई थी कि वह अपने मांबाप और भाई के पास दुबई जा रही है, जहां वे 2 साल पहले जा बसे थे.


मैं आंखें बंद कर अपने बिस्तर पर लेट सबकुछ भूल जाने का प्रयत्न करने लगा. विचारों की श्रृंखला में मेरे दोनों नन्हेमुन्ने आ गए. मेरी पुत्री रेहाना अब बड़ी हो गई होगी. 4 साल की थी, जब वह यहां से गई थी. और फरहान वह शायद मुझे भूल ही गया होगा. दो साल का ही तो था. जब तक मैं घर में रहता था दोनों मेरे आसपास ही चक्कर लगाया करते थे.


उन का खिलखिलाना, फुदकना याद हो आया. पत्नी से जो सुख मुझे न मिल सका था, वह उन दोनों बच्चों ने पूरा किया था. मैं फौरन बिस्तर से खड़ा हो गया. घड़ी में देखा 5 बजे थे. मैं ने फौरन कागज उठा कर छुट्टी की अर्जी लिख डाली और मित्र को थमाते हुए बोला, ‘‘स्कूल पहुंचा देना. श्रीमतीजी दुबई से आ गई हैं, जरा मिल आऊं.’’ बोल कर बसस्टैंड की ओर चल पड़ा.


जब मैं ने बड़ौदा वाले घर में प्रवेश किया तो रात के 9 बजे थे. श्रीमतीजी पलंग पर बैठी कुछ पढ़ रही थी और बच्चे फर्श पर खेल रहे थे. मुझे देखते ही बोली, ‘‘देखो, तुम्हारे पापा आ गए.’’


बच्चों ने मुझे देखा और मेरी तरफ लपके. रेहाना तो मेरे पैरों से लिपट गई. मैं ने उसे प्यार से थपथपाया, लेकिन फरहान, पहले तो दौड़ा, फिर ठिठक कर खड़ा रह गया. वह कभी मेरी सूरत देखता तो कभी रेहाना की तरफ ताकने लगता. मैं ने लपक कर उसे गोद में उठा लिया और चूम लिया.


उस ने अपनी दोनों नन्हीनन्हीं बांहें मेरे गले में डाल दीं और चिपक गया.


इस कोमल प्यार की अनुभूति ने मेरे सफर की थकान दूर कर दी. आरामकुरसी पर बैठ कर कुछ देर तक उन के साथ अठखेलियां करता रहा. बच्चों की भोलीभाली बातों से हृदय गदगद हो गया. नजर श्रीमतीजी की तरफ भी उठ जाती थी. बस वह मुसकरा रही थी और शोख नजरों से मेरी तरफ देखे जा रही थी.


मैं ने बैग में से निकाल कर रेहाना को चाकलेट थमाई और चिप्स के पैकेट व संतरे फरहान के सामने रख कर कहा, ‘‘ले जाओ अपनी मां के पास. वह तुम्हें बांट देंगी,’’ फिर उस तरफ मुखातिब हो कर बोला, ‘‘कहिए, क्या हाल हैं आप के?’’ वह उत्साह से बोली, ‘‘खूब मजे में हूं.’’ और खिलखिला दी.


मैं ने कहा, ‘‘चलो खुदा का शुक्र है, दुबई ने तुम्हें हंसना तो सिखाया.’’


वह तुनक कर बोली, ‘‘दुबई क्या हंसना सिखाएगा, वहां तो लोगों को बात करने की ही फुरसत नहीं.’’


‘‘खूब मजे उड़ाए वहां रह कर. अच्छा, अब बताइए क्या हाल है वहां के? कौनकौन मिले? उन का कैसा सुलूक रहा तुम्हारे साथ? तुम्हारे तो बहुत से घर वाले खाड़ी के देशों में हैं.”


‘‘मजे और वहां…? हुब्बे वतन, प्यारा वतन. भई, मजे तो अपने ही वतन में है. जहां जीवनसाथी हो वहीं मजे आ सकते हैं. हां, तफरीहन एक अच्छी जगह है. वहां के लोगों में न तो मुरब्बत है और न ही खुलूस है. वे खुद ही दूसरों के मुल्क में हैं.’’


‘‘भई, यह तो हर जगह होता है. इनसान तो हर जगह एक सा ही होता है. चाहे वह दुबई हो या हिंदुस्तान. आप अपने अजीजों की बात कीजिए.’’


‘‘मैं भी उन्हीं की बात कर रही हूं. मुझे दूसरे लोगों से क्या मतलब…? सब लोग मजे में हैं. आप को खूब याद करते हैं, खासकर आप की एक फूफी. हां, एक बड़े मजे की मुलाकात हुई,’’ कहते हुए वह फिर खिलखिला पड़ी. मेरे फूफा भी शारजाह में हैं, पर कभी न बुलाया और जब से गए हैं, कभी नहीं मिलने आए.


मेरी उत्सुकता बढ़ी और मैं ने पूछा, ‘‘ऐसी कौन सी मुलाकात ने आप को कमल के फूल की तरह खिला दिया. जरा हम भी तो सुनें.’’


‘‘ओह, मजा आ गया,’’ कहते हुए वह पलंग से उठी और मेरे ही नजदीक आ कर आरामकुरसी पर बैठ गई. उस की आंखों में शरारत नाच रही थी. जिस को देखने की मुद्दत से आरजू थी, मिलने की तमन्ना थी, आखिर वह मिल ही गई. उस के चेहरे पर सुर्खी दौड़ आई थी. उस के चेहरे पर ऐसी आभा मैं ने पहले कभी नहीं देखी थी.


मैं ने हिचकिचाते हुए पूछा, ‘‘आखिर कौन सी है वह बात, जरा हम भी तो सुनें.’’


मैं ने सोचा कि वह अपनी बचपन की किसी सहेली की बात करेगी. औरतों की आदत होती है कि जब अपनी किसी सहेली को अचानक पा लेती है तो फिर जब तक उस की चर्चा दूसरों के सामने न करे उन्हें चैन ही नहीं पड़ता.


‘‘क्या करेंगे सुन कर?’’ मेरे चेहरे के भाव पढ़ते हुए उस ने टालने की कोशिश की. पर मुझे असमंजस में पड़ा देख उस ने कहा, ‘‘आप की चहेती और कौन?’’


यह सुन कर मैं तिलमिला उठा. यह सरासर झूठा आक्षेप मैं कैसे सहन कर सकता था. मैं ने बौखला कर कहा, ‘‘मेरी चहेती और वह भी दुबई में…? तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया.’’


‘‘अजी, बिगड़ते क्यों हैं, जरा सुनिए तो,’’ उस ने हलकी सी प्यारभरी चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘वह आप की राजकोर्ट वाली दुलहन मिल गई थी.’’


मुझे करंट जैसे लगा. सारे शरीर में झनझनाहट का राज. मेरे जख्मों पर नमक छिड़कने के लिए ये चुटकियां ली जा रही थीं.


जिस दर्द को मैं सीने में छिपाए बैठा था, जिसे भूल जाने की लाख कोशिश की, आखिर वही राख में छिपी हुई चिनगारी फिर से सुलग उठी.


शाहीन मेरी जिंदगी में बिजली की कौंध की तरह आई और जिस दुनिया से आई थी उसी में हमेशा के लिए अदृश्य हो गई. आई थी जिंदगी में बहार बनने के लिए, लेकिन अंत में खिजां छोड़ गई.


मैं ने बीए पास किया ही था कि मातापिता हाथ धो कर पीछे पड़ गए. जैसा कि हर मांबाप की ख्वाहिश होती है कि बच्चा अब पैरों पर तो खड़ा हो ही गया है, चलो जल्दी से बहू ले आएं.


नौकरी मुझे देहात के एक स्कूल में मिल ही गई थी. खुद जोरशोर से शादी के लिए लड़की की दूरदूर तक तलाश जारी हो गई. इस मामले में सब से आगे हमारी दूर के रिश्ते वाली फूफी थीं. उन्होंने अपनी रिश्ते की भांजी शाहीन से रिश्ता तय कर लिया. टोंक में हमारा एक टूटाफूटा सा घर था, उसी में हम रहते थे. थोड़े से बरातियों को ले कर हम राजकोट पहुंच गए और शाहीन को ब्याह कर ले आए. साल 2002 के दंगों के बाद हम सब शादीब्याह संभल कर करते थे कि कहीं कोई बवाल न खड़ा हो जाए.


साल 2002 के दंगों में हमारा मकान जला दिया गया था और बड़ी मुश्किल से जिंदगी पटरी पर आई थी. अब तक वे लोग भारत में ही थे.


एक कमरे का हमारा छोटा सा घर था. उस में हर तरह का सामान भरा था. कमरे के सामने एक बरामदा था, जो सोनेबैठने के काम आता था. एक छोटा सा बावरचीखाना, गुसलखाना व पाखाना और बीच में छोटा सा दालान. उसी में जो मकान से लाए सामान को सजा कर रखते थे.


सुहागरात को मुझे उस छोटे से कमरे में भेजा गया, जहां दुलहन एक पलंग पर छुईमुई सी बैठी थी. पहले तो कुछ हिचकिचाहट महसूस हुई, पर धीमे कदमों से जा कर उस के पास बैठ गया. दिल में उमंगे और हृदय में तूफान लिए झिझकते हुए बातचीत का सिलसिला शुरू किया.


बातों के दौरान ही शाहीन जरा उद्विग्न हो कर बोली, ‘‘क्या आप के घर में दुलहन का इसी तरह इस्तकबाल किया जाता है?’’


मैं उस की यह बात सुन कर भौचक्का सा रह गया. उस के शरीर से अठखेलियां करने के लिए आगे बढ़ते हाथ वहीं रुक गए. मैं ने सवालिया निगाह से उस की ओर देखा. उस ने कहा, ‘‘गरमी के दिन हैं, और इस छोटे से कमरे में बंद कर दिया. कब से अकेली बैठी हूं, पसीने से मरी जा रही हूं. कोई हाल पूछने वाला ही नहीं. और कुछ तभी तो जो मैं अपने साथ कूलर लाई हूं वहीं लगा दिया होता.’’


‘‘ओह,’’ मुझे एकदम खयाल आया. ठीक ही तो कहती है बेचारी. शादी के हंगामे में किसी को खयाल ही नहीं आया. मैं उठा और कूलर निकाल कर चालू किया तो जरा राहत मिली.


मैं ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा, ‘‘माफ करना, किसी को खयाल ही नहीं रहा इस बात का.’’


‘‘खयाल भी कैसे आए. घर में कभी एसी, कूलर लगाया हो तब न.’’


उस के इस कटाक्ष पर मेरे काटो तो खून नहीं. मैं तो अवाक ही रह गया. गरीब मांबाप का गरीब बेटा जरूर सही, लेकिन गैरत तो मुझ में है. मुझे खामोश देख कर उस ने रोआंसी हो कर कहा, ‘‘अब आप ही देखिए न, इस छोटे से पलंग पर मुझे ला कर बिठा दिया है. एक तो शादी के हंगामे में मैं वैसे ही तीनचार रातें जगी हूं. अब इस पुराने से पलंग पर सोऊं तो कमर ढीली हो जाए. आखिर मेरे घर से फोम के गद्दे, तकिए, चादरें वगैरह किस दिन के लिए आई हैं? हमें आए दोतीन घंटे हो गए, अगर किसी को मेरी फिक्र होती तो अभी तक सब तैयार हो जाता.’’


मैं ने कमरे में चारों ओर नजर दौड़ाई, कमरा सामान से खचाखच भरा हुआ था. बाहर आंगन में सब घरवाले व मेहमान खापी कर थकेहारे सो गए थे. हम दोनों को इस कमरे में बंद कर के सब निश्चिंत पड़े थे.


मेरी गंभीरता को भंग करते हुए उस ने कहा, ‘‘यह सुहागरात, छोटा सा कमरा वह भी सामान से भरा हुआ. और यह छोटा सा पुराना पलंग, जिस में आग के निशान भी दिख रहे हैं.’’


मैं फौरन उठा और सामान के ढेर के नीचे से कार्टन निकाला और उसे बनाने के लिए बरामदे में ले गया. मुझे घरवालों पर क्रोध आ रहा था कि उन्हें यह छोटी पर मुख्य बात भी याद नहीं आई. आखिर ये मेहमान कोई मौजमजे करने तो आए नहीं हैं. आए हैं शादी में मदद करने. किसी से भी यह काम लिया जा सकता था. मैं आवाज किए बिना कार्टन खोल मसहरी के सब भाग बैठाने की कोशिश की. लेकिन पाए काटनेपीटने में ठोंकने पर आवाज तो होगी ही. थोड़ी ही देर में अच्छाखासा हंगामा हो गया. आखिर दो घंटे की मेहनत के बाद हमारा कमरा तैयार हुआ. और सुहागरात का पलंग भी तैयार हुआ.


इसी में रात के 3 बज गए. शाहीन ने इस पर बैठ कर राहत की सांस ली. मेरे अहं को धक्का लगा. इन सब लोगों ने क्या सोचा होगा? सब रोमांटिक मूड खराब हो गया और उस के स्थान पर हृदय में भर गया उद्वेग और घृणा.


मैं बरामदे में आ कर बेंत की कुरसी पर पड़ गया और थोड़ी ही देर में नींद के आगोश में मधुर स्वप्न देखने लगा. शादी तय करते समय फूफी कहती थीं, ‘‘अरे देखना, मैं कैसी जगह ब्याहती हूं अपने मम्मू को. आखिर उस ने बीए किया है. फिर खानदान भी धनीमानी. उस के 4 भाई हैं. सब ऊंचऊंचे ओहदों पर हैं. अकेली बहन को जोकुछ दे, वह कम है. अरे, जानपहचान वाला जो भी देखेगा रश्क करेगी. मम्मू की किस्मत पर और दुलहन तो चांद सी है, देखते ही नजर लग जाएगी. कुछ रिश्तेदार शरजाह में हैं तो कुछ सऊदी में. 2-3 तो अमेरिका में भी हैं.’’


सुबह से ही अच्छाखासा हंगामा शुरू हो गया. हमारे कमरे में अटैच्ड बाथरूम नहीं था. नाश्ता और चाय तैयार हो गई. हम दोनों को साथसाथ नाश्ते के लिए बिठाया गया. नाश्ते के समय वह चोरीछिपे शोख नजरों से मेरी तरफ देख लेती और फिर नजरें नीची कर लेती.


नाश्ते के पश्चात बरामदे में एक तरफ सोफासेट सजाया गया. एक टेबल पर कूलर था. घर वाले देखदेख कर खुश हो रहे थे. महल्ले की कुछ औरतें दुलहन को मिलने पूछने आने वाली थीं कि मुंहदिखाई तो क्या यों कहना चाहिए दहेज में क्या मिला.


दोपहर के खाने के समय उस ने मुझ से कहा, ‘‘आप का घर इतना छोटा है कि मेरा डाइनिंग टेबल वैसे ही पड़ा रह गया. घर इतना तो बड़ा हो कि मेरे पापा ने जो सामान दिया है उन का इस्तेमाल हो सके. ये सब आप की इज्जत बढ़ाने और हमारी सुविधा के लिए ही तो है.’’


‘भाड़ में जाए ऐसी इज्जत,’ मैं अंदर ही अंदर झल्ला उठा. चाहा कि कह दूं अभी घर में कदम ही रखा है कि अपनी अमीरी की शान दिखाने लगी. साथ में दहेज क्या लाई, अपने को बहुत ऊंचा समझने लगी. लेकिन एक अच्छे शिक्षक की तरह मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. धैर्य ही तो शिक्षक की संपत्ति है. जब धैर्य से टेढ़े से टेढ़े विद्यार्थी को सीधा किया जा सकता है, तो वह तो पत्नी थी. सोचा, आ जाएगी धीरेधीरे रास्ते पर. दूसरी रात हमारे सोने का इंतजाम उसी छोटे से कमरे में था. यह सोच कर कि ख्वाहमख्वाह कुछ कहासुनी हो जाएगी. मैं बाहर बरामदे में ही फोल्डिंग पलंग बिछा कर सो गया. शादी के लिए वह फोल्डिंग पलंग किराए पर लाए गए थे.


थोड़ी रात गए उस ने मुझे आ कर जगाया, ‘‘ओजी, क्या, आप सो गए क्या?’’


मैं ने सुनीअनसुनी कर दी, तो उस ने मुझे झिंझोड़ते हुए कहा, ‘‘क्यों, नाराज हो गए मुझ से? अंदर नहीं आओगे,’’ कहते हुए वह पलंग पर बैठ गई.


मैं ने सहज ही कहा, ‘‘देखो, बेगम, कमरे में इतना सामान भरा है कि मेरा दम घुटने लगता है.’’


‘‘यह तो पहले ही सोचसमझ कर लेना था न. कम से कम शादी से पहले अच्छे मकान का इंतजाम कर लेते.’’


‘‘अब की बार आप को लाने से पहले इंतजाम कर के रखूंगा. तब तक के लिए अलविदा.’’


मेरा रूखा सा जवाब सुन कर वह उठ कर अंदर चली गई.


दूसरे दिन वलीमा दावत थी. उस के घर वाले राजकोट से उसे लेने आ गए थे. जाते समय उस ने मेरी बहन को बुला कर कहा, ‘‘जरा अपने भाईजान को तो बुला दो.’’


मैं अंदर गया तो उस ने कहा, ‘‘मुझे लेने आने के पहले मकान का इंतजाम जरूर कर लीजिएगा. और हां, जरा मेरे पापा के दिए सामान का खयाल रखना.’’


मैं ने स्वीकृति में गरदन हिला दी और बाहर निकल गया. राजकोट पहुंचने पर उस का एक व्हाट्सएप मैसेज आया, प्यार भरा. उस ने अपनी हरकत की माफी चाही थी. लेकिन मकान की याद दिलाना वह नहीं भूली थी. मैं ने भी बैंक से 50 हजार रुपए का कर्ज लिया और उसी मकान में एक कमरा और लगा दिया. मैं ने सोचा कि अब जोकुछ हुआ है उसे तो निभाना ही पड़ेगा, पढ़ीलिखी है, जानती है कि जमाना क्या है. अपनेआप संभल जाएगी.


कुछ दिनों बाद ही अम्मी ने रट शुरू कर दी, ‘‘बहू को ले आ.’’


मैं कुछ दिन तक तो टालता रहा, मगर अम्मी ने बहन के मोबाइल से मैसेज भिजवा ही दिया कि मम्मू लेने आ रहा है. तैयार रहना.


एक सप्ताह में ही राजकोट से मेरे मोबाइल पर मैसेज आया. उस ने खुशी का इजहार किया था कि वह बेचैनी से मेरा इंतजार करेगी. लेकिन साथ ही यह भी लिखा था, ‘‘मेहरबानी कर के शेरवानी पहन कर न आएं. यहां वाले हंसी उड़ाते हैं. जरा कोटपैंट में आइएगा.’’


हद हो गई शराफत की भी. शेरवानी पहन कर न आएं. और यहां इन्हें अच्छी नहीं लगती. सोचेसमझे बगैर मैम साहब और्डर झाड़ने लगी हैं. वह मुझे बुद्धू समझती हैं क्या? मैं ने सोचा, जरा दिमाग ठिकाने आ जाए, तब ले जाऊंगा. दोचार माह ऐसे ही बीत गए. अम्मी बीमार पड़ गईं. उन की बीमारी बढ़ती ही गई. अब आग्रह करने लगीं कि मैं जा कर बहू को ले आऊं, ताकि बुढ़िया मां की तीमारदारी तो अच्छी तरह हो सके. मैं ने भी हठ छोड़ दी और जा पहुंचा लेने. खूब आवभगत हुई. उसी समय में उस की बहन भी आबूधाबी से आई हुई थी. मैं ने कहा, ‘‘अम्मी घर में बीमार हैं. तुम्हें बहुत याद करती हैं. हमें जल्दी ही यहां से रवाना होना चाहिए.’’


उस ने छूटते ही कहा, ‘‘अच्छा, तो अपनी अम्मी की खिदमत के लिए ले जा रहे हैं मुझे. अब खयाल आया मेरा. यहां बरसों के बाद बहन आबूधाबी से आई है. उन के साथ तो थोड़े दिन रह लूं.’’


यह सुन कर मेरा हृदय ही धक से रह गया. सुन कर उस की बहन और भाभी ने समझाया, ‘‘शाहीन, तुम्हें ऐसी बेतुकी बातें नहीं करनी चाहिए. शौहर की इताअत बीवी का सब से बड़ा फर्ज है. तुम फौरन चली जाओ.’’


लेकिन उस ने अपनी हठ के सामने किसी की न चलने दी और कहा, ‘‘15 दिन बाद लेने आइए, खुशी से चलूंगी.’’


आखिर अपना सा मुंह ले कर मैं स्टेशन पर आ पहुंचा. इतने में हमारे छोटे साले साहब दौड़ते आए, ‘‘चलिए, आप को बाजी बुला रही हैं. वह आप के साथ जाना चाहती हैं.’’


‘‘आप बाजी से कहना कि अगर वह किसी शहंशाह की शहजादी होती तो अच्छा होता. अब उन्हें जब आना हो आ जाएं. घर तो उन्हीं का है.’’


जब अम्मी ने देखा कि दुलहन नहीं आई है और मैं मुंह लटकाए वापस आ गया हूं तो उन की आंखों से आंसू निकल आए. कुछ दिन बाद इसी सदमे में उन्होंने दम तोड़ दिया.


अम्मी की मृत्यु के बाद उस का खत आया कि मैं उसे ले जाऊं, पर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत.


4 माह बाद हमारे सब से बड़े साले सूचना दिए बगैर ही आ धमके. साथ में शाहीन की चिट्ठी भी लाए. चिट्ठी में शाहीन ने खूब शिकवेशिकायत लिखे थे और साथ ही तलाक की मांग की थी. मुझे तो इस से खुशी ही हुई. हम ने काजी साहब के पास जा कर तलाक के कागजात तैयार कर दिए और रस्म अदा हो गई. मेरी छाती पर जो एक बड़ा सा बोझ लदा हुआ था, वह उतर गया.


मैं ने एक ट्रक किराए से करवा दिया और दहेज का सब सामान उस में भरवाना शुरू किया. मियां अपने साथ एक लिस्ट बना कर लाए थे. उसी समय मियां के मोबाइल पर एक मैसेज आया. साले साहब ने खोल कर पढ़ा और अपना करम पीट कर बैठ गए. हम सब घबरा गए, पूछा, ‘‘क्या हुआ? कैसा मैसेज है?’’


कहने लगे, ‘‘शाहीन का मैसेज है. लिखा है, तलाक मत लो.’’


अब हंसने की मेरी बारी थी. मेरे मुंह से एक जोर का ठहाका निकल गया. वह क्रोधित हो कर बोले, ‘‘अजीब अहमक आदमी हो. यहां मेरी जान पर बन आई है और तुम्हें हंसी आ रही है.’’


मैं ने कहा, ‘‘भाई साहब, बिना सोचेसमझे औरतों को हठ पर काम करने वालों का यही अंजाम होता है. वह आप लोगों की लाडली बहन है. जो गुल न खिलाए, कम ही है.’’


कुछ समय उन के रोनेधोने में गया. जब सब सामान लद गया तो वह रंजीदा मन से ट्रक में जा बैठे. मैं ने हंसतेहंसते आखिरी सलाम करते हुए कहा, ‘‘भाई साहब, अगर कोई सामान बाकी रह गया हो तो खुशी से लिख दीजिएगा. मैं पार्सल से भेज दूंगा.’’


उस के बाद कितनी ही बहारें आईं और चली गईं. समय ने अंगड़ाई ली. मैं ने एमए पास कर लिया. बहनों की शादियां कर दीं, पर साथ ही अब्बा का साया भी सिर से उठ गया. साल 2002 के घाव भी भरने लगे थे. हालांकि हर समय पूरी कौम पर खौफ का साया रहता था.


इस के कुछ दिन बाद एक दौर फिर ऐसा आया कि लोग खाड़ी की तरफ दौड़ लगाने लगे. मुझे से भी कहा गया, ‘‘चलो, खाड़ी में वहीं नौकरी ढूंढ़ो. यहां रखा ही क्या है? वहां पढ़ेलिखे लोगों की बहुत जरूरत है. कहीं अच्छी जगह मिल जाएगी.’’


मैं ने कहा, ‘‘भाई, मुझे तो अपने वतन से प्यार है. अगर जाना चाहते तो वालिद 1948 में न चले जाते. अब खराब दिन हैं, पर मैं तो यहीं रहूंगा.’’


‘‘अरे मियां, वहां चलोगे तो माल खाओगे, माल. यहां भूखे भी मरोगे और न जाने क्याक्या सहोगे.’’


मैं ने कहा, ‘‘अच्छा, तो माल खाने दौड़ रहे हो वहां?’’ वतन की खिदमत का कोई खयाल नहीं? याद रखना, माल खातेखाते एक दिन ऐसी मार खाओगे कि नानी याद आ जाएगी और दुनिया वाले सुनेंगे कि माल के लालच से दौड़ लगाने वालों का क्या अंजाम होता है? किसी दिन इराक जैसा हाल न हो कि न यहां के रहो, न वहां के.”


एक दिन टाइम्स औफ इंडिया में पढ़ा कि अहमदाबाद के किसी कालेज में लैक्चरर की जरूरत है. मैं ने भी अर्जी डाल दी और अहमदाबाद में आ गया. मेरे अधिकतर रिश्तेदार दुबई वगैरह चले गए थे. मेरे लिए तो गुजरात हो या बड़ौदा सब जगह एक सी थी.


मेरे एक दूर के रिश्ते के फूफा थे. एक दिन जामनगर से उस का एक पत्र आया, जिस में उन्होंने शादी कर लेने का आग्रह किया था. लिखा था, “लड़की मेरी देखीभाली है. गरीब घराने की है. बहुत ही सुशील और नेक है. उम्मीद है, तुम्हें जरूर पसंद आएगी. अब की छुट्टियों में यहां आ जाओ.’’


मैं भी अकेला कहां तक रहता. शादी की अनुमति दे दी. जब छुट्टियों में रायबरेली पहुंचा तो मैं ने साफसाफ सुना दिया, ‘‘मुझे बीवी के अलावा दहेज के नाम पर एक फूटी कौड़ी भी नहीं चाहिए.’’


फूफा ने कहा, “लड़की देखभाल लो. उस के बाद तुम्हें जोकुछ पूछताछ करनी हो, इतमीनान से कर लो तो शादी की बात तय हो जाए.’’


मैं ने कहा, ‘‘फूफाजान, लड़की और घरबार आप का देखाभाला है न?’’


‘‘जी हां.’’


‘‘तो फिर इस में क्या देखना है. बिसमिल्लाह कीजिए.’’


मैं ने सोचा पहले भी देखभाल कर कौन सा सुख पाया है.


‘‘नहीं बेटे, आजकल का जमाना और है, तुम लड़की देख कर पसंद कर लो, वरना बाद में जब कभी पछताना पड़े तो फूफा को कोसोगे. हां, लड़की के चालचलन और सलीका वगैरह की जवाबदारी मेरी.’’


इन बेगम को देखा, पसंद आ गई. फूफा ने हमारे ससुर के सामने ही मुझ से पूछा, ‘‘भैया, तुम्हें दहेज नहीं चाहिए, पर लड़की के साथ सोनेचांदी के जेवर तो चाहिए न?’’


‘‘नहींजी, अगर हमारे हाथपैर सलामत हैं, तो अपनी जरूरत की चीजें हम खुद बना लेंगे.’’


मेरी बातों से ससुर साहब इतने प्रभावित हुए कि जोश में आ कर उन्होंने मुझे गले से लिपटा लिया. उन की आंखों में आंसू भर आए. कहने लगे, ‘‘बेटा, तुम ने मुझ गरीब को उबार लिया.’’


मैं ने कहा, ‘‘अब्बाजान, बस आप की शफाकत का साया सिर पर चाहिए. यह दहेज से ज्यादा कीमती सरमाया है.’’


आखिर, मैं इन बेगम साहिबा को ले आया. कितना बड़ा अंतर है दोनों में. एक थी और एक यह है कि आदेश माने जा रही है. शाहीन के सामने में मूक रहता था, पर अंदर ही अंदर घुटे जाता था.


इधर यह है कि मेरी हर ख्वाहिश को मूक रह कर पूरा किए जा रही है और माथे पर कोई शिकन तक नहीं, चूंकि शाहीन के सामने मैं अंदर ही अंदर घुटे जा रहा था, इसीलिए मैं यह महसूस करता आ रहा था कि जरूर इन बेगम साहिबा को भी कुछ अंदर ही अंदर खाए जा रहा है. मैं ने देखा, बेगम अपने दोनों बच्चों को सुला रही थीं. मैं ने मुसकरा कर पूछा, ‘‘अच्छा तो यह मुलाकात कैसे हो गई?’’


बेगम ने फरहान को थपकी देते हुए कहा, ‘‘फूफीजान के इसरार पर मैं 15-20 दिन वहां मेहमान के रूप में रही थी. इसी दौरान आप की चहेती भी आ टपकीं.’’


‘बड़ी खुशकिस्मत हो तब तो. खुदा भी शक्करखोर को शक्कर दे ही देता है,’’ मैं ने हंस कर कहा.


‘‘एक दिन दोपहर को मैं फरहान के लिए पास्ता बना रही थी. फूफी भी पास में बैठी थीं कि शाहीन आ धमकी. सिर से पैर तक जेवर, गालों पर पाउडर व लाली थी. बस छमकछल्लो छमछमाती आई. न अदब, न लिहाज. आते ही एसी चला कर बिस्तर पर लेट गई.


फूफी ने पूछा, ‘कहो कैसे आना हुआ?’


‘‘कहने लगी, ‘जरा खाला के यहां आई थी. सोचा कि फूफीजान से भी मिलती चलूं’.’’


‘‘फूफी बोली, ‘बड़ी नवाजिश की गरीब पर. खैर, हम याद तो आए. और क्या हालचाल हैं?’


“वह बोली, ‘ठीक हैं, यह है दुलहन?’”


‘‘‘हां भई, यह हमारी दुलहन है. अहमदाबाद से आई है.’”


‘‘‘अच्छा, तो आप का अहमदाबाद में भी कोई है?’”


‘‘‘अरे भई, हमारा कहां और कौन नहीं है? हम तो जिधर भी नजर डालते हैं, अपने ही अपने पाते हैं.’”


‘‘सुनते ही शाहीन जो अभी तक इतरा कर खिलखिला रही थी, उस के चेहरे का रंग ही उड़ गया. चेहरे पर पसीना आ गया. फूफी ने पूछा, ‘ खैरियत तो है?’ उस ने हकलाते हुए कहा, ‘फूफीजान, जरा एक काम याद आ गया. मैं फिर आऊंगी.’ और वह जूते पहन कर तेजी से चलती बनी. जीने से उतर कर टैक्सी ली और गायब… मैं तो भौंचक्की देखती ही रह गई.


‘‘उस के जाने के बाद मैं ने पूछा, ‘फूफीजान, कौन थी, यह साहिबा?’’’


‘‘यह शाहीन थी. तुम्हारे खाविंद की पहली बीवी…


अब दुबई से आ कर पहले तो भाई के पास रही, पर फिर अलग रह रही है. 2 सहेलियों के साथ एक पैकिंग फैक्टरी में काम करती थी. चूंकि और कोई खर्च नहीं है, इसलिए बनठन कर रहती है, पर अकड़ अभी तक गई नहीं इसलिए न हिंदुस्तान का, न ही पाकिस्तान का कोई शादी करने को तैयार हो रहा है.’’


‘‘अच्छा तो यह है, वह. मैं अवाक हो कर बोली, ‘और इस ने तलाक क्यों ली थी?’


‘‘‘अरे, औरतें जब तलाक लेती हैं तो उन के पास एक ही तो बहाना होता है, खाविंद नामर्द है.’


‘‘सुनते ही मुझे हंसी आ गई. हंसतेहंसते पेट दुखने लगा. यह सोच कर कि नामर्द और तुम?”


‘‘थोड़ी देर खामोश रह कर फूफी बोलीं, ‘और देखा, जब उस ने देखा कि मम्मू की दोनों औलादें हैं तो मुंह चुरा कर किस तरह भाग खड़ी हुई.’ फिर बोली, ‘‘फूफी ने यह भी बताया कि मेरे आने के बाद लोगों को गलतफहमी भी दूर हो गई कि तलाक तो बहाना था. अब शायद कोई मर्द उस से आसानी से शादी करने को राजी न हो.’’


उस की ये बातें सुन कर मैं भी हंस पड़ा. मैं ने एक आह भरी और जबान से अपनेआप ही निकल पड़ा, ‘‘जाने वो कैसे लोग थे जिन को, प्यार से प्यार मिला. लेकिन हम तो सब तरफ से तरसते ही रहे.’’


‘‘अच्छाजी, तो आप को किसी का प्यार ही नहीं मिला?’’ उस ने बड़े ही शोख अंदाज में कहा.


‘‘तरसते रहे.’’


‘‘और ये दोनों निशानियां किस बात की नजीर पेश कर रही हैं?’’ उस ने बच्चों की तरफ संकेत कर के कहा.


‘‘इसे प्यार की निशानी कहती हो? अरे, ये तो सैक्स की निशानी हैं. सैक्स तो हर एक इनसान में होता ही है. हम भूल से सैक्स को प्यार समझ बैठते हैं.’’


वह पलंग से उठी और आ कर मुझ से लिपट गई. वह रोआंसी हो कर बोली, ‘‘माफ करना. मैं आज तक आप को नहीं समझ सकी थी. मैं ने आप को…’’


‘‘तो क्या समझा था अभी तक मुझे?’’ मैं ने उस की चिबुक हाथ से ऊंची करते हुए पूछा.


मेरे झलकते भावों को पढ़ते हुए उस ने मेरी छाती में चेहरा गड़ाते हुए धीमे से कहा, ‘‘सैकंड हैंड.’’


मैं उछल पड़ा, “सैकंड हैंड.’’


उस के दोनों कंधे पकड़ कर उस के चेहरे पर आंखें गड़ाते हुए मैं ने कहा, ‘‘हम ने स्कूल और कालेजों में सैकंड हैंड किताबों के लिए तो खूब सुना है. लेकिन इनसान भी सैकंड हैंड होते हैं, यह आज ही सुना,’’ बोल कर मैं मुसकरा पड़ा.


‘‘माफ करना, सरताज,’’ उस ने मुझे आलिंगन में भरते हुए कहा, ‘‘अब मेरी आंखें खुल गई हैं. आज महसूस हो रहा है कि आप मेरे हैं, सिर्फ मेरे.’’


‘‘अच्छाजी, तो यह गम खाए जा रहा था अब तक कि हम पराए हैं?” इस के साथ ही हम दोनों हंस पड़े.


पहली पत्नी शाहीन को ले कर रेहाना के मन में कई शंकाएं थीं, आखिर अच्छेभले व्यक्ति से तलाक लेने का रहस्य क्या था? पर एक दिन जब परदा हट ही गया तो रेहाना मेरे कदमों में झुक गई.

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