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कहानी: अंतिम प्रयाण

विनायक के चेहरे को तिरछी नजरों से ताकती हुई परिता पिता से संवाद साध रही थी कि यह देखो पापा, अच्छा ही हुआ वरना आप अपनों और परायों का यह दोमुंहा चेहरा सहन न कर पाते. मैं और मम्मी  इन लोगों के बीच अब कैसे रहूं? और फिर उस ने सुधा की ओर देखा.

आखिर विनायक ने अंतिम सांस ली. बगल में उन का हाथ थामे बैठी सुधा, आंखें बंद किए लगातार मृत्युंजय जाप कर रही थी. पुनीत और परिता सजल आंखों से 15वां अध्याय गुनगुना रहे थे. विनायक इस सब के बिलकुल खिलाफ थे. खिलाफ तो इस सब के सुधा भी थी लेकिन जगहंसाई से बचने के लिए उसे यह ढोंग करना पड़ रहा था. जैसा विनायक का सात्विक, सत्यनिष्ठ, शांत जीवन था वैसा ही उन की शांत मृत्यु और वैसा ही उन का स्थितिप्रज्ञ परिवार, जिस ने पूरी स्वस्थता के साथ यह आघात सहने का मनोबल बना रखा था. इस के पीछे भी विनायक और सुधा के ही विचार थे.


दोनों ही देश की प्रतिष्ठत यूनिवर्सिटी में विज्ञान शाखा के पूर्व प्राध्यापक होने के कारण हमेशा सत्य की खोज में रत, स्पष्टवक्ता, समाज और परिवार में व्ववहार के नाम पर चलने वाले दंभ के सामने विरोध कर क्रांतिकारी कदम उठाने में हमेशा आगे रहे. उन से मिलने वाले किसी भी व्यक्ति को यही लगता था कि जीवन की सभी वास्तविकताओं और चढ़ावउतार को तटस्थताभाव से समझने वाले और पचाने वाला यह दंपती धर्म में कम, मानवता व कर्म में ज्यादा जीता है. शायद इसीलिए विनायक को अच्छा लगे, उन के व्यक्तित्व पर जमे, इस तरह पूरे परिवार ने मोक्षमार्ग के प्रयाण के समय आंसू गिराए बिना खुद को संभाला और निभाया.


खबर मिलते ही सगेसंबंधी, पड़ोसी, यारदोस्त, कलेज के साथी जुटने लगे थे. अंतिम प्रयाण की तैयारियां होने लगी थीं. पुनीत और परिता के फोन बजने लगे थे. फोन विनायक के दूर के मौसेरे भाई हरीश का था, “अरे, मुझे तो अभीअभी पता चला. प्रकृति जो करे, वही ठीक है. वैसे तो कुछ भी नहीं था न उन्हें? कैसे हो गया यह? बेटा, हिम्मत से काम लेना. मैं तो बेंगलुरु से अभी पहुंच नहीं सकता, पर कोई काम हो, कह देना, जरा भी संकोच मत करना.”


“जी अंकल, नहींनहीं, कोई बात नहीं. बस, अचानक सांस भारी हुई. पापा की इच्छानुसार किसी तरह का कोई लौकिक रीतिरिवाज नहीं रखा, इसलिए परेशान मत होइए.”


“सुधा भाभी को संभालना. अब तो घर में तुम्हीं सब से बड़े हो. परिता तो अभी छोटी है. मुझे विश्वास है, तुम संभाल लोगे. बाकी और बोलो, नया क्या है. मजे में हो न?” और फोन कट गया.


पुनीत एकटक फोन को ताकता रहा. ‘नया क्या है, मजे में हो न? नया क्या है मजे में हो न?’ कान के परदे पर ये शब्द गूंजते रहे. बाप को खोए अभी कुछ ही घंटे हुए हैं. उन का पार्थिव शरीर अभी सामने पड़ा है. इस हालत में भला कोई मजे में हो सकता है? यह नया कहा जाएगा? इस तरह के सवाल? मन को धक्का लगा.


अब पुनीत ने मां की ओर नजर दौडाई. गजब स्वस्थ हैं मम्मी. लगातार गुनगुना कर रही हैं, पापा की ऊर्ध्वगति के लिए, अपनी वेदना को छिपा कर. तभी मिसेज तिवारी आंटी आईं. इस्त्री की हुई साड़ी में, दोनों हाथ जोड़े, “सुधा, यह क्या हो गया? मुझे तो प्रोफैसर शशांक से पता चला. अब तुम इन दोनों को देखो. इन की हिम्मत तो तुम्हीं हो अब. किसी भी तरह की कोई जरूरत हो तो कहना. खाने की चिंता मत करना. कालेज की कैंटीन में कह दिया है. अभी कुछ दिनों तक घर में लोगों का आनाजाना लगा रहेगा न. सागसब्जी तो कुछ नहीं चाहिए?”


सुधा मिसेस तिवारी के चल रहे नौनस्टौप लैक्चर को नतमस्तक हो कर सुन रही थी, “देखो, चाहोगी तो यह सब तुम्हें घरबैठे मिल जाएगा. ऐसी तमाम ऐप हैं. मैं तो इस महामारी के दौर में औनलाइन ही और्डर करती हूं. 3-4 घंटों में सब्जी आ जाती है.” तभी बगल में बैठी तारा बूआ ने आंख पोंछते हुए धीरे से कहा, “हांहां, बहुत अच्छी सर्विस है उन की. उस में डिस्काउंट स्कीम भी चलती रहती है. परवल और भिंडी एकदम ताजी और आर्गेनिक.”


मिसेज तिवारी अब बूआ की ओर घूम कर फुसफुसाती हुई बोलीं, “उस में आप कौन्टैक्ट ऐड कर के फायदा भी ले सकती हैं. आप अपना नंबर दीजिए, मैं आप को ऐड…”


वहीं पास में बैठे पुनीत और परिता स्तब्ध हो कर एकदूसरे को देख रहे थे. यह स्थान और समय सचमुच सागसब्जी की ऐप के संवाद के लिए था. ऐसे मौके की तो छोड़ो, सामान्य संयोगों पर भी मम्मी इस तरह के माहौल का जोरदार बहिष्कार करतीं. पर इस समय, ऐसे मौके पर एक सामान्य महिला की तरह चुपचाप बैठी सभी का मुंह ताक रही थीं. भाईबहन कभी एकदूसरे का तो कभी मां का तो कभी बातें करने वालों का मुंह ताक रहे थे.


अभी सभी थोड़ा सामन्य हुए थे कि रविंद्र ताऊ पुनीत के पास आ कर बोले, “ए पुनीत, विनय भैया का एक कुरतापायजामा दो. जल्दीजल्दी में मैं ने तौलिया तो ले लिया, पर श्मशान से लौट कर नहाने के बाद बदलने के लिए कपड़े साथ लाना भूल गया. और अब तो विनय भैया के कपड़ों की जरूरत ही क्या है. अरे हां, पिछले महीने फैशन वेयर से उन्होंने जो कुरतापायजामा खरीदा था, उसे ही ले आना.”


रविंद्र विनायक के सगे बड़े भाई थे. पुनीत ने झटके से रविंद्र की ओर देखा. बड़ेबुजुर्ग हैं, इसलिए लिहाज करने के अलावा और क्या विकल्प हो सकता था? बड़ी बूआ कनक 2-4 अन्य बुजुर्ग महिलाओं के बीच बैठी सुधा से फरमा रही थीं, “ऐसे में तुम्हें रहने में अकेलापन लगेगा. कहो तो मैं एकाध महीने रुक जाऊं? वैसे भी हमें क्या काम है. मंदिर में बैठी रहूं या तुम्हारे घर में, क्या फर्क पड़ता है. व्रतउपवास तो मैं करती नहीं. हां, मेरे लिए अलग खाना बनाने का थोड़ा झंझट जरूर रहेगा. तुम्हारा भी मन लगा रहेगा और भजनसत्संग भी होता रहेगा. अब तो तुम्हें भी इसी में हमेशाहमेशा के लिए मन लगाना होगा.”


सुधा शून्यभाव से चुपचाप अपने चारों ओर बुढ़ियों को ताकती रही. उन सब की बातें सुन कर वह थक गई हो, इस तरह निसास छोड़ती रही. उसी समय कोने में दीवार से टेक लगाए बैठे मनोज मोबाइल पर जोरजोर से बातें करते हुए आगे खिसके, “हांहां, सुनाई दे रहा है. वहां तो इस समय देररात होगी? ले बात कर पुनीत से.” इस के बाद पुनीत को फोन पकड़ाते हुए कहा, “ले, बात कर, दीपक है स्काइप पर. तेरे लिए ही जाग रहा है. फर्ज निभाने में मेरा दीपक जरा भी पीछे नहीं रहता. बहुत व्यावहारिक है. ले जरा बात कर ले और थोड़ा अंतिमदर्शन भी करा देना. मोबाइल की स्क्रीन विनायक मौसा की ओर घुमा देना. हमारे दीपक को परिवार से बहुत लगाव है.” इतना कह कर मनोज ने गर्वभरी नजरों से वहां बैठे लोगों की ओर देखा.


पुनीत को एकाएक झिझक सी हुई. जबरदस्ती हाथ में पकड़ाए गए मोबाइल को ले कर वह दूसरे कमरे में चला गया. बात कर के वह वापस आया तो अंतिमयात्रा के लिए मंत्रोच्चार और विधि हो रही थी. विनायक के पार्थिव शरीर को फूलों से सजाया जा रहा था. परिता बाप की विदाई और उस समय चल रही आसपास की विषमताओं को पचाने का असफल प्रयास कर रही थी.  तभी धीरे से खिसक कर धीरेंद्र ने कहा, “विश्वास ही नहीं हो रहा कि विनय मामा हम सब को छोड़ कर चले गए. मैं सब संभाल लूंगा, हां. मैं तुम्हारा भाई हूं न. मैं वह क्या कह रहा था कि कोई उतावल नहीं है, फिर भी आगेपीछे पुनीत के कान में बात डाल देना. इन फूलों और बाकी चीजों को मिला कर 3 हजार रुपए हुए हैं. कोई उतावल नहीं है. मामा को कितने अच्छे से सजाया है न, जैसे अभी उठ कर बोलने लगेंगे. चेहरे पर तेज तो देखो. श्मशान से आने के बाद खाने की क्या व्यवस्था की है? मैं वह क्या कह रहा था कि कहो तो पंडित के ढाबे पर फोन कर दूं. हमारी जानपहचान है पंडित से. उस के यहां का खाना बहुत टेस्टी होता है.”


धीरेंद्र की बातों से परिता की आंखों में आंसू आ गए. “पापा… यह किस तरह के लोगों के बीच छोड़ कर चले गए हो. आप तो समाज की सोच को बदलना चाहते थे, यहां तो इन के मन में मौत के बजाय ढाबे के टेस्टी खाने की परवा ज्यादा है.” मन में उठ रहे आक्रोश को वह आंसुओं में बहा रही थी.


पुनीत ने बहन को सांत्वना देने के लिए उस के सिर पर हाथ फेरा. उसी समय सुन॔दा आंटी एकाएक चिल्लाती हुई आईं और ध्यानमुद्रा में बैठी सुधा को बांहों में भर लिया. अपनी जेठानी के इस आवेगभरे हमले से सुधा हिल उठी. वे जोरजोर से कहने लगीं, “सुधा, यह क्या हो गया. मेरा प्यारा देवर हम सब को दगा दे गया. रो ले सुधा, रो ले. इस तरह गुमसुम बैठी रहेगी तो पत्थर हो जाएगी. फिर इन दोनों को कौन देखेगा?” थोड़ा खंखार कर गला साफ किया तो सुनंदा की आवाज थोड़ा स्पष्ट हुई. अब उन की बात पुनीत और परिता की भी समझ में आने लगी.


उन्होंने आगे कहा, “विधि का विधान तो देखो, अभी हम दोनों ने शादी की 50वीं वर्षगांठ मनाई है. तुम्हारे जेठ तो 75 पार कर गए और यह तो उन से कितने छोटे थे, फिर भी पहले चले गए.” आवाज की खनक और तरीके में छिपा राजी वाला मर्म स्पष्ट झलक रहा था, “पीकू मुझ से कह रहा था कि दादी, यह कैसा हुआ?  आप ओल्डर हैं तब भी कपल हैं. पर सुधा दादी तो आप से छोटी हैं, फिर भी विडो हो गईं, ऐसा कैसे?”


पुनीत मुट्ठी भींच कर लौन में खड़े लोगों की ओर बढ़ गया. परिता विनायक के निश्चेत चेहरे को तिरछी नजरों से ताकते हुए मन ही मन पिता से संवाद साध रही थी, ‘यह देखो, पापा, सुन रहे हो न? अच्छा ही हुआ, आप यह सब देखने के लिए यहां नहीं हो. आप चले गए, यही अच्छा है. वरना आप अपनों और परायों का यह दोमुंहा चेहरा सहन न कर पाते. इन लोगों की यह मानसिकता आप कैसे सह पाते. पापा, आप को तो छुटकारा मिल गया, अब मैं, मम्मी  इन लोगों के बीच कैसे रह पाऊंगी?’ और विनायक के चेहरे से नजर हटा कर लाचारी से मां सुधा की ओर देखा.


ठीक उसी समय सुनंदा बैठैबैठे बड़बड़ाती रहीं और पलभर में खुद को संभाल कर अगलबगल, आगेपीछे देखने लगीं, जैसे अदृश्य धक्का मारने वाली को खोज रही हों. और यह देख लेने वाली परिता उधर से नजर हटा कर पिता की सजी देह को ध्यान से देखने लगी.

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