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कहानी: मन आंगन की चंपा

उस की सब से अधिक पटती थी लीला से. वह कसबे के संपन्न व्यवसायी की पत्नी थी. लीला थी बहुत ही व्यवहारकुशल, सुभाषणी और सुभद्रा की शुभचिंतक.

सुभद्रा वैधव्य के दिन झेल रही थी. पति ने उस के लिए सिवा अपने, किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी. यही था उस के सामने एक बड़ा शून्य. यही था उस की आंखों का पानी जो चारों प्रहर उमड़ताघुमड़ता रहता.


वह जिस घर में रहती है, वह दुमंजिला है. उस के निचले हिस्से सुभद्रा ने किराए पर दे दिए हैं. बाजार में 2 दुकानें भी हैं. उन में एक किराए  पर है, दूसरी बंद पड़ी है. गुजारे से अधिक मिल जाता है, बाकी वह बैंक में जमा कर आती है.


जमा पूंजी की न जाने कब जरूरत आन पड़े, किसे पता? वह पति की कमी और खालीपन से घिरी हो कर भी जिंदगी से हारना नहीं चाहती. कहनेभर को रिश्तेदारी थी. न अपनत्व था और न ही संपर्क. मांबाप  दुनिया से जा चुके थे.


पति के बड़े भाई कनाडा में बस गए. न कभी वे आए और न कभी उन की खबर ही मिली. एक ननद थी अनीता, सालों तक गरमी के दिनों में आती बच्चों के झुंड के साथ. छुट्टियां बिताती, फिर पूरे साल अपने में ही मस्त रहती. कभी कुशलक्षेम पूछने की ज़हमत न उठाती.


जिन दिनों उस का परिवार आता, सुभद्रा को लगता जैसे उस की बगिया में असमय वसंत आ गया हो. सुभद्रा अपनी पीड़ा भूल जाती. उसे लगता, धीरेधीरे ही सही उस की छोटी सी दुनिया में अभी भी आशाओं की कोंपले खिल रही हैं. अनीता, उस का पति निर्मल और तीनों बच्चे घर में होते तो सुभद्रा के शरीर में अनोखी ताकत आ जाती. सुबह से रात तक वह जीजान से सब की खिदमत में जुटी रहती. बच्चों की धमाचौकड़ी में वह भूल जाती कि अब वह बूढ़ी हो रही है. कब सुबह हुई और कब शाम, पता ही न चलता. इस सब के पार्श्व में प्रेम ही तो था जिस के कोने में कहीं आशाओं के दीप टिमटिमाया करते हैं.


जब बच्चों के स्कूल खुलने को होते, तब सुभद्रा के चेहरे पर उदासी की रेखाएं उभरने लगतीं. छुट्टियां ख़त्म होतीं और सब के प्रस्थान करते ही, फिर वही घटाटोप सन्नाटा, वही पीड़ा और एकाकीपन उसे घेर कर बैठ जाते. मानो कहते हों, सुभद्रा तुम्हारे लिए हम हैं और तुम हमारे लिए.


उम्र  बेल की तरह बढ़ती रही और सुभद्रा 65 वर्ष पार कर गई. अनीता का आनाजाना अब बंद हो गया. कभीकभी उसे अपने इस समर्पित भाव पर क्षोभ होता, कभी हंसी आती. फिर सोचती, ननद के प्रति उस का कर्तव्य है. उसे रिश्ते निभाने हैं, लेकिन सीमा निर्धारित उसे ही करनी है. एक हाथ से ही कहां ताली बजती है.


प्रेम जीवन का आधार है. यदि प्रेम ही एकाकी रह जाए या उस की अवहेलना होती रहे, तब अवसाद जन्म लेता है, बिखराव आता है और उद्विग्नता भी. यही हो रहा था उस के साथ.


कभीकभी कसबे की हमउम्र महिलाएं घर पर मिलने आ जातीं. जी हलका हो जाता. मिलबैठ कर अपनेअपने दुखदर्द बांटने का इस से अच्छा उपाय उसे कोई दूसरा नहीं लगा.


सुभद्रा बहुत मिलनसार थी. कसबे में उसे भरपूर सम्मान मिलता. सभी से प्रेम से मिलता. असहाय मिल जाते तो उन की मदद करने से वह न चूकती. हिसाबकिताब में भी सुलझी हुई थी वह.


उस की सब से अधिक पटती थी लीला से. वह कसबे के संपन्न व्यवसायी की पत्नी थी. लीला थी बहुत ही व्यवहारकुशल, सुभाषणी और सुभद्रा की शुभचिंतक. बरसों की मित्रता थी और एकदूजे के सुखदुख की सहचर. उस ने सुभद्रा को कई बार बंद पड़ी दुकान खोलने का सुझाव दिया.


सुभद्रा टालती रही. क्या करेगी वह इस बुढ़ापे में. पैसा है, इज्जत है, हितैषी हैं और कितना चाहिए उसे?


कई दिनों के बाद एक दिन लीला अचानक घर पर आ गई.


सुभद्रा का चेहरा घने बादलों के बीच से निकलते सूरज की तरह चमचमाने लगा. वह खुशी से बोल पड़ी, ”गनीमत है आज तुझे मेरी याद आ ही गई. देख, सुभद्रा अभी जिंदा है, मरी नहीं.”


“बहुत व्यस्त रही इस दौरान पोतापोती के साथ. बाहर निकलना मुश्किल हो गया था.”


“अरे, मैं तो मजाक में कह गई. बैठ, पानी लाती हूं, थक गई होगी.” सुभद्रा बोली तो लीला मुसकरा दी, “मेरा कहा बुरा तो नहीं लगा, अपना मानती हूं, इसीलिए कह गई.”


“नहीं रे, तू मेरी सहेली ही नहीं, बहन भी है. तू डांटेगी भी, तो सुन लूंगी,” यह कह कर लीला हंस दी.


“तभी तो तू मेरे दिल में कुंडली डाले बैठी है,” सुभद्रा उठने का उपक्रम करती हुई बोली.


लीला जोरों से खिलखिलाने लगी, फिर थोड़ी देर में गंभीर हो गई, “कुछ फैसला किया तूने दुकान खोलने का?”


“समझ में नहीं आ रहा, एक औरत जात के लिए इस उम्र में इतनी जिम्मेदारी वाला काम. फिर, चले न चले.”


“आजकल औरतें मर्दों से कम हैं क्या? देख, दुख पीछे देखता है लेकिन आशा हमेशा आगे देखती है. समय निकाल कर दुकान में बैठना शुरू कर.”


“वह तो सब ठीक है लेकिन भागदौड़ नहीं हो पाएगी. पहले जैसी ताकत कहां है अब.”


“कोशिश करेगी, तो सब हो जाएगा. दुकान के लिए रैडीमेड गारमैंट्स मैं मंगवा दिया करूंगी.”


“अच्छा, जैसी तेरी इच्छा,” सुभद्रा ने सहमति में सिर हिलाया.


“सच कह रही है न? चलनाफिरना करोगी तो फायदा ही होगा,” लीला ने समझाया.


बातें करतेकरते सुभद्रा चाय भी बना लाई. लीला कुछ घंटे उस के पास बैठ कर अपने घर चली गई.


लीला का मन रखने के लिए उस ने दुकान की साफसफाई करवा दी. कुछ ही दिनों में लीला ने अपने पति से कह कर लुधियाना से होजरी का सामान मंगवा लिया. अब पुराने रैक, काउंटर इत्यादि रंगरोगन के बाद खिल उठे थे, रैडीमेड कपड़ों व रंगबिरंगे ऊनी स्वेटरों से दुकान सज गई. धीरेधीरे खरीददार भी आने लगे. उसे यह सब देख कर अच्छा लगने लगा.


इस बहाने उस का आसपास के लोगों से मेलमिलाप भी बढ़ गया और मन को आनंद की अनुभूति मिली सो अलग.


दिन ढलने लगता, तो वह हिसाबकिताब निबटा कर घर आ जाती.


लोग उम्र के बढ़ते ही हौसला छोड़ने लगते हैं और वह हौसला जोड़ने में लग गई. लीला का संबल ही उस की सब से बड़ी ताकत थी.


कुछ वर्ष फिर शांति से कट गए. कसबे के लोगों की नजर में सुभद्रा का कद और बढ़ गया. कसबे के लोग उस के अपने ही तो थे, सुखदुख के सहचर. कसबे के लोगों में उसे अपना परिवार सा दिखाई देता. किसी की दादी, किसी की बूआ, तो किसी की चाची, कितने सारे रिश्ते बन गए थे उस के.


हां, एक ननद ही थी जो रिश्ता निभाने में कंजूस निकली.


एक दिन अचानक निर्मल सीधे दुकान पर आ धमका. उन दिनों तबीयत ठीक नहीं थी सुभद्रा की. ननदोई की सेवा करने की क्षमता भी नहीं थी. सुभद्रा ने विवश स्वर में कहा, “अनीता को साथ लाते, तो वह तुम्हारे खानेपीने का खयाल रखती. दुकान खुली रखना भी मेरी मजबूरी है.”


“आना तो चाहती थी लेकिन बच्चों के एग्जाम हैं. वैसे, मैं शाम तक लौट जाऊंगा.”


“ऐसा भी क्या काम आ गया अचानक,” सुभद्रा ने उसे कुरेदा.


एकबारगी वह झिझका, फिर धीरे से बोला, “मदद चाहिए थी, इसलिए आप के पास आया हूं.”


“कैसी मदद, मैं कुछ समझी नहीं?” सुभद्रा ने निर्मल की ओर देखा. उस की आंखों की झिझक ने उस के अंदर का भेद कुछ हद तक उजागर कर दिया.


“2 लाख रुपयों की जरूरत आ पड़ी है. अनीता ने जिद्द की कि आप से मिल जाएंगे कुछ समय के लिए.”


सुभद्रा के होंठों पर फीकी मुसकराहट आ कर टिक गई. दुनिया में लोग स्वार्थ  के लिए अपना सम्मान और प्रेम तक को ताक पर रख देते हैं. सच्चा प्रेम होता तो उस के दुख को समझते, उस की तकलीफ़ पूछते.”


सुभद्रा का मन खट्टा हो गया लेकिन प्रेम अपनी जगह कायम था, ननदोई है आखिर. अनिता जैसी भी है, अपनी है.


“शाम के लिए रोटी बना कर रख देती हूं,” अंदर आ कर चंपा ने कहा और फिर बेटे के सिर पर हाथ रख कर बोली, “चंदू, तू बाहर जा कर खेल.”

उस ने उम्मीद से ही मेरे पास भेजा है. न दूं तो अपनी ही नजर में गिर जाऊंगी. सुभद्रा थोड़ी पढ़ीलिखी थी. उस ने 2 लाख रुपए के चेक पर हस्ताक्षर कर के निर्मल को पकड़ा दिया. शाम तक वह खुशीखुशी लौट गया.


सबकुछ ठीक चल ही रहा था कि एक वह दिन गुसलखाने से बाहर निकलते समय फिसल गई. जांघ की हड्डी फ्रैक्चर हो गई. गनीमत थी कि गिरने की आवाज निचली मंजिल में किराएदार को सुनाई दे गई. इतवार था, किराएदार की छुट्टी थी. वह तेजी से ऊपरी मंज़िल में गया. दरवाजे खुले थे. उस ने आसपास के लोगों की मदद से सुभद्रा को अस्पताल पहुंचाया. कई दिन अस्पताल में गुजारने के बाद वह लौटी. घर में कैद हो गई थी वह. दर्द इस कदर कि उस का बाहर निकलना तो दूर, वौकर के सहारे घर के भीतर ही चल पाना कठिन होता. अनीता को भी अपना हाल बताया लेकिन कोई नहीं आया. एकदो दिन फोन पर हालचाल पूछे थे, बस.


एक दिन लीला आई दोपहर का खाना लिए. सुभद्रा बिस्तर से उठना चाहती थी लेकिन उस से उठा नहीं गया.


“लेटी रहो, ज्यादा हिलोडुलो मत. खाना ले कर आई हूं” लीला बोली.


“क्यों कष्ट किया. पड़ोसी दे जाते हैं, बहुत ध्यान रखते हैं मेरा.”


“याद है, आज तेरा जन्मदिन है. मीठा भी है, तुझे गुलाबजामुन पसंद हैं न?”


“तुझे कैसे पता?” वह आश्चर्यचकित हो कर बोली.


“तूने ही तो बताया था कि मैं वसंतपंचमी के दिन हुई थी.”


सुभद्रा हंसने लगी, “जन्मदिन किसे याद है और क्या करना है याद कर के.”


“क्यों? अपने लिए कुछ नहीं? लेकिन उस दिन मांबाप के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा!”


“हम्म…” और वह खयालों की दुनिया में चली गई.


लीला कुछ सोचते हुए बोल पड़ी, “सुभद्रा, तेरी ननद नहीं आई तुझे देखने?”


उस ने निराशा से गरदन हिलाई, “फोन किया था उसे. कम से कम अपने पति को ही भेज देती तो थोड़ी मदद मिलती. खैर, जो बीत गया सो बीत गया. इसी बहाने अपनेपराए का भेद मिल गया,” सुभद्रा ने दुखी हो कर लंबी सांस छोड़ी और चुप हो गई.


“छोड़ इन सब बातों को, चल, पहले तुझे खिला देती हूं.”


सुभद्रा तो भीतर ही भीतर विषाद से भर चुकी थी. लीला ने जो कहा, उस के कानों के पास से निकल गया.


“क्यों नहीं किसी जरूरतमंद लड़की को रख लेती अपने पास. उस का भी भला होता और तुझे भी दो रोटियां मिल जातीं. कौन जाने कब किसी तरह की जरूरत आन पड़े.”


“हां, बहुत बार सोचा इस बारे में,” वह भोजन शुरू करते हुए वह बोली, “एक लड़की है मेरे गांव में.”


“तो बुला क्यों नहीं लेती उसे?”


“ठीक ही कह रही है तू.”


“सोच मत, बुला ले जल्दी. कितनी उम्र की होगी?”


“होगी कोई 30-32 की, शादीशुदा. लड़की बहुत भोली व संस्कारी है. एक बेटा भी है 8 साल का. बेचारी का समय देखो, इतने पर भी उस का पति उसे छोड़ कर किसी दूसरी के साथ भाग गया.”


“ओह, बहुत बुरा हुआ उस के साथ. तू कहे तो मैं किसी को गांव भेज दूं?”


“ना रे, वही आ जाती है घर पर. जब से मेरा यह हाल हुआ है, कई बार आ चुकी है. कभी दूध तो कभी सब्जी दे जाती है. खाना भी पका कर खिला जाती है. गरीब है, लेकिन दिल की बहुत अमीर है.”


“तभी तो कहा है कि जिस की नाक है, उस के पास नथ नहीं है और जिस के पास नहीं है उस के पास नथ है.”


तभी एक सांवली सी युवती बच्चे के साथ दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गई.


“देख, जिसे सच्चे दिल से याद करो, वह मिल जाता है. यही है वह जिस की मैं बात कर रही थी. चंपा नाम है इस का,” फिर उस की तरफ देख कर सुभद्रा बोली, “आ बेटी, भीतर आ, बाहर क्यों खड़ी है?”


“बूआ, आज गाय ने दूध तो नहीं दिया लेकिन बथुआ का साग बना कर लाई हूं.”


“कोई बात नहीं. अभी मैं खा कर ही बैठी हूं.”


“शाम के लिए रोटी बना कर रख देती हूं,” अंदर आ कर चंपा ने कहा और फिर बेटे के सिर पर हाथ रख कर बोली, “चंदू, तू बाहर जा कर खेल.”


“अरे रहने दे उसे. इधर आ, तुझ से काम की बात करनी है.”


सुभद्रा ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और अपनी इच्छा उसे कह दी. फिर आशा से उस की ओर देख कर बोली, “अब बता, क्या कहती है?”


“आप मेरी बूआ जैसी है और मां जैसी भी. गांव में मेरा कौन है. चंदू के सहारे दिन काट रही हूं.”


“स्कूल में भरती करवा देंगे यहां, खुश रहेगा वह. उस की चिंता मत कर.”


“आप हैं तो मुझे किस बात की चिंता, बूआ.”


थोड़ी देर बाद लीला उठी, “अब मैं चलती हूं, फिर आऊंगी. तू इस से बातें कर. बहुत समझदार और प्यारी लड़की है.”


चंपा की गांव में इकलौती गाय थी, दूध कम ही देती थी. खेती के नाम पर एक छोटा टुकड़ा सब्जी उगाने के लिए, बस. और कुछ नहीं. रोजीरोटी के लिए दूसरों के खेतों में काम मिल जाता था उसे, यही आय का मुख्य साधन भी था. पेट भरने में उसे स्वर्गनर्क याद आ जाते. जवान थी, इसलिए थक कर भी चेहरे पर शिकन नहीं आती. आज उस की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. कसबे में रहेगी तो चंदू की पढ़ाई भी हो जाएगी और पेट भी भरेगा. उस ने हां करने में देरी न की.


एक दिन वह जरूरत का सामान लिए बेटे सहित सुभद्रा के पास आ गई. एक बड़ा सा कमरा उसे मिल गया. गांव के मकान में ताला लटका सो लटका, उधर गाय भी विदा कर आई.


कसबा में आ कर उस ने अपनी दिनचर्या बदल दी. सुभद्रा के कपड़े धोना. नहाने की व्यवस्था, बिस्तर लगाना, खानापीना, समय पर दवाई देना और रोज शरीर में तेलमालिश करना. यह काम गांव के जीवन से कहीं आसान था उस के लिए.


यहां असुरक्षा का भाव भी नहीं सालता था उसे. सुभद्रा उस के हाथ में जरूरत पड़ने पर पैसे धर देती. चंपा हिचकती तो कहती, “बेटी, जितना तू कर रही है उतना शायद सगी बेटी भी न करे. किस के लिए रखूं यह सब. बाजार जा कपड़े खरीद ले अपने और चंदू के लिए.”


उस का बेटा कसबे के स्कूल में जाने लगा था. वह यहां आ कर बहुत खुश था. हमउम्र बच्चों के साथ उस का मन रम गया. अब चंपा को उस की फीस व किताबों की चिंता नहीं थी. सुभद्रा छोटीबड़ी सभी बातों का ध्यान रखती. चंपा भी गांव से बेहत्तर जिंदगी जी रही थी यहां.


यही स्थिति सुभद्रा की भी थी. घर में रौनक आ गई. घीरेधीरे चंपा की सेवासुश्रुषा ने उसे उठनेबैठने लायक बना दिया. फिर तो सुभद्रा ने छोटेमोटे काम अपने हाथों  में ले लिए.


कुछ साल हंसीखुशी बीत गए. सुभद्रा को अब जीवन जीने का आधार मिल गया. सुभद्रा लाठी के सहारे फिर से दुकान में जाने लगी. कभी ग्राहक कम होते तो जल्दी ही घर आ जाती. खानेपीने की उसे फिक्र नहीं थी, चंपा चुटकियों में खाना बना कर परोस देती.


सुभद्रा को घर भरापूरा लगने लगा और चंपा को लगता कि वह अपने मायके में आ गई है. बेटे की शिक्षा और जीवनयापन दोनों भलीभांति चल निकले.


समय एक समान कभी नहीं रहता. उस में भी समुद्र की तरह उतारचढ़ाव आते रहते हैं. सुखदुख दोनों अलगअलग हैं.


कभी एक अपने पैर जमा देता है तो कभी दूसरा.


सुभद्रा 70 साल पार कर गई. पहले से भी अशक्त होती जा रही थी, सो, दुकान की तरफ जाना बंद हो गया. इस बीच कुछ हमउम्र सहेलियां भी दुनिया छोड़ गईं. इस से वह बहुत आहत हुई.


सुभद्रा बिस्तर पर बैठेबैठे किताबों के पन्ने पलटती, चंदू के साथ मन लगाती और कभी अपनी सहेलियों से फोन पर बातें कर समय बिताती. कभी मन किया तो स्वभाववश अनीता को भी फोन लगा कर उस की कुशलता पूछ लेती.


उस साल सर्दी का प्रकोप बढ़ गया था. रहरह कर बादल छा जाते थे. कभी बादल मूसलाधार बरस भी जाते. दिसंबर आतेआते सामने की पहाड़ियों पर बर्फ की सफेद चादर चढ़ने लगी थी. इस साल तकरीबन 7-8 वर्षों बाद ऐसी बर्फ़ देखने को मिली. रजाई से बाहर हाथपैर निकालते ही पैर सुन्न पड़ जाते. ऐसी कड़ाकेदार सर्दी में जरा सी लापरवाही बुजुर्गों के लिए बेहद कष्टकारी होटी है. सांस की तकलीफ बढ़ जाती, कफ़ से छातियां जकड़ जाती हैं.


सुभद्रा को भी कफ की शिकायत होने लगी थी. खांसी भी उठती. छाती में दर्द भी महसूस होता. महल्ले में कल ही स्वास के रोगी एक वृद्ध चल बसे थे. सुभद्रा को पता चला तो वह भी अंदर से डर गई.


चंपा भांप गई. वह दैनिक कार्यों से निबट कर सुभद्रा को अधिक समय देने लगी. “बूआ, इतना क्यों सोच रही हो. खानेपीने और दवाई में लापरवाही से ही खतरा बढ़ता है, आप तो ऐसा नहीं करतीं.”


“वह तो ठीक है पर मेरी 3 सहेलियां भी तो चली गईं इस साल,” सुभद्रा चिंतित स्वर में बोली.


“अरे बूआ, तुम भी न, सब का अपनाअपना समय होता है. आप के साथ मैं हूं न, कुछ नहीं होने दूंगी,” सुभद्रा की हथेलियों को सहलाते हुए चंपा ने कहा, “आप पीठ से तकिया लगा लो, मैं खाना परोसती हूं.”


“पहले  बच्चे को जिमा. अपने साथ उस पर भी ध्यान दिया कर.”


“चिंता न करो बूआ, साथसाथ परोसती हूं.”

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