कहानी: अपने पैर कुल्हाड़ी
हम एक समाज से आते थे, इसलिए घुलमिल रहे थेे पर तुम ने तो उसे भी खट्टा कर दिया,’’ आक्रोश से शिप्रा का स्वर भर्रा गया और आंखें ड़बड़बा गईं.
“तुम्हारे लिए शुभ समाचार है शिप्रा पटेल,” मोहिनी बड़ी अदा से मुसकराई मानो शिप्रा पर कोई उपकार कर रही हो.
‘‘शुभ समाचार… वह भी तुम्हारे मुंह से? चलो, सुना ही डालो,’’ शिप्रा व्यंग्य भरे लहजे में बोली.
‘‘तुम्हारे प्यारे आशीष गुर्जर को मैं ने तुम्हारे लिए छोड़ दिया है. अब तुम साथ जीनेमरने के अपने वादे पूरे कर सकते हो,’’ मोहिनी पर्स से दर्पण निकाल कर अपनी छवि निहारते हुए बोली.
‘‘मेरी चिंता तुम ना ही करो तो अच्छा है. पर, बेचारे आशीष को क्यों छोड़ आई? कोई मिल गया क्या?’’
‘‘तुम्हें नहीं पता क्या? मेरा विवाह दिल्ली के प्रसिद्ध व्यावसायिक घराने में तय हो गया है. आशीष बहुत रोयागिड़गिड़ाया, कहने लगा कि मैं ने उसे छोड़ दिया तो आत्महत्या कर लेगा. उस ने क्या सोचा था? मैं उस से विवाह करूंगी? मैं ने ही उसे समझाया कि वैसे तो शिप्रा अब तक तुम्हारी बाट जोह रही है. और फिर जाति के बाहर शादी करने पर होहल्ला बेकार ही हो, इसलिए यह संबंध यहीं खत्म करना होगा. पर वह मूर्ख कुछ सुनने को तैयार ही नहीं है.’’
‘‘तुम से किस ने कहा कि मैं आशीष की बाट जोह रही हूं. तुम होती कौन हो मेरे संबंध में इस तरह की बात करने वाली?” शिप्रा कोध में आ गई.
‘‘पर, यों कहो कि तुम्हारी ऊंची जाति की अकड़ अब बीच में आ गई है. हम पिछड़ी जाति वालों को तो तुम वैसे ही पीठ पीछे बुराभला कहते रहते हो.’’
‘‘लो और सुनो, मैं तुम्हारी सब से प्यारी सहेली हूं, अब क्या यह भी याद दिलाना पड़ेगा?’ क्या जाति की बात मैं ने कभी की थी?”
‘‘सहेली हो नहीं, थी कभी. तुम्हारे जैसे मित्र हों तो शत्रु की क्या आवश्यकता है? एकसाथ एक ही कक्षा में पढ़ने के कारण तुम से हंसबोल लेती हूं तो इस का यह मतलब तो नहीं कि तुम अब भी मेरी प्रिय सहेली हो. सच पूछो, तो तुम ने और आशीष ने मेरे साथ जो किया, उस के बाद से मेरा मित्रता और प्रेम जैसे शब्दों से विश्वास ही उठ गया है. हम एक समाज से आते थे, इसलिए घुलमिल रहे थेे पर तुम ने तो उसे भी खट्टा कर दिया,’’ आक्रोश से शिप्रा का स्वर भर्रा गया और आंखें ड़बड़बा गईं.
‘‘यों दिल छोटा नहीं करते. इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं होता. वैसे भी तुम मानो ना मानो मैं तो तुम्हें अब भी अपनी सब से प्रिय सहेली मानती हूं.’’
‘‘अपने विचार मुबारक हो तुम्हें, पर मैं स्थायी संबंधों की तलाश में हूं. वैसे, एक शुभ सूचना तुम्हें मैं भी दे दूं कि मैं आशीष की बाट नहीं जोह रही. मैं ने अपने मातापिता द्वारा चुने वर से विवाह करने का निर्णय किया है,’’ शिप्रा ने बात समाप्त की.
‘‘तुम तो बड़ी छुपी रुस्तम निकली? बताया तक नहीं कि विवाह कर रही हो?’’
‘‘ऐसा कुछ बताने को है भी नहीं, मैं तो अपने जैसे हमारी ही जाति के मध्यमवर्गीय परिवार के युवक से विवाह कर रही हूं. वह न तो तुम्हारे वर की भांति बड़े ऊंची जाति वाले घराने का है और ना ही लाखों में एक. वह तो मेरे जैसे साधारण रूपरंग वाला युवक है और इतना कमा लेता है कि हम दोनों आराम से रह सकें. सच पूछो तो उस के व्यवहार में बड़बोलापन कहीं नजर नहीं आया. बातबात पर हंसना और हंसाना. अब तक केवल दो बार मिली हूं उस से. पर न जाने कैसा जादू कर दिया है उस ने कि फोन पर घंटों व्हाट्सएप चैट कर के भी मन तृप्त नही.’’
‘‘यह तो बड़ा ही शुभ समाचार है. कुछ ही दिनों में परीक्षा समाप्त हो जाएंगी और हम दोनों बिछुड़ जाएंगे, पर अपने विवाह में बुलाना मत भूल जाना. आशीष को मारो गोली, उसे कोई और मिल जाएगी.’’
शिप्रा का रुख देख कर मोहिनी ने बात बदल दी थी.
शिप्रा दूर तक मोहिनी को जाते हुए देखती रही थी. दोनों की घनिष्ठ मित्रता की चर्चा कालेज भर में थी. दोनों ही एक जिस्म एक जान थीं. लोगों को आश्चर्य होता था कि अलग जातियों के होते हुए भी इन की कैसे चल रही है. पर जब मोहिनी आशीष को ही ले उड़ी थी तो शिप्रा को संभालने में लंबा समय लगा था. उसे सारा संसार स्वार्थी और अर्थहीन लगने लगा था. आज वही मोहिनी उस के लिए आकाश को छोड़ने की बात कर रही थी मानो वह कोई कठपुतली हो, जिसे मोहिनी अपनी उंगलियों पर नचा सके. फिर उस ने एक झटके से इस विचार को झटक दिया था. परीक्षा सिर पर थी और वह मोहिनीआशीष प्रकरण में उलझ कर अपना भविष्य दांव पर नहीं लगा सकती.
शीघ्र ही मोहिनी का विवाह भी कोविड प्रोटोकोल से पहले संपन्न हो गया था. पर विवाह के बाद मोहिनी ने ससुराल में जो देखा उस से वह तनिक भी संतुष्ट नहीं थी.
मोहिनी शिप्रा के पास से सीधे कैंटीन की ओर चल दी थी. वह आशीष को यह समाचार उस के अन्य मित्रों के सामने देना चाहती थी. और फिर उस के चेहरे पर आए भावों का आनंद उठाना चाहती थी. वह मूर्ख समझता था, मैं उस से विवाह करूंगी, पर उसे तो शिप्रा जैसी साधारण लडक़ी भी धता बता गई. वह सोच रही थी.
कैंटीन में आशीष को न पा कर वह घर की तरफ चल पड़ी. अंतिम पीरियड में एक क्लास बाकी थी, पर वह उस के लिए दो घंटों तक प्रतीक्षा नहीं करना चाहती थी. वैसे भी प्रयोगात्मक परीक्षा समाप्त होने के पश्चात किसी की कालेज आने में कोई रुचि नहीं बची थी.
परीक्षा की तैयारी के बीच समय कब कपूर बन के उड़ गया, मोहिनी को पता ही नहीं चला. पहले वह और शिप्रा लगातार फोन पर एकदूसरे से संपर्क में रहते थे, पर अब शिप्रा कभी फोन नहीं करती थी और बारबार शिप्रा को फोन करने में मोहिनी का अहम आड़े आ रहा था.
‘‘पता नहीं क्या समझती है अपनेआप को शिप्रा, यदि उसे मेरी चिंता नहीं है तो मैं भी परवाह नहीं करती,’’ मोहिनी ने मानो स्वयं को ही आश्वासन दिया था.
शिप्रा का विवाह मोहिनी से पहले ही हो गया था. माना अब उन की मित्रता में पहले जैसी बात नहीं थी, पर अपने विवाह में शिप्रा ने उसे आमंत्रित तक नहीं किया. यह बात मोहिनी को बहुत अखर गई थी. वह शिप्रा को ऐसा सबक सिखाना चाहती थी जिसे वह जीवनभर याद रखे, पर शिप्रा ने तो सभी संपर्क सूत्र तोड़ कर उस का अवसर ही नहीं दिया था.
शीघ्र ही मोहिनी का विवाह भी कोविड प्रोटोकोल से पहले संपन्न हो गया था. पर विवाह के बाद मोहिनी ने ससुराल में जो देखा उस से वह तनिक भी संतुष्ट नहीं थी. माना बड़ा व्यावसायिक घराना था. पर उस के पति का काम केवल अपने पिता और भाइयों का हुक्म बजा लाना था. परिवार में आर्थिक व मानसिक किसी तरह की स्वतंत्रता नहीं थी. वहां चार दिन में ही उस का दम घुटने लगा था. उस का सारा क्रोध अपने पति परेश पर ही उतरता.
‘‘विवाह के नाम पर मेरे साथ सरासर धोखा हुआ है,’’ एक दिन आंखों में आंसू भर कर मोहिनी ने अपना आक्रोश प्रकट किया था.
‘‘कैसा धोखा? क्या कह रही हो तुम? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है,’’ परेश ने हैरानी प्रकट की थी.
‘‘मुझे बताया गया था कि बहुत बड़ा व्यावसायिक घराना है. करोड़ों का व्यापार है.’’
‘‘तो इस में गलत क्या है? चारपांच शहरों में फैला कारोबार क्या तुम्हें नजर नहीं आता? सौ करोड़ से अधिक की मिल्कीयत है हमारी. और यदि यह तुम्हें हमारे व्यावसायिक घराना होने का सुबूत नहीं लगता तो मुझे कुछ नहीं कहना. वैसे भी मुझे नहीं लगता कि हम ने कभी अपने घराने की प्रशंसा के पुल बांधे थे.’’
‘‘कितनी भी हैसियत क्यों न हो आप के घराने की, पर परिवार में आप की हैसियत क्या है? मेरी हैसियत तो आप से जुड़ी है. आप तो केवल अपने पिता और बड़े भाई के आज्ञाकारी सेवक हैं.’’
‘‘क्या बुराई है आज्ञाकारी सेवक होने में? हमारे परिवार में यह संस्कार बचपन में ही डाले जाते हैं. परिवार में कड़ा अनुशासन ही व्यवसाय को दृढ़ आधार प्रदान करता है. उच्छृंखलता हमें केवल विनाश की ओर ले जाती है. कहीं अपनी सहेली शिप्रा की बातों में तो नहीं आ गई, जहां कोई नियम नहीं होते.’’
परेश का अप्रत्याशित रूप से ऊंचा स्वर सुन कर मोहिनी को झटका सा लगा था, पर वह सरलता से हार मानने वालों में से नहीं थी.
‘‘जिसे तुम उच्छृंखलता कहते हो. हम उसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नाम देते हैं और हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संसार की हर वस्तु से अधिक महत्व देते हैं,’’ मोहिनी भी उतने ही ऊंचे स्वर में बोली थी.
‘‘आवाज ऊंची करना मुझे भी आता है. पर मैं नहीं चाहता कि हम परिवार के सामने हंसी के पात्र बनें. अच्छा होगा, तुम अपनी और परिवार की गरिमा बनाए रखो. इस समय मैं जल्दी में हूं और एक आवश्यक कार्य के लिए जा रहा हूं. हम शाम को बात करेंगे,’’ परेश अपनी बात समाप्त कर बाहर निकल गया था.
‘‘परिवार… परिवार, परिवार ही सबकुछ है. मेरा अस्तित्व कुछ भी नहीं? यहां मैं एक दिन भी रही तो मेरा दम घुट जाएगा.’’
परेश के जाते ही मोहिनी इतनी जोर से चीखी थी कि निम्मी, उस की सेविका दौड़ी आई थी.
‘‘क्या हुआ मेमसाब? कुछ चाहिए क्या?’’
‘‘कुछ नहीं, बाहर निकलो मेरे कक्ष से और बिना दरवाजा खटखटाए अंदर आने का कभी साहस मत करना,’’ मोहिनी इतनी जोर से चीखी थी कि निम्मी कक्ष से बाहर जा कर देर तक सिसकती रही थी.
मोहिनी दिनभर सोचविचार करती रहती थी कि कैसे परेश के आते ही वह उस से दोटूक बात करेगी. ताली एक हाथ से तो बजती नहीं. परेश को समझना ही होगा कि मैं घर में सजावट की वस्तु बन कर नहीं रह सकती. पर परेश के घर में घुसते ही उसे उस की मां आनंदी देवी का बुलावा आ गया था और वह अपने कक्ष में आने से पहले उन से मिलने पहुंच गया था. उधर मोहिनी अपनी बात मुंह में बंद किए देर तक कुनमुनाती रही थी.
जब तक परेश कक्ष में पहुंचा तब तक मोहिनी का पारा सातवें आकाश में पहुंच चुका था.
‘‘मिल गया समय आप को यहां आने का?’’ वह परेश को देखते ही बोली थी. उत्तर में परेश ने उसे ऐसी आग्नेय दृष्टि से देखा था कि मोहिनी सकपका गई थी.
जब अचानक ही मोहिनी को अपने घर के दरवाजे पर आ खड़े देखा, तो उस के मातापिता के पैरों तले से जमीन ही खिसक गई थी.
दोनों के बीच 2 दिनों तक अबोला पसरा रहा था. 2 दिन बाद क्रोध शांत होने पर परेश ने बताया था कि दो दिन पहले के मोहिनी के व्यवहार से मां बहुत नाराज हैं. वे नहीं चाहतीं कि नौकरचाकरों के समक्ष इस तरह का बेतुका व्यवहार किया जाए. वे घर की बहू से शालीनतापूर्ण व्यवहार की अपेक्षा करती हैं.’’
‘‘और क्या आशा करती हैं वे घर की बहू से?’’ मोहिनी ने व्यंग्य किया था.
‘‘भाभी हैं घर में, कितने बड़े घर की बेटी हैं, पर आज तक किसी को शिकायत का मौका नहीं दिया. उन से कुछ सीखो मोहिनी.’’
‘‘सबकुछ मुझे ही सीखना होगा? मां निम्मी से पूछने की जगह मुझ से बात कर सकती थीं, पर उन्हें घर की बहू से अधिक नौकरों पर विश्वास है,’’ मोहिनी की आंखें डबडबा आई थीं.
‘‘दोष तुम्हारा नहीं, मेरा है. मां ने पहले ही कहा था कि तुम्हारे और हमारे जीवन मूल्यों में जमीनआसमान का अंतर है. पर, मैं ही मूर्ख था कि भीतरी गुणों को छोड़ कर बाहरी सौंदर्य पर रीझ गया था.’’
‘‘तो भूलसुधार क्यों नहीं कर लेते? अब भी कुछ नहीं बिगड़ा,’’ दोनों की कहासुनी धीरेधीरे झगड़े का रूप लेती जा रही थी.
‘‘खबरदार, जो ऐसी बात पुन: मुंह से निकाली. हम किसी का हाथ थामते हैं तो जीवनभर निभाते हैं. मैं ने कहा था ना कि हम दोनों के जीवन मूल्यों में बहुत अंतर है,’’ परेश इतनी जोर से चीखा था कि आंनदी देवी दौड़ी आई थीं.
‘‘क्या हुआ…? मुझे तुम से यह आशा नहीं थी मोहिनी? सुबह का थकाहारा पति घर आया है और आते ही महाभारत शुरू. ये नौकरचाकर क्या सोचते होंगे? कुछ तो शर्म करो,’’ वे आते ही मोहिनी पर बरस पड़ी थीं.
‘‘सारा दोष मेरा ही है, मैं ने ही परेश का जीवन नर्क बना रखा है. मैं आप के हाथ जोड़ती हूं, मुझे कुछ दिनों के लिए मातापिता के यहां जाने दें,’’ मोहिनी ने सचमुच हाथ जोड़ दिए थे.
‘‘होश की बात करो बेटी. इस तरह बारबार रूठ कर मायके भाग जाने वाली लड़की का ना मां के यहां सम्मान होता है और ना ही ससुराल में,’’ आनंदी ने बात को वहीं समाप्त करने का प्रयत्न किया था.
तभी निम्मी चाय की ट्रे थामे आ खड़ी हुई थी.
‘‘तुम दोनों चाय पी लो, मेरा तो पूजा का समय हो रहा है,’’ कहती हुई आनंदी कक्ष से बाहर निकल गई थीं.
पर बात इतनी सरलता से कहां समाप्त होने वाली थी. मोहिनी के दिमाग में जो कीड़ा कुलबुला रहा था, वह किसी को भी चैन से रहने देने को तैयार नहीं था.
दूसरे दिन जब सब अपने कार्य में व्यस्त थे, मोहिनी ने अपने सूटकेस में कुछ कपड़े डाले और दरवाजे पर खड़े चौकीदार और अन्य सेवकों की नजरें बचा कर घर से बाहर निकल गई थी.
जब अचानक ही मोहिनी को अपने घर के दरवाजे पर आ खड़े देखा, तो उस के मातापिता के पैरों तले से जमीन ही खिसक गई थी.
“इस तरह अचानक बिना किसी सूचना के…? परेश बाबू कहां हैं?” मां मालिनी देवी ने पूछा था.
‘‘शायद मेरा आना अच्छा नहीं लगा आप लोगों को, मैं परेश और उस के घर को सदा के लिए छोड़ आई हूं,’’ मोहिनी ने घोषणा की, तो मालिनी देवी जहां खड़ी थीं, वहीं धम से बैठ गईं.
‘‘लो सुन लो, मैं ने तो अपनी सारी जमापूंजी लुटा दी इस के विवाह पर और यह फिर से यहां आ कर बैठ गई,’’ उस के पिता द्वारका बाबू होशहवास खो कर चीख उठे थे.
‘‘देखा. कैसा स्वागत हो रहा है बेटी का अपने ही घर में? चिंता मत करिए, मैं शीघ्र ही कहीं नौकरी कर के अपना ठिकाना ढूंढ़ लूंगी, आप पर बोझ नहीं बनूंगी.’’
‘‘सुना? बुद्धि भ्रष्ट हो गई है इस की, विनाश काले विपरीत बुद्धि, इतना संपन्न घराना, ऐसा अच्छा अ‘छा वर छोड़ कर अब यह महिला आवास में जा कर रहेगी,’’ द्वारका बाबू का गला भर आया था.
‘‘लो आ गई आप की लाड़ली बेटी? अभी तो शादी को हुए तीन माह भी नहीं हुए,’’ भाई नितिन पूरी रामकहानी सुन कर हैरानपरेशान स्वर में बोला था.
‘‘तुम भी जले पर नमक छिड़क रहे हो. तुम लोग मेरे पीछे ही क्यों पड़े रहते हो,’’ मोहिनी का दयनीय स्वर सुन कर नितिन हक्काबक्का रह गया था.
‘‘दीदी, भाई हूं तुम्हारा. तुम्हें खुश देखना चाहता हूं, क्या यही मेरा दोष है? तुम कहो कि उन्होंने दुर्व्यवहार किया, दुख दिया तो मैं उन्हें छोड़ूंगा नहीं, पर तुम ने तो अपने पावों पर आप कुल्हाड़ी मार ली.’’
‘‘जरा सोच बेटी, आज तू परेश बाबू के साथ आई होती तो घर में आनंद की लहर दौड़ जाती. नितिन तुम दोनों के स्वागत में पलक पांवड़े बिछा देता,” मां मालिनी देवी ने दीर्घ निश्वास ली थी.
‘‘सब सोच लिया, समझ लिया मां, आगे क्या करना है, वह भी सोच लिया,’’ मोहिनी धीमे स्वर में बोल कर चुप हो गई थी.
दूसरे दिन से ही अपनी डिगरियों का लिफाफा हाथ में धामे मोहिनी नौकरी की तलाश में भटकने लगी थी. पर बात कहीं नहीं बनी थी. थकहार कर वह अपने पुराने कालेज जा पहुंची थी. विभागाध्यक्ष को अपनी रामकहानी सुनाते हुए रो पड़ी थी मोहिनी.
‘‘देखो बेटी, एक सहायक का पद खाली है, इस से अधिक तो कोई सहायता नहीं कर सकता मैं,’’ विभागाध्यक्ष महोदय ने आश्वासन दिया था.
मोहिनी ने तुरंत हां कह दिया था. दूसरे दिन ही वह कालेज के छात्रावास में रहने चली गई थी. मालिनी देवी रोकती रह गई थीं, पर मोहिनी ने एक नहीं सुनी थी.
प्रतिदिन मोहिनी प्रतीक्षा करती कि शायद परेश का कोई फोन आ जाए या कोई उस की खोजखबर लेने का प्रयत्न करे, पर कहीं कुछ नहीं हुआ था.
इस बीच कोविड की दूसरी लहर आ गर्ई और सब अपने कमरों में बंद हो गए. क्लासें औनलाइन चलने लगीं. दूसरी लहर के बाद भी माहौल सहमासहमा सा था.
उस दिन भी सारी क्लासें ले कर वह खाने के लिए कैंटीन की ओर जा रही थी कि सामने से आती शिप्रा को देख कर चौंक गई थी.
‘‘अरे शिप्रा. तुम यहां…?’’
‘‘यह प्रश्न तो मुझे करना चाहिए, मैं तो अपनी डिगरी लेने आई हूं. बड़े दिनों से कालेज बंद था, पर तुम यहां? और कितनी बदल गई हो पहले की मोहिनी की छाया मात्र,’’ शिप्रा के स्वर में हैरानी थी.
‘‘तुम भी कुछ कम नहीं बदली, कितनी मोटी हो गई हो,’’ मोहिनी का उत्तर था.
‘‘चुप, ऐसा नहीं कहते, मैं मां बनने वाली हूं,’’ शिप्रा फुसफुसाई थी.
‘‘ओह, तभी…’’
‘‘तभी क्या?’’
‘‘अनोखी चमक है तुम्हारे चेहरे पर.’’
‘‘चमक तो आनंद की है मोहिनी. सच में मैं बहुत खुश हूं. तुम सुनाओ, कैसी कट रही है जिंदगी.’’
‘‘चलो, कैंटीन चलते हैं. बैठ कर बातें करेंगे,’’ मोहिनी ने प्रस्ताव किया था.
‘‘मैं जरा जल्दी में हूं मोहिनी.’’
‘‘मेरे लिए इतना भी समय नहीं निकाल सकती शिप्रा?’’
‘‘ठीक है, चलो कुछ देर के लिए चलते हैं,’’ शिप्रा ने स्वीकृति दे दी थी.
मोहिनी की रामकहानी सुन कर शिप्रा सन्न रह गई थी. उस के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला था.
‘‘कुछ तो कहो शिप्रा?’’ मौन मोहिनी ने ही तोड़ा था.
‘‘कहने को क्या छोड़ा है तुम ने मोहिनी? एक बात पूछ लूं? तुम स्वयं को समाज और परिवार से ऊपर क्यों समझती हो? समाज के कुछ नियमकायदे हैं. हमें उन सब का पालन करना पड़ता है. और क्या तुम ही संसार की सब से सुंदर स्त्री हो.’’
‘‘शिप्रा, तुम्हारे किसी प्रश्न का उत्तर नहीं है मेरे पास. ठीक ही कहा तुम ने, मैं आवेश में कोई भी निर्णय ले लेती हूं. आगेपीछा सोचे बिना.’’
‘‘मोहिनी, तुम वापस लौट जाओ.’’
‘‘अब क्या मुंह ले कर जाऊंगी वहां.’’
‘‘तो परेश को फोन करो, वे आ कर ले जाएं.’’
‘‘इतना साहस नहीं है शिप्रा,’’ मोहिनी ने आंखें झुका ली थीं.
‘‘ला, परेश का नंबर दे मुझे. मैं फोन करती हूं,’’ शिप्रा ने अपना मोबाइल निकाला था.
मोहिनी ने नंबर मिलाया और परेश का स्वर सुनते ही शिप्रा को थमा दिया था.
‘‘नमस्ते जीजाजी, मैं शिप्रा, मोहिनी की सहेली.”
‘‘नमस्ते, शिप्रा शायद तुम नहीं जानती कि मोहिनी अब यहां नहीं रहती.’’
‘‘कैसे रहेगी, आप तो हमारी सहेली को भूल ही गए.’’
‘‘तुम भी मुझे ही दोष दे रही हो?’’
‘‘नहीं, मैं तो केवल यह कह रही हूं कि यदि पतिपत्नी में से एक नासमझ हो तो दूसरे को संभाल लेना चाहिए, नहीं तो इस बंधन का अर्थ ही क्या है?’’
‘‘शायद, तुम ठीक कह रही हो, पर मोहिनी है कहां?’’
‘‘यहीं, मेरे सामने बैठी है. लीजिए, बात कीजिए.’’
मोहिनी बड़ी कठिनाई से कुछ शब्द बोल पाई थी.
‘‘तुम अपने मातापिता के घर जाओ. मैं आ रहा हूं लेने मोहिनी,’’ परेश ने कहा था.
मोहिनी अचानक सिसक उठी थी. लंबे समय से दबा दुख मानो आंखों की राह बह जाना चाहता था.