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कहानी: कद्रदान

अभी वह फोन पर बात कर के हटी ही थी कि समीर फिर उस के पास आया, ‘‘सुनो, प्रेमा का फोन आया था. कल दोपहर 3 बजे वाली ट्रेन से आ रही हैं.

‘‘अरे, वह लाइट वाला आया क्या? कितनी बार फोन कर चुका हूं. केवल 2 दिन ही तो बचे हैं. अब तक तो चारों ओर लाइटें लग जानी चाहिए थीं. रंगबिरंगी जगमगाती लाइटों और सजावट से ही तो उत्सव की भव्यता का आभास होता है वरना एक आम दिन और एक खास दिन में कुछ फर्क ही महसूस नहीं होता,’’ समीर ने ?ाल्लाते हुए कहा और एक बार फिर लाइट वाले को फोन मिलाया.


‘‘अरे भैया, गृहप्रवेश में केवल 2 दिन बचे हैं और आज से ही मेहमान आने शुरू हो जाएंगे और तुम अभी तक नहीं आए? भाई साहब, काम नहीं करना तो मना कर दो. हम किसी और से करवा लेंगे.’’


उधर से पता नहीं लाइट वाले ने क्या कहा कि समीर ने फोन बंद कर दिया और फिर फुरती से दूसरी ओर बढ़ा ही था कि दीप्ति की आवाज आई, ‘‘सुनो, जरा ड्राइवर को बुला देना. मु?ो पार्लर जाना है. फेशियल करवा लूं. 2 दिनों बाद फंक्शन है, सो, चेहरे पर थोड़ा ग्लो आ जाएगा.’’


‘‘अरे भाई, आ जाएगा ड्राइवर और फिर ग्लो भी आ जाएगा पर पहले मु?ो एक बात बता दो कि घर में या बाहर कोई भी छोटामोटा फंक्शन हो, तुम महिलाएं सब से पहले ब्यूटीपार्लर की ओर क्यों भागती हो? अजी, मकान का नांगल है. सब लोग तुम्हें नहीं, मकान को देखेंगे.’’


‘‘बस, यही बात तो तुम मर्द आज तक सम?ा नहीं पाए. भई, मकान अपनी जगह है और मकानमालकिन अपनी जगह. सब मकान के साथसाथ मु?ो भी तो देखेंगे. खासकर, तुम्हारे मित्र,’’ दीप्ति ने चुटकी ली तो समीर खिसिया गया.


‘अरे, याद आया, बुटीक वाली को भी तो फोन करना है. मेरा ब्लाउज तैयार किया या नहीं. यह तो शुक्र है कि साड़ी तैयार हो गई,’ दीप्ति बड़बड़ाई और बुटीक वाली को फोन करने में व्यस्त हो गई.


अभी वह फोन पर बात कर के हटी ही थी कि समीर फिर उस के पास आया, ‘‘सुनो, प्रेमा का फोन आया था. कल दोपहर 3 बजे वाली ट्रेन से आ रही हैं. साथ में कुंवर साहब तथा दोनों बच्चे भी हैं.’’ प्रेमा समीर की बहन थी.


‘‘अच्छी बात है. मैं ने वह बड़ा वाला कमरा साफ करवा दिया था. प्रेमा दीदी को वही कमरा दे देंगे. काफी बड़ा है. चारों आराम से रह जाएंगे,’’ दीप्ति ने कहा.


दीप्ति की बात सुन कर समीर बोला, ‘‘अभी तो एसी रूम ही खाली पड़े हैं.


मेरे खयाल से तो वही रूम देना ही ठीक रहेगा.’’


‘‘अरे, उन्हें कहां आदत है एसी में सोने की और बहुत से रिश्तेदार आएंगे जो एसी के बिना नहीं सो सकते. उन के लिए रखो,’’ दीप्ति ने कहा.


‘‘ठीक है, जैसा तुम मुनासिब सम?ा. मैं फोन कर के पता कर लूंगा कि ट्रेन कितने बजे पहुंचेगी, फिर हम उसी मुताबिक उन्हें लाने के लिए गाड़ी भेज देंगे.’’


‘‘फिर वही बात… अरे भई, गाड़ी भेजने की कहां जरूरत है? किसकिस को भेजोगे गाड़ी? कुंवरजी साथ हैं, औटो कर के आ जाएंगे. हमें और पचासों काम हैं. ऐसे फालतू पचड़ों में मत पड़ो. मेहमान आ रहे हैं, उन का स्वागत करना है. यह फालतू की तीमारदारी मत करो. अरे, यह ड्राइवर नहीं आया अभी तक. बेवजह देर हो रही है. पता नहीं पार्लर वाली फ्री होगी कि नहीं. फोन कर के पता करती हूं और पहले से अपौइंटमैंट ले लेती हूं.’’


इस तरह समीर और दीप्ति 2 दिनों बाद होने वाले अपने नवनिर्मित निवास के गृहप्रवेश के दौरान होने वाले कार्यक्रमों की तैयारी कर रहे थे और आने वाले मेहमानों की आवभगत करने की योजना बना रहे थे. समीर और दीप्ति का एक ही बेटा था जो मुंबई में किसी प्रतियोगिता की तैयारी कर रहा था और इस आयोजन में शरीक नहीं हो पा रहा था.


समीर ने बहुत सोचसम?ा कर यह मकान बनवाया था. कई वर्षों तक तो उस का खयाल था मकान बनवाना ही नहीं चाहिए क्योंकि जितना पैसा मकान बनवाने में खर्च होता है उसी पूंजी के ब्याज में आराम से एक किराए के मकान में रह कर घर खर्च भी निकाला जा सकता है और पूंजी सुरक्षित की सुरक्षित रहती है या फिर आजकल तो पैसों को इनवैस्ट करने के लिए म्यूचुअल फंड, क्रिप्टो या बिटक्वाइन जैसे प्लेटफौर्म्स भी हैं, पर फिर बच्चों के विवाह, सामाजिक प्रतिष्ठा और दीप्ति की जिद के आगे उसे ?ाकना पड़ा था और उस ने यह मकान बनवाने का निर्णय लिया था.


फिर भी उस का मानना यही था कि वह मकान पर जरूरत से ज्यादा खर्च नहीं करेगा. मकान सुविधा संपन्न अवश्य होगा पर सजावट और विलासिता के नाम पर पैसा खर्च करने में समीर का विश्वास नहीं था. वैसे भी, एक मध्यवर्गीय परिवार के लिए ऐसा ही मकान बनवा पाना संभव था.


प्रभा समीर की बड़ी बहन थीं. कुदरत उस का विवाह एक अतिसंपन्न घराने में हुआ था, सो मायके में उस की तूती बोलती थी.

कुछ सामाजिक रीतिरिवाजों को ध्यान में रख कर और कुछ दीप्ति के शौक को देख कर उस ने गृहप्रवेश के समय भोज की व्यवस्था की थी. सभी नजदीकी रिश्तेदारों को न्योता दिया था, हालांकि वह जानता था कि यह सब उस के बजट से बाहर जा रहा है.


पर मकान कौन सा रोजरोज बनता है. नांगल तो होना ही चाहिए. मकान बनाते समय इतने जीवजंतुओं की हत्या होती है तथा बहुत से पेड़पौधों को भी काटा जाता है, इसलिए इन सब के दोष निवारण हेतु हवन, पूजापाठ तथा इसी धरती पर बैठ कर ब्रह्मभोज तो बहुत जरूरी है. ये सभी बातें सुनतेसुनते ही उस ने उम्र पाई थी और इस कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार हो गई थी वरना वह तो इन सब ढकोसलों और फुजूलखर्ची में विश्वास नहीं


रखता था. समीर वैसे भी पूजापाठ और अंधविश्वास से दूर रहने वाला इंसान था. पर दीप्ति के कहने पर उसे सब मानना पड़ा.


‘‘भैया…’’ प्रेमा ने आते ही समीर को गले से लगा लिया और समीर के भांजेभांजी पूजा और प्रतीक ने शरमा कर अपने मामा के पैर छुए. तब समीर ने कहा, ‘‘चलिए कुंवर साहब, अंदर चलिए. थोड़ा जलपान कर लीजिए. आप सफर से आए हैं, थोड़ा आराम कीजिए. फिर मैं आप को तसल्ली से पूरा मकान दिखाऊंगा.’’


‘‘अरे भैया, हमें कोई आरामवाराम की जरूरत नहीं है. हम तो सब से पहले मकान देखेंगे. इसी के लिए तो इतनी दूर से आए हैं. जलपान तो हम रास्तेभर करते आए हैं,’’ कुंवर साहब ने सदा की तरह मजाकिया लहजे में कहा और समीर ने दीप्ति को आवाज दी, ‘‘दीप्ति, देखो प्रेमा, कुंवर साहब और बच्चे आ गए हैं. तुम्हें याद कर रहे हैं.’’


समीर की आवाज सुन कर दीप्ति उधर ही आ गई.


‘‘नमस्कार दीदी, नमस्कार कुंवर साहब,’’ उस ने थोड़ा ?ाकते हुए कहा.


‘‘चलो प्रेमा, कुंवर साहब को पहले अपना घर दिखा देते हैं. बाकी काम बाद में करेंगे,’’ समीर ने हंसते हुए कहा.


‘‘ठीक है, जैसी इन की इच्छा.’’


समीर और दीप्ति दोनों आगेआगे और पीछेपीछे प्रेमा और कुंवर साहब व बच्चे चल पड़े.


अपना नवनिर्मित मकान दिखाने का आनंद तो वही जानता है जो पहले तो बड़े लगन, परिश्रम और अर्थभार को सहन कर के अपने सपनों का महल बनवाता है और उस की नजरों में वही मकान दुनिया का सब से सुंदर तथा सुखसुविधा संपन्न घर होता है.


‘‘यह देखो प्रेमा, यह ड्राइंगरूम है. सामने वाली दीवार पर जो वालपेपर लगा है, वह दीप्ति की पसंद का है और इस में जो सोफा रखा है वह मेरी पसंद का. यानी कि यह ड्राइंगरूम हम दोनों की मिलीजुली पसंद का है,’’ समीर ने ठहाका लगाते हुए कहा.


‘‘बहुत सुंदर है और कितना बड़ा भी. भैया, इस में 20-22 मेहमान भी एकसाथ आ जाएं तो भी यह खालीखाली लगेगा.’’


‘‘मम्मी, यह सोफा कितना सुंदर है,’’ प्रेमा की बेटी ने सोफे पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘और कितना सौफ्ट भी,’’ कह कर


उस पर बैठ कर उछलने लगी.


‘‘नहीं बेटा, ऐसे नहीं उछलते. खराब हो जाएगा,’’ कह कर प्रेमा ने ?ाट से उसे हाथ पकड़ कर उठा दिया और वह बच्ची सकुचाई सी एक ओर खड़ी हो गई मानो उस ने कितना बड़ा अपराध किया हो.


‘‘यह देखो, यह रसोई है. इस की टाइल्स देखो, कितनी सुंदर हैं.’’


‘‘हां भैया, बहुत सुंदर हैं. एक कपड़ा घुमाया और सब साफ,’’ फिर अपने पति की ओर मुंह कर के बोली, ‘‘सुनोजी, जब हम घर बनवाएंगे तो हम भी ऐसी ही टाइल्स लगवाएंगे अपनी रसोई में. देखिए न, ये दराजें कितनी सुंदर हैं और कितनी आरामदायक भी,’’ प्रेमा ने एक दराज को खोलते हुए कहा, ‘‘कितना भी सामान रख लो इन के अंदर, बाहर कुछ दिखाई नहीं देता. रसोई हमेशा साफसुथरी लगती है.’’


‘‘मैं ने तो तुम्हारे भैया से पहले ही कह दिया था कि मु?ो मौड्यूलर किचन चाहिए. चिमनी भी पहले ही लगवा ली है ताकि चिकनाई से रसोई खराब न हो. थोड़ा बजट ज्यादा हो गया पर एक बार जो हो जाए, बाद में सब होना मुश्किल हो जाता है,’’ दीप्ति ने बड़े गर्व के साथ कहा.


‘‘अरे भाई, आप लोगों के लिए क्या मुश्किल है. अब हमारे जैसों की बात करो तो फिर भी सोचना पड़ता है,’’ प्रेमा के पति ने समीर की पीठ पर जोर से हाथ मारते हुए कहा और समीर का चेहरा आत्मसम्मान से भर गया और वह और भी पुलकित मन से घर दिखाने लगा.


जैसेजैसे प्रेमा और उस के परिवार के सभी सदस्य उन के मकान को देखते जा रहे थे और उन की प्रशंसा कर रहे थे, समीर का मन आत्मसंतोष से भरता जा रहा था.


पर प्रेमा की बातों से उन्हें बारबार यह भी लग रहा था कि यह सब देख कर उन की बहन को अपनी आर्थिक विपन्नता का एहसास हो रहा है. जिस लालसाभरी नजरों से बच्चे कभी बाथरूम के नलों को हाथ लगा कर, कभी रेशमी परदों को छू कर अपनी बालसुलभता दर्शा रहे थे, उस से यह साफ जाहिर था कि उन्हें यह घर एक शानदार महल से कम नहीं लग रहा था. खैर, यह तो अपनाअपना संयोग है, इस में वह कर भी क्या सकता था. हां, एक भाई के रूप में वह उसे यथासंभव सहयोग अवश्य दे सकता था.


पर इंसान की मानसिकता ऐसी होती है कि जितना उस के पास होता है उसे उतना ही कम लगता है. सो, समीर और दीप्ति कभी अपनी बहन की अधिक सहायता नहीं कर पाते थे क्योंकि उन की कमाई उन की स्वयं की इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही कम पड़ती नजर आती थी.


‘‘प्रेमा, यह देखो यह बाहर लौन की जगह है. थोड़े ही दिनों में यहां पर हरीभरी घास और रंगबिरंगे फूल लग जाएंगे तो यह घर और शानदार लगेगा. यह गाड़ी की पार्किंग, यह देखो मेन गेट पर जो लैंप लगे हैं, वे इंपोर्टेड हैं.’’


रात के खाने का वक्त हो चला था. अब सभी के पेट में चूहे कूदने लगे थे और थकान भी महसूस होने लगी थी, इसलिए मकान देखनेदिखाने के सिलसिले को वहीं विराम दे कर सभी दूसरे कामों में व्यस्त हो गए.


‘‘अरे समीर, तू ने मु?ो लिवाने के लिए यह खटारा सी गाड़ी क्यों भेज दी? इस का एसी तो शायद काम ही नहीं करता,’’ प्रभा दीदी ने घर में घुसते ही समीर को उलाहना दिया.


प्रभा समीर की बड़ी बहन थीं. कुदरत उस का विवाह एक अतिसंपन्न घराने में हुआ था, सो मायके में उस की तूती बोलती थी.


प्रभा की बात सुनते ही समीर सकपका गया और उसे अपनी एक वर्ष पूर्व खरीदी गई गाड़ी सचमुच खटारा लगने लगी पर फिर भी हिम्मत कर के वह बोला, ‘‘नहीं दीदी, एसी तो ठीक ही काम करता है. दरअसल, गरमी ही बहुत है. आप ठहरीं महलों में रहने वाली, आप को जरा भी कष्ट की आदत नहीं है. सो, अब आप थक गई होंगी. आप जा कर थोड़ा आराम कर लीजिए. हम ने आप के कमरे का एसी पहले से ही औन कर रखा है ताकि कमरा ठंडा हो जाए.’’


फिर इतनी ही देर में दीप्ति दौड़ीदौड़ी उधर आई और थोड़ा ?ाकते हुए बोली, ‘‘नमस्कार दीदी, मैं ने आप के लिए गाड़ी भिजवा दी थी. कहीं लेट तो नहीं हो गई थीं?’’


प्रभा ने दीप्ति की बात का कोई उत्तर नहीं दिया. बस, रहस्यमयी तरीके से मुसकरा दी और बोली, ‘‘अब तू मु?ो मेरा कमरा दिखा दे. मैं यह कपड़े बदलूंगी. बाप रे, इस प्योर शिफौन की साड़ी में भी कितनी गरमी लग रही है. न जाने लोग सस्ते सिंथैटिक कपड़े कैसे पहनते हैं? हां, मेरे नहाने के पानी में बर्फ भी डलवा देना. सूरज निकल आया है. टंकी का पानी गरम हो गया होगा. हां, और नहाने के बाद मैं शिकंजी लूंगी और नीबू ज्यादा मत निचोड़ना, शिकंजी कड़वी हो जाती है. चीनी कम डालना. शुगरफ्री हो तो वह ठीक रहेगी.’’


कुछ ही देर में प्रेमा और उन का परिवार बड़े सुकून से एसी वाले कमरे में गहरी नींद सो गया पर प्रभा दीदी अपने कमरे में चक्कर काट रही थीं.

‘‘ठीक है दीदी, आप चलिए सब इंतजाम आप के मुताबिक हो जाएगा,’’ कह कर दीप्ति एक आज्ञाकारी भाभी की तरह चुपचाप दीदी के पीछेपीछे चल दी मानो घर उस का नहीं, प्रभा दीदी का हो.


प्रभा दीदी को नहानेधोने, तैयार होने और फिर जलपान करने में तकरीबन 2 घंटे लग गए. इन सब कामों के बीच में वह एक नजर मकान की दीवारों पर भी डाल लेती थी. कभी खिड़कियों पर लगे परदों को एक अजीब सी निगाहों से देखती थी तो कभी फर्श को देखते समय हलकी सी भवें चढ़ा लेती थी.


इस से पहले कि समीर और दीप्ति उन से मकान देखने के लिए कहते वे खुद ही उठ कर चल दीं और घूमघूम कर उन के नवनिर्मित आशियाने का अवलोकन करने लगीं.


‘‘समीर, तू ने फर्श पर यह टाइल्स लगा कर अच्छा काम नहीं किया. यहां इटालियन मार्बल लगवाना चाहिए था.’’


‘‘दीदी, आजकल सब टाइल्स ही लगवाते हैं. आर्किटैक्ट ने टाइल्स लगवाने को ही कहा था.’’


‘‘अरे, ये आर्किटैक्ट भी मुंह देख कर ही टीका निकालते हैं. तू ने ही उस के आगे अपने बजट का रोना रोया होगा. बेचारे ने सस्ते में निबटा दिया और क्या करता? मकान की मट्ठ ही मार दी टाइल्स लगवा कर और यह देख, बाथरूम में नल भी पुराने फैशन के लगवाए हैं. आजकल ऐसे नल कौन लगवाता है और यह बेसिन? काउंटर क्यों नहीं बनवाए? शौवर भी छोटा है,’’ कहतेकहते दीदी रसोई की ओर बढ़ गईं.


‘‘बाप रे, नीले रंग की टाइल्स… भला किचन में भी कोई नीले रंग की टाइल्स लगवाता है? सफेद या क्रीम ही ठीक रहती हैं और मु?ो तो यह लोकल ब्रैंड लग रहा है. देखना, कुछ ही दिनों में इन की चमक खत्म हो जाएगी,’’ बोलतेबोलते दीदी की नजर अचानक पंखों पर पड़ी पर उन्हें देख कर वे कुछ न बोलीं.


आगेआगे दीदी पीछेपीछे समीर और दीप्ति एक अपराधी की तरह चल रहे थे मानो उन्होंने ऐसा घटिया मकान बनवा कर कोई बड़ा अपराध किया हो. कल तक जो प्रेमा और उस के पति के मुंह से की गई प्रशंसा सुनसुन कर फूले नहीं समा रहे थे, आज प्रभा दीदी की बातें सुनसुन कर वे शर्म से पानीपानी हो रहे थे. उन के मन में हीनभावना घर करती जा रही थी.


उन्हें ऐसा लग रहा था कि दीदी की पारखी नजरें मकान में लगी हर वस्तु को भेद रही हैं और न जाने वे किस चीज में क्या नुक्स निकाल दें. सो, उन के कान प्रतिक्षण ऐसी किसी अप्रिय बात के लिए कमर कस कर बैठे थे. खैर, ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डरना? उन्होंने स्वयं ही बड़े चाव से प्रभा दीदी को यहां आने का न्योता दिया था जबकि वे अच्छी तरह जानते थे कि उन के यहां आने पर ऐसा ही होने वाला है.


अब समीर और दीप्ति को मकान दिखाने में अधिक रुचि नहीं थी. सो, दीप्ति बोली, ‘‘दीदी, आप के लिए नाश्ता लगवा दिया है. नाश्ता कर लीजिए. मकान तो आप ने करीबकरीब सारा ही देख लिया है.’’


‘‘बस, इतना सा ही मकान बनवाया है? मकान है कि खिलौना? 2 कदम चले ही नहीं, कि खत्म हो गया. अरे भई, जब हम आएंगे, हमें कहां ठहराओगे? मु?ो तो नहीं लगता इस छोटे से घर में कोई हमारे ठहराने के लिए भी कमरा है.’’


‘‘दीदी, आप आइए तो सही. सारा घर आप का ही है,’’ समीर ने हंस कर बात टालते हुए कहा और हाथ पकड़ कर प्रभा दीदी को नाश्ता कराने ले गया.


‘‘सुबह की सारी तैयारियां हो गईं क्या? सामान और रिश्तेदारों को दिए जाने वाले उपहार यथास्थान रख देना ताकि समय पर भागदौड़ न मचे,’’ समीर ने रात को सोते समय दीप्ति को हिदायत दी.


‘‘सब तैयारी तो मैं ने पहले ही कर ली थी. सारा सामान अलगअलग कार्टनों में बंद कर के उन के ऊपर लेबल लगा दिए हैं ताकि कोई भी पकड़ा सके. इसी तरह रिश्तेदारों को दिए जाने वाले उपहार और कपड़े भी अलगअलग पैकेट्स में डाल कर ऊपर उन के नाम लिख दिए हैं. बस, पकड़ाने भर बाकी हैं. हां, पर एक फेरबदल करना जरूरी हो गया है.’’


‘‘अरे भाई, अब क्या फेरबदल बाकी रह गया? जो जैसा है ठीक है. क्या फर्क पड़ता है किसी के पास लाल साड़ी चली गई या पीली? रेशमी चली गई या सूती? तुम औरतों को न जाने क्यों इन्हीं सब बातों का ध्यान रहता है,’’ समीर बड़बड़ाया और बोला, ‘‘भई, मैं तो थक गया हूं. मैं तो सोऊंगा. तुम जानो, तुम्हारा काम.’’


समीर सो गया पर दीप्ति की आंखों में से नींद कोसों दूर थी. वह स्टोररूम में गई और वहां से 2 पैकेट उठा लाई. एक पैकेट पर प्रभा दीदी लिखा हुआ था और दूसरे पर प्रेमा दीदी. प्रभा देवी वाले पैकेट में महंगी साडि़यां तथा एक तोले की सोने की अंगूठी और एक सोने की चेन थी जबकि प्रेमा दीदी के पैकेट में उस के मुकाबले में हलकी साडि़यां थीं और केवल सोने की अंगूठी थी वह भी हलके वजन की.


दीप्ति ने पैन उठाया और जिस पैकेट पर प्रभा दीदी लिखा हुआ था उसे काट कर प्रेमा दीदी कर दिया क्योंकि आज उसे अच्छी तरह एहसास हो गया था कि प्रभा दीदी का जीवनस्तर उन से काफी ऊंचा है और वह अपनी तरफ से उन को चाहे कितनी भी अच्छी साड़ी या गहने दे उन को वह हलके ही लगेंगे तथा वे उन में नुक्स निकालेंगी ही. यह भी हो सकता है कि वह स्वयं इन चीजों का उपयोग न करें और इन्हें अपने नौकरचाकरों में बांट दें.


तो फिर उन्हें यह सब देने से क्या फायदा? यदि वह यही सब चीजें प्रेमा दीदी को देगी तो वे निश्चित रूप से उन की कद्र करेंगी और उन्हें खुशीखुशी स्वीकार भी करेंगी और यह सब दे कर हम एक तरह से उन्हें कुछ आर्थिक सहयोग भी दे पाएंगे जिस की उन्हें नितांत आवश्यकता है. बड़ों ने ठीक ही कहा है कि दान और उपहार देने के लिए भी सही पात्र का चुनाव करना चाहिए तभी उन का महत्त्व होता है. प्रभा दीदी को शगुन के तौर पर कुछ नगद राशि देनी ही ठीक रहेगी. यह सोच कर दीप्ति ने यह अप्रत्याशित निर्णय लिया जोकि वह कितने वर्षों तक नहीं ले पाई थी और सदा ही प्रभा दीदी की संपन्नता के वशीभूत हो कर उन का ही सम्मान तथा प्रेमा दीदी की उपेक्षा करती आई थी.


उस ने मोबाइल उठा कर अगले दिन आने वाले पंडितों को भी बहाना बना कर मना कर दिया. जो पैसा भोज और दानदक्षिणा में जाना था वह प्रेमा दीदी के लिए कमरे में उसी समय एसी वाले को बोल कर लगवा दिया.


यह सब कर के दीप्ति उस कमरे की ओर गई जहां प्रेमा दीदी और उन का परिवार ठहरा हुआ था. वे सब अभी सोने की तैयारी कर ही रहे थे कि दीप्ति ने कहा, ‘‘दीदी, आप सामने वाले कमरे में सो जाइए. उस कमरे में एसी है. आज गरमी बहुत है. इस भयंकर गरमी में आप तथा बच्चे बिना एसी के परेशान हो जाएंगे.’’


‘‘अरे नहींनहीं, हम यहीं सो जाएंगे. हमें कौन सी एसी की आदत है.’’


‘‘तो क्या हुआ, आदत नहीं है तो हो जाएगी. समय बदलते क्या देर लगती है? और फिर जब यहां सुविधा है तो कम से कम 2 दिन तो उस का आनंद लीजिए,’’ कह कर दीप्ति मुसकरा दी और बच्चों का हाथ पकड़ कर एसी वाले कमरे की ओर ले गई.


कुछ ही देर में प्रेमा और उन का परिवार बड़े सुकून से एसी वाले कमरे में गहरी नींद सो गया पर प्रभा दीदी अपने कमरे में चक्कर काट रही थीं. उन्हें नींद नहीं आ रही थी क्योंकि उन की नजरों में उन के कमरे के पलंग के गद्दे आरामदायक नहीं थे और वहीं, कमरे में एक अमीरी का मच्छर भी था जो उन्हें निरंतर परेशान कर उन की नींद में खलल डाल रहा था.

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