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कहानी: कैसे ये दिल के रिश्ते

एक साल पूरा हो चुका है धवल को गुजरे, पर अब तक हम सदमे से उबर नहीं सके हैं. पलंग के पास ही हमारी अटैचियां रखी हैं. 

रात के सन्नाटे में घड़ी की हलकी सी टिकटिक हथौड़े की चोट सी प्रतीत हो रही थी. मैं अंधेरे में बहुत देर से इधरउधर ताक रही थी. रोज का क्रम बन गया है अब यह. धवल इस दुनिया से क्या गया हमारी दुनिया ही वीरान हो गई. मैं ने प्रणव की ओर देखा, वह गहरी नींद सोए हुए थे.


प्रणव को जवान बेटे की मौत का गम न हो, ऐसी बात नहीं है. वे भी मेरी तरह भीतर से पूरी तरह टूट चुके हैं पर उन्हें अनिद्रा के रोग ने नहीं सताया है. वे रात को ठीक से सो लेते हैं, पर मुझे न दिन में चैन है न रात में. रहरह कर धवल की स्मृतियां विह्वल कर जाती हैं. बूढ़े मांबाप के लिए जवान बेटे की मौत से बढ़ कर दारुण दुख शायद ही कोई दूसरा हो.


एक साल पूरा हो चुका है धवल को गुजरे, पर अब तक हम सदमे से उबर नहीं सके हैं. पलंग के पास ही हमारी अटैचियां रखी हैं. सुबह हमें मुंबई चले जाना है हमेशा के लिए. वहां हमारा बड़ा बेटा वत्सल नौकरी करता है. वही हमें अपने साथ लिए जा रहा है.


अपना शहर छूटने के खयाल से जी न जाने कैसा होने लगा है. नया शहर, नए लोग, न जाने हम मुंबई के माहौल में ढल पाएंगे या नहीं. मुंबई ही क्या, वत्सल हमें किसी भी शहर में ले जाए, धवल की यादें हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगी.


बेटे की असामयिक मौत ने तो हमें तोड़ा ही, उस की मौत से भी अधिक दुखदायी थीं वे घटनाएं जिन के कारण हमें इस बुढ़ापे में खासी बदनामी और थूथू झेलनी पड़ी. बेटे का प्रेमविवाह इतना महंगा पड़ेगा, हम नहीं जानते थे. हम ही क्या, स्वयं धवल भी नहीं जानता होगा कि उस का प्यार हमें किन मुसीबतों में डालने वाला है.


धवल की आंखें मींचते ही तन्वी अपना यह रूप दिखाएगी, किस ने सोचा था. ?प्यार के इस घृणित रूप को देख कर हम व्यथित हैं. प्यार में बेवफाई और धोखाधड़ी के किस्से तो कई सुने थे पर जबरन गले पड़ी बेटे की प्रेमिका हमें इस तरह सताएगी, यह कल्पना नहीं कर सके.


तन्वी हमें शुरू से ही पसंद नहीं थी. सुंदर तो खैर वह बहुत थी पर उस के चेहरे पर कुंआरियों का सा भोलापन और लुनाई नहीं थी. चेहरा पकापका सा लगता था. यद्यपि मैं ने उस के बारे में ऐसीवैसी कोई बात नहीं सुनी थी पर मेरी अनुभवी निगाहें पहली मुलाकात में ही ताड़ गई थीं कि यह बहता पानी है.


धवल को समझाने में हमें खास मेहनत नहीं करनी पड़ी थी. तन्वी विजातीय थी. आर्थिक दृष्टि से भी उस का परिवार हमारे समकक्ष नहीं था. तन्वी के पिता मामूली से वकील थे. हम ने धवल को ऊंचनीच समझाई तो वह सरलता से मान गया और उस ने तन्वी से संबंध सीमित कर लिए थे.


उस समय तक मामला ज्यादा बढ़ा भी नहीं था. कालेज में ही पढ़ रहे थे वे दोनों. हम ने चैन की सांस ली थी कि चलो, बला टली, मगर बला इतनी आसानी से कहां टलनी थी.


विदा के समय तन्वी मातापिता और रिश्तेदारों से गले मिल कर कुछ ज्यादा ही रोई थी और फिर दुलहन की तरह वह भी पिया के घर आ गई थी.

निराश हो कर हम उन के घर से लौट आए. हम ने तो तन्वी को विवाह की स्वीकृति नहीं दी पर वह जिद करकर के धवल को राजी करने में सफल हो गई थी. धवल ने भावुक स्वर में कहा था, ‘मां, मैं तन्वी से विवाह करना चाहता हूं. उस का असीम प्यार देख कर मुझे नहीं लगता कि वह जीवन में किसी और पुरुष को स्वीकार कर पाएगी. हमें उस के प्यार की कद्र करनी चाहिए.’


हार कर फिर हम ने भी हथियार डाल दिए थे. सादे से समारोह में वे पतिपत्नी बन गए. ज्यादा भीड़ नहीं जुटाई थी हम ने. खास लोगों को ही बुलाया था. बड़े बेटे वत्सल को इस विवाह की सूचना नहीं दी. उस का स्वभाव उग्र है. हमें डर था कि वह आ कर हम से लड़ेगा और धवल को भी इस पागलपन के लिए डांटेगा.


धवल का मन रखने के लिए हम दुखी मन से उस के विवाह में शरीक हुए.


दुलहन बनी तन्वी बहुत सुंदर लग रही थी. हंसहंस कर वह परिचितों का स्वागत कर रही थी. उस के मातापिता हर आगंतुक के सामने बेटी के सच्चे प्यार और महान त्याग का बखान कर रहे थे. हर मेहमान नवदंपती के प्यार पर आश्चर्य प्रकट करता तन्वी की तारीफ कर रहा था.


मुझे यह सब बहुत अजीब लग रहा था. न जाने कैसे मातापिता थे वे, बेटी का संभावित वैधव्य उन के दिलों को क्यों नहीं दहला रहा था? मैं तो जितनी भी बार तन्वी को देखती, जी भर आता. इस का यह शृंगार कुछ ही दिनों का है, फिर इसे जीवन भर शृंगारविहीन रहना है, यह सोच कर कलेजा मुंह को आ रहा था. पकवानों से मेजें सजी थीं, पर मैं एक ग्रास भी गले से नहीं उतार पाई.


चढ़ावे में बेमन से चढ़ाया पन्ने का सैट तन्वी पर खूब फब रहा था. धवल और वत्सल दोनों ही बेटे मेरे लिए समान थे, मगर न जाने क्यों वत्सल की शादी में 5 सैट जेवर चढ़ावे में चढ़ाते समय मैं जरा भी नहीं हिचकिचाई थी, पर तन्वी को एक सैट जेवर देना भी मुझे अखर गया था. पति की यादों के सहारे किसी को जिंदगी गुजारते देखा न हो, ऐसी बात नहीं थी पर तन्वी को देख कर यह यकीन नहीं आता था कि वह धवल का नाम ले कर जी लेगी.


विदा के समय तन्वी मातापिता और रिश्तेदारों से गले मिल कर कुछ ज्यादा ही रोई थी और फिर दुलहन की तरह वह भी पिया के घर आ गई थी. शहरभर में इस विवाह की खूब चर्चा हुई. स्थानीय अखबार तन्वी की तारीफों से भरे थे. इस प्रेमी युगल की लैलामजनूं, सोहनीमहीवाल, हीररांझा, शीरींफरहाद आदि से तुलना की गई.


कई अखबारों ने तन्वी को पुरातन प्रेमिकाओं से भी ज्यादा महान बताया, क्योंकि उन के प्रेमी धवल की तरह चंद महीनों के मेहमान नहीं थे. तन्वी ने यह जानते हुए भी कि धवल का साथ कुछ ही समय का है, फिर भी उस से विवाह किया था. सारे शहर के साथसाथ हम भी चकित थे.


विवाह के बाद तन्वी ने धवल की प्राणपण से सेवा की. उसे पक्का विश्वास था कि वह पति को यमराज से छीन लेगी. धवल के प्रति उस की निष्ठा देख कर मैं द्रवित हो उठती और मन ही मन पछताती कि मैं ने तन्वी के बारे में बिना किसी प्रमाण के कितनी गलत धारणा बना ली थी. चेहरा दिल का आईना होता है, तन्वी ने इस बात को गलत साबित कर दिया था. बेचारी लड़की, रातदिन जुटी रहती थी पति की सेवा में.


इसी दौरान तन्वी ने बताया कि वह गर्भवती है. इस समाचार को सुन कर हम खुश नहीं हुए. उस अभागे शिशु ने जन्म से पहले ही पिता को खो देना था. हमें यह भी आशंका थी कि कहीं उसे पिता की बीमारी विरासत में न मिल जाए. तन्वी अलबत्ता खुश थी. वह धवल की उस निशानी को जीवनभर सहेज कर रखना चाहती थी.


हम जानते थे, वत्सल को ट्रकों के धंधे में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उस की शुरू से ही तमन्ना थी कि वह पायलट बने.

सेवासुश्रुषा के बावजूद धवल की हालत बिगड़ती गई. उधर वत्सल हवाई दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गया. विमान नीचे उतारते समय पहिए जाम हो गए. जान तो वत्सल की बच गई मगर उसे कई महीनों तक बिस्तर पर पड़े रहना पड़ा. हम बदहवास से कानपुर से मुंबई और मुंबई से कानपुर की दौड़ लगाते रहे.


अगर प्रणव को कैंसर हुआ होता तो शायद धवल उन के लिए इतनी भागदौड़ नहीं करता जितनी प्रणव ने जवान बेटे के लिए की. दौड़दौड़ कर उन के पैर सूज गए. रातदिन हम धवल के पास बैठे रहते. हमें खानेपीने और नहानेधोने का होश नहीं था. बेचारी तन्वी धवल के साथसाथ हमें भी संभाल रही थी.


जिसजिस ने जहांजहां चमत्कारी स्थल बताए वहांवहां हम ने फरियाद की कि धवल की बीमारी हमें दे दो, उसे चंगा कर दो. हम जी कर क्या करेंगे. हमारे मरने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ना है, पर हमारी फरियाद कुबूल नहीं हुई थी. धवल हमें छोड़ कर चला गया था.


तन्वी का विलाप हम से देखा नहीं गया था. धवल हमें अपने कंधों पर ले जाता तो यह शोभनीय लगता. दुनिया के सब बेटे अपने मातापिता को ले जाते आए हैं लेकिन नियति ने हमें विवश किया जवान बेटे की अरथी अपने कंधों पर ढोने के लिए.


चलनेफिरने में असमर्थ होने के कारण वत्सल कानपुर नहीं आ सका था. फोन पर उस ने प्रस्ताव रखा कि हम घर को ताला लगा कर उस के पास मुंबई चले आएं या ठीक होने के बाद वह नौकरी छोड़ कर कानपुर आ जाएगा और पिता का व्यवसाय संभालेगा. हम ने समझाया कि फिलहाल उसे परेशान होने की जरूरत नहीं है. जल्दबाजी में कोई कदम उठाना ठीक नहीं.


हम जानते थे, वत्सल को ट्रकों के धंधे में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उस की शुरू से ही तमन्ना थी कि वह पायलट बने. इसलिए उस ने जेट एयरवेज में नौकरी की थी. हम नहीं चाहते थे कि हमारे कारण उसे मनपसंद नौकरी छोड़ कर अनचाहा व्यवसाय अपनाना पड़े. जब तक हमारे हाथपैर चल रहे थे, हम किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते थे. अशक्त होने के बाद तो हमें वत्सल पर आश्रित होना ही था.


धवल की मौत के बाद आई पहली दीवाली कितनी भयावह लगी थी हमें. पूरा शहर रोशनी से जगमगा रहा था पर हमारे घर में अंधेरा था. हमारे घर का चिराग तो हमेशा के लिए बुझ चुका था. हम नकली चिराग जला कर क्या करते.


कुछ दिनों बाद तन्वी के पिता ने पूछा कि हम ने पुत्रवधू के भविष्य के बारे में क्या सोचा है? तो प्रणव ने सरल भाव से उत्तर दिया था, ‘सोचना क्या है… आप की दुआ से घर में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है. तन्वी बिना किसी परेशानी के जीवनभर यहां रह सकती है. समय काटने के लिए नौकरी करना चाहे तो हम उसे नहीं रोकेंगे. यदि वह पुनर्विवाह करना चाहे तो हमारी तरफ से इजाजत है. उसे प्रसन्न और खुशहाल देख कर हमें भी खुशी होगी.’


तन्वी के पिता ने गर्व से कहा था कि किसी दूसरे पुरुष का खयाल भी उन की बेटी अपने जेहन में कभी नहीं ला सकती. बेहतर होगा हम धवल के हिस्से की जायदाद तन्वी को सौंप दें ताकि वह भविष्य के प्रति असुरक्षा अनुभव न करे.


धवल की मृत्यु के मात्र 2 महीने बाद ही तन्वी और उस के पिता द्वारा जायदाद की मांग करना हमें अच्छा नहीं लगा. प्रणव ने तन्वी के पिता से स्पष्ट कह दिया कि वह जीतेजी अपने दोनों बेटों या उन के परिवारों को जायदाद सौंपने का इरादा नहीं रखते. वसीयत में अवश्य वे आधा भाग तन्वी और उस की संतान के नाम लिखने को तैयार हैं. जब तक वे जीवित हैं, तन्वी की देखभाल करेंगे ही और मरने के बाद तन्वी का हिस्सा उसे मिल ही जाना है.


तन्वी के पिता जिद करने लगे कि हम उसे उस का हिस्सा अभी सौंप दें ताकि वह हर चीज के लिए सासससुर की मुहताज न रहे, भविष्य के प्रति आशंकित सी घुटघुट कर न जिए.


हम ने उन्हें भरसक समझाया कि हमारे संपन्न घर में तन्वी को किसी भी अभाव का प्रश्न ही नहीं उठता. हम अपनी कुछ दुकानों या मकानों का किराया हर माह उसे देते रहेंगे ताकि वह खुलेहाथों खर्च कर सके, पर वे नहीं समझे और बारबार यही दोहराते रहे कि भविष्य का क्या भरोसा. हो सकता है हम बाद में वसीयत बदल दें और सारी संपत्ति वत्सल को दे डालें. हो सकता है हम तन्वी को प्रताडि़त करें, दुख दें.


हमारी समझ में नहीं आ रहा था, वे ऐसी आशंकाएं क्यों जता रहे थे. हम भला पुत्रवधू को दुख क्यों देते? सासससुर थे हम उस के, दुश्मन नहीं. तन्वी हमारे दिवंगत पुत्र की पत्नी और उस के होने वाले बच्चे की मां थी. हम बिना वजह उस पर जुल्म क्यों ढाते? पर लाख समझाने पर भी वे अपनी उस एक मांग को दोहराए जा रहे थे. शायद वे समझना चाहते ही नहीं थे. उन का यह व्यवहार हमें क्षुब्ध कर गया.


खूबसूरती के जाल में किसी अमीर घर के लड़के को फंसाओ और उस की दौलत हथिया कर ऐश करो, क्या यही एक मकसद था तन्वी के उस नाटक का?

तन्वी पिता के साथ मायके चली गई. हमारी सैंट्रो कार उस ने रख ली. ड्राइवर ने लौट कर बताया कि मेम साहब ने कार वापस ले जाने से इनकार किया है. प्रणव ने तन्वी के घर फोन कर के माजरा पूछा तो उस के पिता ने रूखे स्वर में उत्तर दिया, ‘कार तो तन्वी की ही थी, इसलिए उस ने रख ली.’


‘तन्वी की?’ प्रणव ने आश्चर्य से पूछा था.


‘जी हां, कार धवल के नाम है और पत्नी होने के नाते उस पर तन्वी का हक है.’


इतना कह कर उन्होंने प्रणव के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही रिसीवर रख दिया था. उन का जवाब सुन कर हम सन्न रह गए.


दूसरे दिन जब प्रणव औफिस गए तो वहां ताला लगा था और धवल के स्थान पर तन्वी की नेमप्लेट लगी थी. प्रणव परेशान हो उठे. वह विशाल इमारत, जिस में प्रणव का औफिस और नीचे कई दुकानें, बैंक, होटल आदि बने थे, 2 वर्षों पहले ही हम ने धवल के नाम से खरीदी थीं. धवल की पत्नी होने के कारण अब तन्वी उन पर अपना हक जता रही थी.


तन्वी के पिता वकील थे, किसी भी शख्स पर कोई भी इलजाम साबित करने में माहिर. प्रणव द्वारा आधी जायदाद तन्वी को देने का प्रस्ताव ठुकराने के बाद उन्होंने हमारे खिलाफ मुकदमा दायर किया कि हम तन्वी को प्रताडि़त करते थे और प्रणव ने उस के साथ बलात्कार का प्रयास भी किया था.


जिस के चरित्र पर कभी जवानी में भी कोई दाग नहीं लगा उस प्रणव पर बुढ़ापे में बलात्कार जैसा घिनौना आरोप लगाया गया, वह भी पुत्रवधू द्वारा. जवान बेटे की मौत का गम वैसे ही कम नहीं था, फिर यह बदनामी का कहर हम पर टूट पड़ा. अखबारों ने हमारे कथित जुल्मों को सुर्खियों में उछाला. नारी संगठनों ने हमारे घर के सामने नारेबाजी कर प्रदर्शन किए. हम किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह गए. जीना दूभर हो गया. लोग मुंह से तो कुछ नहीं कहते, मगर अजीब नजरों से घूरते थे.


हमारे रिश्तेदार हमारी ही गलती बताते. तन्वी के पिता ने वही किया जो उन जैसे लोग करते आए हैं. बेवकूफ हम थे जो जज्बातों में बह गए. बेटे के प्यार को इज्जत बख्शने की खातिर उन से नाता जोड़ बैठे. हम ने उन्हें उंगली थमाई, अब उन्होंने कलाई तो थामनी ही थी. हम सारे इलजामों को खामोश रह कर सह रहे थे. किसकिस के आगे सफाई पेश करते और इस से होना भी क्या था.


कानपुर में अब हम रहना नहीं चाहते थे. संपत्ति से कोई मोह नहीं रह गया था. धंधा तो प्रणव पहले भी नहीं संभाल पा रहे थे. बुढ़ापे में पैसा कमाने की उखाड़पछाड़ किस के लिए करते? वत्सल को इस व्यवसाय में कोई दिलचस्पी नहीं थी और जिसे थी वह इस दुनिया से जा चुका था.


दुखी हो कर हम ने वत्सल को हकीकत से अवगत कराया. जख्मी हालत में वह मुंबई से कानपुर आया. आते ही वह हम पर बरस पड़ा कि हम धवल के विवाहरूपी नाटक में सम्मिलित क्यों हुए? तन्वी जैसी टुच्ची लड़की को हम ने घर में क्यों घुसाया?


हम चाह कर भी उस से नहीं कह सके कि धवल की अंतिम इच्छा को साकार रूप देने से हम कैसे इनकार कर देते. अंतिम सांसें ले रहे अपने प्रिय पुत्र को उस की नवविवाहिता से अलग रखने जैसी निष्ठुरता कहां से लाते.


तन्वी ने ससुर पर बलात्कार के प्रयास का आरोप लगाया है, यह सुन कर तो वत्सल आपे से बाहर हो गया. उस ने ठान ली कि वह तन्वी को एक कौड़ी भी नहीं लेने देगा और अदालत में यह साबित कर के रहेगा कि तन्वी ने जायदाद के लालच में ही मरणासन्न धवल से विवाह किया था. तन्वी का प्यार महज नाटक था.


मुकदमेबाजी के झंझट से बचने के लिए तन्वी को कुछ देदिला कर पीछा छुड़ाने का प्रस्ताव हम ने रखा, पर वत्सल राजी नहीं हुआ. तन्वी के गर्भ में पल रहा शिशु धवल का है, इस बात को मानने के लिए भी वह कतई तैयार नहीं था. न जाने तन्वी गर्भवती थी भी या नहीं. संभव है वह जायदाद हथियाने के लिए झूठ बोल रही हो. उस की अब तक कोई जांच नहीं करवाई गई थी.


हमारे सारे ट्रक वत्सल ने औनेपौने दामों में बेच डाले. कोठी किराए पर उठा कर वह हमें अपने साथ मुंबई ले जा रहा था. कानपुर की सारी जायदाद बेच कर वह मुंबई में संपत्ति खरीदना चाहता था. हम जीवन और संपत्ति के प्रति मोह खो चुके थे. हम ने वत्सल के किसी काम में दखल नहीं दिया. मृत्यु की ही प्रतीक्षा थी अब हमें, जो चाहे कानपुर में आए या मुंबई में.


अदालत का फैसला क्या होगा, हम नहीं जानते. जायदाद का कुछ भाग तन्वी को मिल जाने से हमें कोई खास फर्क नहीं पड़ना है. जैसी भी है, तन्वी मेरे धवल की परिणीता है, पर प्यार के इस घृणित रूप को देख कर हम व्यथित हैं.


यदि तन्वी ने अपना घिनौना रूप उजागर न किया होता तो हम दिवंगत बेटे की उस प्राणप्रिया को कलेजे से लगा कर रखते. न केवल उस के जीवनभर के गुजारे का स्थायी इंतजाम करते बल्कि उसे पुनर्विवाह के लिए भी समझाते और किसी योग्य वर के साथ सम्मानपूर्वक बेटी की तरह विदा करते. हमें तो धवल की निर्जीव वस्तुएं तक बहुत प्रिय थीं, फिर तन्वी तो उस की प्रेयसी थी. लेकिन इस हादसे से दोचार होने के बाद अब हम भूल जाना चाहते हैं कि हमारे धवल ने तन्वी नाम की किसी लड़की को कभी चाहा था.


हादसों से गुजरने का नाम ही जिंदगी है. मगर यह हादसा नहीं, सोचीसमझी साजिश थी. जायदाद के लालच में कोई इस तरह का प्रपंच भी रच सकता है, यह कल्पना हम नहीं कर सके.


खूबसूरती के जाल में किसी अमीर घर के लड़के को फंसाओ और उस की दौलत हथिया कर ऐश करो, क्या यही एक मकसद था तन्वी के उस नाटक का? क्या उसे अपनी प्रगति का यह एक मार्ग नजर आया? क्या मेहनत, ईमानदारी और शराफत से धन अर्जित नहीं किया जा सकता? क्या नैतिकता और चरित्र का कोई मूल्य नहीं? क्या वह लैला, हीर, शीरीं या सोहनी कहलाने के काबिल थी?


कैसे थे उस के मातापिता जो इस सारे क्रियाकलाप को स्वीकृति देते रहे. प्यार उन के लिए जज्बा नहीं, किसी की जायदाद हथियाने का साधनमात्र था. उन्होंने बेटी को परिश्रम और योग्यता से सफलता पाने की सीख क्यों नहीं दी? उस की खूबसूरती को हथियार बना कर इस्तेमाल क्यों किया? उस के प्यार को व्यापार क्यों बनाया? सुंदरता वरदान होती है, पर कैसे थे तन्वी के पिता, जिन्होंने बेटी की खूबसूरती को इस तरह भुनाया.


तन्वी अतिसुंदर है. चाहने वाले बहुत मिल जाएंगे, मगर रूप का जादू आखिर कब तक चलना है? क्या वह सारी जिंदगी इसी तरह दो और दोपांच करती रहेगी?


तन्वी को धवल के हिस्से की जायदाद पाने का हक मुमकिन है अदालत दिला दे, मगर तन्वी के इस प्रपंच के कारण बुढ़ापे में हमारी जो बदनामी और थूथू हुई, जो खून के आंसू हम रोए, क्या उस की भरपाई कोई अदालत कर सकेगी?

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