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कहानी: नया क्षितिज

लंबा छरहरा बदन तकरीबन अभी भी उसी प्रकार का था. बस, चेहरे पर हलकीहलकी धारियां आ गई थीं जो निकट आते वार्धक्य की परिचायक थीं.

‘वसु,’ पीछे से आवाज आई, वसुधा के पांव ठिठक गए, कौन हो सकता है मुझे इस नाम से पुकारने वाला, वह सोचने लगी. ‘वसु,’ फिर आवाज आई, ‘‘क्या तुम मेरी आवाज नहीं पहचान रही हो? मैं ही तो तुम्हें वसु कहता था.’’ पुकारने वाला निकट आता सा प्रतीत हो रहा था. अब वसु ने पलट कर देखा, शाम के धुंधलके में वह पहचान नहीं पा रही थी. कौन हो सकता है? वह सोचने लगी. वैसे भी, उस की नजर में अब वह तेजी नहीं रह गई थी. 55 वर्ष की उम्र हो चली थी. बालों में चांदी के तार झिलमिलाने लगे थे. शरीर की गठन यौवनावस्था जैसी तो नहीं रह गई थी. लेकिन ज्यादा कुछ अंतर भी नहीं आया था, बस, हलकी सी ढलान आई थी जो बताती थी कि उम्र बढ़ चली है.


लंबा छरहरा बदन तकरीबन अभी भी उसी प्रकार का था. बस, चेहरे पर हलकीहलकी धारियां आ गई थीं जो निकट आते वार्धक्य की परिचायक थीं. कमर तक लटकती चोटी का स्थान ग्रीवा पर लटकने वाले ढीले जूड़े ने ले लिया था.


अभी भी वह बिना बांहों का ब्लाउज व तांत की साड़ी पहनती थी जोकि उस के व्यक्तित्व का परिचायक था. कुल मिला कर देखा जाए तो समय का उस पर वह प्रभाव नहीं पड़ा था जो अकसर इस उम्र की महिलाओं में पाया जाता है.


‘वसु’ पुकारने वाला निकट आता सा प्रतीत हो रहा था. कौन हो सकता है? इस नाम से तो उसे केवल 2 ही व्यक्तियों ने पुकारा था, पहला नागेश, जिस ने जीवन की राह में हाथ पकड़ कर चलने का वादा किया था लेकिन आधी राह में ही छोड़ कर चला गया और दूसरे उस के पति मृगेंद्र जिन्हें विवाह के 15 वर्षों बाद ही नियति छीन कर ले गई थी. दोनों ही अतीत बन चुके थे तो यह फिर कौन हो सकता था. क्या ये नागेश है जो आवाज दे रहा है, क्या आज 35 वर्षों बाद भी उस ने उसे पीछे से पहचान लिया था?


आवाज देने वाला एकदम ही निकट आ गया था और अब वह पहचान में भी आ रहा था. नागेश ही था. कुछ भी ज्यादा अंतर नहीं था, पहले में और बाद में भी. शरीर उसी प्रकार सुगठित था. मुख पर पहले जैसी मुसकान थी. बाल अवश्य ही थोड़े सफेद हो चले थे. मूंछें पहले पतली हुआ करती थीं, अब घनी हो गई थीं और उन में सफेदी भी आ गई थी.


‘तुम यहां?  इतने वर्षों बाद और वह भी इस शाम को अचानक ही कैसे आ गए,’ वसुधा ने कहना चाहा किंतु वाणी अवरुद्ध हो चली थी.


वह क्यों रुक गई? कौन था वो, उसे वसु कह कर पुकारने वाला. यह अधिकार तो उस ने वर्षों पहले ही खो दिया था. बिना कुछ भी कहे, बिना कुछ भी बताए जो उस के जीवन से विलुप्त हो गया था. आज अचानक इतने वर्षों बाद इस शाम के धुंधलके में उस ने पीछे से देख कर पहचान लिया और अपना वही अधिकार लादने की कोशिश कर रहा था. फिर इस नाम से पुकारने वाला जब तक रहा, पूरी निष्ठा से रिश्ते निभाता रहा.


आवाज देने वाला अब और निकट आ गया था. वसुधा ने अपने कदम तेजी से आगे बढ़ाए. अब वह रुकना नहीं चाहती थी. तीव्र गति से चलती हुई वह अपने घर के गेट पर आ गई थी. कदमों की आहट भी और करीब आ गई थी. उस ने जल्दी से गेट खोला. उस की सांसें धौंकनी की तरह चल रही थीं. वह सीधे ड्राइंगरूम में जा कर धड़ाम से सोफे पर गिर पड़ी.


दिल की धड़कनें तेजतेज चल रही थीं. किसी प्रकार उस ने उन पर नियंत्रण किया. प्यास से गला सूख रहा था. फ्रिज खोल कर ठंडी बोतल निकाली. गटगट कर उस ने पानी पी लिया. तभी डोरबैल बज उठी.


उस के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. कहीं वही तो नहीं है, उस ने सोचते हुए धड़कते हृदय से द्वार खोला. उस का अनुमान सही था. सामने नागेश ही खड़ा था. क्या करूं, क्या न करूं, इतनी तेजी से इसलिए भागी थी कि कहीं फिर उस का सामना न हो जाए लेकिन वह तो पीछा करते हुए यहां तक आ गया. अब कोई उपाय नहीं था सिवा इस के कि उसे अंदर आने को कहा जाए. ‘‘आइए’’ कह कर पीछे खिसक कर उस ने अंदर आने का रास्ता दे दिया. अंदर आ कर नागेश सोफे पर बैठ गया.


वसुधा चुपचाप खड़ी रही. नागेश ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘बैठोगी नहीं वसु?’’ वसु शब्द सुन कर उस के कान दग्ध हो उठे. ‘‘यह तुम मुझे वसुवसु क्यों कह रहे हो? मैं हूं मिसेज वसुधा रैना. कहो, यहां क्यों आए हो?’’ वसुधा बिफर उठी.


‘‘सुनो, वसु, सुनो, नाराज न हो. मुझे भी तो बोलने दो,’’ नागेश ने शांत स्वर में कहा.


‘‘पहले तुम यह बताओ, यहां क्यों आए हो? मेरा पता तुम को कैसे मिला?’’ वसुधा क्रोध से फुंफकार उठी.


6 महीनों बाद ही पापा ने उस का विवाह मृगेंद्र से सुनिश्चित कर दिया और वह विदा हो कर अपने पति के घर की शोभा बन गई.

‘‘किसी से नहीं मिला, यह तो इत्तफाक है कि मैं ने तुम्हें पार्क में देखा. अभी 4 दिनों पहले ही तो मैं यहां आया हूं और पास में ही फ्लैट ले कर रह रहा हूं. अकेला हूं. शाम को टहलने निकला तो तुम्हें देख लिया. पहले तो पहचान नहीं पाया, फिर यकीन हो गया कि ये मेरी वसु ही है,’’ नागेश ने विनम्रता से कहा.


‘‘मेरी वसु, हूं, यह तुम ने मेरी वसु की क्या रट लगा रखी है? मैं केवल अपने पति मृगेंद्र की ही वसु हूं, समझे तुम. और अब तुम यहां से जाओ, मेरी संध्याकालीन क्रिया का समय हो गया है और उस में मैं किसी प्रकार का विघ्न बरदाश्त नहीं कर सकती हूं,’’ वसुधा ने विरक्त होते हुए कहा.


‘‘ठीक है मैं आज जाता हूं पर एक दिन अवश्य आऊंगा तुम से अपने मन की बात कहने और तुम्हारे मन में बसी नफरत को खत्म करने,’’ कहता हुआ नागेश चला गया.


वसुधा अपनी तैयारी में लग गई किंतु ध्यान भटक रहा था. ‘‘ऐसा क्यों हो रहा है? अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. फिर आज यह भटकन क्यों? क्यों मन अतीत की ओर भाग रहा है? अतीत जहां केवल वह थी और था नागेश. अतीत वर्तमान बन कर उस के सामने रहरह कर अठखेलियां कर रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे किसी फिल्म को रिवाइंड कर के देखा जा रहा है, उस के हृदय में मंथन हो रहा था. उस के वर्तमान को मुंह चिढ़ाते अतीत से पीछा छुड़ाना उस के लिए मुश्किल हो रहा था. अतीत ने उसे सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए थे. उसे याद आ रहा था वह दिन जब वह पहली बार नागेश से मिली थी.


दिसंबर का महीना था. वह अपनी मित्र रिया के घर गई थी. वहां उस की 2 और भी सहेलियां आई थीं, शीबा और रेशू. रिया उन सब को ले कर ड्राइंगरूम में आ गई जहां पहले से ही उस के भाई के 2 और मित्र बैठे थे. दोनों ही आर्मी औफिसर थे. रिया के भाई डाक्टर थे, डा. रोहित. उन्होंने सब से मिलवाया. फिर सब ने एकसाथ चाय पी. वहीं उस ने नागेश को देखा. रिया ने ही बताया, ‘‘ये नागेश भाईसाहब हैं, कैप्टन हैं और यह उन के मित्र कैप्टन विनोद हैं. उन सब ने हायहैलो की, औपचारिकताएं निभाईं और वहां से विदा हो गए.


वसुधा पहली बार में ही नागेश की ओर आकर्षित हो गई थी. नागेश का गोरा चेहरा, पतलीपतली मूंछें, होंठों पर मंद मुसकान, आंखों में किसी को भी जीत लेने की चमक, टीशर्ट की आस्तीनों से झांकती, बगुले के पंख सी, सफेद पुष्ट बांहों को देख कर वसुधा गिरगिर पड़ रही थी. घर आ कर वह कुछ अनमनी सी हो गई थी. सब ने इस बात को गौर किया पर कुछ समझ न सके.


दिन गुजरते रहे और कुछ ऐसा संयोग बना कि कहीं न कहीं नागेश उसे मिल ही जाता था. फिर यह मिलना दोस्ती में बदल गया. यह दोस्ती कब प्यार में बदल गई, पता ही नहीं चला. घंटों दोनों दरिया किनारे घूमने चले जाते थे, बातें करते थे जोकि खत्म होने को ही नहीं आती थीं. दोनों भविष्य के सुंदर सपने संजोते थे.


दोनों के ही परिवार इस प्यार के विषय में जान गए थे और उन्हें कोई एतराज नहीं था. दोनों ने विवाह करने का फैसला कर लिया. जब उन्होंने अपना मंतव्य बताया तो दोनों परिवारों ने इस संबंध को खुशीखुशी स्वीकार कर लिया और एक छोटे से समारोह में उन की सगाई हो गई.


अब तो वसुधा के पांव जमीन पर नहीं पड़ते थे. इधर नागेश भी बराबर ही उस के घर आने लगा था. सब ने उसे घर का ही सदस्य मान लिया था. विवाह की तिथि निश्चित हो गई थी. केवल 10 दिन ही शेष थे कि अकस्मात नागेश को किसी ट्रेनिंग के सिलसिले में झांसी जाना पड़ गया.


एकदो माह की ट्रेनिंग के बाद विवाह की तिथि आगे टल गई. दोबारा तिथि निश्चित हुई तो नागेश के ताऊ का निधन हो गया. एक वर्ष तक शोक मनाने के कारण विवाह की तिथि फिर आगे बढ़ा दी गई. इस प्रकार किसी न किसी अड़चन से विवाह टलता गया और 2 वर्ष का अंतराल बीत गया.


वसुधा की बेसब्री बढ़ती जा रही थी. यूनिवर्सिटी में उस की सहेलियां पूछतीं, ‘क्या हुआ, वसुधा, कब शादी करेगी? यार, इतनी भी देरी ठीक नहीं है. कहीं कोई और ले उड़ा तेरे प्यार को तो हाथ मलती रह जाएगी.’


‘नहीं वह मेरा है, मुझे धोखा नहीं दे सकता. और जब मेरा प्यार सच्चा है तो मुझे मिलेगा ही,’ वसुधा स्वयं को आश्वस्त करती.


नागेश 15 दिनों की छुट्टी ले कर घर जा रहा था. उस ने आश्वासन दिया था कि इस बार विवाह की तिथि निश्चित कर के ही रहेगा. वसुधा उस से आखिरी बार मिली. उसे नहीं पता था, यह मिलना वास्तव में आखिरी है. अचानक उसे आभास हुआ कि शायद अब वह नागेश को कभी नहीं देख पाएगी, दिल धक से हो गया. लेकिन फिर आशा दिलासा देने लगी, ‘नहीं, वह तेरा है, तुझे अवश्य मिलेगा.’


एक ओर संशयरूपी नाग फन काढ़े हुए था और दूसरी ओर आशा वसुधा को आश्वस्त कर रही थी. इन दोनों के बीच में डूबतेउतराते हुए एक सप्ताह बीत गया कि अकस्मात वज्रपात हुआ. उस के पापा के पास नागेश के पिता का पत्र आया जिस में उन्होंने विवाह करने में असमर्थता बताई थी बिना किसी कारण के.


वह हतप्रभ थी, यह क्या हुआ. वह तो नागेश के पत्र की प्रतीक्षा कर रही थी. पत्र तो नहीं आया लेकिन उस की मौत का फरमान जरूर आया था. उस का दम घुट रहा था. ऐसा प्रतीत होता था मानो उसे जीवित ही दीवार में चुनवा दिया गया हो. चारों ओर से निगाहें उस की ओर उठती थीं, कभी व्यंग्यात्मक और कभी करुणाभरी. वह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.


एक दिन उसे अपने पीछे से किसी की आवाज सुनाई दी. ‘ताजिए ठंडे हो गए? अब तो जमीन पर आ जाओ.’ उस ने पलट कर देखा, उस की सब से गहरी मित्र रिया हंस रही थी. वह तिलमिला उठी थी लेकिन कुछ न कह कर वह क्लास में चली गई. वहां भी कई सवालिया नजरें उसे देख रही थीं.


धीरेधीरे ये बातें पुरानी हो रही थीं. अब उस से कोई भी कुछ नहीं पूछता था. एक रोज रिया ने हमदर्दी से कहा, ‘वसुधा, सौरी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था. मुझे तो अंदाजा भी नहीं था कि तेरे साथ इतना बड़ा धोखा हुआ है.’ और वह वसुधा से लिपट गई.


6 महीनों बाद ही पापा ने उस का विवाह मृगेंद्र से सुनिश्चित कर दिया और वह विदा हो कर अपने पति के घर की शोभा बन गई. विवाह की पहली रात वह सुहागसेज पर सकुचाई सी बैठी थी. कमरे की दीवारें हलके नीले रंग की थीं. नीले परदे पड़े हुए थे. नीले बल्ब की धीमी रोशनी बड़ा ही रूमानी समा बांध रही थी. वह चुपचाप बैठी कमरे का मुआयना कर रही थी कि तभी एक आवाज आई, ‘वसु, जरा घड़ी उधर रख देना.’


मृगेंद्र का स्वर सुन कर वह धक से रह गई. खड़ी हो कर उस ने मृगेंद्र की घड़ी ले ली और साइड टेबल पर रख दी. अब क्या होगा. मृगेंद्र मेरे अतीत को जानने का प्रयास करेंगे. मैं क्या कहूंगी. मौसी ने कहा था, ‘बेटी, पिछले जीवन की कोई भी बात पति को न बताना. पुरुष शक्की होते हैं. भले ही उन का अतीत कुछ भी रहा हो लेकिन पत्नी के अतीत में किसी और से नजदीकियां रखना उन्हें स्वीकार्य नहीं होता है.’


लेकिन मृगेंद्र ने कुछ भी तो नहीं पूछा. बस, उस के दोनों कंधों से उसे पकड़ कर बैड पर बैठा दिया और स्वयं ही कहने लगे, ‘वसु, मैं यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान का प्रोफैसर हूं. इतना वेतन मिल जाता है कि अपने लोगों का गुजारा हो जाए. मेरे पास एक पुराने मौडल की मारुति कार है जो मुझे बहुत ही प्रिय है. मुझे नहीं पता कि तुम्हारी मुझ से क्या अपेक्षाएं हैं परंतु कोशिश करूंगा कि तुम्हें सुखी रख सकूं. मैं थोड़े में ही संतुष्ट रहता हूं और तुम से भी यही आशा करता हूं.’


वह मन ही मन में बोल उठती थी, ‘काश, इस समय मैं नागेश की बांहों में होती.’ एक प्रकार से वह दोहरे व्यक्तित्व को जी रही थी.

वसु हतप्रभ रह गई. यह कैसी सुहागरात है. कोई प्यार की बात नहीं, कोई मानमनौवल नहीं. बस, एक छोटी सी आरजू जो मृगेंद्र ने उसे कितने शांत भाव से साफसाफ कह दी, मानो जीवन का सारा सार ही निचोड़ कर रख दिया हो. उसे गर्व हो रहा था. वह डर रही थी कि कहीं अतीत का साया उस के वर्तमान पर काली परछाईं न बन जाए लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और वह सबकुछ बिसार कर मृगेंद्र की बांहों में समा गई.


उस ने अपनेआप से एक वादा किया कि अब वह मृगेंद्र की है और संपूर्ण निष्ठा से मृगेंद्र को सुखी रखने का प्रयास करेगी. अब उन दोनों के बीच किसी तीसरे व्यक्ति का अस्तित्व वह सहन नहीं करेगी. पेशे से मृगेंद्र एक मनोवैज्ञानिक थे, शायद, इसीलिए उन्होंने उस के मनोभावों को समझ कर उस के अतीत को जानने का कोई प्रयास नहीं किया.


2 वर्षों बाद उस ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया जो हूबहू मृगेंद्र की ही परछाईं थी. जब उन्होंने उसे अपनी गोद में लिया तो उन की आंखें छलक आईं, गदगद हो कर बोले, ‘वसु, तुम ने बड़ा ही प्यारा तोहफा दिया है. मैं प्यारी सी बेटी ही चाहता था और तुम ने मेरे मन की मुराद पूरी कर दी.’ और उन्होंने वसुधा के माथे पर आभार का एक चुंबन अंकित कर दिया. उस का नाम रखा वान्या.


वान्या के 3 वर्ष की होने के बाद उस ने एक बेटे को जन्म दिया. बड़े प्यार से मृगेंद्र ने उस का नाम रखा कुणाल. अब वह बहुत ही खुश था कि उस का जीवन धन्य हो गया. वह एक सुखी और संपन्न जीवन व्यतीत कर रही थी कि उस के जीवन में फिर एक बेटी का आगमन हुआ, मान्या. कुणाल बहुत खुश रहता था क्योंकि उसे एक छोटी बहन चाहिए थी जो उसे मिल गई थी.


हंसतेखेलते विवाह के 15 वर्ष बीत गए थे कि एक दिन मृगेंद्र के सीने में अचानक दर्द उठा. वह उन्हें ले कर अस्पताल भागी जहां पहुंचने के कुछ ही क्षणों बाद डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित करते हुए कहा, ‘मैसिव हार्ट अटैक था.’


अब वह तीनों बच्चों के साथ अकेली रह गई थी. यूनिवर्सिटी के औफिस में ही उसे जौब मिल गई और जीवन फिर धीमी गति से एक लीक पर आ गया.


वान्या और मान्या ने अपनी शिक्षा पूरी कर ली थी. कुणाल इंजीनियर बन गया था. उस ने तीनों बच्चों का विवाह उन की ही पसंद से कर दिया. तीनों ही खुश थे. वान्या और मान्या दोनों ही मुंबई में थीं और कुणाल अपनी कंपनी के किसी प्रोजैक्ट के लिए जरमनी चला गया था. बच्चों के जाने से घर में चारों ओर एक नीरवता छा गई थी. तीनों बच्चे चाहते थे कि वह उन के साथ रहे लेकिन पता नहीं क्यों उसे अब अकेले रहना अच्छा लग रहा था, जैसे जीवन की भागदौड़ से थक गई हो.


उस की सेवानिवृत्ति के 3 वर्ष बचे थे. उस ने वीआरएस ले लिया था क्योंकि अब वह नौकरी भी नहीं करना चाहती थी. जो कुछ पूंजी उस के पास थी, उस ने साउथ सिटी में 2 कमरों का एक छोटा सा फ्लैट ले लिया और अकेले रह कर अपना जीवन व्यतीत कर रही थी.


अचानक आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट की आवाज हुई. वह यादों के भंवर से बाहर आ गई.


वह बहुत परेशान थी. शायद हृदय में अभी भी नागेश के लिए कुछ भावनाएं व्याप्त थीं. तभी तो न चाहते हुए भी उस के विषय में सोच रही थी. ‘क्या यह सच है कि पहला प्यार भुलाए नहीं भूलता,’ उस ने अपनी अंतरात्मा से प्रश्न किया? ‘हां’ उत्तर मिला. तो वह क्या करे, क्या नागेश से दोबारा मिलना उचित होगा? कहीं वह कमजोर न पड़ जाए. नहीं, नहीं, वह बड़बड़ा उठी. वह क्यों कमजोर पड़ेगी? जिस ने उस के जीवन के माने ही बदल दिए थे, उस धोखेबाज से वह क्यों मिलना चाहेगी? उस का और मेरा अब नाता ही क्या है? वसु मन ही मन सोच रही थी.


उस के मन में फिर विचार आया. एक बार बस, एक बार वह उस से मिल कर अपना अपराध तो पूछ लेती. ‘क्या उस ने सच में धोखा दिया था या कोई और मजबूरी थी. हुंह, उस की कुछ भी मजबूरी रही हो, मेरा जीवन तो उस ने बरबाद कर दिया था. फिर कैसा मिलना.’


वसु के मन में विरोधी विचारधाराएं चल रही थीं. लेकिन फिर उस का हृदय नागेश से मिलने के लिए प्रेरित करने लगा, हां, उस से एक बार अवश्य ही मिलना होगा. वह अपनी मजबूरी बताना भी चाह रहा था लेकिन उस ने सुनने की कोशिश ही नहीं की. अब उस ने सोच लिया कि कल सायंकाल पार्क में जाएगी जहां शायद उस का सामना नागेश से हो जाए.


बैड पर लेट कर उस ने आंखें बंद कर लीं क्योंकि रात्रि के 2 प्रहर बीत चुके थे. लेकिन नींद अब भी कोसों दूर थी. मन बेलगाम घोड़े की भांति अतीत की ओर भाग रहा था-नागेश जिस ने उस की कुंआरी रातों में चाहत के अनगिनत सपने जगाए थे, नागेश जिस के कदमों की आहट उस के दिल की धड़कनें बढ़ा देती थीं, नागेश जिस की आंखें सदैव उसे ढूंढ़ती थीं.


उसे याद आता है कि एक बार दोपहर में वह सो गई थी कि अचानक ही नागेश आ गया था. मां ने उसे झकझोर कर उठाया तो वह अचकचा कर दिग्भ्रमित सी इधरउधर देखने लगी. डूबते सूर्य की रश्मियां उस के मुख पर अठखेलियां कर रही थीं. नागेश उसे अपलक देखते हुए बोल उठा, ‘इतना सुंदर सूर्यास्त तो मैं ने अब तक के जीवन में कभी नहीं देखा. और उस का चेहरा अबीरी हो उठा था. नागेश, जिस ने पहली बार जब उसे अपनी बांहों में ले कर उस के होंठों पर अपने प्यार की मुहर लगाई थी, उस चुंबन को वह अभी तक न भूल सकी थी.


जब भी वह मृगेंद्र के साथ अंतरंग पलों में होती थी, तो उसे मृगेंद्र की हर सांस, हर स्पर्श में नागेश का आभास होता था. वह मन ही मन में बोल उठती थी, ‘काश, इस समय मैं नागेश की बांहों में होती.’ एक प्रकार से वह दोहरे व्यक्तित्व को जी रही थी.


प्रतिपल नागेश एक परछाईं की भांति उस के साथ रहता था. जब भी वह नागेश के विषय में सोचती, उस की अंतरात्मा उसे धिक्कारती, ‘वसु, तू अपने पति से विश्वासघात कर रही है. नहीं, नहीं, मैं उन्हें धोखा नहीं दे रही हूं. मेरे तन और मन पर मेरे पति मृगेंद्र का ही अधिकार है. लेकिन यदि अतीत की स्मृतियां हृदय में फांस बन कर चुभी हुई हैं तो यादों की टीस तो उठेगी ही न.’


स्मृतियों के झीने आवरण से अकसर ही उसे नागेश का चेहरा दिखता था और वह बेचैन हो जाती थी. किंतु जब से मृगेंद्र उस के जीवन से चले गए, वह हर पल, हर सांस मृगेंद्र के लिए ही जीती थी. यह सत्य था कि नागेश की स्मृतियां उसे झकझोर देती थीं लेकिन मृगेंद्र की शांत आंखें उस के आसपास होने का एहसास दिलाती थीं. हर पल उसे कानों में मृगेंद्र की आवाज सुनाई देती थी. उसे लगता, मृगेंद्र पूछ रहे हैं, ‘क्या हुआ, वसु, क्यों इतनी उद्विग्न हो रही हो? मैं तो सदा ही तुम्हारे पास हूं न, तुम्हारे व्यक्तित्व में घुलामिला.’


यह सत्य है कि मृगेंद्र का साया उस के अस्तित्व से लिपटा रहता था. फिर भी, वह क्यों नागेश से मिलना चाहती है. जिस ने, किसी मजबूरी से ही सही, उस से नाता तोड़ा और अब 35 वर्षों बाद उस को अपनी सफाई देना चाहता है. क्या वह पहले नहीं ढूंढ़ सकता था.


मृगेंद्र के जाने के बाद वह अकसर ही एक गीत गुनगुनाती थी- ‘तुम न जाने किस जहां में खो गए, हम भरी दुनिया में तनहा हो गए…’ किस के लिए था यह गीत? नागेश के लिए? मृगेंद्र के लिए? दोनों ही तो खो गए थे और हां, वह इस भीड़भरी दुनिया में तनहाई का ही जीवन व्यतीत कर रही थी.


यादों का सैलाब उमड़घुमड़ रहा था. 15 वर्षों के क्षणिक जीवन में भी मृगेंद्र ने उसे इतना प्यार दिया कि वह सराबोर हो उठी थी. लेकिन, कहीं न कहीं आसपास नागेश के होने का एहसास होता था. हालांकि हर बार वह उस एहसास को झटक देती थी यह सोच कर कि यह मृगेंद्र के प्रति विश्वासघात होगा.


अचानक उसे ऐसा लगा जैसे मृगेंद्र ने उस की पीठ पर हाथ रख कर कहा, ‘क्या हुआ, वसु, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है.

मृगेंद्र ने जब अपनी आंखें बंद कीं तब वह निराश हो उठी. उस के मन में एक आक्रोश जागा, यदि नागेश ने धोखा न दिया होता तो वह असमय वैरागिनी न बनी होती और उस की चाहत नागेश के लिए, नफरत में बदल गई. उसे सामने पा कर वह नफरत ज्वालीमुखी बन गई. नहीं, मुझे उस से नहीं मिलना है, किसी भी दशा में नहीं मिलना है. वह निर्मोही पाषाण हृदय, नफरत का ही हकदार है. यदि वह आएगा भी, तो उस से नहीं मिलेगी, मन ही मन में सोच रही थी.


लेकिन फिर, विरोधी विचार मन में पनपने लगे. आखिर एक बार तो मिलना ही होगा, देखें, क्या मजबूरी बताता है और इस प्रकार आशानिराशा के बीच झूलते हुए रात्रि कब बीत गई, पता ही नहीं चला.


खिड़की का परदा थोड़ा खिसका हुआ था. धूप की तीव्र किरण उस के मुख पर आ कर ठहर गई थी. धूप की तीव्रता से वह जाग गई, देखा, दिन के 11 बजे थे. ओहो, कितनी देर हो गई. नित्यक्रिया का समय बीत जाएगा.


जल्दी से नहाधो कर उस ने मृगेंद्र की तसवीर के आगे दीया जला कर, हाथ जोड़ कर उन को प्रणाम करते हुए बोली, मानो उन का आह्वान कर रही हो, ‘‘बताइए, मैं क्या करूं, क्या नागेश से मिलना उचित होगा? मैं हांना के दोराहे पर खड़ी हूं. एक मन आता है कि मिलना चाहिए, तुरंत ही विरोधी विचार मन में पनपने लगते हैं, नहीं, अब और क्या मिलनामिलाना, विगत पर जो चादर पड़ गई है समय की, उस को न हटाना ही ठीक होगा. मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं.’’


अचानक उसे ऐसा लगा जैसे मृगेंद्र ने उस की पीठ पर हाथ रख कर कहा, ‘क्या हुआ, वसु, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है. तुम कुछ भी गलत नहीं करोगी. और फिर मैं तुम्हें कोई भी कदम उठाने से रोकूंगा नहीं. तुम एक बार नागेश से मिल लो. शायद, तुम्हारी जीवननौका को एक साहिल मिल ही जाए.’ हां, यही ठीक होगा, उस ने मन में सोचा.


दूसरे दिन सायंकाल वह जल्दी से तैयार हुई अपनी मनपसंद रंग की साड़ी, मैंचिंग ब्लाउज पहना, बालों का ढीलाढाला जूड़ा बनाया, अनजाने में ही उस ने नागेश के पसंददीदा रंग के वस्त्र पहन लिए थे. आईने में वह खुद को देख कर चौंक उठी, ‘‘क्यों? यह क्या किया मैं ने, क्यों उसी रंग की साड़ी पहनी जो नागेश को पसंद थी. क्या इस प्रकार वह अपने सुप्त प्यार का इजहार कर बैठी? नहीं, नहीं, यह तो इत्तफाक है, उस ने खुद को आश्वस्त किया.


जब वह पार्क में पहुंची तो नागेश कहीं नजर नहीं आया. वह चारों ओर देख रही थी लेकिन बेकार. क्या उस ने गलती की है यहां आ कर? क्या वह नागेश को अपनी कमजोरी का एहसास कराना चाहती थी. नहीं, नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं. वह तो नागेश के इसरार करने पर ही यहां आई थी. आखिर उन की बात भी तो सुननी ही चाहिए न.


नागेश को पार्क में न देख कर वह लौट पड़ी. तभी ‘‘वसु,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया. वह ठिठक गई, शरीर में एक सिहरन सी हुई. कैसे सामना करे वह उस का. कल तो झिड़क दिया था और आज मिलने आ पहुंची. भला वह क्या सोचेगा. पर वह अचल खड़ी ही रही.


नागेश सामने आ कर खड़ा हो गया, ‘‘मिलने आई हो न? मैं जानता था कि तुम आओगी अवश्य ही,’’ नागेश ने संयत स्वर में कहा, ‘‘चलो बैंच पर बैठते हैं.’’ और वह निशब्द नागेश के साथ बैंच पर जा कर बैठ गई. मन में तरहतरह के विचार आ रहे थे. कल और आज में कितना अंतर था. कल वह एक चोट खाई नागिन सी बल खा रही थी और आज नागेश के सम्मोहन में बंधी बैठी थी.


दोनों के बीच कुछ पलों का मौन पसरा रहा. फिर, नागेश ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘वसु, मैं अपनी सफाई में कुछ नहीं कहना चाहता, बस, यही चाहता हूं कि तुम्हारे मन में अपने लिए बसी नफरत को यदि किसी प्रकार दूर कर सकूं तो शायद चैन मिल जाए. 35 वर्ष बीत चुके हैं पर चैन नहीं है. तुम्हें तलाशता रहा कि शायद जीवन के किसी मोड़ पर तुम्हारा साथ मिल जाए पर असफलता ही हाथ लगी.’’


अब वसुधा चुप नहीं रह सकी, ‘‘क्यों आप ने विवाह किया होगा, आप के भी बालबच्चे होंगे, तो फिर चैन क्यों नहीं? और उस दिन आप ने यह क्यों कहा था कि मैं अकेला रह गया हूं. आप का परिवार तो होगा ही.’’


नागेश ने कातर दृष्टि से उसे देखा, ‘‘नहीं वसु, विवाह नहीं किया. मेरे जीवन में तुम्हारे सिवा किसी के लिए कोई भी स्थान नहीं था.’’


‘‘फिर क्यों आप ने धोखा दिया,’’ वसु ने भरे गले से पूछा.


‘‘धोखा, हां, तुम सही कह रही हो. तुम्हारी नजर में ही नहीं, तुम्हारे परिवार की नजरों में भी मैं धोखेबाज ही हूं पर यदि तुम विश्वास कर सको तो मैं तुम्हें बता दूं कि मैं ने तुम्हें धोखा नहीं दिया.’’


‘‘धोखा और क्या होता है, नागेश. तुम्हारा पत्र नहीं आया. तुम्हारे पिता ने एकतरफा फैसला सुना दिया बिना किसी कारण के. यदि विवाह करना ही नहीं था तो सगाई का ढोंग क्यों किया?’’ वसुधा ने तड़प कर कहा.


‘‘हां, तुम सही कह रही हो. कुछ तो अपराध मेरा भी था. मुझे ही तुम्हें पहले बता देना चाहिए था. इस के पूर्व कि मेरे पिता का इनकार में पत्र आता. न जाने क्यों मैं कमजोर पड़ गया और पिता की हां में हां मिला बैठा. दरअसल, उन के पास पैसा नहीं था और उन्हें दहेज की आशा थी जो तुम्हारे घर से पूरी नहीं हो सकती थी.


‘‘उसी समय दिल्ली के एक धनवान परिवार ने जोर लगाया और पिताजी को मनमाना दहेज देने का आश्वासन दिया. पिताजी झुक गए. मैं भी उन की हां में हां मिला बैठा. लेकिन जब विवाह की तिथि निश्चित हुई और ऐसा लगा कि मेरेतुम्हारे बीच में विछोह का गहरा सागर आ गया है, हम कभी भी मिल नहीं सकेंगे, तो मैं तड़प उठा और तत्काल ही विवाह के लिए मना कर दिया. भला जो स्थान तुम्हारा था वह मैं किसी और को कैसे दे सकता था? तभी मुझे फ्रंट पर जाने का पैगाम आया और मैं सीमा पर चला गया.


‘‘मुझे इस बात का एहसास भी नहीं था कि तुम्हारी शादी हो जाएगी. जब मैं लौटा तब तुम्हारे ही किसी परिचित से पता चला कि तुम्हारा विवाह हो चुका है. मैं खामोश हो गया. और उसी दिन यह प्रतिज्ञा ली कि अब यह जीवन तुम्हारे ही नाम है. मैं विवाह नहीं करूंगा. समय का इतना लंबा अंतराल बीत चला कि सबकुछ गड्डमड्ड हो गया. मैं ने कभी तुम्हारे वैवाहिक जीवन में दखल न देने की सोच ली थी, इसलिए एकाकी जीवन बिताता रहा.


‘‘समय की आंधी में हम दोनों 2 तिनकों की तरह उड़ चले. मुझे तो तुम्हारे मिलने की कोई भी आशा नहीं थी. कर्नल की पोस्ट से रिटायर हुआ हूं और यहां एक फ्लैट ले कर रहने आ गया. जीवन का इतना लंबा समय बीत चला कि अब जो कुछ पल बचे हैं उन्हें शांतिपूर्वक बिताना चाहता था कि समय देखो, अचानक तुम से मुलाकात हो गई.’’ नागेश चुप हो गया था.


वसुधा के नेत्रों से अविरल आंसू बह रहे थे, दिल में फंसा हुआ जख्मों का गुबार आंखों की राह बाहर निकलना चाहता था और वह उन्हें रोकने का कोई प्रयास भी नहीं कर रही थी.


रात्रि गहरा रही थी. ‘‘चलो वसु, अब घर चलें,’’ नागेश ने उठते हुए कहा. वसुधा चौंक कर उठी. अक्तूबर का महीना था. हलकीहलकी ठंड थी जो सिहरन पैदा कर रही थी. दोनों उठ खड़े हुए और अपनेअपने रास्ते हो लिए. घर आ कर वसुधा ने एक सैंडविच बनाया और एक कप चाय के साथ खा कर बैड पर लेटने का उपक्रम करने लगी. आंखें नींद से मुंदी जा रही थीं.


वसुधा का प्रारब्ध तो उस का अकेलापन था क्योंकि बच्चे उस से दूर अपनी दुनिया में व्यस्त थे. लेकिन एक नया क्षितिज जीवनसंध्या की राह पर अकेली खड़ी वसुधा का बाहें पसार कर स्वागत करने को आतुर है. ऐसे में क्या करेगी वह?

चारों ओर अथाह जलराशि फैली थी, कहीं किनारा नजर नहीं आ रहा था. वसुधा पानी में घिरी हुई थी. क्या डूब जाएगी? आखिर उसे तैरना भी तो नहीं आता था. वह पानी में हाथपांव मार रही थी, ‘बचाओ…’ वह चिल्लाना चाह रही थी किंतु उस की आवाज गले में फंसीफंसी सी लग रही थी. शायद, गले में ही घुट कर रह जा रही थी. पर कोई नहीं आया बचाने और अब उस ने अपनेआप को लहरों के भरोसे छोड़ दिया. जिधर लहरें ले जाएंगी उधर ही चली जाएगी. और वह तिनके की तरह बह चली. उस ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं, देखें समय का क्या फैसला होता है.


तभी अचानक उसे ऐसा लगा जैसे एक अदृश्य साया सा सामने खड़ा है और अपना हाथ बढ़ा रहा था. वह उस हाथ को पकड़ने की कोशिश करती है, पर सब बेकार.


ट्रिनट्रिन फोन की घंटी बजी और वह चौंक कर उठ गई. कहां गई वह अथाह जलराशि, वह तो डूब रही थी. फिर क्या हुआ. वह तो बैड पर लेटी है. तो क्या यह स्वप्न था? यह कैसा स्वप्न था? लैंडलाइन का फोन लगातार बज रहा था. उस ने फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘हैलो.’’ ‘‘हैलो, मां, मैं बोल रहा हूं कुणाल. आप कैसी हैं?’’


‘‘मैं ठीक हूं बेटा, तुम बताओ कैसे हो? तृषा का क्या हाल है? डिलीवरी कब तक होनी है?’’ उस ने चिंतित स्वर में पूछा.


‘‘वह ठीक है, इस माह की 25 तारीख तक उम्मीद है. पर आप परेशान मत होना. सासूमां प्रसव के समय आ जाएंगी. और हां, मेरा प्रोजैक्ट 2 वर्षों के लिए और बढ़ गया है. ओके, मां, बाय, सी यू.’’


कुछ क्षणों तक रिसीवर हाथ में लिए वह खड़ी रही. मन में विचार उठ रहा था, ‘बहू का प्रथम प्रसव है, मैं भी तो आ सकती थी, बेटा.’ उस ने कहना चाहा पर वाणी अवरुद्ध हो गई और वह कुछ भी न बोल सकी.


शायद बहुओं को अपनी सास पर उतना भरोसा नहीं रह गया है, तभी तो अभी भी मां का आंचल ही पकड़े रहना चाहती हैं.


मृगेंद्र की मृत्यु के बाद किस प्रकार उस ने अपने तीनों बच्चों की परवरिश की, यह तो वह ही जानती है. विवाह के तत्काल बाद ही कुणाल तृषा को ले कर जरमनी चला गया था. वसुधा की हसरत ही रही कि घर में बहू के


पायल की छनछन गूंजे. सुबह की दिनचर्या निबटा कर उस ने कौफी बनाई कि अकस्मात उस को उलझन सी होने लगी.


यह क्या, इस मौसम में पसीना तो आता नहीं. फिर क्या हुआ, उस ने कौफी का एक घूंट भरा, 2 बिस्कुट के साथ कौफी खत्म की. थोड़ा सा आराम मिला, किंतु फिर वही स्थिति हो गई. ऐसा लगा कि उस के सीने में हलकाहलका दर्द हो रहा है. पता नहीं क्या हो गया है, ऐसा तो कभी नहीं हुआ, तब भी नहीं जब मृगेंद्र की मृत्यु हुई थी. तो फिर यह क्या है? क्या हार्ट प्रौब्लम हो रही है, वह थोड़ा सशंकित हो रही थी. क्या डाक्टर को दिखाना होगा? हां, उसे डाक्टर की सलाह तो लेनी ही पड़ेगी. पर अकेले कैसे जाए, हो सकता है कि रास्ते में तबीयत और खराब हो जाए. ऐसे में क्या करे, किसी को बुलाए? क्या नागेश को फोन करे? हां, यही ठीक होगा.


उस ने नागेश को फोन मिलाया. ‘‘हैलो,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया.


‘‘मैं बोल रही हूं,’’ उस ने इतना ही कहा कि नागेश बोल उठा, ‘‘वसु, क्या बात है? ठीक तो हो न?’’


‘‘नहीं, कुछ तबीयत खराब लग रही है. डाक्टर को दिखाना पड़ेगा,’’ उस ने थोड़ा झिझक से कहा. ‘‘कोई बात नहीं, मैं अभी आता हूं.’’ और फोन कट गया.


वसुधा ने अपने कपड़े बदले और नागेश की प्रतीक्षा करने लगी. अभी भी उस के सीने में बायीं ओर हलकाहलका दर्द हो रहा था. गाड़ी का हौर्न बजा, नागेश आ गया था.


डाक्टर कोठारी अपने नर्सिंग होम में ही थे. बड़े ही मशहूर हार्ट सर्जन थे. जब नागेश वसुधा को ले कर वहां पहुंचा तो डाक्टर कोठारी ने कहा, ‘‘आइए, कर्नल सिंह, मैं आप की ही प्रतीक्षा कर रहा था.’’ वसुधा ने कृतज्ञता से नागेश की ओर देखा, कितनी चिंता है इन्हें, मन ही मन सोच रही थी.


डाक्टर कोठारी ने वसुधा का चैकअप किया और चैंबर से बाहर आए, ‘‘कर्नल सिंह, 30 प्रतिशत ब्लौकेज है, एंजियोग्राफी करनी होगी. कल आप इन्हें हौस्पिटलाइज कर दीजिए.’’


‘‘ठीक है, डाक्टर,’’ कह कर नागेश वसुधा को ले कर बाहर आ गया.


‘‘क्या तुम डाक्टर कोठारी को पहले से जानते हो?’’ वसुधा ने जिज्ञासा से पूछा. ‘‘हां, आर्मी में हम लोग साथ में ही थे और रिटायरमैंट के बाद इन्होंने जौब जौइन कर लिया. हम लोगों की अच्छी मित्रता थी,’’ नागेश ने कहा.


घर आ कर वसुधा चिंतित हो रही थी कि वह तो अकेली है, कैसे संभालेगी खुद को, कौन देखभाल करेगा उस की?


‘‘क्या सोच रही हो, वसु, कोई समस्या है? नागेश ने चिंतित स्वर में पूछा.


‘‘हां, नागेश, समस्या तो है ही. मैं अकेली हूं, कौन उठाएगा इतनी बड़ी जिम्मेदारी. कुणाल आ नहीं सकेगा, सोचती हूं बेटियों को ही खबर कर दूं.’’ वसुधा का चिंतित होना स्वाभाविक था.


‘‘तुम चाहो तो मैं फोन कर देता हूं. वैसे तो मैं हूं न. अभी तो तुम मेरी ही जिम्मेदारी हो,’’ नागेश ने आश्वस्त करते हुए कहा.


वसुधा संकोच के बोझ से दबी जा रही थी, तत्काल ही बोल उठी, ‘‘नहीं, नहीं, मैं ही फोन कर लेती हूं. आप का फोन करना उचित नहीं होगा. न जाने वे क्या सोचें.’’


नागेश ने आहत नजरों से उसे देखा, फिर बोला, ‘‘ठीक है, जैसा तुम उचित समझो वही करो. वैसे, मैं सदैव ही तुम्हारे लिए तत्पर रहूंगा. बस, एक फोन कर देना, हिचकना नहीं. मैं वही नागेश हूं.’’ और नागेश चला गया. वसुधा थोड़ी शर्मिंदा हो गई. वह तो मेरा इतना खयाल रख रहा है. और मैं, अभी भी उसे पराएपन का बोध करा रही हूं.


वसुधा ने वान्याको फोन मिलाया. बड़ी देर तक टूंटूं की आवाज आती रही. फिर उस ने बड़े दामाद रोहित को फोन किया. फोन लग गया. ‘‘हैलो’’ आवाज आई.


‘‘हां बेटा, रोहित, मैं बोल रही हूं, वसुधा. वान्या का फोन नहीं लग रहा है, क्या बात हो सकती है?’’


‘‘मम्मीजी, मैं तो इस समय मीटिंग में हूं. आप वान्या को दोबारा फोन मिला लीजिए.’’ और फोन कट गया.


अब वसुधा ने मान्या को फोन मिलाया ‘‘हां, मां, कैसी हो? पता है मां, मैं और दीदी अपने परिवार के साथ यूरोप जा रहे हैं पूरे एक माह के लिए. छुट्टियां वहीं बिताएंगे. बात दरअसल यह है मां कि रोहित जीजा और मेरे पति मृणाल अपनेअपने व्यवसाय में काम करते हुए थक गए हैं, कुछ दिन आराम करना चाहते हैं. सोचा था एक सप्ताह के लिए आप के पास आएंगे लेकिन थोड़ा चेंज भी तो जरूरी है. हां, आप बताएं कोई खास बात है जो इस समय फोन किया.’’


वसुधा यह सोचसोच कर अभीभूत हो रही थी कि नागेश न होते तो क्या होता. संतानों ने तो अपनाअपना ही देखा.

‘क्यों बेटा, क्या तुम से बात करने के लिए अपौइंटमैंट लेना पड़ेगा.’ उस ने कहना चाहा पर प्रकट में बोली, ‘‘बेटा, मैं बहुत बीमार हूं, हार्ट की प्रौब्लम हो गई है. डाक्टर ने एंजियोग्राफी करने के लिए कल ऐडमिट होने को कहा है. मैं तो अकेली हूं, कैसे मैनेज करूंगी.’’


एक पल को मान्या चुप रही, फिर बोली, ‘‘मां, डाक्टर से कहो कि किसी प्रकार दवाओं से एक माह कट जाए तो ठीक होगा तब तक हम लोग लौट आएंगे. बड़ी मुश्किल से यह प्रोग्राम बना है, कैंसिल करना मुश्किल है. मृणाल तथा रोहित जीजा बड़े ही ऐक्साइटेड हैं. आप समझ रही हैं न.’’


‘‘हां बेटा, मैं सब समझ रही हूं. तुम लोग अपना प्रोग्राम खराब न करो’’ वसुधा ने आहत स्वर में कहा.  अब? अब क्या करें, क्या नागेश से ही मदद लेनी होगी. शायद यही ठीक होगा और उस ने नागेश को फोन मिला दिया.


हौस्पिटल में ऐडमिट होने के तत्काल बाद ही उस का इलाज शुरू हो गया. 4 घंटे की लंबी प्रक्रिया के बाद उसे औब्जर्वेशन में रखा गया. दूसरे दिन उसे रूम में शिफ्ट कर दिया गया. उसे कुछ पता भी नहीं चला कि सबकुछ कैसे हुआ. जब होश आया तब उस ने नागेश को अपने बैड के पास आरामकुरसी पर आंखें बंद किए हुए अधलेटे देखा. बड़ा ही मासूम लग रहा था, थकान तथा चिंता की लकीरें चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं. उस का एक हाथ उस के हाथ पर था. उस


ने धीरे से नागेश के हाथ पर अपना दूसरा हाथ रख दिया. नागेश चौंक कर उठ गया. ‘‘क्या हुआ वसु, तबीयत अब कैसी लग रही है?’’ बेचैनी थी उस के स्वर में. यह वसुधा ने भी महसूस किया.


वसुधा यह सोचसोच कर अभीभूत हो रही थी कि नागेश न होते तो क्या होता. संतानों ने तो अपनाअपना ही देखा. मां का क्या होगा, इस से किसी को मतलब नहीं. वह कृतज्ञता से दबी जा रही थी.


3 दिन वह हौस्पिटल में रही और इन 3 दिनों में नागेश ने उस की सेवा में दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा. चौथे दिन वह नागेश के सहारे ही वापस आई. बेहद कमजोरी आ गई थी. नागेश ने हर तरह से उस की सेवा की. इलाज के दौरान जो भी व्यय होता रहा, नागेश ने खुशीखुशी उसे वहन किया. ऐसा प्रतीत होता था मानो वह प्रायश्चित्त कर रहा हो. जब वसुधा पूरी तरह स्वस्थ हो गई तब नागेश ने उस की देखभाल के लिए एक नर्स का इंतजाम कर दिया और उस से विदा मांगी.


वसुधा का मन न जाने कैसाकैसा हो रहा था. उस के जी में आता था कि दौड़ कर नागेश को रोक ले. उस ने बैड से उठने का उपक्रम किया किंतु तब तक नागेश जा चुका था. वह चुपचाप बैठी, सोचने लगी, कहीं वह नागेश को दोबारा खो तो नहीं रही है? नहीं, इतने वर्षों के विछोह के बाद, इतनी मुश्किलों के बाद नागेश उसे मिला है, अब वह उसे दूर नहीं जाने देगी. लेकिन वह उसे किस अधिकार से रोक सकती है.


नागेश की आंखों में उस के लिए चाहत साफसाफ दिखती थी. पर प्रकट में उस ने कुछ भी नहीं कहा. तो क्या हुआ, तेरी इतनी सेवा उस ने की, क्या यह उस का प्यार नहीं था? हां, प्यार तो था, पर मुझे अपनाएंगे ही, इस का क्या भरोसा, और फिर हमारी शादी वाली उम्र भी तो नहीं है, वह खुद ही बोल उठी.


सायंकाल नागेश फलों का जूस ले कर आया, उस का हालचाल पूछा और अपने हाथों से उसे जूस पिलाया. तभी वसुधा ने उस का हाथ थाम लिया, ‘‘क्यों इतनी सेवा कर रहे हो? छोड़ दो न मुझे अकेले. यह तो मेरा प्रारब्ध है, कोई क्या कर सकता है?’’


नागेश के होंठों पर हलकी सी स्मित आई, तत्काल ही बोल उठा, ‘‘कौन कहता है कि तुम अकेली हो? जब तक मैं हूं, तुम अकेली नहीं होगी, वसु. अगर तुम्हें एतराज न हो तो हम अपने रिश्ते को एक नाम दे दें.’’ थोड़े विराम के बाद वह धीमे से बोला, ‘‘वसु, क्या मुझ से विवाह करोगी?’’


वसुधा चौंक उठी, ‘‘विवाह, इस उम्र में? नहीं, नहीं, नागेश, समाज हमें जीने नहीं देगा. लोगों को बातें बनाने का अवसर मिल जाएगा. मैं भी लोगों की नजरों में गिर जाऊंगी और फिर स्वयं मेरे बच्चे भी मेरा ही नाम धरेंगे.’’


‘‘क्या तुम समाज की इतनी परवा करती हो? क्या दिया है समाज ने तुम को? अकेलापन, अवसाद, त्रासदी. क्या एक स्त्री को जीने के लिए ये तीनों सहारे हैं? क्या तुम्हें हंसने का, खुश रहने का अधिकार नहीं है? और शादी केवल शारीरिक सुख के लिए नहीं की जाती है, एक उम्र आती है जब हर व्यक्ति को एक साथी की जरूरत होती है. और इस समय मुझे तुम्हारी और तुम्हें मेरी जरूरत है. यदि हां कर दो तो शायद हम बीते हुए पलों को नए रूप में जी सकेंगे. यह सच है कि 35 वर्षों पूर्व का बीता हुआ समय लौट कर नहीं आ सकेगा, पर आगे जो भी समय है, हम उसे भरपूर जिएंगे.


‘‘तुम कहती हो, बच्चे तुम्हारा ही नाम धरेंगे, तो जरा सोचो, तुम ने अपने बच्चों के लिए क्या नहीं किया, क्याक्या तकलीफें नहीं उठाईं और जब तुम्हारा समय आया तब सब ने मुंह फेर लिया. अब उन्हें अपनाअपना परिवार ही दिख रहा है. उन की दृष्टि में तुम्हारा कोई भी अस्तित्व नहीं है. तुम उन को व्यवस्थित करने का एक साधन मात्र थीं.


मैं तुम्हें बच्चों के खिलाफ नहीं कर रहा हूं, बल्कि जीवन की वास्तविकता दिखा रहा हूं. यह समाज ऐसा ही है और तुम्हारे बच्चे भी इस से परे नहीं हैं. उन की निगाहों में तुम एक आदर्श मां हो जिस ने जीवन की सारी समस्याओं का अब तक अकेले सामना कर के अपने बच्चों का पालनपोषण किया जोकि तुम्हारा कर्तव्य भी था. किंतु उन्हें यह याद नहीं कि उन का भी कुछ कर्तव्य है. उन्होंने तुम को ग्रांटेड समझ लिया. तुम्हारी अपनी क्या इच्छाएं हैं, कामनाएं हैं तथा उन से तुम्हारी क्या अपेक्षाएं हैं, उन्हें किसी भी चीज से सरोकार नहीं. हो सकता है कि वे लोग तुम्हें मां का दरजा दे रहे हों परंतु इस से क्या तुम्हारी इच्छाएं, तुम्हारी कामनाएं दमित हो जानी चाहिए?


बच्चे भी इसी समाज का अंग हैं. समाज से परे वे कुछ भी नहीं सोच सकते हैं. वैसे, तुम चाहो तो अपने बच्चों से सलाह कर लो. देखो, वे लोग क्या राय देते हैं?’’ कह कर नागेश थोड़ा दुखी हो कर चला गया.


वसुधा ने कुणाल को फोन मिलाया. उस का फोन टूंटूं कर रहा था. उस ने कई बार फोन मिलाया. बड़ी देर बाद फोन लग ही गया. ‘‘हैलो,’’ कुणाल का स्वर थोड़ा खीझा हुआ था, ‘‘क्या हुआ, मां, इस समय क्यों फोन किया?’’ स्वर से स्पष्ट था कि उसे इस समय वसुधा का फोन करना पसंद नहीं आया था.


‘‘बेटा, बात यह है कि मुझे हार्ट प्रौब्लम हो गई है, एंजियोग्राफी हुई है. एक सप्ताह बीत गया है. अब ऐसा लग रहा है कि अकेले रहना मुश्किल है. किसी न किसी को तो मेरे पास होना ही चाहिए. वह तो एक परिचित थे, जिन्होंने बहुत मदद की और अभी भी एक नर्स इंगेज कर रखी है.’’


‘‘ठीक किया. देखो मां, किसी के पास इतनी फुरसत नहीं है और अब अपना ध्यान स्वयं रखना होता है. वान्या दीदी तथा मान्या भी अपने परिवार के साथ यूरोप टूर पर जा रही हैं. वे दोनों भी नहीं आ पाएंगी. अपना खयाल रखना और हां, उन सज्जन को मेरा हार्दिक धन्यवाद कहना जिन्होंने तुम्हारी इतनी सहायता की,’’ फोन कट गया.


वसुधा स्तब्ध थी. ये मेरी संतानें हैं जिन के लिए मैं ने अपने किसी सुख की परवा नहीं की. मृगेंद्र की मृत्यु के समय वह एकदम ही युवा थी. बहुतों ने उस से विवाह करने के लिए कोशिश की पर वह अपने बच्चों को छोड़ कर नहीं रह सकती थी और 3-3 बच्चों के साथ उसे कोई स्वीकार भी नहीं करता. सो, वह अपने बच्चों के लिए ही जीती रही. किंतु क्या मिला उसे? आज बच्चों को इतनी फुरसत नहीं है कि वे मां का खयाल रख सकें.


वसुधा को ऐसा लगता है कि उस का वह स्वप्न, जिस में वह अथाह जलराशि में तिनके की तरह बह रही थी, और अदृश्य साया उस को थामने के लिए हाथ बढ़ा रहा था, क्या उसे आज की परिस्थितियों की ओर ही इंगित कर रहा था? और वह हाथ, जो किसी अदृश्य साए का था, शायद वह नागेश का ही था. हां, अवश्य ही, वह नागेश ही रहा होगा.


अब वह निर्णय लेने की स्थिति में आ गई थी. सब ने उसे मूर्ख समझा, ठीक है. लेकिन अब वह और मूर्ख नहीं बनना चाहती. उस का भी अपना जीवन है, उस की भी अपनी हसरतें हैं जिन्हें अब वह पूरा करेगी. यदि बच्चों को उस की आवश्यकता होगी तो वे स्वयं उस के पास आएंगे और उस ने उसी क्षण एक निर्णय ले लिया. उस ने नागेश को फोन मिलाया. ‘‘हैलो,’’ नागेश का स्वर सुनाई दिया.


दरवाजे की घंटी बजी, नर्स ने द्वार खोला, नागेश ही था. ‘‘क्या हुआ वसु, क्या तबीयत खराब लग रही है? डाक्टर को बुलाएं?’’ चिंता उस के हर शब्द में भरी हुई थी.


‘‘नागेश, कोर्ट कब चलना होगा? अब रुकने से कोई लाभ नहीं. मुझे भी तुम्हारा साथ चाहिए, बस. और कुछ नहीं,’’ वसुधा का स्वर भराभरा था. ‘‘और बच्चे?’’ नागेश ने कहा. ‘‘उन्हें बाद में सूचित कर देंगे,’’ वसुधा ने दृढ़ता से कहा.


‘‘ओह वसु, भावातिरेक में नागेश ने उस का हाथ पकड़ लिया. मेरी तपस्या सफल हुई. अब हम अपना शेष जीवन भरपूर जिएंगे,’’ कह कर नागेश ने वसुधा का झुका हुआ चेहरा ठुड्डी पकड़ कर उठाया. दोनों की आंखें आंसुओं से लबरेज थीं और नागेश की आंखों से टपक कर आंसू की 2 बूंदें वसुधा की आंखों में बसे आंसुओं से मिल कर एकाकार हो रही थीं. और वसुधा, नागेश की अमरलता बन कर उस से लिपटी हुई थी. अब, उन के सामने एक नया क्षितिज बांहें पसारे खड़ा था.

'