बसपा के वोट बैंक पर टिकी सभी दलों की नजर, जानें किसकी कितनी मजबूत है दावेदारी
गाजीपुर न्यूज़ टीम, लखनऊ. 21 प्रतिशत से अधिक दलित आबादी की प्रदेश की राजनीति में सदैव महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आजादी के बाद से कांग्रेस के साथ रहने वाला दलित वोट बैंक पिछले तीन दशक के दौरान बहुजन समाज पार्टी के साथ खड़ा दिखाई देता रहा। हालांकि, हालिया चुनावी नतीजे बसपा से भी दलित वोट बैंक के खिसकने का संकेत देते रहे हैं। भाजपा, दलित वोट बैंक में सेंध लगाने में काफी हद तक कामयाब होती दिख रही है। कांग्रेस सहित दूसरी राजनीतिक पार्टियों में भी इस वोट बैंक को लेकर खींचतान है। राज्य की सत्ता हथियाने के लिए किस तरह से राजनीतिक दलों की पैनी नजर दलित वोट बैंक पर है।
इस चुनाव में राजनीतिक दलों ने अपना चुनावी चक्रव्यूह तैयार किया है तो इसमें एक द्वार अनुसूचित जाति के मतों का भी है। कभी कांग्रेस पार्टी की झोली में जाने वाले दलित वोट बैंक को अपना बनाकर बसपा प्रमुख मायावती चार बार यूपी की सत्ता हासिल करने में कामयाब रही हैं। पिछले एक दशक से दलित मतों में दूसरी पार्टियों की बढ़ती सेंधमारी का ही नतीजा है कि मायावती को जहां वर्ष 2012 में अपनी सत्ता गंवानी पड़ी वहीं वर्ष 2014 में बसपा लोकसभा में शून्य पर सिमट कर रह गई। हाल के वर्षों में बसपा से खिसकते दलित वोट बैंक को साधने में भाजपा ही सबसे आगे रही है।
पिछली बार सर्वाधिक आरक्षित सीटों पर कब्जा जमाने वाली भाजपा एक बार फिर सत्ता में वापसी के लिए कई बड़े दलित नेताओं को महत्व देने के साथ ही दलितों के लिए तमाम कल्याणकारी योजनाएं चला रही है। लोक-लुभावनी योजनाओं की झड़ी लगाकर भाजपा दलित वोटरों में और गहरी सेंध लगाना चाहती है। वर्ष 2012 में सर्वाधिक आरक्षित सीटों पर कब्जा जमाकर सत्ता हासिल करने वाली समाजवादी पार्टी भी एक बार फिर अनुसूचित जाति की ज्यादा से च्यादा सीटों को हासिल करने के लिए कोई कसर नहीं छोडऩा चाहती। खिसकते जनाधार को थामने के लिए बसपा भी पूरी ताकत से लगी है ताकि डेढ़ दशक बाद पांचवी बार सत्ता हासिल करने में कामयाब हो सके। कांग्रेस नए सिरे से दलितों में पैठ बनाने के लिए हाथ-पैर मार रही है।
सूबे की 403 विधानसभा सीटों में से अनुसूचित जाति के लिए जहां 84 सीटें आरक्षित हैं, वहीं अनुसूचित जनजाति के लिए दो हैं। आजादी के बाद से दलितों के वोट थोक में कांग्रेस के हाथ ही लगते थे लेकिन कांशीराम-मायावती द्वारा दलितों-शोषितों की आवाज बुलंद किए जाने से दलित वोट बैंक कांग्रेस से खिसक कर कांशीराम की बसपा में आता गया। कांग्रेस से दलितों के छिटकने का नतीजा यह रहा कि पिछले ढाई दशक के चुनावों में यह पार्टी कभी भी एक दर्जन से च्यादा सुरक्षित सीटें हासिल नहीं कर सकी। पहले कांशीराम और फिर मायावती का दलितों पर कुछ इस तरह का जादू चला कि बसपा वर्ष 2007 में अपने दम पर सरकार बनाने तक में कामयाब रही। दलितों में खासतौर से जाटव मतदाता के बीच मायावती की पैठ से तो अब भी इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन आरक्षित सीटों पर पार्टी के खराब होते प्रदर्शन के पीछे दलित वोटों का बिखराव ही माना जा रहा है।
अब भाजपा की पैनी नजर है दलित वोट बैंक पर : वैसे तो सत्ता में वापसी के लिए बसपा दलितों को अपने साथ बनाए रखने को कोई कसर नहीं छोडऩा चाहती है लेकिन भाजपा भी दलितों का वोट झटकने के लिए लगातार नए-नए दांव चल रही है। पिछले चुनाव में सहयोगियों संग सर्वाधिक 76 सीटों पर जीत दर्ज कराने वाली भाजपा का मानना है कि उनकी सरकार की योजनाओं के सर्वाधिक लाभार्थी दलित समाज के ही हैं। पर, इससे मना नहीं किया जा सकता कि लाख गुणा-गणित के बावजूद इन सीटों पर भाजपा के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं।
वैसे तो पूर्व में केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार से लेकर राज्य की सत्ता में रही सपा सरकार ने भी दलितों को लुभाने के लिए कई अहम फैसले किए लेकिन न कांग्रेस और न ही सपा को उससे कोई खास फायदा होता दिखाई दिया। वर्ष 2012 के चुनाव में सर्वाधिक 58 आरक्षित सीटों पर कब्जा जमाने वाली सपा भी पिछले चुनाव में सात पर सिमट कर रह गई थी। वैसे तो अबकी चुनाव में भी आरक्षित सीटों पर सपा के लिए दबदबा बनाना आसान नहीं दिखता लेकिन जिस तरह से जोड़-तोड़ मची है, उससे सपा को पिछले चुनाव से कुछ च्यादा फायदा होते दिख रहा है।
आंकड़े एक नजर में
कुल दलित वोट - 21.1 प्रतिशत
जाटव - 11.70 प्रतिशत
पासी - 3.3 प्रतिशत
कोरी, बाल्मीकी - 3.15 प्रतिशत
धानुक, गोड, खटिक - 1.05 प्रतिशत
अन्य दलित जातियां - 1.57 प्रतिशत
अनुसूचित जाति को आरक्षित विस सीटें - 84
300 सीटों पर दलित वोटरों का प्रभाव : राज्य की 403 विधानसभा सीटों में से एससी-एसटी के लिए भले ही 86 सीटें आरक्षित हैं लेकिन 50 जिलों की तकरीबन 300 सीटों पर दलित वोटर प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं। 20 जिलों में तो 25 फीसद से ज्यादा अनुसूचित जाति-जनजाति की आबादी है। यही कारण है कि सभी राजनीतिक दल गैर आरक्षित विधानसभा सीटों पर भी ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देते है जिनका प्रभाव दलितों के बीच भी होता है। बसपा, ऐसी सीटों से उन प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारती है जो अपनी जाति के वोटरों पर पकड़ रखते हैं जिससे उसे दलितों के वोट एक तरह से बतौर बोनस मिल जाते है।
सुरक्षित सीटों पर प्रमुख पार्टियों का प्रदर्शन
चुनाव वर्ष - भाजपा - बसपा - सपा - कांग्रेस व अन्य2002 - 18 - 24 - 35 - 12
2007 - 07 - 62 - 13 - 07
2012 - 03 - 15 - 58 - 09
2017 - 70 - 02 - 07 - 07
जिन जिलों में है 25 प्रतिशत से अधिक दलित आबादी
जिला आबादी (प्रति. में)
- सोनभद्र 41.92
- कौशाम्बी 36.10
- सीतापुर 31.87
- हरदोई 31.36
- उन्नाव 30.64
- रायबरेली 29.83
- औरैया 29.69
- झांसी 28.07
- जालौन 27.04
- बहराइच 26.89
- चित्रकूट 26.34
- महोबा 25.78
- मिर्जापुर 25.76
- आजमगढ 25.73
- लखीमपुर खीरी 25.58
- महामाया नगर 25.20
- फतेहपुर 25.04
- ललितपुर 25.01
- कानपुर देहात 25.08
- अम्बेडकर नगर 25.14