कहानी: सिसकी
चिंटू थोड़ी सी मैगी और उस की प्लेट में डाल देता. उस के सामने पानी का गिलास रख देता. रानू जब खा चुकी होती तब जितना नूडल्स बच जाता वह चिंटू खा लेता.
वैसे तो चिंटू ने एक छोटा स्टूल रख लिया था. जब वह उस पर खड़ा हो जाता तब ही उस के हाथ किचन में रखे गैसस्टोव तक पहुंचते. ऐसा नहीं था कि उस की हाइट कम थी बल्कि वह था ही छोटा. 8 साल की ही तो उस की उम्र थी. वह स्टूल पर खड़ा हो जाता और माचिस की तीली से चूल्हा जला लेता. उसे अभी गैस लाइटर से चूल्हा जलाना नहीं आता था. वैसे तो उसे माचिस से भी चूल्हा जलाना नहीं आता था.
तीनचार तीलियां बरबाद हो जातीं तब जा कर चूल्हा जलता. कई बार तो उस का हाथ भी जल जाता. वह अपने हाथों को पानी में डाल कर जलन मिटाने का प्रयास करता. चूल्हा जल जाने के बाद वह पानी भरा पतीला उस के ऊपर रख देता और नूडल्स का पैकेट खोल कर उस में डाल देता. अभी उसे संशी से पकड़ कर पतीला उतारना नहीं आता था, इसलिए वह चूल्हे को बंद कर देता और तब तक यों ही खड़ा इंतजार करता रहता जब तक कि पतीला ठंडा न हो जाता. वह सावधानीपूर्वक पतीला उतारता. फिर उस में मसाला डाल देता. चम्मच से उसे मिलाता. फिर एक प्लेट में डाल कर अपनी छोटी बहन रानू के सामने रख देता. रानू दूर बैठी अपने भाई को नूडल्स बनाते देखती रहती.
उसे बहुत जोर की भूख लगी थी. जैसे ही प्लेट उस के सामने आती, वह खाने बैठ जाती. चिंटू उसे खाता देखता रहता, ‘‘और चाहिए?’’
‘‘हां,’’ रानू खातेखाते ही बोल देती.
चिंटू थोड़ी सी मैगी और उस की प्लेट में डाल देता. उस के सामने पानी का गिलास रख देता. रानू जब खा चुकी होती तब जितना नूडल्स बच जाता वह चिंटू खा लेता. अकसर नूडल्स कम ही बच पाते थे. दादाजी नूडल्स नहीं खाते, उन के लिए चिंटू चाय बना देता. फिर चिंटू दोनों की प्लेट, चाय का कप और पतीला साफ कर रख देता. वह रानू का हाथ पकड़ कर बाहर के कमरे में ले आता और दोनों चुपचाप बैठ जाते.
इस कमरे में ही दादाजी का पलंग बिछा था जिस में वे लेटे रहते. उन्हें लकवा लगा हुआ था, इस कारण उन से चलते नहीं बनता था. हालांकि थरथराहट के साथ वे बोल तो लेते थे पर उन की इस भाषा को चिंटू कम ही सम?ा पाता था. चिंटू ही उन का हाथ पकड़ कर उन्हें बाथरूम तक ले जाता और फिर बिस्तर पर छोड़ देता. वे असहायी नजरों से चिंटू को देखते रहते. उन की आंखों से बहने वाले आंसू इस बात के गवाह थे कि वे बहुत कष्ट में हैं.
इस कमरे में ही चिंटू के मातापिता की फोटो लगी थी जिस पर फूलों का हार डला था. फोटो देख कर वे मम्मीपापा की यादों में खो जाते.
‘मम्मी, बहुत जोरों की भूख लगी है.’
‘हां, अभी रोटी सेंकती हूं, तब तक नूडल्स बना दूं क्या?’
‘रोजरोज मैगी, मैं तो बोर हो गया हूं, आप तो परांठे बना दो.’
‘अच्छा, चलो ठीक है. पहले तुम को परांठा बना देती हूं, बाद में काम कर लूंगी,’ यह कहती हुई मम्मी अपना हाथ धो कर किचन में चली जातीं.
कुछ ही देर में वे प्लेट में परांठा, अचार और शक्कर रख कर ले आतीं. ‘शक्कर कम खाया करो, चुनमुना काटते हैं,’ वे हंसती हुई कह देतीं.
‘‘पर मु?ो बगैर शक्कर के परांठा खाना अच्छा नहीं लगता, मम्मी.’
‘अचार तो है, उस से खाओ.’
‘अचार, तेल वाला और फिर कितनी मिर्ची भी तो है उस में,’ चिंटू नाक सिकोड़ लेता.
‘अच्छा बाबा, तुम को जो पसंद है वह खाओ,’ यह कहती हुईं वे रानू को गोद में उठा लेतीं, ‘तुम क्या खाओगी?’
मुझे दूध चाहिए, चौकलेट वाला.’
‘दूध ही दूध पीती हो, एकाध परांठा भी खा लिया करो.’
सहेंद्र शाम को घर लौटते तो अपने दोनों बच्चों को साथ ले कर घुमाने ले जाते. बच्चे उन के आने की राह देखते रहते.
‘मम्मी, आप की नूडल्स और आप का परांठा मु?ो तो बहुत बुरा लगता है. ये तो भैया के लिए ही रहने दो. मु?ो तो दूध दो चौकलेट वाला,’ यह कह कर वह मम्मी के गले से जोर से चिपक जाती.
मम्मी उसे गले से लगाए ही दूध गरम करतीं, फिर उस में चौकलेट मिक्स मिलातीं और रानू को अपनी गोद में बिठा कर उसे प्यार से पिलातीं.
चिंटू और रानू बाहर के कमरे में बैठ कर एकटक अपनी मम्मी और पापा की फोटो को देखते रहते. उन की आंखों से आंसू बहते रहते.
‘चिंटू, चलो बाजार चलते हैं, तुम्हें जूता लेना है न?’
‘अरे, अभी तो मैं होमवर्क कर रहा हूं.’
‘आ कर कर लेना.’
‘अच्छा चलो पर आइसक्रीम भी खिलाना.’
मम्मी तक आवाज पहुंच चुकी थी.
‘खबरदार जो आइसक्रीम खाई, सर्दी हो जाती है. नाक बहने लगती है,’ मम्मी की जोर से आवाज अंदर से ही आती.
‘अरे, एकाध आइसक्रीम खा लेने से सर्दी नहीं होती,’ पापा बचाव करते.
‘रहने दो, तुम्हें क्या है, परेशान तो मु?ो ही होना पड़ता है.’
पापा सम?ा जाते कि अब मम्मी से बहस करना खतरे से खाली नहीं है. वे चुप हो जाते पर हाथों के इशारे से चिंटू को सम?ा देते कि वे बाजार में आइसक्रीम खाएंगे ही.
‘रानू को भी ले लें,’ कहते हुए पापा रानू को गोद में उठा लेते.
बाजार से जब लौटते तो एक आइसक्रीम मम्मी के लिए ले कर आना न भूलते.
‘देख लेना चिंटू, मम्मी बेलन ले कर मारने दौड़ेगी.’
‘पर पापा, हम लोग सभी ने आइसक्रीम खा ली है. मम्मी अकेली नहीं खा पाई हैं. उन के लिए तो ले जानी ही पड़ेगी न.’
‘रख लो बेटा, मैं भी उस के साथ बेईमानी नहीं कर सकता.’
मम्मी को आइसक्रीम रानू के हाथों से दिलाई जाती. मम्मी कुछ न बोलतीं. आइसक्रीम को फ्रिज में रख देतीं.
‘अरे खा लो, फ्रिज में वह पानीपानी हो जाएगी,’ पापा बोलते जरूर पर वे मम्मी की ओर देख नहीं रहे होते थे.
‘रख ली, तुम्हारा लाड़ला फिर मांगेगा तो उसे देनी पड़ेगी.’
‘अरे, तुम तो खा लो. उसे दूसरी ला देंगे.’
पर मम्मी न खातीं. आइसक्रीम शाम को उसे फिर से मिल जाती.
बाहर किसी के दरवाजा खटखटाने की आवाज आई. चिंटू बो?िल कदमों से दरवाजे की ओर बढ़ गया. वह जानता था कि इस समय केवल कामवाली काकी ही आई होंगी. वैसे भी अब उन के घर में कोई आताजाता था ही नहीं. पापा थे तब कोई न कोई आताजाता रहता था पर अब तो जैसे सभी ने इस घर की तरफ से मुंह फेर लिया था. कामवाली काकी ही थीं दरवाजे पर.
दरवाजा खुलते ही वे अंदर आ गईं. उन्होंने लाड़ से रानू को गोद में उठा लिया. काकी जब भी इन बच्चों को देखतीं उन की आंखों से आंसू बह निकलते. कितना अच्छा घर था. सभी लोग हंसीखुशी रहते थे पर एकाएक कुदरत ने ऐसा कर दिया कि महीनेभर में ही सारी खुशियां गायब हो गईं.
चिंटू के पापा सहेंद्र थे भी भले आदमी. वे कचहरी में नौकरी करते थे. जरूरतमंद लोगों की हमेशा मदद करने और उन की ईमानदारी की वजह से सभी लोग उन की इज्जत करते थे. उम्र ज्यादा नहीं थी, केवल 35 साल. उन की पत्नी रीना थीं तो घरेलू महिला मगर वे सामाजिक कामों में आगे रहतीं. सहेंद्र उन्हें कभी रोकते नहीं थे. 2 संतानें थीं. बड़ा बेटा 8 साल का और छोटी बेटी
6 साल की. पिताजी थे जो उन के साथ ही रहते थे. मां का देहांत तो कुछ वर्ष पूर्व ही हो गया था. मां की मौत ने पिताजी को तोड़ दिया था. वे बिस्तर पर लग गए. पिछले साल उन्हें लकवा लग गया. सहेंद्र उन की सेवा करते और उन की पत्नी भी उन्हें अपने पिता की तरह ही सहयोग करतीं.
वैसे तो सहेंद्र का एक भाई और था महेंद्र पर वह शादी हो जाने के बाद से ही इसी शहर में अलग रह रहा था. एक बहन भी थी जिस की भी शादी हो चुकी थी. पिताजी ने बाकायदा अपनी जायदाद को 3 भागों में बांट दिया था. महेंद्र को भी एक हिस्सा मिला और बहन को भी. वैसे तो पिताजी चाहते थे कि वे एक हिस्सा अपना भी बचाएं, बुढ़ापे का क्या भरोसा, किसी ने साथ नहीं दिया तो कम से कम दो टाइम की रोटी तो खा ही लेंगे पर सहेंद्र ने उन्हें भरोसा दिला दिया था कि वे पूरे समय उन की देखभाल करेंगे, वे चिंता न करें. उन्होंने सहेंद्र की बात मान ली.
सहेंद्र जानते थे कि इस चौथे हिस्से के चक्कर में भाईबहनों में ?ागड़ा हो जाएगा. वे नहीं चाहते थे कि उन के भाई और बहनों के बीच कभी भी जायदाद को ले कर कोई ?ागड़ा हो. सहेंद्र अपने भाई महेंद्र को बहुत स्नेह करते थे और बहन को भी. बहन भी जब मायके के नाम पर आती थी तो सहेंद्र के घर ही आती थी. महेंद्र के घर तो केवल बैठने जाती थी. अकसर जब भी बहन मायके में रुक कर अपनी ससुराल जाती तो सहेंद्र फूटफूट कर रोते जैसे अपनी बिटिया को विदा कर रहे हों.
सहेंद्र शाम को घर लौटते तो अपने दोनों बच्चों को साथ ले कर घुमाने ले जाते. बच्चे उन के आने की राह देखते रहते. कई बार उन की पत्नी भी साथ हो लेती पर अकसर ऐसा नहीं हो पाता था. रीना घर में ठहर जाती और बच्चों के लिए खाना बनाने लगती. शाम का खाना सभी लोग मिल कर खाते. रानू को खाना खिलाना रीना के लिए बड़ी चुनौती होती. वह पूरे घर में दौड़ लगाती रहती और हाथों में कौर पकड़े रीना उस के पीछे भागती रहती. रीना जानती थी कि रानू का यह खेल है, इसलिए वह कभी ?ां?ालाती नहीं थी. चिंटू पापा के साथ बैठ कर खाना खा लेता.
रीना तो पिताजी को खाना खिलाने के बाद ही खुद खाना खाती. पिताजी के लिए खाना अलग से बनाती थी. रीना स्वयं सामने खड़ी रह कर पिताजी को खाना देती और फिर उन की दवाई भी देती. वह अपने पल्लू से पिताजी का चेहरा साफ करती और उन्हें सुला देती. तब तक सहेंद्र अपने बच्चों का होमवर्क करा देते.
सहेंद्र के परिवार में कोई समस्या न थी, पर एक दिन अचानक सहेंद्र बीमार हो गए. औफिस से लौटे तो उन्हें तेज बुखार था. हलकी खांसी भी चल रही थी. वे रातभर तेज बुखार में पड़े रहे. उन्हें लग रहा था कि मौसम के परिवर्तन के कारण ही उन्हें बुखार आया है. हालांकि शहर में कोरोना बहुत तेजी से फैल रहा था. इस कारण से रीना भयभीत हो गई थी.
‘आप डाक्टर से चैक करा लें,’ रीना की आवाज में भय और चिंता साफ ?ालक रही थी.
‘नहीं, एकाध दिन देख लेते हैं, थकान के कारण बुखार आ गया हो शायद.’
रीना की घबराहट बढ़ती जा रही थी. रीना ने अपने देवर महेंद्र को फोन कर सहेंद्र की बीमारी के बारे में बता दिया था, पर महेंद्र देखने भी नहीं आया.
वे उस दिन औफिस नहीं गए. उन्होंने अपने साहब को फोन कर औफिस न आ पाने के बारे में बता दिया था. रीना ने बच्चों को उन के पास नहीं जाने दिया. चिंटू दूर से ही पापा से बातें करता रहा. पापा के बगैर उस का मन लगता कहां था. रानू तो दौड़ कर उन के बिस्तर पर चढ़ ही गई. बड़ी मुश्किल से रीना ने उसे उन से अलग किया. सहेंद्र दोतीन दिनों तक ऐसे ही पड़े रहे. इन दोतीन दिनों में रीना ने कई बार उन से डाक्टर से चैक करा लेने को बोला, पर वे टालते रहे.
रीना की घबराहट बढ़ती जा रही थी. रीना ने अपने देवर महेंद्र को फोन कर सहेंद्र की बीमारी के बारे में बता दिया था, पर महेंद्र देखने भी नहीं आया.
उस दिन रीना ने फिर महेंद्र को फोन लगाया, ‘भाईसाहब, इन की तबीयत ज्यादा खराब लग रही है. हमें लगता है कि इन्हें डाक्टर को दिखा देना चाहिए.’
‘अरे, आप चिंता मत करो, वे ठीक हो जाएंगे.’
‘नहीं, आज 5 दिन हो गए, उन का बुखार उतर ही नहीं रहा है. आप आ जाएं तो इन्हें अस्पताल ले जा कर दिखा दें,’ रीना के स्वर में अनुरोध था.
‘अरे, मैं कैसे आ सकता हूं, भाभी. यदि भाई को कोरोना निकल आया तो?’
‘पर मैं अकेली कहां ले कर जाऊंगी. आप आ जाएं भाईसाहब, प्लीज.’
‘नहीं भाभी, मैं रिस्क नहीं ले सकता.’ और महेंद्र ने फोन काट दिया था.
रीना की बेचैनी अब बढ़ गई थी. उस ने खुद ही सहेंद्र को अस्पताल ले जाने का निर्णय कर लिया.
रीना ने सहेंद्र को सहारा दे कर औटो में बिठाया और खुद उसे पकड़ कर बाजू में ही बैठ गई. बड़ी मुश्किल से एक औटो वाला उन्हें अस्पताल ले जाने को तैयार हुआ था, ‘एक हजार रुपए लूंगा बहनजी.’
‘एक हजार, अस्पताल तो पास में ही है. 50 रुपए लगते हैं और आप एक हजार रुपए कह रहे हो?’
‘कोरोना चल रहा है बहनजी और आप मरीज को ले जा रही हैं. यदि मरीज को कोरोना हुआ तो… मैं तो मर ही जाऊंगा न फ्रीफोकट में.’ औटो वाले ने मजबूरी का पूरा फायदा उठाने की ठान ही ली थी.
‘पर भैया, ये तो बहुत ज्यादा होते हैं.’
‘तो ठीक है, आप दूसरा औटो देख लो,’ कह कर औटो स्टार्ट कर लिया. रीना एक तो वैसे ही घबराई हुई थी, बड़ी मुश्किल से औटो मिला था, इसलिए वह एक हजार रुपए देने को तैयार हो गई. उस ने सहेंद्र को सहारा दिया. सहेंद्र 5 दिनों के बुखार में इतने कमजोर हो गए थे कि स्वयं से चल भी नहीं पा रहे थे. रीना के कंधों का सहारा ले कर वे औटो में बैठ पाए. औटो में भी रीना उन्हें जोर से पकड़े रही. बच्चे दूर खड़े हो कर उन्हें अस्पताल जाते देख रहे थे.
सहेंद्र को कोरोना ही निकला. उस की रिपोर्ट पौजिटिव आई. डाक्टरों ने सीटी स्कैन करा लेने की सलाह दी. उस की रिपोर्ट दूसरे दिन मिल पाई. फेफड़ों में इन्फैक्शन पूरी तरह फैल चुका था. सहेंद्र को किसी बड़े अस्पताल में भरती कराना आवश्यक था. रीना बुरी तरह घबरा चुकी थी. वह अकेले दूसरे शहर कैसे ले कर जाएगी. उस ने एक बार फिर महेंद्र से बात की, ‘भाईसाहब, इन्हें कोरोना निकल आया है और सीटी स्कैन में बता रहे हैं कि फेफड़ों में इन्फैक्शन बहुत फैल चुका है, तत्काल बाहर ले जाना पड़ेगा.’
‘तो मैं क्या कर सकता हूं, भाभी?’
‘मैं अकेली कहां ले कर जाऊंगी, आप साथ चलते तो मु?ो मदद मिल जाती.’
‘ऐसा कैसे हो सकता है, भाभी, कोरोना मरीज के साथ मैं कैसे चल सकता हूं?’
‘मैं बहुत मुसीबत में हूं, भाईसाहब. आप मेरी मदद कीजिए, प्लीज.’
‘देखो भाभी, इन परिस्थितियों में मैं आप की कोई मदद नहीं कर सकता.’
‘ये आप के भाई हैं भाईसाहब, यदि आप ही मुसीबत में मदद नहीं करेंगे तो मैं किस के सामने हाथ फैलाऊंगी.’ रीना रोने लगी थी, पर रीना के रोने का कोई असर महेंद्र पर नहीं हुआ.
‘नहीं भाभी, मैं रिस्क नहीं ले सकता. आप ही ले कर जाएं,’ और महेंद्र ने फोन काट दिया.
हताश रीना बिलख पड़ी. उस की सम?ा में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.
दोतीन अस्पताल में भटकने के बाद आखिर एक अस्पताल में सहेंद्र को भरती कर ही लिया गया. उसे सीधे आईसीयू में ले जाया गया जहां किसी को आने की अनुमति न थी. रीना को एंबुलैंस बहुत मुश्किल से मिल पाई थी. उस ने सहेंद्र के औफिस में फोन लगा कर साहब को बोला था. साहब ने ही एंबुलैंस की व्यस्था कराई थी. हालांकि, एंबुलैंस वाले ने उस से 20 हजार रुपए ले लिए थे. उस ने कोई बहस नहीं की. इस समय उसे पैसों से ज्यादा फिक्र पति की थी. एंबुलैंस में बैठने के पहले उस ने एक बार फिर अपने देवर को फोन लगाया था, ‘इन के साथ मैं जा रही हूं. घर में बच्चे और पिताजी अकेले हैं. आप उन की देखभाल कर लें.’
महेंद्र ने साफ इनकार कर दिया. उस ने अपनी ननद को भी फोन लगाया था. ननद पास के ही शहर में रहती थी, पर ननद ने भी आने से मना कर दिया. रीना अपने साथ बच्चों को ले कर नहीं जा सकती थी और उन्हें ले भी जाती तो पिताजी… उन की देखभाल के लिए भी तो कोई चाहिए. उस ने अपनी कामवाली बाई को फोन लगाया, ‘मुन्नीबाई, मु?ो इन्हें ले कर अस्पताल जाना पड़ रहा है, घर में बच्चे और पिताजी अकेले हैं. तुम उन की देखभाल कर सकती हो?’ रीना के स्वर में दयाभाव थे हालांकि, उसे उम्मीद नहीं थी कि मुन्नी उस का सहयोग करेगी. जब उस के सगे ही मदद नहीं कर रहे हैं तो फिर कामवाली बाई से क्या अपेक्षा की जा सकती है, पर उस के पास कोई और विकल्प था ही नहीं, इसलिए उस ने एक बार मुन्नी से भी अनुरोध कर लेना उचित सम?ा.
‘ज्यादा तबीयत खराब है साहब की?’
‘हां, दूसरे शहर ले कर जाना पड़ रहा है.’
‘अच्छा, आप बिलकुल चिंता मत करो, मैं आ जाती हूं आप के घर.’
मुन्नीबाई ने अपेक्षा से परे जवाब दिया था.
‘सच में तुम आ जाओगी मुन्नीबाई?’ रीना को विश्वास नहीं हो रहा था.
‘हां, मैं अभी आ जाती हूं. आप चिंता न करें,’ मुन्नीबाई के स्वर में दृढ़ता थी.
‘पर मुन्नीबाई, मालूम नहीं मु?ो कब तक अस्पताल में रहना पड़े.’
‘मैं रह जाऊंगी, आप साहब का इलाज करा लें.’
‘मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगी, मुन्नीबाई,’ रीना की आवाज में कृतज्ञता थी.
‘इस में एहसान की क्या बात, बाईसाहिबा. हम लोग एकदूसरे की मदद नहीं करेंगे तो हम इंसान कहलाने लायक भी नहीं होंगे,’ मुन्नीबाई के स्वर में अपनत्व ?ालक रहा था.
रीना के निकलने के पहले ही मुन्नीबाई आ गई थी. मुन्नीबाई के आ जाने से उस की एक चिंता तो दूर हो
गई थी.
सहेंद्र को भरती हुए 2 दिन ही हुए थे कि रीना को भी भरती होना पड़ा था. सहेंद्र को भरती करा लेने के बाद उसे तो आईसीयू में जाने नहीं दिया जा रहा था तो वह अस्पताल के परिसर में बैठी रहती थी. उस दिन उसे वहां तेज बुखार से तड़पता देख कर नर्स ने अस्पताल में भरती करा दिया था. पहले तो उसे जनरल वार्ड में रखा गया, पर जब उस की तबीयत और बिगड़ी तो उसे भी आईसीयू में ही ले जाया गया. पतिपत्नी दोनों के पलंग आमनेसामने थे. सहेंद्र ने जैसे ही रीना को आईसीयू वार्ड में देखा तो उस का चेहरा पीला पड़ गया. उस की आंखों से आंसू
बह निकले.
रीना बेहोशी की हालत में थी, इसलिए वह अपने पति को नहीं देख पाई. सहेंद्र बहुत देर तक आंसू बहाते रहे. वे अपनी पत्नी की इस हालत का जिम्मेदार खुद को ही मान रहे थे. रीना की बेहोशी दूसरे दिन दूर हो पाई. उस ने अपने चेहरे पर मास्क लगा पाया जिस से औक्सीजन उस के अंदर जा रही थी. घड़ी की टिकटिक करने जैसी आवाज चारों ओर गूंज रही थी. उस के हाथ में बौटल लगी हुई थी. वह बहुत देर तक हक्काबक्का सी सब देखती रही. उसे सम?ा में आ गया था कि वह भी आईसीयू वार्ड में भरती है. ऐसा सम?ा में आते ही उस की निगाहें अपने पति को ढूंढ़ने लगीं. सामने के बैड पर पति को देखते ही वह बिलख पड़ी. सहेंद्र भी पत्नी को यों ही एकटक देख रहे थे. उन का मन हो रहा था कि वे पलंग से उठ खड़े हों और पत्नी के पास जा कर उसे ढाढ़स बंधाएं पर वे हिल भी नहीं पा रहे थे. पतिपत्नी दोनों आमनेसामने के बैड पर लेटे एकदूसरे को देख रहे थे. दोनों की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे.
मुन्नीबाई ने किसी को कुछ नहीं बताया. उस ने दोतीन बार महेंद्र को फोन लगाया, तब जा कर महेंद्र से ही बात की, ‘मैं कामवाली बाई बोल रही हूं.
रीना की सांसें सब से पहले थमीं थीं. पति को देखते हुए उस ने अंतिम सांस ली. सहेंद्र को तो तब ही पता चला जब उस ने रीना का बैड खाली देखा. उस की ?ापकी लग गई थी. उस बीच में रीना ने अंतिम सांस ली थी. नर्स ने बताया था कि सामने वाले बैड वाली महिला की मुत्यु अभीअभी हुई है. नर्स को पता नहीं था कि वह उस की पत्नी थी. पत्नी की मुत्यु का समाचार सुन कर सहेंद्र को गहरा धक्का लगा और शाम तक वे भी चल बसे. दोनों की डैडबौडीज शवगृह में रख दी गई थीं.
रीना के फोन से मिले नंबर पर अस्पताल के स्टाफ ने फोन कर दोनों की मृत्यु की सूचना दी थी. रीना के मोबाइल में सब से ऊपर महेंद्र का ही नंबर था, इस कारण महेंद्र को फोन लगाया गया पर उस ने फोन नहीं उठाया. दूसरा नंबर मुन्नीबाई का था जिस पर घंटी गई तो फोन तुरंत रिसीव हो गया.
मुन्नीबाई रीना के मोबाइल नंबर को जानती थी. जब से दोनों अस्पताल गए हैं तब से रीना रोज ही उस से बात करती रहती थी और अपने बच्चों के हालचाल जानती रहती थी. इस बार मुन्नीबाई ने जो कुछ सुना, उस से वह दहल गई. उस की सम?ा में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. बच्चों को और पिताजी को इस की सूचना दे या नहीं.
बच्चे वैसे भी जब से पापामम्मी गए हैं तब से ही उदास बैठे हैं. वे तो अभी मृत्यु का मतलब भी नहीं जानते. उस ने खामोशी से दोनों की मृत्यु का समाचार सुना. उस की आंखों से आंसू बह निकले. चिंटू जब भी मम्मी का फोन कामवाली काकी के पास आता था तो मम्मी उस से बात करेंगी, यह सोच कर मुन्नीबाई के पास आ जाता था. रीना मुन्नीबाई से सारा हाल जान लेने के बाद चिंटू से बात करती भी थी और हिदायत देती थी कि मुन्नीबाई को परेशान न करे. आज भी जब फोन की घंटी बजी तो चिंटू मुन्नीबाई के पास आ कर बैठ गया था इस उम्मीद में कि उस की मम्मी उस से भी जरूर बात करेंगी. पर आज मुन्नीबाई ने ही बात नहीं की थी केवल फोन सुना था और फिर बंद कर दिया था.
‘मेरी बात कराओ न, मम्मी से,’ चिंटू ने जैसे ही मुन्नीबाई को फोन बंद करते देखा तो हड़बड़ा गया, ‘प्लीज काकी, मु?ो मम्मी से बात करनी है.’ चिंटू ने मुन्नीबाई का मोबाइल ?ापटने का प्रयास किया, पर जैसे ही उस ने मुन्नीबाई की आंखों से आंसू बहते देखे, वह सहम गया.
मुन्नीबाई ने किसी को कुछ नहीं बताया. उस ने दोतीन बार महेंद्र को फोन लगाया, तब जा कर महेंद्र से ही बात की, ‘मैं कामवाली बाई बोल रही हूं. आप के भाई सहेंद्र साहब और भाभी रीना साहिबा का कोरोना के चलते निधन हो गया है. अभी अस्पताल से फोन आया था.’
‘तो, मैं क्या करूं?’ दोटूक जवाब दे दिया महेंद्र ने.
‘साहबजी, यहां तो केवल बच्चे ही हैं और पिताजी की तबीयत वैसे भी ठीक नहीं हैं, इसलिए मैं ने उन्हें कुछ नहीं बताया है.’
‘हां, तो बता दो,’ महेंद्र के स्वर में अभी भी कठोरता ही थी.
‘आप कैसी बात कर रहे हैं साहबजी, मैं अकेली बच्चों को संभालूंगी कि पिताजी को? आप आ जाएं तो फिर हम बता देंगे.’
‘मैं नहीं आ रहा. तुम को जो अच्छा लगे, सो कर लो,’ महेंद्र ने फोन काट दिया. मुन्नीबाई की सम?ा में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे. उस के पास सहेंद्र की बहन का फोन नंबर भी था. उस ने उन से भी बात कर लेना बेहतर सम?ा. ‘दीदी, सहेंद्र साहब और रीनाजी का निधन अस्पताल में हो गया है.’
‘तुम कौन बोल रही हो?’
‘मैं कामवाली बाई हूं, बच्चों की देखभाल के लिए यहीं रुकी हूं.’
‘ओह अच्छा, कहां मौत हुई है उन की- घर में कि अस्पताल में?’
‘अस्पताल में हुई है, वहीं से अभी फोन आया था.’
‘अच्छा, सुन कर बहुत दुख हुआ,’ उस के स्वर में दुख ?ालका भी.
‘मैडमजी, अभी मैं ने यहां किसी को बताया नहीं है. आप आ जाएं तो बता देंगे.’
‘मैं कैसे आ सकती हूं, मैं नहीं आ पा रही, कोरोना चल रहा है.’
‘फिर, मैं क्या करूं?’ मुन्नीबाई के स्वर में निराशा ?ालक रही थी.
‘वह मैं कैसे बता सकती हूं कि तुम क्या करो.’
‘मैडमजी, अभी तो साहब की डैडबौडी भी अस्पताल में ही है.’
‘कोरोना मरीजों की डैडबौडी परिवार को देते कहां हैं.’
‘पर वे तो कह रहे थे कि अंतिम संस्कार कर लो आ कर.’
‘कहने दो, हम नहीं जाएंगे तो वे अंतिम संस्कार कर देंगे. वैसे, तुम ने महेंद्र भैया से बात की थी क्या?’
‘हां, की थी. उन्होंने भी मना कर दिया है.’
‘तो फिर रहने दो, जैसी प्रकृति की मरजी.’
‘पर मैडमजी के भाई भी हैं और आप बहन भी हैं, आप लोगों को आ कर अंतिम क्रियाकर्म करना चाहिए,’ मुन्नीबाई की ?ां?ालाहट बढ़ती जा रही थी.
‘अब तुम मु?ो मत सिखाओ कि हमें क्या करना चाहिए.’ और बहन ने फोन काट दिया था.
मुन्नीबाई बहुत देर तक मोबाइल पकड़े, ‘हैलो… हैलो…’ करती रही.
मुन्नीबाई ने पिताजी को सारा
घटनाक्रम बता दिया था और वह
करती भी क्या, उस के पास कोई विकल्प रह ही नहीं गया था. पिताजी ने सुना तो वे दहाड़ मार कर रोने लगे. उन्हें रोता देख चिंटू भी रोने लगा. उसे अभी तक कुछ सम?ा में नहीं आ रहा था. वह बहुत देर से मुन्नीबाई के कंधों से चिपका सारी बातें तो सुन रहा था पर सम?ा कुछ नहीं पा रहा था. रानू दूर खेल रही थी. उस ने जब रोने की आवज सुनी तो वह दौड़ कर मुन्नीबाई की गोद में जा कर बैठ गई. अस्पताल से फिर फोन आया. मुन्नीबाई ने सारी परिस्थितियां उन्हें बता दीं.
‘साहबजी, हमारे घर में कोई नहीं है जो अंतिम संस्कार कर सके.’
‘पर अस्पताल को पैसे भी लेने हैं, तुम कौन बोल रही हो?’
‘मैं तो कामवाली बाई बोल रही हूं.’
‘‘घर में और कोई नहीं है?’
‘2 छोटेछोटे बच्चे हैं, बस.’
‘देखो, हम बगैर अपना पैसा लिए डैडबौडी तो देंगे नहीं और न ही उस का क्रियाकर्म करेंगे. वे ऐसे ही रखी रहेंगी.’
‘अब वह आप जानें. आप डैडबौडी से ही पैसा वसूल लें,’ कह कर मुन्नी ने फोन काट दिया. दोबारा फोन की घंटी बजी पर मुन्नीबाई ने फोन नहीं उठाया.
मुन्नीबाई को सम?ा में नहीं आ रहा था कि वह बच्चों को और पिताजी को कैसे संभाले.
अस्पताल से फिर फोन आया. अब की बार उन्होंने दूसरे नंबर से फोन किया था. मुन्नीबाई को लगा कि हो सकता है कि साहबजी ने किया हो, किसी रिश्तेदार का फोन हो, इसलिए उठा लिया.
‘देखो, आप को अस्पताल के पैसे तो देने ही होंगे.’
‘नहीं दे सकते, साहबजी और मेमसाहब दोनों का देहांत हो चुका है तो पैसे कौन देगा.’
‘उन के परिवार में और कोई नहीं है क्या, उन से बात कराओ?’
‘कोई नहीं हैं. जो हैं वे भी मर गए, सम?ा लो,’ मुन्नीबाई की आवाज में तल्खी थी.
‘देखो, वह हम नहीं जानते. आप लोग आ जाएं और हमारा हिसाब चुकता कर दें.’
‘वो मैं ने बताया न, कि मैं तो यहां काम करने वाली बाई हूं, घर में कोई
नहीं है.’
‘हमें इस से कोई मतलब नहीं है. आप पैसे दो और डैडबौडी उठाओ यहां से.’
मुन्नीबाई कुछ नहीं बोली. उसे सम?ा में ही नहीं आ रहा था कि वह जवाब क्या दे.
डैडबौडी नहीं लाई जा सकी. पिताजी बहुत देर तक रोते रहे. फिर चुप हो गए. पर चिंटू को संभाल पाना मुन्नीबाई के लिए कठिन हो रहा था.
‘यदि आप ने हमारे अस्पताल की रकम नहीं चुकाई तो हम आप के घर वसूली करने वालों को भेज देंगे, फिर आप जानो यदि वे कोई गुंडागर्दी करते हैं तो…’
मुन्नीबाई फिर भी चुप ही रही. अस्पताल वाला कर्मचारी बहुत देर तक ऐसे ही धमकाता रहा. कोई जवाब नहीं मिला तो उस ने फोन रख दिया.
डैडबौडी नहीं लाई जा सकी. पिताजी बहुत देर तक रोते रहे. फिर चुप हो गए. पर चिंटू को संभाल पाना मुन्नीबाई के लिए कठिन हो रहा था. वह रहरह कर पूछता, ‘काकी, मम्मीपापा कब आएंगे, मु?ो उन की बहुत याद आ रही है?’
मुन्नीबाई कुछ नहीं बोलती. वह अपने आंसुओं को अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछ लेती. रानू तो उस से दूर हो ही नहीं रही थी. वह उसे अपनी छाती से चिपकाए रहती. परिवार के सभी लोगों को घटना के बारे में पता लग चुका था, पर आया कोई नहीं. महेंद्र भी नहीं आया और न ही बहन आई.
मुन्नीबाई को भी अब अपने घर
जाना था. वह ऐसे कब तक रह
सकती थी, पर वह बच्चों को छोड़ कर जा ही नहीं पा रही थी. घटना के चौथे दिन महेंद्र आए थे अपनी कार में. इस के थोड़ी ही देर बाद बहन भी आई.
‘देखो मुन्नीबाई, हम लोग 2 दिन रुकेंगे, तुम अपने घर चली जाओ.’
वैसे तो मुन्नीबाई का मन घर जाने को हो रहा था पर जिस हावभाव से महेंद्र और उन की बहन आई थीं, उस से वह विचलित हो रही थी, पर उसे जाना ही पड़ा. आखिर वह घर की केवल नौकरानी ही तो थी. चिंटू और रानू उसे छोड़ ही नहीं रहे थे. बड़ी मुश्किल से वह वहां से आ पाई. आते समय उस ने दोनों बच्चों के सिर पर हाथ फेरा और अपने आंसुओं को दबाते हुए लौट आई.
मुन्नी दूसरे दिन ही फिर वहीं पहुंच गई. अपने घर में उस का मन लग ही नहीं रहा था. उसे रहरह कर बच्चों की याद आ रही थी. वह जब सहेंद्र के घर पहुंची तब उसे घर के सामने एक छोटा हाथी खड़ा दिखा. वह चौंक गई, ‘अरे, इस में क्या आया है. कहीं ऐसा तो नहीं कि साहबजी की डैडबौडी ही आई हो…’ वह हड़बड़ाहट में सीधे घर के अंदर घुस गई. घर के अंदर का सारा सामान अस्तव्यस्त हालत में था. दोनों बच्चे एक कोने में खामोश बैठे थे. घर का बहुत सारा सामान पैक हो चुका है. मुन्नीबाई भौंचक रह गई, ‘अरे, आप क्या घर खाली कर कहीं जा रहे हैं?’
‘नहीं, पर अब भैया और भाभी हैं नहीं तो इतने सामान की क्या जरूरत है. बेकार में रखारखा खराब हो जाएगा, इसलिए इस सामान को हम ले जा रहे हैं,’ महेंद्र ने सामान पैक करते हुए ही बोला था. उस ने मुन्नीबाई के चेहरे पर आ रहे भावों को देखा तक नहीं.
मुन्नीबाई का चेहरा पीला पड़ चुका था. वह सम?ा गई थी कि ये लोग अब साहबजी के घर को लूट रहे हैं. ‘पर साहबजी, बच्चे और पिताजी तो हैं ही न, उन्हें तो सामान की आवश्यकता पड़ेगी न.’
‘उन्हें जितने सामान की आवश्यकता है उतना छोड़ दिया है,’ अब की बार बहन ने उत्तर दिया था.
मुन्नीबाई कुछ नहीं बोली. वह अपनी हैसियत जानती थी. दोनों बच्चे, पिताजी और मुन्नीबाई खामोशी के साथ अपने ही घर को लुटते देखते रहे.
सामान ले जाने वाले वाहन के चले जाने के बाद दोनों ही अपनीअपनी कार में बैठ कर निकल गए. जाते समय उन्होंने न तो बच्चों से कोई बात की और न ही पिताजी से. उन के जाने के बाद मुन्नीबाई ने घर के शेष बचे सामान को व्यवस्थित किया और ?ाड़ू लगाई. अब पूरा घर खाली हो चुका था. मुन्नीबाई ने दोनों बच्चों को और पिताजी को खाना खिलाया. उसे भी अपने घर लौटना था, इसलिए उस ने चिंटू को कुछ जरूरी बातें बता दी थीं.
मुन्नीबाई का भी अपना घर है और उसे कुछ और घरों में काम के लिए जाना भी था. वरना उस का मन तो इन बच्चों को छोड़ने के लिए बिलकुल नहीं हो रहा था.
मुन्नीबाई के जाने के बाद चिंटू रानू को अपनी गोद में लिटा कर दादाजी के पलंग के पास ही बैठ गया गुमसुम सा. उसे आज मम्मीपापा की बहुत याद आ रही थी पर वह अपने आंसुओं को दबाए हुए था. उसे एहसास होने लगा था कि वह घर में बड़ा है और रानू की देखभाल उसे ही करनी है.
मुन्नीबाई मजदूर महिला थी. उसे कई घरों में काम कर के इतना पैसा तो कमा ही लेना होता था कि वह अपने परिवार का पेट भर सके. इसलिए वह दोपहर तक ही चिंटू के घर आ पाती थी. उस ने चिंटू को नूडल्स बनाना और चाय बनाना सिखा दिया था ताकि जरूरत पड़ने पर वे भूखे न रह सकें. वह खुद ही अपने पैसे से कुछ सामान ले आती और दोपहर में आने के बाद खाना बना देती. शाम तक वह वहीं रुकती. रानू को नहलाती, उस के कपड़े धो देती और घर की ?ाड़ूबुहारी कर देती.
आज उसे देर हो गई थी. रानू उस की राह देख रही थी. नूडल्स बना कर तो चिंटू ने खिला दिए थे पर उसे मां की गोद चाहिए थी जिस का एहसास वह मुन्नीबाई की गोद में बैठ कर कर लेती थी. जैसे ही दरवाजा खोल कर मुन्नीबाई अंदर आई, रानू उस की गोदी में चढ़ गई. वह रो रही थी. उसे रोता देख कर चिंटू भी रोने लगा था, ‘‘मम्मी तो अब कभी नहीं आएंगी न काकी, आप भी तो मेरी मां ही हैं. आप हमें छोड़ कर मत जाया करो, प्लीज काकी.’’ मुन्नीबाई की आंखों से भी आंसू बह रहे थे. वह मन ही मन अनाथ बच्चों का सहारा बनने का संकल्प ले रही थी.