तेजबहादुर सिंह ने गाजीपुर के युवाओं को न सिर्फ हाकी से जोड़ा और जिंदगी का मकसद भी दिया
गाजीपुर न्यूज़ टीम, गाजीपुर. जिला मुख्यालय से करीब 45 किलोमीटर दूर करमपुर गांव। करीब 3000 की आबादी वाले इस गांव में शायद ही कोई घर होगा जहां हाकी स्टिक न मिले। गांव के युवाओं के लिए हाकी सिर्फ खेल नहीं, उनके जीवन का ही हिस्सा है। सुबह आंख खुलते ही गांव के बच्चे स्टेडियम में होते हैैं। इसके पीछे है तेजबहादुर सिंह की मेहनत और प्रेरणा। कोरोना के कारण बीते अप्रैल में 68 वर्ष की उम्र में तेजबहादुर की मौत हो गई। हाल ही में उप्र सरकार ने उन्हें द्रोणाचार्य पुरस्कार देने के लिए संयुक्त सचिव को पत्र लिखा है।
तेजबहादुर सिंह ने गांव के युवाओं को न सिर्फ हाकी से जोड़ा और उनकी बेमतलब जिंदगी को एक मकसद भी दिया। गरीबी और अपराध के दलदल में डूब जाने से पहले हरे और नीले रंग का सपना जगाया। गांव वालों के लिए तेजू भइया ने बेहद गरीब पृष्ठभूमि से आने वाले उन बच्चों को अपनाया जिनके पास खाने तक को नहीं था। एक हाकी स्टिक, एक जोड़ी जूता, दूध, अंडे और रोटी दी। बदले में मांगा-खेल के प्रति सौ फीसद समर्पण।
उम्मीद की लौ जलाता एक पिछड़ा गांव
भारतीय हाकी के मानचित्र में करमपुर भले ही बहुत बड़ा नाम नहीं है, उम्मीद की रोशनी तो दिखाता ही है। तेजू भइया का शिष्य बनारस के ललित उपाध्याय टोक्यो ओलिंपिक में भारतीय हाकी टीम के लिए खेलेंगे। गांव के अजीत पांडेय, राजकुमार पाल राष्ट्रीय टीम का हिस्सा रह चुके हैैं। 2007 में शशिकांत राजभर और विनोद सिंह जूनियर भारतीय टीम में चुने गए। संदीप सिंह, जमीला बानो, करिश्मा सिंह, राजू पाल, कंचन राजभर भारतीय हाकी जूनियर व सीनियर टीम में कैंप कर चुके हैैं। रेलवे, सेना, बीएसएफ, एयरफोर्स, सीआरपीएफ, आइटीबीपी, एनएसजी, उप्र पुलिस में सैकड़ों खिलाड़ी खेल कोटे से नौकरी पा चुके हैैं।
कुश्ती छोड़कर हाकी को समर्पित किया जीवन
करमपुर के एक संपन्न किसान परिवार में तीन सितंबर 1953 को तेजबहादुर का जन्म हुआ। शुरुआत में वह कुश्ती करते थे। संयोग से एक बार हाकी के मैदान में क्या उतरे, इस खेल से जीवनभर का नाता जुड़ गया। अकोल (बांस के गेंद) व बांस की मोटे डंडे से खेलते-खेलते जाने कब उनके और उनके पहलवान साथियों के हाथों में हाकी स्टिक आ गई। गांव के कुछ और युवा भी टीम से जुड़ गए। आसपास मैच जीतने लगे तो ख्याति बढ़ी। इस बीच एक घटना ऐसी हुई जिसने करमपुर गांव और तेजबहादुर की जिंदगी बदल देनी थी।
एक हार ने जिंदगी बदल दी जिंदगी
1984 में आजमगढ़ के तरवां में आयोजित हाकी प्रतियोगिता में करमपुर की टीम खेलने गई और हारकर लौटी। तेजबहादुर ने प्रण किया कि ऐसा फिर नहीं होने देंगे। खुद खिलाडिय़ों को हाकी स्टिक के साथ जूता, ट्रैकशूट व अन्य मदद उपलब्ध कराई। सुविधाएं मिलीं तो खिलाड़ी निखरने लगे। एक के बाद एक प्रतियोगिताओं में जीत मिलने लगी। तेजबहादुर के प्रयास से करमपुर में स्टेडियम बनवाया और एस्ट्रोटर्फ मैदान की सुविधा उपलब्ध कराई। जल्द आसपास के गांवों ददरा, अनौनी, अमेना, अमेहता, बिहारीगंज, औडि़हार आदि से युवा स्टेडियम आने लगे। प्रशिक्षक इंद्रदेव को नियुक्त किया गया।
शाहिद भी तेजबहादुर सिंह के रहे कायल
करमपुर स्टेडियम के खिलाडिय़ों की सफलता पर भारतीय टीम के सीनियर खिलाडिय़ों की नजर पड़ी। मुहम्मद शाहिद, नईम, विवेक सिंह के अलावा वर्तमान खेल निदेशक आरपी सिंह भी करमपुर आने लगे। मुहम्मद शाहिद ने अपनी किताब में लिखा है-मैं हाकी के प्रति तेजबहादुर सिंह के समर्पण का कायल हूं। कुछ वर्षों पहले करमपुर आए योग गुरु बाबा रामदेव ने भी कहा था कि हाकी के प्रति ऐसी निष्ठा पहली बार देख रहा हूं। तेजबहादुर के छोटे भाई और पूर्व सांसद राधे मोहन सिंह बताते हैं कि हाकी को जो विरासत वह छोड़कर गए हैैं, उसे परिवार के लोग मिलकर संभालेंगे।