कहानी: प्यार नहीं पागलपन
अशोक कमरे की सजावट से मंत्रमुग्ध खड़ा था. सीलिंग से एक बहुत ही सुंदर झूमर लटक रहा था. यह सब देख अशोक के मन में निराशा छाने लगी थी.
अति सुंदर होने और लावण्य होने में अंतर अशोक ने लावण्य को देख कर ही जाना था. ऐसा उस में कुछ भी नहीं था कि उसे देखते ही दिल धड़कने लगता. आंखें झपकना भूल जातीं या फिर दिमाग सन्न हो जाता. फिर भी वह बगल से गुजरती और एक नजर उसे देख न लेने पर अफसोस जरूर होता. उस की लयबद्ध चाल किसी मधुर संगीत की तरह दिमाग पर छा जाती थी.
वह अपने मामामामी के साथ कवि सम्मेलन में आई थी. उस दिन मंच पर अशोक ने जो कविता पढ़ी थी, उसे खूब प्रशंसा मिली थी. लोगों ने खूब तालियां बजा कर वाहवाही की थी. कवि सम्मलेन खत्म हुआ तो वह अपने मामामामी के साथ अन्य श्रोताओं की तरह अशोक को बधाई देने आई थी.
लावण्य के मामा सुधीर, जो नोएडा के जानेमाने उद्योगपति थे, अशोक के परिचित थे. वह उन से पहले भी 2-3 बार मिल चुका था.
‘‘क्या बात है अशोकजी, आज तो आप ने कमाल ही कर दिया. क्या अद्भुत रचना थी?’’ सुधीर ने बधाई देते हुए कहा, ‘‘वैसे तो आप की कविता हम लोगों को भी पसंद आई, लेकिन मेरी इस भांजी को सब से अधिक पसंद आई. आओ लावण्य…’’
थोड़ी दूरी पर खड़ी युवती को बुला कर सुधीर ने अशोक से परिचय कराया.
‘‘आप की कविता बहुत अच्छी लगी, खासकर आप का गाने का अंदाज,’’ लावण्य ने कहा.
लावण्य जो कह रही थी, उस में शायद अशोक को कोई रुचि नहीं थी. वह स्टेज के उजाले में लावण्य को एकटक देख रहा था. उस ने लाल चटक रंग की मिडी स्कर्ट पहन रखी थी. सफेद ड्राईक्लीन किया हुआ टौप, पतली कमर पर बंधी काली चमकती चमड़े की बैल्ट, वैसी ही काली जूती. स्कर्ट के नीचे के खुले पैरों को देख कर अंदर छिपे पैरों के आकार का अंदाजा लगाते हुए सीने पर काफी ढीले टौप पर नजरें पहुंचीं तो लड़की की सुंदरता में चारचांद लगाने वाले इसी हिस्से पर अशोक की नजरें टिकी रह गई थीं. गेहुंए रंग की लावण्य का चेहरा काफी आकर्षक था.
औपचारिक बातें खत्म हुईं तो अशोक ने कहा, ‘‘कल हमारा एक कवि सम्मेलन और है. उसे भी सुनने आ रहे हैं न?’’
‘‘ओह, क्यों नहीं,’’ सुधीर ने कहा, ‘‘शहर में आप जिस कवि सम्मेलन में होते हैं, उसे सुनने मैं अवश्य ही जाता हूं.’’
‘‘आप भी आ रही हैं न?’’ अशोक लावण्य से मुखातिब हुआ.
‘‘जी, पक्का नहीं है,’’ लावण्य होंठों ही होंठों में मुसकरा कर बोली.
‘‘आप जरूर आइए, आज का तो विषय पर आधारित कवि सम्मेलन था. कल विशुद्ध हास्य कवि सम्मेलन है. सिर्फ हंसना है,’’ अशोक ने कहा, ‘‘आप को बड़ा मजा आएगा. इस के अलावा कल मंच का संचालन भी मैं ही करूंगा.’’
‘‘मैं पहले भी आप को सुन चुकी हूं पर बधाई देने पहली बार आई हूं.
‘‘यह सच है. शायद आज भी न आती, पर मामा ने कहा और मैं…’’
‘‘तो क्या आप बेमन से…?’’ अशोक ने सवाल किया.
‘‘नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है. बिना जानपहचान के…’’
‘‘शायद आप को मालूम नहीं, हम अपने श्रोताओं की तालियों, उन की वाहवाही, बधाइयों पर ही जीते हैं. आज आप आई हैं, इस का मेरे ऊपर क्या असर होगा, यह आप नहीं जान पाएंगी?’’ अशोक गंभीर हो गया.
‘‘क्या असर होगा?’’
‘‘यह आप कल देखिएगा,’’ अशोक ने यह कहा, तो वहां खड़े सभी लोग हंस पड़े.
लावण्य धीरेधीरे कमर मटकाते हुए मंच से उतरने लगी. उस के नितंबों का हिलना, हवा के झोंके की तरह अशोक को स्पर्श कर गया. उस के असर से अशोक मुक्त होता, उस के पहले ही उस की नजर उस के बालों में लगे गुलाब पर पड़ी. वह उस के छोटे से जूड़े में लगा गुलाब देखता ही रह गया.
उस दिन पहली ही नजर में उसी पल लावण्य आंखों के रास्ते अशोक के दिल में बस गई थी. इस का मतलब था, अशोक को लावण्य से प्यार हो गया था.
अगले दिन लावण्य अशोक का हास्य कवि सम्मेलन सुनने आई थी. वह आगे से 5वीं लाइन में बैठी थी. अशोक ने उसे मंच पर बैठेबैठे ही खोज लिया था. उस के बाद अशोक ने अपनी जिंदगी में शायद उतना अच्छा संचालन पहले नहीं किया था. लावण्य को हंसते देख अशोक का रोमरोम रोमांचक हो उठता था.
लावण्य उस दिन भी अशोक को बधाई देने आई थी. इस मुलाकात में अशोक ने उस का फोन नंबर और पता ले लिया था. उस के बाद शहर में जहां भी कवि सम्मेलन या सैमिनार या कोई फंक्शन होता, अशोक लावण्य को फोन कर के जरूर आने के लिए कहता. कभी वह अशोक के आमंत्रण पर आ जाती तो कभी कोई जरूरी काम बता कर आने से मना कर देती. लेकिन अशोक उस से बराबर संपर्क बनाए रहा. किसी न किसी बहाने वह लावण्य को मिलने के लिए बुला ही लेता था. 6-7 महीने में अशोक उस से 10-12 बार मिला. 2 बार अशोक उसे खाने पर भी ले गया.
अशोक अपनी आमदनी का काफी बड़ा हिस्सा लावण्य को इंप्रैस करने पर खर्च कर रहा था. इतनी मुलाकातों के बाद उसे लगने लगा था कि लावण्य उस में रुचि लेने लगी थी. अब तक वे ‘आप’ से ‘तुम’ पर आ गए थे.
लावण्य मेजर विवेक की बेटी थी. उस ने जब पहली बार उसे यह बताया था, तो उसे काफी आश्चर्य हुआ था. मेजर विवेक जाति से बनिया- एक सेना का अफसर, यह अशोक की कल्पना के बाहर की बात थी.
‘‘यह क्या कह रही हो लावण्य? तुम्हारे पिता मिस्टर विवेक जैन सेना में अफसर थे?’’
‘‘मिस्टर नहीं, मेजर… मेजर विवेक, तुम्हें इस में आश्चर्य क्यों हो रहा है?’’ लावण्य ने अशोक से पूछा.
लेकिन अशोक उस से यह नहीं कह सका कि एक बनिए का सेना में अधिकारी होना उस के लिए आश...
डैडी का भी एक पैर उसी बम विस्फोट में उड़ गया था. स्वयं के घायल होने से ज्यादा आघात उन्हें अपने साथियों की मौत का लगा था
‘‘भाईसाहब, आप फिर कभी आइएगा,’’ जया ने अशोक से कहा और उसे जाने का इस तरह इशारा किया, जिसे मेजर नहीं देख पाए.
अशोक चौंका भी और कुछ विचलित भी हुआ. जया फिर बोली, ‘‘आप कभी शाम को आइए.’’
‘‘आज की मुलाकात मजेदार नहीं रही,’’ मेजर ने कहा, ‘‘आप फिर कभी आइए.’’
‘‘ऐसा ही करना परंतु जब भी आना फोन कर के आना,’’ जया ने जाने का इशारा करते हुए कहा. मेजर की नजरें बचा कर एक बार फिर जाने का इशारा किया.
अशोक उठ कर खड़ा हो गया.
‘‘ठीक है, मेरी इच्छा है कि तुम विद्या से जरूर मिलो. लेकिन वह बहुत व्यस्त रहती है. आजकल उस ने नर्सरी में सूरजमुखी के बीज बो रखे हैं.
‘‘यदि तुम फोन कर के आओगे तो अच्छा रहेगा.’’
‘‘फिर आना भाई,’’ जया ने लगभग अशोक को विदा करते हुए कहा.
मेजर विवेक से अशोक की यह पहली मुलाकात थी.
अगले दिन लावण्य अशोक से मिलने आई तो थोड़ा तल्खी से बोली, ‘‘यदि तुम्हें मेरे यहां आना था तो मु झे बता दिया होता.’’
‘‘सच बताऊं लावण्य, मु झे लगा कि तुम्हारे डैडी का जन्मदिन है, इसलिए उन से मिलने का यही सब से बढि़या मौका है. मैं ऐसे ही मौके की तलाश में था परंतु तुम कहां चली गई थीं? अपने डैडी के जन्मदिन पर तुम, तुम्हारी मम्मी और पापा घर में ही होंगे, यही सोच कर मैं गया था,’’ अशोक ने सफाई दी.
‘‘मेरे डैडी जन्मदिन नहीं मनाते,’’ लावण्य बोली, ‘‘सालों पहले मेरे डैडी के जन्मदिन पर एक बहुत ही दुखद घटना घट गई थी. यह तब की बात है, जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो रहा था. जन्मदिन पर युद्ध क्षेत्र में बने कैंप में मेरे डैडी के नीचे के अफसर उन्हें जन्मदिन की बधाई देने आए थे. ब्रैड पर चीनी रख कर डैडी ने सब का मुंह मीठा कराया. सभी चाय पी रहे थे कि कैंप पर एक बम आ गिरा. उस में 4 अफसर और 20 सिपाही मारे गए थे. डैडी का भी एक पैर उसी बम विस्फोट में उड़ गया था. स्वयं के घायल होने से ज्यादा आघात उन्हें अपने साथियों की मौत का लगा था,’’ लावण्य ने यह बात बड़ी सरलता से कही थी परंतु उस का रंज, उस की संवेदना मेजर विवेक, उन की पत्नी और लावण्य के लिए कितना गहरा होगा, इस की कल्पना अशोक आसानी से कर सकता था.
‘‘मु झे यह नहीं मालूम था लावण्य, नहीं तो मैं तुम्हारे घर कतई न जाता,’’ अशोक ने दुख व्यक्त किया. उस ने देखा कि लावण्य के चेहरे पर दुख की छाया स्पष्ट झलक रही थी. इसलिए उस ने उस छाया को हटाने के लिए कहा, ‘‘जीवन में जिस किसी के भी साथ इस तरह की दुखद घटना घटेगी, वह भला अपना जन्मदिन कैसे मना पाएगा. आई फील सौरी डियर… मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता था,’’ कहते हुए अशोक लावण्य का हाथ थाम कर आगे बढ़ा.
लावण्य स्कौर्पियो जीप चलाती थी. अशोक लावण्य का हाथ थामे स्कौर्पियो के पास तक पहुंचा. फिर उसी में बैठ कर दोनों महरौली के एक रैस्टारैंट में गए, जहां एक कोने की मेज पर दोनों जा बैठे.
‘‘तुम्हारे डैडी तो मेरा नाम भी जानते हैं. वे जैसे ही कमरे में आए थे, मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई थी. लेकिन उन्होंने तो मु झ से बड़े प्रेम से बात की. लगता है, तुम ने मेरी उन से खूब तारीफ की है.’’
‘‘हूं.’’ लावण्य बोली.
‘‘आई थिंक, मेरी उन पर अच्छी छाप पड़ी है. तुम ने क्या कहा था मेरे बारे में उन से?’’ अशोक ने पूछा.
‘‘वे तुम्हारी खूब तारीफ कर रहे थे.’’
‘‘रियली,’’ अशोक थोड़ा उत्साह से बोला, ‘‘बस एक बार तुम्हारी मम्मी से मिल लूं, फिर…’’
‘‘फिर क्या?’’ लावण्य चौंक कर बोली.
‘‘फिर क्या… बस…’’ अशोक हिचका. फिर वह एकाएक लावण्य का हाथ थाम कर बोला, ‘‘लावण्य, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. इसलिए मैं सोचता था कि तुम्हारे डैडी फौजी आदमी हैं, फिर पैसे वाले भी हैं. मैं उन्हें पसंद आऊंगा कि नहीं? इस के अलावा एक डर यह भी है कि तुम्हारे परिवार वाले मु झे स्वीकार करेंगे या नहीं?’’
‘‘तुम ने इस बारे में मेरी राय नहीं
ली अशोक?’’
‘‘तुम इनकार नहीं करोगी.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि, मैं तुम्हारे अंदर तक देख सकता हूं. तुम्हारे मम्मीडैडी हां कर दें, यही मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है परंतु तुम्हारी मम्मी से तो अभी मैं मिला ही नहीं. तुम्हारे घर में यह जया कौन है?’’ अशोक ने पूछा.
‘‘जया…’’ लावण्य जैसे नींद से जागी हो, इस तरह बोली, ‘‘ओह जया, वे तो हमारे यहां सालों से काम कर रही हैं. सच बात तो यह है कि उन्होंने ही मु झे पालपोस कर बड़ा किया है.’’
‘‘इसीलिए आप के घर में उन का खासा वर्चस्व है. तुम्हारे डैडी मु झे बैठाना चाहते थे. तुम्हारी मम्मी नहाने गई थीं. मेजर साहब ने कहा भी कि जब तक वे न आ जाएं, रुको परंतु जया आंटी ने मु झे जाने का इशारा किया,’’ अशोक ने कहा, ‘‘उस वक्त मेरी सम झ में नहीं आ रहा था कि मैं मेजर साहब का कहना मानूं या जया आंटी का. फिर मैं वहां नहीं रुका. लेकिन आज मैं तुम्हारे साथ चल कर तुम्हारी मां से जरूर मिलूंगा.’’
‘‘अशोक,’’ लावण्य बोली. फिर मेज पर रखी नमक की शीशी को घुमाते हुए जैसे कहीं खो गई. उस के बाद एक लंबी सांस ले कर बोली, ‘‘अशोक, मेरी मम्मी तो 2 साल पहले ही गुजर गई हैं.’’
‘‘तो फिर,’’ अशोक ने हिचकते हुए पूछा, ‘‘ये विद्या कौन हैं?’’
‘‘मेरी मम्मी.’’
‘‘तुम्हारी मम्मी? आई मीन सौतेली मम्मी,’’ अशोक ने कहा.
‘‘नहीं, मेरी सगी मां,’’ लावण्य ने झटके से सिर घुमाते हुए कहा. फिर उस ने दोनों होंठ भींच लिए. शायद उसे रुलाई आ गई थी, जिसे दबाने का वह प्रयास कर रही थी.
‘‘सौरी, मैं सम झ नहीं पाया लावण्य,’’ अशोक ने दुखी हो कर कहा.
‘‘वे मर गई हैं.’’
‘‘तो फिर मेजर साहब ने… आई मीन, उन्होंने बारबार आवाज क्यों लगाई थी? जया आंटी ने भी आ कर कहा था कि वे नहा रही हैं. वे स्नान कर के निकलें, तब तक मेजर साहब मु झ से रुकने के लिए कह रहे थे. फिर शतरंज खेलने के लिए भी कहा था.’’
लावण्य की आंखों से निकली आंसू की बूंदें गालों पर आ गई थीं.
‘‘ए फेक बिलीव.’’
‘‘मतलब?’’
‘‘भ्रम की दुनिया. मेरे डैडी भ्रम की दुनिया में जी रहे हैं. उन्हें कैसे सम झाऊं कि मम्मी को गुजरे 2 साल हो गए हैं. लेकिन कभीकभी डैडी ऐसा बरताव करते हैं, जैसे मम्मी अभी जिंदा हैं,’’ लावण्य बोली.
सच बात तो यह थी कि लावण्य की ये बातें अशोक की सम झ में नहीं आई थीं. वह आश्चर्य से बोला, ‘‘लावण्य, तुम कहना क्या चाहती हो?’’
‘‘डैडी मानसिक रूप से बीमार हैं. मम्मी मर चुकी हैं, यह बात वे मानने को तैयार नहीं हैं.’’
‘‘वे मानसिक रूप से बीमार हैं, परंतु वे तो मु झ से कितनी अच्छी तरह बातें कर रहे थे?’’
‘‘वह सब तो ठीक है, परंतु अचानक वे न जाने कहां खो जाते हैं. अचानक वे ऐसा व्यवहार करने लगते हैं, जैसे मम्मी जिंदा हों,’’
लावण्य लंबीलंबी सांसें ले कर ये बातें कह रही थी. अशोक विस्मय से उस का मुंह ताक रहा था. शायद उसे लावण्य की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि मेजर विवेक ने उस से एक स्वस्थ व्यक्ति की तरह बातें की थीं. लावण्य आगे बोली, ‘‘डैडी जब भी इस तरह का व्यवहार करते हैं, हम किसी न किसी बहाने से उन्हें मना लेते हैं. जया आंटी इस मामले में मु झ से अधिक होशियार हैं.’’
‘‘शायद, इसीलिए उन्होंने मु झे वहां से जाने का इशारा किया था?’’
‘‘एक बार डैडी को मम्मी की याद आ जाए तो उन्हें सम झाना बहुत मुश्किल हो जाता है. लेकिन जब वे किसी काम में लगे रहते हैं तो कोई परेशानी नहीं होती.’’
‘‘मम्मी की मृत्यु का शायद उन्हें गहरा आघात लगा है, लावण्य.’’
‘‘आघात तो मु झे भी उतना ही लगा था. 2 दिनों की ही बीमारी में मम्मी की मृत्यु हो गई थीं. उन्हें अचानक हार्टअटैक हुआ था. हम कितने सुखी थे. डैडी का पैर कटने के बाद वे रिटायर हो गए थे. फिर हम यहां रहने आ गए थे. सालों तक हम इधरउधर घूमते रहे थे. मैं पहले तो इधरउधर उन्हीं के साथ भटकती रही, फिर दिल्ली में पढ़ाई पूरी की. मैं, मम्मी ज्यादातर डैडी के साथ कैंटोनमैंट में ही रहीं. डैडी को कहीं भी ड्यूटी पर जाना होता था, तभी दोनों अलग होते थे. फिर जब मिलते थे तो नवविवाहिता दंपती की तरह व्यवहार करते थे. मेरी मम्मी बहुत ही खुशमिजाज थीं. बाहरी जिंदगी उन्हें अधिक पसंद थी. मेरी मां वैष्णव बनिए की बेटी थीं. डैडी और मम्मी बचपन के दोस्त थे. डैडी जैसा आज दिखाई देते हैं, पहले वैसे नहीं थे. सौफ्ट, जैंटल और नाजुक. मेरी मां को मर्दानगी पसंद थी. वार फिल्म्स और वैंचर्स देखना उन्हें अधिक पसंद था.
अशोक ने लावण्य को सांत्वना देने का प्रयास किया. 15 मिनट बाद मेजर विवेक घर आ गए. घर में घुसते ही वे बोले, ‘‘अरे अशोक, तुम?’’
वे बचपन से ही कहती थीं, ‘मैं किसी सैनिक से ही शादी करूंगी.’ अशोक, मेरे डैडी सिर्फ इसीलिए सेना में गए थे, जिस से वे विद्या यानी मेरी मम्मी से शादी कर सकें. वे मेरी मम्मी के सपनों का राजकुमार बन कर उन की जिंदगी में वापस आए थे. सैकंड लैफ्टिनैंट का कमीशन ले कर आने पर मेरी मम्मी को उन पर गर्व हुआ था. यूनिफौर्म का गर्व मेरे डैडी को था तो डैडी पर मेरी मम्मी को गर्व था.
‘‘कभीकभी तो उन दोनों के प्यार को देख कर मु झे ही ईर्ष्या होने लगती थी. मम्मी जैसी खूबसूरत स्त्री मैं ने आज तक नहीं देखी है,’’ लावण्य बोली.
अशोक भी कहना चाहता था कि उस जैसी सुंदर, लावण्यमयी स्त्री उस ने भी नहीं देखी परंतु कह नहीं सका. तभी लावण्य ने अपनी बगल वाली कुरसी पर रखा अपना पर्स उठाया और उस में से पोस्टकार्ड साइज का एक फोटो निकाल कर अशोक के हाथ में रख दिया. अशोक ने किसी पत्रिका की कवरगर्ल जितनी सुंदर उस तसवीर को देखा. वह जिस भी औरत की तसवीर थी, सचमुच वह बहुत सुंदर थी. लावण्य की बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं थी.
‘‘इस तसवीर से भी अधिक वह सुंदर थीं. यस, मोर ब्यूटीफुल दैन दिस पिक्चर. मेरे डैडी, बस, उन्हें प्रेम करते थे, अनर्गल प्रेम, नितांत अतिशयोक्तिभरा प्रेम,’’ इतना कह कर लावण्य शांत हो गई.
अशोक उस दिन लावण्य के साथ काफी देर तक बैठा रहा. दोनों ने साथसाथ खाना भी खाया. दोदो कप चाय भी पी ली थी. दोनों अलग हुए तो उस पर दुख की छाया थी, पर उस दुख में एक नया तत्त्व मिला था, अपनत्व का. अब उन्हें एकदूसरे से कहने की जरूरत नहीं थी कि वे एकदूसरे को प्यार करते हैं.
अशोक और लावण्य की दोस्ती प्रेम में बदल गई थी. अशोक ने लावण्य का परिचय अपने घर वालों से करा दिया था. अशोक के पिता शहर के जानेमाने डाक्टर थे. अशोक घर में सब से छोटा था. बड़ा भाई पिता की तरह डाक्टर हो गया था. बड़ी बहन भी गायनीकोलौजिस्ट थी और डाक्टर से शादी की थी. बड़े भाई और भाभी ने अपना अस्पताल बना लिया था. अशोक अपनी मां के साथ रहता था. लेकिन हर रविवार को निश्चितरूप से पूरा परिवार इकट्ठा होता था और दोनों समय का खाना एकसाथ खाता था.
लावण्य अशोक का परिवार देख कर बहुत खुश हुई थी. अशोक के घर वाले सम झ गए थे कि उस ने लावण्य को उन से क्यों मिलवाया है. वह अशोक की जिंदगी का सब से खुशी का दिन था.
उस दिन अशोक लावण्य को उस के घर पहुंचाने गया था. जैसे ही लावण्य और अशोक घर में दाखिल हुए, जया आंटी रसोई से भागती हुई आईं, ‘‘लावण्य, साहब अभी तक नहीं आए हैं.’’
‘‘कहां गए हैं?’’
‘‘रणजीत मामा के यहां गए थे. उन का फोन था. तुम जा कर उन्हें ले आओ बेटा.’’
‘‘कब गए थे?’’
‘‘4 घंटे हो गए हैं. उन्होंने खाना भी नहीं खाया है.’’
‘‘ओके आंटी, आप चिंता मत कीजिए,’’ लावण्य ने कहा, ‘‘मैं अभी देखती हूं.’’
‘‘मैं भी तुम्हारे साथ चलूं?’’ जया ने पूछा.
‘‘नहीं, मैं पहले फोन पर बात कर लेती हूं,’’ कह कर लावण्य ने फोन लगाया. फोन उस की मामी ने उठाया. थोड़ी देर बाद फोन पर मेजर विवेक आए.
लावण्य बोली, ‘‘हैलो डैडी.’’
‘‘लावण्य?’’ उस के डैडी ने पूछा.
‘‘मैं कितनी देर से आप का इंतजार कर रही हूं,’’ लावण्य ने कहा.
‘‘अरे भई, मैं तुम्हारी मम्मी को लिए बगैर कैसे आ जाऊं. वे डौली को ले कर बाहर गई हैं. अभी तक लौटी नहीं हैं,’’ मेजर ने कहा, ‘‘वे वहां तो नहीं चली गई हैं?’’
‘‘नहीं डैडी, डौली को तो वे नोएडा में ही छोड़ आई हैं,’’ लावण्य बोली.
‘‘पर, उन्हें वहां पहुंच कर मु झे फोन तो करना चाहिए था,’’ वे बोले.
‘‘डैडी, अब आप तुरंत यहां आ जाइए.’’
‘‘तुम अपनी मम्मी को फोन दो.’’
‘‘डैडी, वे आप से नाराज हैं. वे फोन पर नहीं आएंगी.’’
‘‘तुम उस से कह दो कि वह फोन पर नहीं आएगी तो मैं उस से बात नहीं करूंगा.’’
‘‘यह आप ही आ कर कह दीजिएगा. मैं आप लोगों के बीच में क्यों पड़ूं,’’ लावण्य ने कहा और फोन रख दिया.
अशोक चुप खड़ा आश्चर्य से उन की बातें सुन रहा था. लावण्य ने एक लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘क्या करूं, डैडी का. उन का यह रवैया धीरेधीरे बढ़ता ही जा रहा है. आजकल वे जहां भी जाते हैं, ऐसा ही करते हैं. कल डाक्टर संजय के अस्पताल पहुंच गए थे. मम्मी को वहां आईसीयू में रखा गया था. वे वहां से आ ही नहीं रहे थे. मैं जा कर उन्हें किसी तरह घर लाई थी. यह तो अच्छा है कि डाक्टर संजय उन के पुराने दोस्त हैं. मैं यह सब करते अब थक गई हूं.’’
अशोक ने लावण्य के सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘रिलैक्स डियर.’’
अशोक ने लावण्य को सांत्वना देने का प्रयास किया. 15 मिनट बाद मेजर विवेक घर आ गए. घर में घुसते ही वे बोले, ‘‘अरे अशोक, तुम?’’
‘‘आप से मिलने के लिए कब से बैठा हूं सर,’’ अशोक ने कहा.
‘‘अच्छा,’’ उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आओ, आओ, आज सुबह से ही मैं तुम्हारे बारे में सोच रहा था. रणजीत को तो तुम जानते हो न?’’
‘‘जी सर, मामा, आई मीन, लावण्य के मामा.’’
‘‘आप का खाना लगाऊं डैडी?’’ लावण्य बीच में बोली.
‘‘खाना?’’ उन्होंने घड़ी देख कर कहा, ‘‘ओह, पौने 9 बज गए हैं. यस, अब तो खाना खा ही लेना चाहिए. अशोक, तुम भी खा लो.’’
‘‘नहीं सर, मैं अभीअभी घर से खा कर, आई मीन नाश्ता कर के आया हूं.’’
‘‘आज मैं अशोक के घर गई थी डैडी.’’
‘‘अरे वाह तो मु झे भी अपने साथ ले चलना था.’’
‘‘सर, आप जब कहें तब आप को अपने घर ले चलूं,’’ अशोक ने कहा. तब तक जया और एक नौकर ने खाना ला कर झट से लगा दिया.
‘‘आप हाथ धो लीजिए डैडी,’’ लावण्य बोली. मेजर मुसकराते हुए बाथरूम की ओर बढ़े.
‘‘अशोक, अकसर ऐसा ही होता है. अच्छा हुआ कि तुम घर में थे. तुम्हें देख कर वे मम्मी को भूल गए. उन के खाने तक तो तुम रुकोगे न, अशोक?’’
‘‘क्यों नहीं?’’ अशोक ने कहा तो लावण्य जया आंटी की मदद करने चली गई.
‘‘कम औन यंगमैन,’’ मेजर ने कहा. फिर सब लोग टेबल पर बैठ गए. जया खाना परोसने लगी, तभी मेजर ने कहा, ‘‘जया, गुलाबजामुन खत्म हो गए क्या?’’
‘‘हैं न सर.’’
‘‘तो फिर लाओ न.’’
जया ने गुलाबजामुन का कटोरा ला कर रखा तो मेजर साहब ने उसे अशोक की ओर खिसका दिया.
‘‘अशोक, आज मैं एक गंभीर चिंता में था.’’
‘‘कैसी चिंता सर?’’
‘‘लावण्य को ले कर, तुम्हें तो पता है?’’ उन्होंने हंस कर कहा.
‘‘मैं सम झा नहीं सर?’’
‘‘आज रणजीत मिलने आया था.’’
‘‘रणजीत मामा?’’ लावण्य ने पूछा, ‘‘कब?’’
‘‘सवेरे, यू नो, जानती हो किसलिए आए थे?’’
‘‘नहीं डैडी.’’
‘‘तुम बड़ी चालाक हो गई हो लावण्य. अभी तक तो तुम मु झ से सारी बातें बता देती थीं, परंतु अब कुछ नहीं बताती हो.’’
‘‘डैडी, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं ने कभी आप से कोई बात नहीं छिपायी है.’’
‘‘छिपाई है न,’’ मेजर ने हंसते हुए अशोक की ओर देख कर कहा, ‘‘अशोक छिपाई है कि नहीं, तुम्हारा क्या कहना है?’’
‘‘सर, मैं क्या कहूं? मु झे पता ही नहीं कि इस ने कौन सी बात छिपाई है. लेकिन, मैं ने आप से जरूर एक बात छिपाई है,’’ अशोक ने कहा.
‘‘एट लीस्ट, भई तुम ईमानदार आदमी हो. आई लाइक दैट,’’ मेजर विवेक ने कहा, ‘‘अब बोलो, कौन सी बात छिपाई है.’’
‘‘आप नाराज तो नहीं होंगे?’’
‘‘बिलकुल नहीं.’’
‘‘प्रौमिस सर. ए सोल्जर्स प्रौमिस…’’ अशोक ने कहा.
‘‘यस, ए सोल्जर्स प्रौमिस,’’ मेजर ने कहा.
उस के बाद उन्हें सीढि़यों के पास छोड़ कर अपने कमरे की ओर भागी. मेजर विवेक शून्य में ताकते वहीं खड़े रहे. अशोक भी चुपचाप वहीं खड़ा था.
अशोक नैपकिन में हाथ पोंछते हुए अपनी जगह से उठा और मेजर विवेक के पास आ कर बोला, ‘‘सर, मैं आप की बेटी लावण्य से प्यार करता हूं. मैं इस से शादी करना चाहता हूं.’’
मेजर विवेक एकटक अशोक को ताकने लगे. एकदो पल बीते. लावण्य अपना कौर हाथ में लिए बैठी रह गई थी. सभी एकदम खामोश रह गए थे. मेजर ने छूटते ही कहा, ‘‘आई लाइक दैट. यानी तुम मेरी बेटी से विवाह के लिए अनुमति मांग रहे हो अशोक?’’
‘‘जी सर, अनुमति और आशीर्वाद.’’
‘‘और यदि मैं इनकार कर दूं, तो…’’
‘‘तो, तो सर,’’ अशोक हड़बड़ाया. उस की सम झ में यह नहीं आया कि यह मजाक हो रहा है या सीरियस बात चल रही है.
‘‘बोलो, बोलो. चुप क्यों हो गए.’’
‘‘सर, इस का जवाब लंबा है.’’
‘‘पर बोलो.’’
‘‘सर, आप लावण्य की इच्छा नहीं जानेंगे? यदि उस ने हां कर दिया, तब भी आप इनकार कर देंगे?’’
‘‘इस तरह की तमाम घटनाएं सामने आई हैं.’’
‘‘तब तो सर मु झे झगड़ा करना पड़ेगा.’’
‘‘निश्चित.’’
‘‘जी सर,’’ अशोक बोला.
मेजर विवेक ने अशोक का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तुम्हें पता है, मेरी जिंदगी में भी कुछ ऐसा ही घटा था. यू नो विद्या.’’
मेजर विवेक के इतना कहते ही लावण्य का थाली में रखा हाथ वैसा ही रखा रहा. जया भी गरम रोटी लिए खड़ी रह गई.
अशोक ने दोनों के रिऐक्शन को गौर से देखा. वहां किसी नाटक की भांति गंभीर सीन जैसा माहौल बन गया था. मम्मी का नाम आते ही लावण्य के चेहरे पर भय स्पष्ट झलक रहा था.
अशोक सभी को बारीबारी से देख रहा था. मेजर विवेक ने कहा, ‘‘विद्या को मैं बचपन से ही चाहता था. मैट्रिक तक हम दोनों साथसाथ पढ़े थे. उस ने मु झ से कहा था कि वह शादी सिर्फ सेना के अफसर से ही करेगी. फिर उस के लिए मैं सेना में अफसर हो गया.
‘‘जानते हो, मेरा पहला सैन्य मिशन क्या था? मैं छुट्टी ले कर सीधे दिल्ली आया. स्टेशन से उतर कर सीधे विद्या के घर पहुंचा.
‘‘मैं उस समय पूरी वरदी में था. सीधे जा कर विद्या के पिताजी के सामने खड़ा हो गया. उस के पिता भले आदमी थे. विद्या के दोनों भाई रणजीत और अजित मु झे ताक रहे थे. उस के पिता कुछ कह नहीं सके. मैं ने अंत में कहा, ‘‘आप सोचविचार कर जवाब दीजिएगा. विद्या से भी पूछ लीजिएगा. शादी की मु झे जल्दी नहीं है. लेकिन मैं शादी विद्या से ही करूंगा.’’
‘‘मु झे विद्या से पूछना तो पड़ेगा ही,’’ थोड़ा घबरा कर उस के पिता बोले थे.
‘‘औफकोर्स. और हां, यदि उस ने हां कर दी तो मैं पूरी फौज ले कर उस से शादी करने आऊंगा. आऊंगा यह निश्चित है,’’ इतना कह कर मेजर साहब खूब हंसे थे.
‘‘सर, मेरे पास फौज तो नहीं है, पर मैं भी आऊंगा जरूर, अकेला,’’ अशोक ने कहा, तो मेजर साहब ने उस की पीठ थपथपाई.
‘‘तो सर, आप की तरफ से हां है?’’ अशोक ने पूछा परंतु उसे तुरंत लगा कि उस ने यह गलत सवाल कर दिया है.
‘‘मैं तो इस मामले में स्वतंत्र विचारों वाला हूं. विद्या भी मेरे जैसी है परंतु उस से पूछना तो पड़ेगा ही न. उसे लावण्य की शादी करने, फिर नानी बनने का बहुत शौक है. जया, जरा विद्या को बुलाओ तो.’’
‘‘डैडी, अब आप खाना खा लीजिए.’’
‘‘पहले तुम विद्या को तो बुलाओ. लगता है, आज मांबेटी में फिर झगड़ा हुआ है? इसीलिए आज वह खाने की टेबल पर भी नहीं आई.
लावण्य, मैं ने तुम्हें कितनी बार सम झाया है कि तुम अपनी मम्मी से झगड़ा मत किया करो,’’ फिर वे अशोक से मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘लगता है, तुम ने आज ही विद्या से शादी के बारे में पूछा है.’’
अशोक भला क्या जवाब देता. वह चुपचाप मेजर विवेक का मुंह ताकता रहा. मेजर विवेक आगे बोले, ‘‘तुम ने क्या पूछा था? तुम्हें सीधे उस से बात नहीं करनी चाहिए थी अशोक. वह तो अपनी बेटी की भी शादी सेना के ही अफसर से करना चाहती है पर ऐसा नहीं होगा. तुम चिंता मत करो, मैं उस से बात करूंगा.’’
‘‘डैडी, आप खाना खाइए न.’’
‘‘लेकिन, मैं विद्या से बात करना चाहता हूं. मु झे पता तो चले कि वह कैसी है?’’ कह कर मेजर विवेक खड़े हो गए. हाथ धोए बगैर ही वे ‘विद्या… नाऊ कम औन… विद्या…’ आवाज देते हुए बैडरूम की ओर चल पड़े.
लावण्य ने जल्दी से नैपकिन से हाथ पोंछे और मेजर साहब के पीछेपीछे भागी. अब तक मेजर विवेक अपने बैडरूम के दरवाजे पर पहुंच गए थे. वे दरवाजे पर ही खड़े हो कर कहने लगे, ‘‘विद्या कम औन… गेटअप… तुम भी बहुत जिद्दी हो. तुम अशोक से बात तो करो.’’
‘‘डैडी,’’ लावण्य मेजर विवेक के पीछे से बोली, ‘‘डैडी, शी इज नो मोर. डैडी, वे तो कब की मर चुकी हैं.’’
‘‘ह्वाट? विद्या मर गई है? लावण्य, तू यह क्या कह रही है? वह तो सो रही है. बेटा, मम्मी से झगड़ा कर के ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए.’’
‘‘डैडी, प्लीज डैडी. वे कहां सोई हैं. यह देखो न. यहां है कोई भला?’’ तकियाचद्दर फेंकते हुए लावण्य ने कहा, ‘‘यहां कहां हैं विद्या? डैडी, आप सम झते क्यों नहीं? अचानक आप को यह क्या हो जाता है? आप कब तक ऐसा करते रहेंगे? डैडी, मम्मी मर गई हैं. वे हम लोगों को हमेशा के लिए छोड़ कर चली गई हैं, हमेशा के लिए,’’ इतना कहतेकहते लावण्य रो पड़ी. अशोक भी पीछेपीछे वहां पहुंच गया था और जया भी.
मेजर स्तब्ध खड़े थे. वे फुसफुसाते हुए बोले, ‘‘बेटा, वह मरी नहीं है. तुम्हारा दिमाग ठीक नहीं है. वह देखो न सोई है. अभीअभी सोई है. मैं ने उसे देखा है.’’
‘‘तो फिर वे कहां गईं डैडी,’’ लावण्य बोली, ‘‘आप ही बताइए न, वे कहां गईं?’’ इतना कह कर लावण्य ने जोरजोर से रोते हुए अपने डैडी के कंधे पर सिर रख दिया. फिर धीरेधीरे चलते हुए वह मेजर विवेक को कमरे से बाहर ले आई. उस के बाद उन्हें सीढि़यों के पास छोड़ कर अपने कमरे की ओर भागी. मेजर विवेक शून्य में ताकते वहीं खड़े रहे. अशोक भी चुपचाप वहीं खड़ा था. मेजर ने कुछ कहना चाहा, पर कह न सके. धीरेधीरे चलते हुए वे डाइनिंग टेबल के पास आ कर खड़े हो गए. अशोक खुद को बड़ी विकट परिस्थिति में फंसा हुआ महसूस कर रहा था. उस की सम झ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे.
‘‘आप जाइए भैया,’’ जया ने अशोक के नजदीक आ कर कहा, ‘‘लावण्य अब नीचे नहीं आएगी.’’
फिर बुदबुदाते हुए वह रसोई की ओर चली गई.
उस रात अशोक बिलकुल नहीं सो सका. अगले दिन सुबह होते ही वह लावण्य के यहां पहुंच गया. तब तक लावण्य सो ही रही थी.
मेजर विवेक लौन में थे. सबकुछ नौर्मल लग रहा था. लावण्य सो रही थी, इसलिए वह उस से बिना मिले ही लौट गया था. फिर 2 दिन बाद ही अशोक लावण्य के यहां जा सका था. इस बीच उस ने फोन भी नहीं किया. अशोक से मिलने पर लावण्य बोली, ‘‘आई एम सौरी अशोक.’’
‘‘डैडी सचमुच अस्वस्थ हैं लावण्य.’’
‘‘परंतु, उन की बीमारी का कोई निदान नहीं है,’’ लावण्य गंभीरता से बोली.
‘‘डाक्टर… मेरे कहने का मतलब, उन के दोस्त डाक्टर संजय क्या कहते हैं?’’
‘‘वे भी बड़े असमंजस में हैं. डैडी की मैमोरी अचानक लुप्त हो जाती है. फिर एकाएक उन्हें मम्मी की प्रेजैंस का खयाल आता है. रोजाना दिन में 1-2 बार तो वे मम्मी को पुकार ही लेते हैं. अब तो उन्हें सम झाने के हमारे पास बहाने भी खत्म हो गए हैं.’’
‘‘हमें कुछ तो करना ही होगा,’’
अशोक बोला.
‘‘मैं सारे प्रयत्न कर चुकी हूं. वे अचानक ऐसा व्यवहार करने लगते हैं कि कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि वे ऐसा करते होंगे. कभीकभी तो मु झे भी लगता है कि मम्मी सचमुच घर में घूम रही हैं… दरअसल, वे डैडी को इतना प्यार करती थीं कि अपने प्यार के बीच वे मु झे भी नहीं सहन कर सकती थीं. सी वांटेड टु पजेस हिम… पजेस हिम फौर गुड,’’ लावण्य बोली.
अशोक भी लावण्य के बगैर जिंदा रहने की कल्पना नहीं कर सकता था. अशोक और लावण्य लगभग रोज ही मिलते थे पर अब उन के मिलने में पहले जैसा रोमांच नहीं रहा था.
लावण्य की बातें सुन कर अशोक सोच में पड़ गया. भूतप्रेत में वह विश्वास नहीं करता था. फिर भी पलभर के लिए उसे लगा कि शायद सचमुच मेजर अपनी मृत पत्नी के अपार्थिव शरीर को देखते होंगे.
‘‘अशोक, मु झे बहुत डर लगता है. मैं सोचती हूं कि शादी कर लूंगी तो डैडी का खयाल कौन रखेगा?’’
‘‘शादी के बाद उन का खयाल हम दोनों रखेंगे और कौन रखेगा?’’ अशोक ने कहा.
‘‘मैं उन्हें छोड़ कर नहीं जा सकती अशोक.’’
‘‘आई कैन अंडरस्टैंड डियर,’’
अशोक बोला.
मेजर विवेक की स्थिति दिनोंदिन गंभीर होती जा रही थी. कभी भी, किसी भी समय वे ससुराल पहुंच जाते. विद्या की सहेलियों के यहां पहुंच जाते. बस, उन का एक ही सवाल होता, ‘‘यहां विद्या आई है क्या?’’
मेजर विवेक के बारे में लगभग सभी लोग जान गए थे, इसलिए सब बड़े धैर्य से जवाब देते, ‘आई तो थी, लेकिन थोड़ी देर पहले चली गई.’
सभी को मेजर साहब से सहानुभूति थी. लोग उन्हें बैठाते, चायनाश्ता भी कराते. फिर मेजर विवेक उठते हुए कहते, ‘चलूं, विद्या मेरा इंतजार कर रही होगी.’
अपनी नर्सरी में भी मेजर विवेक विद्या को ही ले कर बड़बड़ाते रहते. लावण्य उन के पीछेपीछे भागती रहती. मेजर विवेक की बिगड़ती स्थिति के कारण ही लावण्य और अशोक का विवाह टलता जा रहा था.
अशोक जब भी लावण्य से शादी की बात करता तो वह एक ही बात कहती, ‘‘अशोक, मैं डैडी को इस हालत में कैसे छोड़ सकती हूं. मैं अभी शादी नहीं कर सकती.’’
उधर अशोक की मां बारबार उस से शादी के बारे में पूछती रहती थी. वह मां को सम झा नहीं पा रहा था कि मामला क्या है. आखिर रणजीत और डा. संजय ने भी लावण्य से कहा, ‘‘लावण्य, तुम कब तक इंतजार करोगी. मेजर साहब की हालत सुधरने वाली नहीं है.’’
‘‘नहीं मामा, डैडी को इस हालत में छोड़ कर मैं अशोक के घर नहीं जा सकती.’’
‘‘परंतु उस का घर तुम्हारे घर से कहां दूर है. तुम रोज ही उन का हालचाल ले सकती हो,’’ डाक्टर मित्तल ने कहा.
‘‘अशोक कितने सालों से तुम्हारा इंतजार कर रहा है,’’ रणजीत ने कहा.
‘‘मैं ने कब उस से इंतजार करने के लिए कहा है,’’ लावण्य बोली.
‘‘बेटी, वह तुम से प्यार करता है,’’ डाक्टर मित्तल बोले.
‘‘मु झे मालूम है अंकल,’’ लावण्य बोली, ‘‘पर मु झ से यह नहीं होगा. मैं इस बारे में अशोक से बात कर लूंगी.’’
अशोक भी लावण्य के बगैर जिंदा रहने की कल्पना नहीं कर सकता था. अशोक और लावण्य लगभग रोज ही मिलते थे पर अब उन के मिलने में पहले जैसा रोमांच नहीं रहा था. वे दोनों एकांत में मिलते, प्यार की बातें करते. लेकिन लावण्य हमेशा चिंतित रहती. उसे घर जाने की जल्दी रहती. अशोक उसे रोकता भी, पर वह रुकती नहीं थी.
अशोक उस पर दबाव भी नहीं डालता था. लावण्य उस की अंतरात्मा, स्वत: सृष्टि बन चुकी थी.
एक रात अचानक जया ने अशोक को फोन किया, ‘‘अशोक, मेजर साहब की तबीयत ठीक नहीं है.’’
‘‘क्या हुआ आंटी उन्हें?’’
‘‘तुम यहां जल्दी आ जाओ.’’
‘‘पर आप बताएं तो कुछ.’’
जया ने कुछ बताए बगैर ही फोन रख दिया. अशोक से जितनी जल्दी हो सका, वह लावण्य के घर पहुंच गया. अशोक बंगले के कंपाउंड में प्रवेश करते ही सम झ गया कि कुछ गड़बड़ है. बंगले के सामने तमाम गाडि़यां खड़ी थीं. अशोक ने भी अपनी गाड़ी खड़ी की. तमाम लोग वहां खड़े थे. लोग अंदरबाहर आजा रहे थे. पूरे घर की बत्तियां जल रही थीं. बैडरूम के दरवाजे पर भी कुछ लोग खड़े थे.
कमरे में वीरान सन्नाटा था. पलंग पर मेजर विवेक चित लेटे थे. लावण्य उन के पैरों के पास बैठी थी. शहर के प्रसिद्ध कार्डियोलौजिस्ट और मेजर के दोस्त डा. संजय मेजर साहब के सीने की मसाज कर रहे थे.
अशोक सांस रोके कमरे के कोने में खड़ा था. डा. संजय के माथे पर आई पसीने की बूंदें मेजर के ऊपर टपकने लगी थीं. मेजर साहब डा. संजय के परम मित्र थे. फिर भी वे निसहाय थे. उन्हें सबकुछ मालूम था. इस के बावजूद वे मसाज कर रहे थे.
आखिर उन्होंने एक लंबी सांस ली. गले में टंगा स्टेथेस्कोप उतार कर हाथ में लपेटा. कोट की जेब से रूमाल निकाल कर अपना पसीनेभरा चेहरा साफ किया? कमरे में खड़े लोग पलंग पर निश्चेत पड़े मेजर के बदले
डा. संजय को आंखें फाड़ कर ताक रहे थे. डा. संजय कुछ बोले बगैर ही कमरे के दरवाजे की ओर बढ़े और कमरे से बाहर निकल गए.
मृत मेजर के सीने पर कमरे का सन्नाटा टूट पड़ा था. अशोक भी कमरे से बाहर आ गया था. शायद वह लावण्य की उस दशा को नहीं देख सकता था. अशोक की सम झ में यह नहीं आ रहा था कि एकाएक मेजर को क्या हो गया. जवानी में विधवा हो चुकी जया, मृत्यु के इस दुख में डूबी लौकिक कार्यों में लगी थी.
‘‘एकाएक क्या हुआ साहब को?’’
‘‘भैया, वही रोज वाली पंचायत. कल से ही उन की तबीयत ठीक नहीं थी. पीछे खेतों में पूरा दिन न जाने क्या करते रहे. शाम को जब घर आए तो हांफ रहे थे. आते ही ‘विद्या, विद्या’ पुकारते हुए घर के सभी कमरों में घूम आए. एक पैर से इस तरह दौड़ते हुए वे और परेशान हो गए.
फिर खेतों की ओर भाग गए और वहीं ट्यूबवेल के पास गिर गए. यह तो अच्छा था कि पीछेपीछे लावण्य भी चली गई थी. मैं भला इस उम्र में कहां दौड़ पाती. गिरने के बाद भी वे ‘विद्या, विद्या’ की रट लगाए हुए थे. आदमी के भी मन का क्या पता. बहुत प्रेम भी अच्छा नहीं होता,’’ जया ने रोते हुए कहा, ‘‘बेचारी लावण्य मां के जाने के बाद एक दिन भी शांति से नहीं बैठ पाई. पूरा दिन भागीभागी फिरती थी. इस लड़की की माया न होती तो शायद विद्या के मरने के बाद ही जहर पी लिया होता. कितनी दवा कराई, पंडितजी से पूजापाठ कराया, एक तांत्रिक को बुला कर झाड़फूंक कराई. सब लाखों रुपए खा गए पर उन्हें जरा भी आराम नहीं हुआ.’’
पूजापाठ और झाड़फूंक से कोई बीमारी ठीक हो जाती तो डाक्टरों की क्या जरूरत थी? लोग इतनी मेहनत कर के पढ़ाई ही क्यों करते? ये पूजापाठ और झाड़फूंक करने वालों का काम ही है भोलेभाले लोगों को उल्लू बनाना. बहरहाल, आप मु झे पूजापाठ कराने वाले पंडित और उस तांत्रिक का पता दे दीजिए, मैं उन्हें देखता हूं. उन्होंने जो लाखों रुपए आप से ठगे हैं, उसे वापस करेंगे या फिर जेल जाएंगे,’’ अशोक ने कहा.
जया ने पूजापाठ कराने वाले पंडित और झाड़फूंक कराने वाले तांत्रिक का पता ही नहीं, बल्कि फोन नंबर भी अशोक को दे दिए.
अशोक ने दोनों का फोन नंबर और पता फोन में ही नोट कर लिया.
सबकुछ शांति से निबट गया था. लावण्य इतना रोई थी कि किसी से देखा नहीं गया था. सबकुछ निबट जाने के बाद अशोक ने पंडित और तांत्रिक को धर दबोचा. आखिर जेल जाने और पोल खुलने के डर से दोनों ने जया से लिया एकएक पैसा वापस कर दिया. वह पैसा ला कर अशोक ने जया के हाथों पर रखा तो जया ने कहा, ‘‘बेटा, कहीं वे दोनों कुछ बुरा न कर दें?’’