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कहानी: लौटते कदम

समय अपनी रफ्तार के साथ बढ़ता जाता है. हम ही जीवन के झमेलों में अपनी गति धीमी कर देते हैं. ऐसा कर हम जिंदगी के खूबसूरत लमहों को जीने का मौका गंवा बैठते हैं.

जीवन में सुनहरे पल कब बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता है. वक्त तो वही याद रहता है जो बोझिल हो जाता है. वही काटे नहीं कटता, उस के पंख जो नहीं होते हैं. दर्द पंखों को काट देता है. शादी के बाद पति का प्यार, बेटे की पढ़ाई, घर की जिम्मेदारियों के बीच कब वैवाहिक जीवन के 35 साल गुजर गए, पता ही नहीं चला.


आंख तो तब खुली जब अचानक पति की मृत्यु हो गई. मेरा जीवन, जो उन के आसपास घूमता था, अब अपनी ही छाया से बात करता है. पति कहते थे, ‘सविता, तुम ने अपना पूरा वक्त घर को दे दिया, तुम्हारा अपना कुछ भी नहीं है. कल यदि अकेली हो गई तो क्या करोगी? कैसे काटोगी वो खाली वक्त?’


मैं ने हंसते हुए कहा था, ‘मैं तो सुहागिन ही मरूंगी. आप को रहना होगा मेरे बगैर. आप सोच लीजिए कि कैसे रहेंगे अकेले?’ किसे पता था कि उन की बात सच हो जाएगी. बेटा सौरभ, बहू रिया और पोते अवि के साथ जी ही लूंगी, यही सोचती थी. जिंदगी ऐसे रंग बदलेगी, इस का अंदाजा नहीं था.


बहू के साथ घर का काम करती तो वह या तो अंगरेजी गाने सुनती या कान में लीड लगा कर बातें करती रहती. मेरे साथ, मुझ से बात करने का तो जैसे समय ही खत्म हो गया था. कभी मैं ही कहती, ‘रिया, चल आज थोड़ा घूम आएं. कुछ बाजार से सामान भी लेना है और छुट्टी का दिन भी है.’


उस ने मेरे साथ बाहर न जाने की जैसे ठान ली थी. वह कहती, ‘मां, एक ही दिन तो मिलता है, बहुत सारे काम हैं, फिर शाम को बौस के घर या कहीं और जाना है.’ बेटे के पास बैठती तो ऐसा लगता जैसे बात करने को कुछ बचा ही नहीं है. एक बार उस से कहा भी था, ‘सौरभ, बहुत खालीपन लगता है. बेटा, मेरा मन नहीं लगता है,’ कहतेकहते आंखों में आंसू भी आ गए पर उन सब से अनजान वह बोला, ‘‘अभी पापा को गए 6 महीने ही तो हुए हैं न मां, धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी. तुम घर के आसपास के पार्क क्यों नहीं जातीं. थोड़ा बाहर जाओगी, तो नए दोस्त बनेंगे, तुम को अच्छा भी लगेगा.’’


सौरभ का कहना मान कर घर से बाहर निकलने लगी. पर घर आ कर वही खालीपन. सब अपनेअपने कमरे में. किसी के पास मेरे लिए वक्त नहीं. जहां प्यार होता है वहां खुद को सुधारने की या बदलने की बात भी खयाल में नहीं आती. पर जब किसी का प्यार या साथ पाना हो तो खुद को बेहतर बनाने की सोच साथ चलती है. आज पास्ता बनाया सब के लिए. सोचा, सब खुश हो जाएंगे. पर हुआ उलटा ही. बहू बोली, ‘‘मां, यह तो नहीं खाया जाएगा.’’


यह वही बहू है, जिसे खाना बनाना तो दूर, बेलन पकड़ना भी मैं ने सिखाया. इस के हाथ की सब्जी सौरभ और उस के पिता तो खा भी नहीं पाते थे. सौरभ कहता, ‘‘मां, यह सब्जी नहीं खाई जाती है. खाना तुम ही बनाया करो. रिया के हाथ का यह खाना है या सजा?’’


जब रिया के पिता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी तब उसे दर्द से संभलने में मैं ने उस का कितना साथ दिया था. तब मैं अपने पति से कहती, ‘रिया का ध्यान रखा करो. पिता को यों अचानक खो देना उस के लिए बहुत दर्दनाक है. अब आप ही उस के पिता हैं.’


मेरे पति भी रिया का ध्यान रखते. वे बारबार अपनी मां से मिलने जाती, तो पोते को मैं संभाल लेती. उस की पढ़ाई का भी तो ध्यान रखना था न. इतना कदम से कदम मिला कर चलने के बाद भी आज यह सूनापन…


एक दिन बहू से कहा, ‘‘रिया, कालोनी की औरतें एकदूसरे के घर इकट्ठी होती हैं. चायनाश्ता भी हो जाता है. पिछले महीने मिसेज श्वेता की बहू ने अच्छा इंतजाम किया था. इस बार हम अपने घर सब को बुला लें क्या?’’ सुनते ही रिया बोली, ‘‘मां, अब यह झमेला कौन करेगा? रहने दो न, ये सब. मैं औफिस के बाद बहुत थक जाती हूं.’’


मैं ने कहा, ‘‘आजकल तो सब की बहुएं बाहर काम पर जाती हैं, पर उन्होंने भी तो किया था न. चलो, हम नहीं बुलाते किसी को, मैं मना कर देती हूं.’’ उस दिन से मैं ने उन लोगों के बीच जाना छोड़ दिया. कल मिसेज श्वेता मिल गईं तो मैं ने उन से कहा, ‘‘मुझे वृद्धाश्रम जाना है, अब इस घर में नहीं रहा जाता है. अभी पोते के इम्तिहान चल रहे हैं, इस महीने के आखिर तक मैं चली जाऊंगी.’’


यह सुन कर मिसेज श्वेता कुछ भी नहीं कह पाई थीं. बस, मेरे हाथ को अपने हाथ में ले लिया था. कहतीं भी क्या? सबकुछ तय कर लिया था. फिर भी जाते समय हमारे बच्चे को हम से कोई तकलीफ न हो, हम यही सोचते रहे. वक्त भी बड़े खेल खेलता है. वृद्धाश्रम का फौर्म ला कर रख दिया था. सोचा, जाने से पहले बता दूंगी.


आज दोपहर को दरवाजे की घंटी बजी. ‘इस समय कौन होगा?’ सोचते हुए मैं ने दरवाजा खोला तो सामने बहू खड़ी थी. मुझे देखते ही बोली, ‘‘मां, मेरी मां को दिल का दौरा पड़ा है. वे अस्पताल में हैं. मुझे उन के पास जाना है. सौरभ पुणे में है, अवि की परीक्षा है, मां, क्या करूं?’’ कहतेकहते रिया रो पड़ी. ‘‘तू चिंता मत कर. अवि को मैं पढ़ा दूंगी. छोटी कक्षा ही तो है. सौरभ से बात कर ले वह भी वहीं आ जाएगा.’’


4 दिनों बाद जब रिया घर आई तो आते ही उस ने मुझे बांहों में भर लिया. ‘‘क्या हो गया रिया, तुम्हारी मां अब कैसी है?’’ उस के इस व्यवहार के लिए मैं कतई तैयार नहीं थी. ‘‘मां अब ठीक हैं. बस, आराम की जरूरत है. अब मां ने आप को अपने पास बुलाया है. भाभी ने कहा है, ‘‘आप दोनों साथ रहेंगी तो मां को भी अच्छा लगेगा. वे आप को बहुत याद कर रही थीं.’’


रिया ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘मां, इस घर को आप ने ही संभाला है. आप के बिना ये सब असंभव था. यदि आप सबकुछ नहीं संभालतीं तो अवि के एक साल का नुकसान होता या मैं अपनी मां के पास नहीं जा पाती.’’ ‘‘अपने बच्चों का साथ नहीं दिया तो यह जीवन किस काम का. चल, अब थोड़ा आराम कर, फिर बातें करेंगे.’’


अगले दिन सुबह जब रिया मेरे साथ रसोई में काम कर रही थी, तो हम दोनों बातें कर रहे थे. दोपहर में तो घर सूना होता है पर आज हर तरफ रौनक लग रही थी. सोचा, चलो, मिसेज श्वेता से मिल कर आती हूं. उन के घर गई तो उन्होंने बड़े प्यार से पास बिठाया और बोलीं, ‘‘कल रात को रिया हमारे घर आई थी. मुझ से और मेरी बहू से पूछ रही थी कि हम ने अपने घर कितने लोगों को बुलाया और पार्टी का कैसा इंतजाम किया. इस बार तुम्हारे घर सब का मिलना तय कर के गई है. तुम्हें सरप्राइज देगी. तुम्हारे दिल का हाल जानती हूं, इसलिए तुम्हें बता दिया. बच्चे अपनी गलती समझ लें, यही काफी है. हम इन के बगैर नहीं


जी पाएंगे.’’ ‘‘यह तो सच है, हम सब को एकदूसरे की जरूरत है. सब अपनाअपना काम करें, थोड़ा वक्त प्रेम को दे दें, तो जीवन आसान लगने लगता है.’’


मिसेज श्वेता के घर से वापस आते समय मुझे धूप बहुत सुनहरी लग रही थी. लगा कि आज फिर वक्त के पंख लग गए हैं.

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