खुद तो डूबे ही और ले भी डूबे, हाथी ने दिखा दिया कि उसमें अब भी है दम
गाजीपुर न्यूज़ टीम, लखनऊ. हां-हां करते प्यार से इन्कार क्या किया, भैया के गढ़ वाले नेताजी ने इंतकाम लेने का मन बना लिया। जिस हाथी से उतरे, उसी पर फिर सवार होकर मैदान में उतर आए। बड़े सियासी कुनबे के राजकुमार समझे थे कि सजातीय वोट भरपूर है और दूसरी कौम किसी गैर को देख नहीं सकती, इसलिए अपना राजा बनना तय है।
दल के मुखिया ने राजधानी नहीं छोड़ी और मैदान में उतरे भैया फिर दिल्ली के दरबार में पहुंचने से सपने संजो रहे थे। अंदाजा ही नहीं था कि कलाकार तो राजनीति के भी खिलाड़ी हैं। उनकी कला बेशक वह कमाल नहीं कर पाती, लेकिन हाथी ने दिखा दिया कि उसमें अब भी दम है। दौड़ती साइकिल को पीछे से ऐसे जकड़ा कि उसकी रफ्तार कम होती चली गई और बाजी कलाकार के हाथ में लग गई। नीले खेमे वालों को खुशी है कि खुद डूबे तो दुश्मन को भी ले डूबे।
बंद रहते तो न खुलती मुट्ठी:
चचा का जलवा ऐसा रहा है कि उनके इलाके में उन्हें हराने का कोई ख्वाब तक न देखता था। जब सत्ता के ट्रैक पर साइकिल दौड़ रही थी, तब ऐसी हनक थी कि उनकी भैंसें ढूूंढने के लिए पुलिस फोर्स दौड़ा करता था। मगर, वक्त की मार देखिए कि आज अपने ही लोग उनके पीछे चलने को तैयार नहीं हैं। चचा जब सलाखों के पीछे थे तो भावनाओं का ज्वार क्षेत्र में उमड़ रहा था। लगता था कि सीखचों से निकले तो कौम के बीच किसी शहंशाह से कम न होंगे। यह गुमान न सिर्फ चचा को रहा होगा, बल्कि भैया भी प्रेशर में आ गए और खुशामद में जुट गए। आत्मविश्वास में डूबे चचा ने अपने शागिर्द को चुनावी मैदान में उतार दिया। ऐसा झटका लगा कि कुछ सूझ नहीं रहा। अब कानाफूसी चल रही है कि सलाखों में बंद रहते तो यूं बंद मुट्ठी भी न खुलती।
बड़ी कुर्सी की बड़ी फांस:
बड़ी कुर्सी आराम देती है, भरपूर जलवा और मान-सम्मान दिलाती है, लेकिन इस पर संभलकर बैठना ही ठीक है। इसमें कीलें भी बड़ी ही होती हैं। यकीन न हो तो दो पुराने साहब लोगों से मिलकर हाल-ए-दिल जान लीजिए। नौकरी पूरी कर चुके हैं, लेकिन पुराने सुकून भरे दिन अब नींद हराम करने के लिए खड़े हो गए हैं। तब सत्ता की कुर्सी पर बैठे मुखिया का भरोसा जीतने में इस धुन से जुटे कि कलम चलाते वक्त देखा ही नहीं कि क्या सही और क्या गलत? लेकिन कागज कहां मरा करते हैं। अब बड़ी-बड़ी जांच करने वालों ने दोनों पुराने साहबों के नाम अपनी डायरी में लिख लिए हैं। जांच करना चाहते हैं। जांच पूरी होने पर नतीजा क्या निकलेगा, यह वक्त की कोख में कैद है, लेकिन इन्हें अभी ब-ड़ी कुर्सी की बड़ी फांस जरूर दर्द देने लगी है। उनकी पीड़ा दूसरे अफसरों के भी पसीने छुड़ा रही है।
बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना:
दो सीटों पर उपचुनाव हुआ। तीन दलों ने इनमें ताकत लगाई। कौन जीता, कौन हारा, यह अलग विषय है। दिलचस्प तो यह है कि जो पंजे वाले मैदान में उतरने तक की हिम्मत न जुटा पाए, वह दूसरों की ताकत-कमजोरी तौल रहे हैं। पार्टी में कौम की नुमाइंदगी करने वाले नेताजी की दुनिया पद के नाम पर कुर्सी और कार्यालय तक सिमटी है। हां, एक चेला सेवा में रहता है, जो उनके बयानों को अच्छे से शब्दों में ढालकर उनकी सियासत को आक्सीजन देने का प्रयास करता रहता है। नेताजी समीक्षा करने चले हैं कि कौम का वोट मिला? कौम वालों के प्रति हारे हुए नेताजी की नाराजगी उन्हें नागवार गुजरी है। कहते हैं कि जब हमारे लोगों पर जुल्म हो रहे थे, तब वह खामोश क्यों बैठे रहे? अब सवाल उठाने का क्या हक है? अरे नेताजी, आप दर्शक दीर्घा में बैठे अंपायर कैसे बन गए? बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना।