कहानी: जिंदगी धूप, तुम घना साया
घर में अभी तक 2 पीढ़ियां रह रही थीं कि परसों ही यह परिवार 3 पीढ़ियों में बदल गया. घर में नए मेहमान का आगमन हुआ.
छांव हमेशा चुनौती देती है
उस धूप की उष्णता को,
राहत देती है अरमानों को,
लेकिन परतंत्र होती है
किसी वस्तु, व्यक्ति की,
उजाले की.
परतंत्रता पुष्ट करती है
हमारे अहं को,
और अहं परतंत्र कर लेता है
हमारे मन को,
इस के बाद छांव भी धूप ही लगती है.
छांव का अपना साम्राज्य है, तो धूप का भी. किस का कितना बड़ा राजपाट है, यह व्यक्तिव्यक्ति पर निर्भर करता है. यह इसलिए भी क्योंकि कई बार छांव होने पर भी छांव दिखाई नहीं देती, उलटे, उन्हें धूप ही लगती है. इसलिए धूप-छांव व्यक्ति सापेक्ष है.
घर में अभी तक 2 पीढ़ियां रह रही थीं कि परसों ही यह परिवार 3 पीढ़ियों में बदल गया. घर में नए मेहमान का आगमन हुआ. तीसरी पीढ़ी की शुरुआत. ढोलधमाके, बधाई, मिठाई, खुशियां, खीलबताशे, मानमनुहार, उपहार का आदानप्रदान सबकुछ उसी शक्ल में जो इस दौर में होता है. ढोलधमाके के स्थान पर डीजे, खीलबताशे के स्थान पर केक, बधाइयों की जगह फिल्मों के गीत, सैल्फी खींचते ढेरों हाथ, पंडितजी चार मंत्र पढ़ कर कोने में दक्षिणा प्राप्ति के लिए इंतजाररत, घर के बुजुर्ग हो रहे कोलाहल से थोड़ी दूर अपने हमउम्रों की महफिल में, जो जवान हैं पुरुष हैं वे इस इंतजार में हैं कि कब उन की बोतलें खुलें, महिलाएं सदैव की तरह हैरानपरेशान, मेहमानों के बच्चों को तो जैसे मौका ही आज लगा है, बड़े बच्चे आमतौर की तरह मोबाइलों में उलझेसुलझे से, घर की 2 अदद कामवालियां उफनती नदी जैसी और जो नवागत है, सलोना है जिसे पता नहीं है कि वह कहां, किधर, क्यों है. उल्लास का दिन खत्म. चल पड़ी फिर जिंदगी ढर्रे पर.
बलवंत सिंह इस परिवार के मुखिया हैं और इस नगर की एक कालोनी में सपरिवार निवास करते हैं. उन के वयोवृद्ध पिता जगजीवन सिंह साथ रहते हैं. बलवंत के 2 पुत्र और 2 पुत्रियां हैं. पुत्रियां बड़ी हैं और ब्याह कर अपनेअपने घरों इटारसी व गंजबासौदा में रहतीं हैं. दोनों पुत्र नौकरी करते हैं, बड़े वाला विवाहित हो कर क्लर्क है श्रम विभाग में और छोटे वाला अविवाहित है तथा बैंक में मैनेजर है. बलवंत की पत्नी अनुराधा कुछ जल्दबाज किस्म की हैं. उन के ऊपर हमेशा जल्दबाजी सवार रहती है. वे बेहद जहीन और ‘परफैक्शनिष्ट’ हैं. हर काम में उन्हें पूर्णता चाहिए. इस के विपरीत बलवंत संवेदनशील तो हैं लेकिन हैं बेतरतीब. कहीं भी, कुछ भी चलेगा वाला अंदाज.
बलवंत दिखने में तो बड़ीबड़ी मूछों के साथ रोबदार लगते हैं लेकिन हैं बड़े रंगीनमिजाज के. महिलाएं उन की कमजोरी हैं. कहीं भी किसी महिला से रूबरू हुए कि मोम की तरह पिघल गए. वृद्ध महिलाएं इस श्रेणी में नहीं हैं. वे उन के लिए पुरुषसमान ही हैं. अनुराधा उन के मिजाज से परिचित हैं और ऐसे मामलों में सचेत रहती हैं. वे सचेत न होतीं तो आज यह घर, घर न होता क्योंकि बलवंत तो किसी न किसी पर लुटा चुके होते.
अनुराधा याद करती है वह दिन जब छह फुट का पतली मूंछे रखने वाला छरहरा सा नौजवान उन्हें शिद्दत से देखता था. कालेज के दिन थे. बलवंत अपनी बेलबौटम (लंबी मोरी वाली पैंट) सिर के बाल कानों को ढके हुए, राजेश खन्ना स्टाइल में कालेज जाते थे और अनुराधा भी थोड़ीथोड़ी साधना जैसी लगती थी. वह भी सजनेसंवरने की शौकीन लेकिन उस समय भी उस में वही जल्दबाजी विद्यमान थी. बड़ा फिल्मी था समय उन दोनों के लिए. बलवंत का यह चौथा प्रेमप्रसंग था, इस से अनभिज्ञ थी अनुराधा. ईस्टमैन कलर का यह प्रेम उस समय बहुत ही चर्चित था क्योंकि अनुराधा सक्सेना और बलवंत जगजीवन सिंह के मध्य था.
कालेज तो कालेज, उस कसबे के गलीमहल्लों में गूंज थी इस प्रेमप्रसंग की. उस समय ‘साथसाथ’ फिल्म रिलीज हुई थी और दोनों की यह साथ में देखी गई पहली फिल्म थी. अकसर बलंवत अनुराधा को देख कर गाते थे, ‘तुम को देखा तो ख़याल आया, जिंदगी धूप, तुम घना साया…’ और सुन कर अनुराधा शरमा जाती. प्रेम चरम सीमा पर पहुंचा, ब्याह की बारी आई तो दोनों परिवारों में ठन गई. ठेठ कायस्थ और ठेठ ठाकुर और समय भी वह जब प्रेमविवाह एक अजूबा ही रहता था कसबे में. खूब तनातनी हुई, बात नहीं बनी तो अपने बलवंत जी उठा लाए अनुराधा को उन के घर से. दोतीन जीप, हथियार, बंदूकें, दोस्त और बलवंत का प्रेम. पूरे कसबे क्या, राज्यभर में इस कांड की गूंज पहुंच गई.
गजब का प्रेम और उस से बड़ा उस का नाम. छोटा सा कसबा इस प्रेमलीला से दूरदूर तक प्रसिद्ध हो गया. उन दिनों कसबों में तो प्रेम अजूबा ही था जैसे स्थानीय कहावत है “गेल्या गामें ऊंट आयो” (पागलों के गांव में ऊंट). बलवंत और अनुराधा ने 2 कमरे, एक किचन वाला मकान नयापुरा में प्रथम तल पर किराए पर ले लिया. द्वितीय तल नहीं था इस में, केवल छ्त थी. इधर बलवंत और अनुराधा को शासकीय प्राइमरी स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिल गई. दोनों का अपनेअपने घरों से अबोला था. शामत तो उस नयापुरा वाले मकान और महल्ले की थी. कुछ नहीं तो उन के आसपास के मकानों में मेहमानों की संख्या सुबहशाम बढ़ गई.
यह देखने लोग आते थे कि कौन हैं जिन्होंने प्रेमविवाह किया है. विशेषकर महिलाएं… “दिखने में तो खास नहीं है…. लव मैरिज…” तो कोई कहती, “क्या जमाना आ गया है, लड़कियां पढ़ाओ तो ये दिन देखने पड़ते हैं…” इस लवमैरिज का हाल यह था कि कई घरों से कालेज जाती लड़कियों के कालेज तक बंद हो गए, कईयों के स्कूल बंद हो गए. कईयों के तो ब्याह भी तय हो गए. यह वह समय था जब सिनेमा में हीरोहीरोईन के गले लगते दोचार सीन या हेलन का कोई नृत्य होता तो ‘गंदी’ फिल्म की उपाधि मिल जाती थी. मकान मालिक और महल्ले के लोग उन्हे ऐसे देखते थे मानो वे मंगल ग्रह से आए हों. दोनों छत पर एकदूसरे का हाथ पकड़ कर घूमते तो सैकडों लोगों पर छुरियां चल जातीं. महिलाएं तो बाज न आती, “…देखो तो बेशरम को…” फिर अनुराधा सलवार सूट पहनती तो कई लोगों के गले नहीं उतरती थी वह. कुल मिला कर कसबे के चटखारे थे दोनों प्रेमी युगल. किसी का भी शायद ही खाना पचता हो इन की बात किए बिना.
इधर लोगों की पाचन क्षमता से अनजान अनुराधा और बलवंत विवाह की खुमारी में ही रहते थे. मिलन जितना संघर्षपूर्ण हो, मिलन का मजा उतने गुना बढ़ जाता है. उन के साथ ऐसा ही था. उन की अपनी दुनिया जिस में जिंदगी धूप, तुम घना साया था. सुधबुध खोए हुए वे पहले आठदस माह साए की तरह थे जहां थी रूमानियत, आकर्षण और वह सबकुछ जो होता है. एकदूसरे का ख़याल, जज्बातों का हमप्याला, छोटीछोटी बातों की परवा, जो खुद को पसंद नहीं है पर दूसरे को पसंद है तो अपनाना, खाना, नखरे, एकदूसरे से हंसीमजाक…. यही दौर था जहां खुशियां थीं, ढेर सारी जगजीत सिंह की ग़ज़लें थी तो यशुदास के कर्णप्रिय गाने जो दोनों के पसंदीदा थे.
समाज और लोग ‘लव मैरिज’ पर ऐसे नज़र गड़ा कर रखते थे जैसे कोई बहुत अहम काम हो. उस दिन उन के यहां मूकेश का कोई ‘सैड’ गाना क्या बजा, मकानमालिक हालचाल पूछने तक आ गए. “क्यों भाईसाहब, मैडम ने दिल तोड़ दिया क्या जो ऐसे गाने सुन रहे हो?” बलवंत पहले तो अचकचा गया, फिर संभलते हुए बोला, “नहीं साहब, गाने हैं, सभी तरह के होते हैं और अच्छे लगते हैं. इस में जरूरी नहीं कि सब आप पर लागू हों.” यह सुन कर मकानमालिक थोड़ा सिटपिटाया और हेहे करता निकल गया. कालेज के समय से ही बलवंत के पास लैम्ब्रेटा स्कूटर था. तब कसबे में मात्र 4 ही स्कूटर थे, 5वा बलवंत के पास था. अधिकांश साईकिलें हुआ करती थीं. स्कूल के लिए दोनों साथ निकलते और जैसे ही अनुराधा, बलवंत की कमर में हाथ लपेटती, महल्ले की औरतों की कनखियां तैयार हो जाटीएन, अच्छे से उन्हें ताड़तीं और बुदबुदाते हुए जुमले फेंकतीं, “ढाकन छोरियों को बिगाड़ेगी…” कोई कहती, “बेशरम, बड़ेबूढ़े का कोई कायदा नहीं है…” लेकिन जैसे ही बलवंत स्कूटर रोक कर किसी से पूछता, “ओ काकी, काका साहब कहां है, उन को कुछ काम था?” तो महल्ले की काकी भुनभुनाना छोड़ कर लपक कर उन के लैम्ब्रेटा के पास जाती, “नहीं बना सा…आप के काका तो बाहर गए हैं, कल तक लौटेंगे” शहद टपकाती बोली बोलते काकी बहुत उत्सुकता के साथ कह जाती. बोलतेबोलते बलवंत के साथ बैठी अनुराधा को टेढ़ी निगाह से निहारती. अपनेआप को भी साथ में ठीक करती जाती. “ठीक है काकी, आएं तो बोलिएगा मैं आया था.” काकी दूर तक उन्हें जाते हुए देखती रहती.
काकी के लिए अनोखा दिन था और वह इसे अपने महिला मंडल में बांटने के लिए तत्पर थी. खासकर यह बात कि लव मैरिज वाली अपने पति को उस के नाम से बुलाती है, बल्लू. उन सब के लिए यह सब से बड़ा पाप था. अगले दोतीन दिन महल्ले की महिलाओं के खूब मजे में गुजरे जैसे खट्टामीठा स्वाद वाली पानीपताशे खा लिए हों.
बात इतनी बड़ी नहीं थी पर अपनेअपने अहं की लड़ाई कई बार इतनी बड़ी हो जाती है कि एक बार रेडियो पर जिंदगी धूप, तुम घना साया गाना बज रहा था.
समय की एक खूबसूरत विशेषता है कि वह सब को पुराना करता जाता है. हर नया एक दिन पुराना होना होता है. प्रेम भी पुराना होता है, लोग भी. कई तो पुराने होने के साथ परिपक्व होते है, कई मानो में बहुत समृद्ध होते हैं जैसे पुराने चावल, शराब, प्रेम, यादें. प्रेम भी पुराना होने पर अपनी असलियत पर आ जाता है. आकर्षण से जुड़ा प्रेम पुराना होते ही लड़खड़ा जाता है, गिर पड़ता है.
बलवंत, अनुराधा भी पुराने होने लगे तो एकदूसरे की आदतें, जो कभी आकर्षण के तहत स्वीकार कर रखी थीं, अब चुभने लगी थीं. अनुराधा का उतावलापन बलवंत के लिए खीझ बनने लगा. कभी अपनी अनु का यह उतावलापन सिरमाथे पर ले कर घूमते थे बलवंत. और आज, ‘थोड़ी शांत नहीं रह सकती. हमेशा घोड़े पर ही सवार क्यों रहती हो?’ तक आ गया था. इधर बलवंत हर काम अपने ढंग से करने की आदत कभी भी कहीं किसी काम को हाथ में लेना और फिर छोड़ देना… और तब करना जब मन करे. यह सब अनुराधा के लिए भी असहनीय होता, “तुम एक काम ठीक से नहीं कर सकते. चार काम पिछले ही पड़े हैं. कुछ तो करो, 2 घंटे से बस बिस्तर पर पड़े हो.” छोटीछोटी तकरारें बढ़ती जाती हैं यदि स्वीकार्यता में परिपक्वता की कमी हो. फिर दौड़ शुरू होती है सामने वाले को अपने जैसा बनाने की. जरा भी अपने मन का नहीं हुआ तो शिकायतें शुरू. वास्तव में जिस के साथ भी हम पुराने होते रहते हैं, हमारे असली चेहरे सामने आते जाते हैं, मुखौटे उतरते जाते हैं.” …तुम तो कहते थे मैं शराब को हाथ नहीं लगाता. फिर यह क्या है?” अनुराधा थोड़े गुस्से में बलवंत से पूछती है. बलवंत अपने असली स्वरूप में आ कर बस टाल जाता. इधर अनुराधा को देर तक जागने की आदत और बलवंत अपना पैग लगा कर जल्दी सोने का आदी. इसी बात पर तकरार हो जाती और कई दिन अबोला रहता. यह स्कूटर पर स्कूल जाने तक भी बना रहता. जगजीत सिंह और मुकेश भी बंट गए थे दोनों में. एक को जगजीत सिंह नहीं भाते तो दूसरे को मुकेश. शुरूशुरू में तो खुमारी में सब जायज था. दोनों के बीच ऊंची आवाजों में झगड़े होने लगे. कई बार आवाजें ऊंची हो जातीं तो बाहर भी सुनाई देतीं.
महल्ले वालों के लिए बलवंत, अनुराधा के झगड़े किसी फिल्मी कानाफूसी से कम न थे, चटखारे लेले कर महिलाएं एकदूसरे को सुनातीं. मनोरंजन के इसी साधन का महल्ले और समाज में उपयोग होता था. किसी बात पर दोनों में फिर सुलह हो जाती. लेकिन 2 दिनों बाद नई तकरार, झगड़े… बात कई बार स्टेटस, मातापिता, खानदान पर आ जाती तो बात बढ जाती थी. इन्हीं के बीच अनुराधा गर्भवती हुई. तकरार झगड़ों का स्तर मानक स्तर से ज्यादा ही था. जितनी पतिपत्नी की नोकझोंक होती है, उस से ज्यादा. कई बार तो अलग रहने तक की नौबत आ गई. अनुराधा एक बार तो गुस्सा हो कर सामने वाली काकी के यहां सामान सहित चली गई थी. कुछ बूढ़ी, सयानी महिलाओं ने समझाया कि गर्भावस्था में इतना तनाव नहीं पालना चाहिए, तब जा कर घर लौटी. ‘लव मैरिज’ का यह अनुभव कई महिलाओं के लिए उदाहरण बन गया.” और करो लव मैरिज.”, “हमें तो जहां बांध दी, वहीं की हो गई. अच्छा, बुरा जैसा भी है, सुखी हैं हम तो.”
बात इतनी बड़ी नहीं थी पर अपनेअपने अहं की लड़ाई कई बार इतनी बड़ी हो जाती है कि एक बार रेडियो पर जिंदगी धूप, तुम घना साया गाना बज रहा था, बलवंत ने आव देखा न ताव, रेडियो ही उठा कर पीछे जाने वाली सड़क पर फेंक दिया था. एक अजीब सा तनाव था दोनों के बीच जो बच्ची के जन्म के बाद और उभर आया. दोनों अच्छाखासा कमाते थे, भौतिक सुखसुविधाओं से परिपूर्ण जो उस समय अधिकांश लोगों के पास न थीं. लेकिन मन, अहं, वहम के खेल बहुत निराले. छावं में भी धूप लग रही होती है यदि हमारा अंतर्मन सही नहीं है तो.
बेटी के जन्म के बाद की जिम्मेदारियों ने भी अनु ने बलवंत को जोड़ने से मना कर दिया. अनु ठहरी स्वतंत्र और आत्मसम्मान वाली, उसे लगता था पति का भी गृहस्थी में उतना ही योगदान हो. वह भी बाहर काम करती है तो बलवंत घर में भी सहयोग दे. उस दिन शाम को फिर तकरार छिड़ी,
“बल्लू, तुम जरा सुशी को उठा लो, बहुत देर से कुनमुना रही है.” अनु ने लगभग पुचकारते हुए कहा.
“अरे, इस ने तो पोटी कर ली है. तुम ही देखो,” बलवंत ने हाथ खड़े कर दिए.
“अरे भई, मैं दोतीन बार बदल चुकी हूं, आप बदल दो न.”
“मैं… पागल हो गई हो. यह काम महिलाओं का है.”
“.क्यों और कैसे, मैं भी तुम्हारे साथ कमाने जाती हूं. अभी बस मेटरनिटी पर हूं,” अनु ने तैश में बोला था.
बलवंत कछ नहीं बोले और गुस्से में उठ कर चले गए. दूसरा दिन, रात हुई, बच्ची आधी रात को रोने लगी.
“चुप कराओ न इस को. पूरी नींद खराब कर दी,” बलवंत नींद से उठकर गुस्से से बोला.
“मैं वैसे ही 12 बजे सोई हूं, आप भी करा सकते हैं चुप.”
“सुन, ये सब मेरे से नहीं होगा. यह तेरा काम है. तू कर.”
अपना चादर, तकिया उठा कर पैर पटकते हुए बलंवत बाहर के कमरे में चला गया था. कभी अनुराधा को तुम कह कर बुलाने वाला बलवंत तू पर उतर ही आया.
बस, यही छोटीछोटी बातें बलवंत और अनुराधा को हर्ट कर जातीं और उस रात दोनों को नींद नहीं आई. बच्चे होने के बाद खुशियां आना थीं लेकिन एकल परिवार, दोनों नौकरीपेशा और जिम्मेदारियों का बोझ; फिर ऊपर से दोनों के अहं कुल मिला कर थोड़ी खुशी और ज्यादा गम वाली स्थिति निर्मित कर देता था. पहले धीरेधीरे शौक दम तोड़ने लगते हैं, फिर समय प्रबंधन, फिर खानापीना और जिंदगी में भौतिकता, सांसारिकता तो बढ़ जाती है परंतु मन का प्रबंधन बिगड़ जाता है.
महल्ले वाले अब कहीं भी लव मैरिज सुनते, तो सीधा उदाहरण देते अनु-बलवंत का और नमकमिर्ची मिला कर. “देखा नहीं लैला-मजनूं के हाल, सड़क पर लड़ते हैं. सब निकल गया प्यारव्यार 2 साल में ही.” तब कोई दोनों से सेंपैथी रखने वाला कहता, “किशन दादा, चमन, दिनकर इनने तो कोई न किया लव मैरिज, फिर भी जूतमपैजार हो जाती है. और एक को तो तलाक ही हो गया समझो. इस पे क्या कहोगे??” नमकमिर्ची वाला बस सामने वाले के कान उमेठ कर कहता, “हां, इस को जरूर लव मैरिज करना है. तभी वकील बना फिर रहा है.”
रिश्ते बनाने में देर नहीं लगती लेकिन उन्हे निभाने के लिए बहुत जतन करने होते हैं. यह बात कहने में बहुत आसान है लेकिन व्यावहारिक धरातल पर उतनी ही मुश्किल. 2 लोग शिक्षक जैसे पेशे से जुड़े हो कर भी इस एक लाइन को नहीं समझ पा रहे थे. बात मारपीट तक पहुंच गई जब अनुराधा को पता चला कि बलवंत के एकदूसरे स्कूल की शिक्षिका से अंतरंग संबंध हैं. और तो और, यह सब पिछले 6 महीनों से चल रहा है. कुछ लोगों को हर बात, हर चीज यहां तक कि रिश्तों में भी बोरियत लगती है. बलवंत उसी में से एक. एक जोड़ी कपड़े चारपांच बार से ज्यादा बार पहनना तो दूर देखता भी नहीं. यही आदत क्या रिश्तों के लिए भी हो गई, पता ही नहीं चला. छाया बहुत दिनों तक सहज बनी रहे, तो भी इंसान उक्ताहट का शिकार हो जाता है और उसे वह धूप की भांति लगने लगती है.
अनुराधा की खास सहेली कृष्णा ने उसे उदास देख कर कहा था, "अनु, तुम दोनों की वजह से तो प्यार जिंदा था इस शहर में.
आखिरकार रिश्ते ने दम तोड़ दिया. किसी भी औरत को दूसरी औरत से रिश्ता कभी नहीं सुहाता है. तलाक तक बात पहुंची और हो भी गया. लव मैरिज का यह हश्र कई सारे बीज बो गया. अपनी बेटी को ले कर अनुराधा स्कूल के पास की कालोनी में रहने लगी. बलवंत महल्ले को छोड़ पास ही लगे पुश्तैनी गांव में चले गए और वहीं से अपडाउन प्रारंभ कर दिया. यह सब एक यौवन के शिखर पर पहुंचे पेड़ के कट जाने सा था.
पेड़ कट गया, ठूंठ बचा रह गया. जिंदगी धूप थी, घना साया दोनों के लिए हट गया था. यह सब तब महसूस होता है जब साया वास्तव में हटता है. जब तक दुख का एहसास ही न हो, सुख का कोई मूल्य नहीं जाना जा सकता. इसलिए सुख को ही कई बार दुख मानने की भारी भूल हो जाती है. साए में ही धूप महसूस करने वालों को समय परखता है और एक धोबीपछाड़ में ही नानी याद आ जाती है.
बिखराव के बाद अहं मन को संभालने लगता है और एहसास कराता रहता है सामने वाले की बुराई और समझाता है, अच्छा हुआ जो भी हुआ. रोजरोज की चिकचिक से तो बेहतर है. कोई भी काम करते हैं तो उस की कमियां सामने आती हैं और अहं और पुष्ट हो जाता है. अनुराधा और बलंवत के साथ यही कुछ हो रहा था. लगभग 2 साल साथ गुजारे और 4 वर्ष का कालेज का साथ, कुल मिला कर एक व्यकित के अंदर दूसरे के समा जाने का पूरा समय. अभी ऐसे समय में सिर्फ सामने वाले की कमियां, बुराइयां ही दिखाई देती हैं जैसा कि प्रेम के प्रारंभिक वर्षों में सामने वाले की सिर्फ अच्छाइयां दिखाई देती थीं. साथ रहने से कितनाकुछ बदल गया.
दोनों का स्कूल एक ही था, तो गाहेबगाहे नजरें टकरा जातीं और तुरंत एक ने दूसरे को नहीं देखा का आभास कराते. सहकर्मी भी अकसर उन से कहते कि “छोड़ो भई, यह इगो. तुम जोड़े में ही अच्छे लगते हो.” लेकिन दोनों टाल कर रह जाते. अनुराधा की खास सहेली कृष्णा ने उसे उदास देख कर कहा था, “अनु, तुम दोनों की वजह से तो प्यार जिंदा था इस शहर में. तुम ही अलग हो गए, तो प्यार ही बदनाम हो गया. कोई मांबाप अब तो इस के लिए कतई हामी नहीं भरेंगे.” उस ने आगे बोलना जारी रखा जैसे दिल के अरमान निकाल रही हो, “वैसे भी, कई लड़कियों ने हिम्मत ही नहीं की और जहां उन्हे बांध दिया वहां बंध गईं.
चाहे उस में किसी के लिए अरमान हों तुम ने हिम्मत की और कईयों के लिए प्रेरणा बन गईं. लेकिन अब जैसे ही यह सब हुआ, तो… हमारे मांबाप वाली पीढ़ी बहुत खुश है. उन सब को कहने को हो गया.” अनुराधा ने उस समय कृष्णा की बात को हलके से लिया और अपनी कक्षा में चली गई. शाम को बेटी के साथ खेलतेखेलते उसे अचानक कृष्णा की बात याद आई और उस की बातें उसे किसी सयाने की सीख जैसी लगीं. वह सोचने लगी कि उस ने कभी इस तरह से सोचा ही नहीं, मैं, मेरा तक ही रही. कृष्णा ने उस की सोच को परिपक्व किया जबकि वह अविवाहित और उम्र में 4 साल छोटी थी. जिंदगी की कड़ी धूप हमें दुख तो देती है लेकिन सिखाती भी है. घना साया हमें सुख तो देता है लेकिन परिपक्व नहीं बनाता है.
बलवंत भी उतना ही अनमना था जितना अनुराधा. बलवंत के अंदर भी संवेदनशीलता थी और कुछ समय अकेले गुजारने के बाद उसे बेटी की याद सताती तो कभी किसी काम को करते हुए अनुराधा याद आ जाती. कभी किसी जोड़े को जाते हुए देखता तो उस के मन में भी कसक उठती, पेट में अजीब सा महसूस होता, तमाम पुरानी बातों को त्याग कर उसे अनुराधा का मासूम चेहरा याद आ जाता और ढ़ेर सारे अच्छे, रूमानी पल.
दोनों तरफ से अहं पिघलना शुरू हो चुका था और मन अब स्वतंत्र होने लगा था. यह शुरुआत थी. शुरुआत में अहं अपना पूरा जोर लगाता और फिर मन पर काबिज हो जाता है. लेकिन आखिरकार समय जख्मों को सिलता जाता है और उन्हें धुंधला करता जाता है. बलवंत, अनुराधा इसी दौर में थे जब उन के अहं पिघल रहे थे. उस दिन अनुराधा घरबाहर के काम और बेटी की देखरेख के कारण अतिकार्य की वजह से स्कूल में जाते हुए गिर पड़ी और बेहोश हो गई. साथियों द्वारा पास के अस्पताल ले जाया गया. बलवंत उस दिन देरी से आया था और जैसे ही पता चला, अस्पताल पहुंचा. तब तक अनुराधा होश में थी. दोनों की नजरें टकराईं और अनायास दोनों के मुंह से एकसाथ निकला, “सौरी.” आसपास खड़े सहकर्मियों के चेहरों पर मुसकान थी. पास ही खड़ी कृष्णा ने धीरे से गुनगुनाया, ‘जिंदगी धूप, तुम घना साया…’ बलवंत के हाथ में अनुराधा का हाथ था. कृष्णा के स्वर और सुरीले लग रहे थे.
कटा हुआ पेड़ का ठूंठ बरसात के बाद फिर से फूट पड़ा, किसलय थे शाखों पर. फिर से छाया देने के लिए तैयार हो रहा था पेड़. लेकिन इस बार गहरी और परिपक्व जड़ें उस की संगी थीं. आसपास उग रही खरपतवार को स्वीकार करते हुए उस ने ठाना था कि आगे बढ़ना ही जिंदगी है.
अचानक अनुराधा यादों से सजग हो उठी, उस के सामने से याद के रूप में उतारचढ़ाव गुजर गए. गोद में खेल रहे पोते को देखती जा रही थी, उस में बलवंत की छाया दिखाई दे रही थी.