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मायावती ने छोड़ी 'मोह-माया', किस तरफ जाएंगे 21% दलित वोट, जानें पूरा समीकरण

गाजीपुर न्यूज़ टीम, लखनऊ. यूपी में भाजपा और सपा का चुनाव प्रचार तो दिख रहा है, पर बसपा सीन से 'गायब' दिख रही है। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि 2022 विधानसभा चुनाव में दलित वोट किस ओर पड़ेंगे? उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती की तरफ से जमीन पर चुनाव प्रचार नहीं दिख रहा है। शायद यही वजह है कि चुनावी तापमान देख कहा जाने लगा है कि यूपी में इस बार भाजपा और सपा में सीधी टक्कर होने वाली है।

21 प्रतिशत वोट और मायावती की अरुचि

बसपा कई राज्यों में चुनाव लड़ती है लेकिन यूपी उसके लिए सबसे ज्यादा मायने रखता है। यहां उसका अपना काडर है जो दशकों से उसका अपना वोट बेस रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों की आम धारणा यह है कि मायावती की 'अरुचि' के चलते बसपा के कोर वोटर्स का एक वर्ग खिसक सकता है, वैसे भी यूपी के 21 प्रतिशत वोटर्स समुदाय को लुभाने के लिए कई दावेदार पूरी कोशिश कर रहे हैं।

वैसे, दलित पिछले तीन दशकों से लगातार बसपा को वोट देते आ रहे हैं। ऐसे समय में, जब भाजपा से कई ओबीसी नेता टूटकर सपा में शामिल हो गए हैं, गैर-यादव पिछड़ी जाति के मतदाताओं को अपने साथ करने की कोशिशें तेज हो गई हैं। साथ ही इस समुदाय का महत्व भी समझा जा रहा है।

भाजपा का प्लान

केंद्र और राज्य में योगी सरकार की कई कल्याणकारी योजनाओं के फायदे समझाने के साथ-साथ भाजपा हिंदुत्व के अपने एजेंडे में इस समुदाय को साथ लाने की पूरी कोशिश कर रही है। विश्लेषकों का कहना है कि मायावती लगातार जाटव उप-जाति की एकजुटता पर भरोसा करती आ रही हैं, जो कुल दलित आबादी का करीब 55 प्रतिशत है। विशेषज्ञों का कहना है कि 1990 के शुरुआती दशक में संस्थापक कांशी राम के नेतृत्व में बसपा के एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनने से पहले तक दलित समुदाय कांग्रेस को वोट देता आ रहा था।

सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला अपनाने के बाद 2007 में पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ मायावती सत्ता में आईं। इस बार ब्राह्मणों और दलितों ने साथ मिलकर बसपा को मजबूत किया था।

फिर भाजपा आई...

दलित वोटबैंक पर मायावती के एकछत्र प्रभाव को भाजपा ने चुनौती दी। 2014 के लोकसभा चुनाव से ही भाजपा ने दलित समुदाय को जातिगत नजरिये से अलग कर कल्याणकारी योजनाओं और विकास के आधार पर वोट मांगे। यूपी भाजपा एससी/एसटी मोर्चा के अध्यक्ष राम चंद्र कनौजिया कहते हैं, 'पार्टी के स्लोगन - सबका साथ, सबका विकास के पीछे छिपे हुए संदेश को समझने की जरूरत है। हम ऊंची जाति और दलितों के बीच की खाई को भरना चाहते हैं जो सदियों से चली आ रही है।' उन्होंने कहा कि महामारी के दौरान राशन और जन औषधि योजना जैसे कदमों ने सामाजिक-आर्थिक रूप से उत्पीड़ित वर्ग को काफी राहत पहुंचाई।

भाजपा और जाटव समुदाय

भाजपा सूत्रों का कहना है कि दलितों को अपने साथ लाने के लिए यूपी विधानसभा चुनाव की घोषणा होने से ठीक पहले सभी 75 जिलों में पार्टी ने विशेष सभाएं आयोजित कीं। पार्टी की योजना गैर-आरक्षित सीटों से भी दलित उम्मीदवार उतारने की है। सहारनपुर सीट से जगपाल सिंह, एक दलित उम्मीदवार को पहले ही टिकट दिया जा चुका है। यहां दूसरे चरण में मतदान है। वास्तव में, 107 उम्मीदवारों की जो पहली लिस्ट आई है उसमें भाजपा ने 19 दलितों को टिकट दिया है जिसमें से 13 जाटव है। यह वही दलित उप-जाति है जिससे मायावती ताल्लुक रखती हैं।

सपा भी लुभा रही

सपा ने भी भाजपा को बराबर टक्कर देने की कोशिश की है। वह कई दिग्गज गैर-यादव पिछड़े नेताओं को अपने पाले में लाने में कामयाब रही, जिसमें तीन यूपी के मंत्री थे- स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धरम सिंह सैनी। विशेषज्ञों का कहना है कि अखिलेश ने अपनी पार्टी की पहले वाली छवि को बदलने की कोशिश की है। पहले इसे यादव और मुस्लिम वोटबैंक- एमवाई समीकरण वाली पार्टी कहा जाता था। पार्टी के भीतर ऐसा माना जा रहा है कि पिछड़े वर्ग से नेताओं के आने से दलित वोटर सपा के और करीब आ सकता है।

पिछला प्रयोग फेल रहा

2019 के लोकसभा चुनाव से पहले ही सपा ने बसपा से गठबंधन किया था लेकिन दलित वोट उसे नहीं मिले। वहीं, बसपा ने 2014 की अपनी टैली को शून्य से सुधारकर 2019 में 10 तक पहुंचा दिया। इससे साबित हो गया कि सपा के पक्के वोटर्स- यादव और मुस्लिमों ने बसपा को समर्थन दिया। बाद में मायावती ने गठबंधन को यह कहकर खत्म कर दिया कि सपा अपने वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं करा सकी।

सपा प्रमुख फिलहाल दलित नेता और आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्र शेखर से गठबंधन पर स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कह रहे लेकिन यह भी राजनीतिक समीकरण बदल सकता है।

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