Today Breaking News

क्या आप जानते हैं: गाजीपुर में अलौकिक शक्तियों के धनी पवहारी बाबा जिनसे स्‍वामी विवेकानंद भी थे खूब प्रभावित

गाजीपुर न्यूज़ टीम, गाजीपुर. भारतीय संत परंपरा में जितने भी संत हुए हैं, उनमें पवहारी बाबा अद्भुत ज्ञानी संत रहे। वह तपस्या, योगी, विनम्रता, शिष्टता और मानव कल्याण के साक्षात प्रतिमूर्ति थे। अलौकिक शक्तियों के धनी बाबा ने कभी भी उनका प्रदर्शन नहीं किया। उन्होंने हमेशा दूसरे को ‘बाबा’ और अपने को ‘दास’ का स्थान दिया है। 

pavhari baba ashram ghazipur

चाहे आश्रम (pavhari baba ashram ghazipur ) से मूर्ति चोरी करने वाला चोर हो अथवा आस-पास विचरने वाले सर्प व नेवला ही क्यों न हो। उनके आध्यात्मिक साधना का केंद्र गाजीपुर का गंगा के तट पर बसा कुर्था (पवहारी बाबा का आश्रम - pavhari baba ashram ghazipur ) आज भी तपोस्थली के रूप में विख्यात है। यहां की विशेषता यह है कि काशी की तरह गंगा का प्रवाह उत्तर दिशा की तरफ रहा, जो आध्यात्मिक पूर्णता के लिए शुभ होता है। आज ही के दिन उन्होंने इसी आश्रम में अपने शरीर को अग्नि को समर्पित कर समाधि ली थी। उनकी साधना शक्ति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता कि उनसे मिलने के लिए स्वामी विवेकानंद को तीन माह तक प्रतीक्षा करनी पड़ी थी। पवहारी बाबा से प्रेरणा लेने के बाद ही वह शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में सम्मिलित हुए थे।

पवहारी बाबा का जन्म वर्ष 1840 में जौनपुर जिले के प्रेमपुर में अयोध्या तिवारी के घर हुआ था। वह दो भाई व एक बहन थे। उनके बचपन का नाम हरभजन दास था। छोटी चेचक माता के प्रकोप से बाल्य अवस्था में उनकी एक आंख की रोशनी चली गई थी। बावजूद इसके वह अपने परिवार में सबसे सुंदर थे। पिता ने शिक्षा के लिए हरभजन दास को नैष्ठिक (आजीवन) ब्रह्मचर्य का आजीवन संकल्प लेकर घर-बार त्यागने वाले भाई लक्ष्मीनारायण के पास भेजा। लक्ष्मी नारायण रामानुज की श्री परंपरा को मानते थे। चाचा लक्ष्मीनारायण के साथ वह कुर्था में आकर रहने लगे थे। हरभजन ने आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करने के संकल्प के साथ ही वेदों और दूसरे शास्त्रों का अध्ययन शुरू किया था। 1856 में उन्हें तब बहुत बड़ा आघात लगा था जब उनके चाचा लक्ष्मीनारायण का देहावसान हो गया। इसके बाद उन्होंने श्री रघुनाथ और देवी देवताओं की पूजा का दायित्व चाचा के शिष्यों को सौंपकर शांति की तलाश में निकल पड़े। पूरी, रामेश्वरम, द्वारिका, बद्रीनाथ की यात्रा के दौरान गिरिनार पर्वत पर एक सन्यासी के सानिध्य में भी रहे थे। कुछ वर्षों के तीर्थाटन से लौटन के बाद उनके अंदर आध्यात्मिक तेज का अदभुत परिवर्तन देखने को मिला। इसके बाद ही उनकी पहचान पवहारी बाबा के नाम से हुई।

18 की अवस्था में भारत भ्रमण के बाद वह आश्रम में साधना में लीन रहा करते थे। दरवाजे के अंदर या पर्दे के पीछे से संवाद करते थे। कई कई दिन या महीने भर बाद साधना से बाहर आते थे। चंद लोगों को छोड़कर उन्हें किसी ने देखा नहीं था।

अपने हाथ से खोदा था कुआं : बाबा ने आश्रम में अपने हाथ से करीब 40 गहरा कुआं खोद दिया था, जो आज भी संरक्षित है। कुएं में पानी भी है। बाबा के कुआं खोदने से तब श्रमिक भी हैरान थे। आज भी आश्रम आने वाले भक्त कुआं को जरूर देखते हैं।

स्वर्ण अक्षरों से लिखा था गीता, स्वयं तैयार की थी विग्रह की मूर्तियां : पवहारी बाबा ने 194 पन्ने का गीता लिखा है। स्वर्ण अक्षरों से हस्तलिखित गीता के पन्नों के चारों तरफ डिजाइन की गई है। साथ ही कई पन्नों पर श्रीकृष्ण व गोपियों के रासलीला का चित्रण बनाया गया है। मान्यता है कि गोल्डेन अक्षर में वहीं लिख सकता है, जो परम तत्व को प्राप्त होता था। उनकी गीता को पुरातत्व विभाग में पंजीकृत कराया गया है। उन्होंने अपने हाथ से चांदी के श्रीराम, लक्ष्मण व सीता का विग्रह तैयार किया था। उनके बैठने के सिंघासन को स्वयं के हाथ लकड़ी का बनाया है, जो आज भी है।

दर्शन के लिए स्वामी जी ने किया था हठयोग : पवहारी बाबा आश्रम के संरक्षक और उनके सगे बड़े भाई के छठवीं पीढ़ी के वंशज अमित तिवारी बताते हैं कि 18 वर्ष की आयु में भारत भ्रमण के दौरान बाबा दो दिन तक कोलकाता में रामकृष्ण परमहंस की कुटिया में रुके थे। यहीं कारण रहा कि जब स्वामी विवेकानंद भारत भ्रमण पर निकले तो अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से पूछा था कि कोई ऐसा मनीषी है, जिसे मिला जाय, तब उनके गुरु ने पवहारी बाबा का नाम लिया था। इसके बाद ही जनवरी 1890 को स्वामी विवेकानंद कुर्था पहुंचे थे। वह अपने मित्र गगन चंद्र चटर्जी के यहां ठहरे थे। प्रतिदिन गंगा स्नान के बाद सुबह पांच बजे आश्रम पहुंचे थे और शाम छह बजे तक प्रतीक्षा के बाद वापस लौट जाते थे। यह क्रम महीनों तक चला था। वेकानंद को धीरे-धीरे निराशा होने लगी थी कि अब बाबा से मुलाकात नहीं होगी, क्योंकि महीनों से बाबा साधना में लीन थे। उन्होंने कोलकाता में रहने वाले अपने एक मित्र को संदेश भी भेजा था कि लगता है बिना दर्शन के लौटना पडेगा।

अंत में पवहारी बाबा से उनका संवाद हुआ। फिर दर्शन के लिए स्वामी जी ने हठयोग किया था, जिसके बाद पवहारी बाबा ने साक्षात दर्शन दिया था। जब बाबा के समाधि लेने का संदेश स्वामी विवेकानंद को अल्मोड़ा में अपने किसी दोस्त से मिला तो वह बहुत दुखी हुए थे। इसका जिक्र उन्होंने लेख में किया है।

बाबा के भंडारे में निमंत्रण पर आई मां गंगा : आश्रम पर विशाल भंडारा पवहारी बाबा के समय से चला रहा है। आश्रम संरक्षक अमित तिवारी बताते हैं कि उन्हें अपने बड़े भाई गंगा तिवारी को बुलाकर कहा था कि कलिकाल बाबा काफी प्रचंड हो रहे हैं। दास (स्वयं) यहीं सूक्ष्म रूप में रहना चाहता है। बृहद भंडारा कराया जाए। ज्येष्ठ अमवस्या के दिन भंडारे का आयोजन किया गया,लेकिन सबसे बड़ी समस्या भंडारे में आने वाले अतिथियों के लिए पानी को लेकर थी। भाई को चिंतित देख बाबा ने स्वयं के हाथ से लिखा हुआ पत्र देकर कहा कि मां गंगा को निमंत्रण दे आइए। 

भंडारे के दिन मां गंगा करीब डेढ़ किमी दूर आश्रम तक आ पहुंची थी। इसका जिक्र गजेटियर में 1898 में है। तब अफीम फैक्ट्री में तीन दिन की छुट्टी करनी पड़ी थी, क्योंकि सभी श्रमिक जेठ में बाढ़ आने की हैरानी से गंगा का पानी देखने आश्रम पहुंच गए थे। भंडारे के दौरान घी कम पड़ा तो बाबा ने कहा था कि मां गंगा का जल क़ड़ाई में डाला जाए। गंगा का पानी कड़ाही में डालते ही घी में तब्दील हो जाता था। अमित तिवारी बताते हैं कि भंडारा संपन्न होने के बाद बाबा ने मां गंगा की चुनरी व घी से विदाई की थी। इसके बाद मां गंगा अपने स्थान पर लौट गई थी। इसके बाद ही बाबा ने स्वयं को अग्नि के हवाले कर समाधि ले ली थी। तभी से हर साल यह भंडारा होता है।

पवहारी बाबा और स्वामी विवेकानंद : स्वामी विवेकानंद ने ‘कर्मयोग’ में लिखा है कि भारत वर्ष में एक बहुत बड़े महात्मा गाजीपुर जनपद के कुर्था के सिद्ध संत पवहारी बाबा है। अपने जीवन में मैंने जितने बड़े-बड़े महात्मा देखें उनमें से वे एक है। वे एक बड़े अदभुत व्यक्ति हैं। कभी किसी को उपदेश नहीं देते यदि तुम उनसे कोई प्रश्न पूछो भी तो भी वे उसका कुछ उत्तर नहीं देते। गुरु का पद ग्रहण करने में वे बहुत संकुचित होते हैं। यदि तुम उनसे आज एक प्रश्न पूछो और उसके बाद कुछ दिन प्रतीक्षा करो तो किसी दिन बातचीत में वे उस प्रश्न को उठाकर बड़ा सुंदर प्रकाश डालते हैं। उन्हीं ने मुझे एक बार कर्म का रहस्य बताया था। उन्होंने कहा, ‘साधन और सिद्धि को एक रुप समझो’ अर्थात साधनाकाल में साधन में ही मन प्राण अर्पण कर कार्य करो क्योंकि उसकी चरम अवस्था का नाम ही सिद्धि है।

स्वामी विवेकानंदः आप संसार में उपदेश करने के लिए बाहर क्यों नहीं जाते हैं?

पवहारी बाबाः क्या तुम सोचते हो कि केवल भौतिक सहायता करना ही सहायता करना है? क्या यह संभव नहीं है कि एक मन दूसरे मन की सहायता बिना किसी शारीरिक क्रिया के करे

स्वामी विवेकानंदःआप इतने बड़े योगी हैं तो भी श्री रघुनाथ जी की मूर्ति पूजा और होमादि कर्म क्यों करते हैं?

पवहारी बाबाः सभी अपने ही कल्याण के निमित कार्य करते हैं। इसी बात को तुम क्यों पकड़े रहते हो। एक व्यक्ति क्या दूसरों के लिए कर्म नहीं कर सकता?

पवहारी बाबा के शब्द

-सिद्धि की अपेक्षा साधना श्रेष्ठ है। साधना में जो आनन्द है वह सिद्धि में नहीं होता।

-जो साधु दर्शन करता है वह साधु ही हो जाता है। यदि साधु के दर्शन का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा तो वह साधु भी असाधु है।

-मनुष्य को शत्रु से डरना नहीं चाहिए। वह तो सदैव सजग ही करता रहता है।

-गाय का बछड़ा भूख लगने पर बों-बों करता है और गाय उसे दूध पिला देती है। वैसे ही भगवान भी भक्तजनों के पास ही रहता है।

-संसार साधना का एक स्थान है।

'