कहानी: गिद्ध
भगवती ने जीतेजी किसी से कुछ नहीं मांगा. बेटेबहुओं के होते हुए भी अकेले ही गुजरबसर करती रही. जीवन में इंसान चाहता ही क्या है अपने बच्चों का प्यार, उन से थोड़ा सा मानसम्मान.
घर की बुजुर्ग महिला भगवती की मृत्यु हुए 20 घंटे से ज्यादा बीत चुके थे. बिरादरी के सभी लोगों के इकट्ठा होने का इंतजार करने में पहले ही एक दिन निकल चुका था. जब भी कोई नया आता, नए सिरे से रोनाधोना शुरू हो जाता. फिर खुसुरफुसर शुरू हो जाती. एक तरफ महल्ले वालों का जमावड़ा लगा था, दूसरी तरफ गांवबिरादरी के लोग जमा थे. केवल घर के सदस्य ही अलगअलग छितरे पड़े थे. वे एकदूसरे से आंख चुराना चाहते थे.
‘‘मृत्यु तो सुबह 8 बजे ही हो गई थी, पर महल्ले में 12 बजे खबर फैली,’’ पड़ोसिन रुक्मणि बोली.
‘‘भगवती अपने बहूबेटों से अलग रहती थीं. जब कभी दूसरों से मिलतीं तो अकसर कहतीं, ‘जैसा कर्म करोगे वैसा ही फल मिलेगा. अपने कामों को खुद भुगतेंगे, मुझे क्या मेरा गुजारा हो रहा है. मन आया तो पकाया, नहीं तो दूधफल खा कर पड़े रहे,’’’ दूसरी पड़ोसिन लीला बोली.
‘‘बेचारी बहुत दुखी महिला थीं, चलो मुक्ति पा गईं,’’ रुक्मणि ने कहा तो लीला बोली, ‘‘हां, मुझ से भी कहती थीं कि पूरी जिंदगी एकएक पैसा जोड़ने में अपनी हड्डियां गला दीं. आज इसी धन को ले कर बेटी, बेटे सभी का आपस में झगड़ा है. सभी को दूसरों की थाली में घी ज्यादा दिखता है. सोच रही हूं, किसी वृद्धाश्रम में एक कमरा ले कर पड़ी रहूं.’’
सब लोग मृतदेह को बाहर ले आए. कपड़े में लपेटते समय बड़ी बेटी उठ कर आगे आई तो पड़ोसिन रुक्मणि ने उसे रोक दिया, ‘‘न, केवल बहुएं ही इस कार्य को करेंगी, बेटियां नहीं. जाओ, कैंची और एक चादर ले कर आओ.’’
चादर की ओट ले कर बहुएं कपड़े काट कर उतारने लगीं तो चादर का एक छोर पकड़े दूसरी पड़ोसिन लीला से रहा न गया. उस ने कहा, ‘‘पहले इन के जेवर तो निकाल लो.’’
चादर का दूसरा छोर पकड़े रुक्मणि बोली, ‘‘जेवर तो लगता है पहले ही उतार लिए, क्यों बड़ी बहू?’’
‘‘हम क्या जानें? यहां तो बड़की जिज्जी की मरजी चलती है. मां के मरते ही पहले गहनों पर ही झपटीं,’’ बड़ी बहू दोटूक बात करती हैं, न किसी बड़े का लिहाज, न समय का.
लीला ने रुक्मणि को इशारों से चुप रहने को कहा. उन दोनों को इस घर के सारे राज पता थे. जरा सी तीली दिखाई नहीं कि बम फट पड़ेगा. आरोपप्रत्यारोप लगने शुरू होंगे और अर्थी ले जाने का काम एक तरफ धरा रह जाएगा, कोर्टकचहरी भी यहीं हो जाएगी.
अर्थी विदा हो गई, आंगन से सभी पुरुष सदस्य जा चुके थे. घर की बहुएं साफसफाई में लग गईं. लीला और रुक्मणि आंगन के एक कोने में पड़ी कुरसियों पर बैठ गईं. लीला अपने आसुंओं को पोंछ कर बोली, ‘‘भगवती मुझ से हमेशा कहती थीं, ‘क्यों किराए के घर में रहती है, अपना घर बना ले. मैं ने भी तो किसी तरह एक कमरे का मकान जोड़ा था. फिर धीरेधीरे कमरे जुड़ते गए और इतना बड़ा घर बन गया.’’’
‘‘हां, मुझे भी समझाती रहती थीं कि तेरे पास घर तो है मगर कुछ पैसे जमा कर और गहने बनवा ले. वक्तबेवक्त यही धन काम आता है,’’ रुक्मणि बोली.
‘‘लगता है यही सब अपने बच्चों के दिमाग में भी भरती रहीं. तभी तो एकएक पैसे के पीछे इन के घर में उठापटक होती रहती है,’’ लीला बोली.
‘‘हां, सही कह रही हो तुम. याद है पिछले महीने जब पानी की टंकी का पंप खराब हो गया था तो इन के बड़े बेटे ने पानी का टैंकर मंगवाया. जब इन्होंने अपनी कामवाली को उस टैंकर का पानी लेने भेजा तो बहू ने साफ मना कर दिया. अपनी दोनों टंकी फुल करवा लीं और उसे टका सा जवाब दे दिया कि ‘हम ने अपने पैसों से पानी मंगाया है, कोई खैरात नहीं है.’ उस दिन यह सब बताते हुए भगवती रो पड़ी थीं,’’ रुक्मणि बोली.
लीला तुरंत बोल पड़ी, ‘‘मैं ने भी कहा था कि चलो जैसे भी हैं, तुम्हारे बच्चे हैं. क्यों इस बुढ़ापे में अकेले खटती हो, साथ में रहो.’’ इस पर भगवती ने बताया, ‘जब बेटों के साथ में रहती थी, तब भी दूध, फल, सब्जी, दालें अपनी तरफ से मंगा कर रखती थी. फिर भी किसी मेहमान को अपने मन से भोजन करने को नहीं कह सकती थी. एक दिन सिलबट्टे पर मसाला पीस रही थी तो मझली ने टोक दिया. मैं ने जरा सा डपटा तो बट्टा उठा कर मुझ पे तान दिया. उस दिन से मैं ने अपनी रसोई ही अलग कर ली. जब अपने रुपयों का ही खाना है तो क्यों न चैन से खाऊं.’’’
लीला ने आगे कहा, ‘‘मैं ने तो यह सब सुन कर एक दिन कह दिया, ‘भगवती, देख मैं ने भले ही घर नहीं बनाया मगर अपनी जवानी में मनपसंद खाया भी और पहना भी. बच्चों के लिए जायदाद नहीं जोड़ी बल्कि बच्चों को उच्चशिक्षा दी है. अब वे शहरों में अपना कमाखा रहे हैं. आपस में दोनों भाइयों के प्रेमसंबंध बने हुए हैं. हमें तो पैंशन मिलती ही है. जब तक हाथपैर चलते हैं, यहीं रहेंगे. जब परेशानी होगी, उन के पास चले जाएंगे. तुम्हारे घर में तो यही जोड़ी हुई संपत्ति बच्चों के बीच झगड़े की जड़ बन गई है.’’’
‘‘यह सुन कर भगवती बोल पड़ी थी, ‘तुम ठीक कहती हो लीला बहन, लगता है मेरी परवरिश में ही कुछ कमी रह गई है जो इन्हें विरासत में संपत्ति तो मिली, पर संस्कार नहीं मिले.’’’
‘मेरी शादी भी इसी लालच में की थी कि खूब दहेज मिलेगा. मेरे पिता तो दारोगा थे उस समय. बड़की जिज्जी की ससुराल से रिश्तेदारी है हमारी.
फिर उठ कर बड़की बैठकी के दरवाजे तक आ कर झांक आई कि कहीं कोई कान लगा कर न सुनता हो, फिर पास बैठ कर फुसफुसाई, ‘‘यह जो मझला पुलिस में है, उस की बीवी तो अपनेआप को घर में दारोगा से कम नहीं समझती. गालीगलौज और मारपीट सब हो चुकी है उस की अम्मा से. हमारे पिताजी जल्दी चले गए वरना वे सुधार कर रखते सब को.’’ फिर इधरउधर नजरें घुमाईं.
उस ने देखा बड़े भाई के खर्राटे गूंजने लगे हैं, तो फिर अपनी आवाज का सुर थोड़ा बढ़ा कर बोली, ‘‘छोटे बेटे से तो ज्यादा ही लगाव रहा अम्मा का. हर समय ‘छोटा है, अभी सुधर जाएगा’ कहती रहीं. मगर हुआ क्या? शादी करते ही सब से पहले उस ने अपनी गृहस्थी अलग कर ली. मझली को अम्मा ने ही अलग कर दिया था वही रोजरोज की मारपीट, धमकियों से तंग आ कर. बड़ी साथ में रही भी तो इतने खुरपेंच जानती थी कि रोटी का एक निवाला तोड़ना दूभर हो गया था अम्मा का. फिर तो खुद ही अपनी रसोई अलग कर ली अम्मा ने.’’
‘‘हां, मुझे सब पता है. तभी तो मैं ने भगवती को समझाया था कि तू बेटी के घर चली जा रहने को, उसे ही खर्चापानी देती रहना. तभी तो वह कुछ महीने के लिए तेरे घर चली गई थी,’’ लीला बोली.
‘‘अरे, वहां भी मन न लगा अम्मा का, हर समय यही कहें ‘एकएक ईंट जोड़ कर घर बनाया. आज मैं कुत्ते की तरह दूसरे की ड्योढ़ी पर पड़ी हूं.’ वहां से भी लौट आईं,’’ बड़की ने सफाई पेश की. तभी दीनानाथ कमरे में दाखिल हुआ. तो बड़की बड़े प्रेम से बोली, ‘‘चाची, तुम लोग अभी बैठो, मैं जरा भाइयों के लिए फल काट कर ले आऊं. इन्हें तो 12 दिनों तक एक समय ही भोजन करना है.’’
‘‘नहींनहीं,’’ दोनों ने एकसाथ कहा और घर से बाहर को चल दीं.
शाम को एक नया नाटक शुरू हो गया.
‘‘सुनो दीनू, अम्मा के हिस्से के खेत के कागज नहीं मिल रहे हैं, तुम ने संभाले क्या?’’ ये सोमनाथ थे, दीनानाथ के बड़े भाई.
‘‘अरे, इसी ने छिपा के रखे होंगे, सोचता होगा कि मैं तो पुलिस में हूं, कोई मेरा क्या बिगाड़ लेगा,’’ अब छोटा भाई रमेश भी ताल ठोंक कर लड़ाई के मैदान में कूद पड़ा.
‘‘अम्मा की जमीन में मेरा भी हिस्सा लगेगा. तुम तीनों अकेले हजम करने की न सोच लेना,’’ बड़की जिज्जी भी तुरंत बोल पड़ी. ऐसे भले ही कम सुनती हो, मगर जमीन, जायदाद, रुपयोंपैसों की बात तुरंत सुनाई पड़ जाती है.
‘‘तुम्हें तो अम्मा पहले ही खेत में हिस्सा दे चुकी हैं. अब दोबारा क्यों?’’ सोमनाथ चीखे.
‘‘मैं कुछ नहीं जानती, अगर हमें हिस्सा न मिला तो मैं कोर्टकचहरी करने से पीछे न हटूंगी. मैं एकलौती बहन हूं, मुझे ही तुम लोग मायके में बरदाश्त नहीं कर पा रहे हो, 4-6 होतीं तो क्या करते?’’
‘‘तुम अकेली ही दस के बराबर हो. दस को विदा करना आसान है. मगर तेरी विदाई न जाने कब होगी. जमीन, जायदाद, रुपया, जेवर सब में सेंध लगा कर भी तुझे चैन कहां?’’
यह सुन कर बड़की क्रोध में आ गई. थोड़ी देर में ही घर कुरुक्षेत्र के मैदान में तबदील हो गया. एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप लगने लगे.
‘‘अरे, कुछ तो शर्म करो. तुम्हारी मां ने क्या यही सोच कर धन इकट्ठा किया था कि तुम लोग धन के लिए एकदूसरे के शत्रु बन जाओ. अभी तो 13 दिन भी न हुए,’’ पड़ोसी बुजुर्ग महिला रुक्मणि ने आ कर सब को शांत किया. सब आपस में अबोला कर शांत बैठ गए, समाज को दिखाने के लिए.
दूसरे दिन भगवती के घर से लौटती रुक्मणि और लीला को उषा ने बाहर गेट के पास रोक लिया. ‘‘चाची, देखा न आप ने, कैसी संतानें हैं इन की. अरे अम्मा तो हमेशा हम बहुओं को ही कोसती रहीं कि ‘कैसे घर की हैं? कैसे संस्कार दिए तुम्हारे मांबाप ने?’ अब देख लो इन की संस्कारी औलादों को. अरे चाची, हम बहुएं रुपए, गहनों को ले कर झगड़ पड़े तो समझ आती है बात. मगर ये लोग तो एक ही मां की औलाद हैं, भाई, बहन है. एकदूसरे के कंधे पर सिर रख कर रोने के बजाय मां के मरते ही बैठ कर रुपयोंपैसों की लूट में जुट गए.’’
‘‘हां, कल रात को हल्लागुल्ला सुन कर मैं भाग कर आई थी,’’ रुक्मणि ने लीला को बताया.
‘‘मेरी शादी भी इसी लालच में की थी कि खूब दहेज मिलेगा. मेरे पिता तो दारोगा थे उस समय. बड़की जिज्जी की ससुराल से रिश्तेदारी है हमारी. एक बार मेरे पिताजी जुएं के अड्डे से छापा मार कर लौट रहे थे. मूसलाधार बारिश में उन की जीप पानी के गड्ढे में फंस कर बंद हो गई. एक जीप तो आगे थाने को निकल गई, जिस में जुआरी थे. पिताजी के पास रुपयों से भरा बैग और एक सिपाही ही रह गया. दूसरा मैकेनिक को लेने चला गया. पिताजी को याद आया कि ये घर दो फलांग की दूरी पर ही है तो वे सिपाही को गाड़ी के पास छोड़ कर यहां चले आए कि गाड़ी ठीक हो जाए तो चल पड़ेंगे. जानती हो चाची, फिर क्या हुआ?’’
‘‘हां, याद आया जब दीनानाथ पुलिस भरती की तैयारी कर रहा था, तभी उस की शादी तय कर दी थी,’’ लीला बोली.
‘‘हां चाची, तुम्हारी याददाश्त बहुत तेज है. उस समय पिताजी और बैग दोनों ही बुरी तरह से भीगे हुए थे. पिताजी ने अपने को तौलिए से पोंछ कर जब बैग खोल कर देखा, सारे नोट भीग गए थे. पिताजी ने तुरंत बैठकी के गद्दे में नोट बिछा दिए और नोट सुखाने को पंखा चला दिया. पता है कितने रुपए थे?’’
‘‘नहीं, यह बात तो नहीं पता हमें,’’ रुक्मणि जानने को बेताब थी.
‘‘एक लाख 10 हजार के लगभग, इन सब की तो आंखें खुली की खुली रह गईं, सोचा, पुलिस की नौकरी में तो नोट ही नोट हैं. पिताजी ने बताया था कि ये रुपए थाने में जमा करने के लिए हैं. मगर इन्हें लगा ये सब ऊपरी कमाई के हैं. अपने बेटे की शादी उसी दिन मेरे साथ तय कर दी. जिस से मैडिकल, साक्षात्कार में सहूलियत मिल जाए और दूसरा शादी में तगड़ा दहेज भी. अरे चाची, मुझे भी इन लोगों ने खूब सुनाया, ‘क्या लाई? कैसा लाई? हमारी खातिरदारी ठीक से नहीं हुई’ बहुत सुना मैं ने भी. जब एक दिन मेरे पिताजी का नाम ले कर अम्मा बोलीं कि ‘तेरे बाप ने तो कोरी लड़की विदा कर दी.’ बस, उसी दिन से मैं ने भी लिहाज करना छोड़ दिया. मैं ने कह दिया, ‘तुम्हारी बिटिया की तरह नहीं हूं कि हर सामान के लिए मायके में कटोरा ले कर खड़ी हो जाऊं. जितनी मेरे आदमी की कमाई है, उसी में घर चलाना जानती हूं.’ बस, चिढ़ कर मेरा चूल्हा अलग कर दिया. मेरी भी जान छूटी.’’
तभी सामने से बड़ी बहू किरण को आते देख, उषा वहां से खिसक ली.
‘‘क्या सुना रही थी उषा, कल रात का किस्सा?’’ आते ही उस ने पूछा.
‘‘नहीं, पुरानी यादें ताजा कर गई,’’ लीला व्यंग्य से बोली.
‘‘देखा न चाची, जरा सी जमीनजायदाद के लिए इतना झगड़ा? मेरे मायके में तो यहां से दसगुना ज्यादा जायदाद है. मां, पिताजी अब रहे नहीं. हमारे पिताजी हमें कुछ जमीनजायदाद तो दे नहीं गए. हमारी अम्मा भी यही बोली थीं कि तुम्हारा हिस्सा तुम्हारी शादी में खर्च हो गया. पिछले साल तो हम 2 बहनों ने सोचा कि चलो, अब कानून भी बन गया है, पिताजी वसीयत नहीं कर गए हैं, तो अपने मायके से कुछ कोर्ट में अर्जी लगा कर ही ले लें. केवल सोचा था, किया नहीं था. जानती हैं क्या हुआ तब, चाची.’’
‘‘नहीं,’’ दोनों बोल पड़ीं.
‘‘अरे इसी बड़की, जो अब अपनी मां के मरे दस दिन में ही चीखचीख कर कोर्टकचहरी करने की बात कर रही है, हम बहनों की चुगली सब जगह लगा दी. हमारे भाइयों तक बात पहुंच गई. हमारे मायके से संबंध भी खराब हो गए और मिला भी कुछ नहीं. यहां भी आ कर सौ बात सुना गई कि ‘हमारे मांबाप, खानदान का नाम डूब जाएगा जब इस घर की औरतें कोर्ट में खड़ी हो जाएंगी.’ मेरे आदमी को भी ‘जोरू का गुलाम’ और न जाने क्याक्या कह कर भड़काया. गुस्से में आ कर इन्होंने मेरा सिर दीवार में पटक दिया था. यह देखो यहां 3 टांके लगे हैं. अब अपनी बहन का सिर फोड़ कर दिखाएं. अब इन के खानदान की इज्जत में बट्टा नहीं लग रहा.’’
‘‘ठीक कहती हो बहन, यह बहुत ही शातिर औरत है. अपनी बारी आते ही गिरगिट की तरह रंग बदल लेती है. मेरी शादी की शौपिंग में क्या किया, पता है?’’ तीसरी बहू संध्या कब इस बातचीत के बीच में शामिल हो गई, उन्हें भान ही नहीं हुआ.
‘‘तुम तो चूल्हे में दूध उबाल रही थीं. गैस बंद कर दी?’’ किरण ने पूछा.
‘‘हां, बंद कर के आई हूं. हां, तो मैं क्या सुना रही थी?’’ संध्या ने पूछा.
‘‘शादी की शौपिंग बता रही थी,’’ लीला जानने की गरज से बोली.
‘‘मेरे आदमी की कोई खास कमाई तो होती नहीं थी दुकान से. नईनई दुकान होने के कारण शादी का खर्चा भी घर में नहीं दे सकते. अम्मा ने जिज्जी से ही सारी शौपिंग करवाई.’’
‘‘मुझ पर और उषा पर भरोसा ही कहां था अम्मा को.
अपनी बेटी को ही रुपए पकड़ाती थीं. ये ले आना, वो ले आना. जिज्जी ही तो भड़का के रखती थीं कि बहुएं पैसे मार लेंगी. हूं, अब देख लो हरिशचंद भाई और बहन को,’’ किरण बीच में बोल पड़ी.
‘‘अरे मेरी पूरी बात तो सुनो, मेरी शादी में गिनीचुनी 7 साडि़यां ससुराल से मिलीं. उन में से भी 2 साडि़यों में मैं ने फौल के पास जंग लगा देखा. जैसे लोहे के बक्से में साड़ी रखने से लग जाता है. मैं ने सभी से कहा, ‘ये साडि़यां पुरानी दे दी हैं दुकानदार ने, इसे बदलवा दो.’ जिज्जी ने तुरंत कहा ‘अब तो महीनाभर हो गया. अब दुकानदार न बदलेगा.’
बाद मैं मैं ने खुद दुकानदार से बात की तो वह हंसने लगा और बोला, ‘बहिनजी, इतनी बड़ी मेरी दुकान है, मैं पुरानी साड़ी नहीं बेचता हूं.’ मुझे सब समझ आ गया कि साड़ी जिज्जी ने ही बदल दी थी. तभी दोबारा दुकान जाने को तैयार न हुई,’’ संध्या गुस्से से बोली.
‘‘हां, तेरी शादी की साड़ी की बात तो मुझे भी अच्छे से याद है. मैं भी हैरान हो गईर् थी कि जिज्जी शौपिंग में कैसे ठग गई.’’ किरण हंसने लगी, ‘‘तूने गलती की, जब पता चल ही गया था तो साड़ी ला कर जिज्जी के मुंह पर दे मारती.’’
‘‘हम तो शुरू से लिहाज ही करते रह गए. उसी का नतीजा है कि आज भी हमारी छाती में मूंग दलने को बैठी है,’’ संध्या ने मुंह बनाया.
‘‘मूंग से याद आया, कल के लिए उड़द भिगोनी हैं अच्छा चाची, कल तेरहवीं के भोज में जरूर आना,’’ कह कर दोनों भीतर चली गई.
दिन का भोज खत्म होते ही बेटों ने तुरंत टैंट समेट दिया, लोगों को हाथ जोड़ कर विदा कर दिया. फिर से इकट्ठे हो कर सभी हिसाब लगाने में जुट गए. कितना खर्चा हो गया और कितना अभी वार्षिक श्राद्ध में करना बाकी है. सोमनाथ कहने लगे, ‘‘2 बार मैं ने मां को हौस्पिटल में भरती किया था, उस हिसाब को भी इस में जोड़ो.’’
‘‘यह हिसाब छोड़ो, पहले जो जमीन बची है, उसे बेच कर मेरा हिस्सा अलग करो.’’
‘‘जमीन का हिसाब बाद में, अभी इन 13 दिनों का हिसाब पहले करो. सब से ज्यादा मेरे रुपए खर्च हुए हैं.’’
‘‘लाओ मुझे दो, मैं सारा हिसाब लिख कर बताता हूं,’’ दीनानाथ हाथ में कागजपैन ले कर खड़े हो गए.
‘‘तुम तो रहने ही दो. पुलिस में हो न, कुछ भी उलटीसीधी रिपोर्ट बनाने में माहिर.’’
‘‘मैं यह हिसाबकिताब कुछ नहीं जानती, मेरा हिस्सा मुझे दो, बस.’’
फिर वही झगड़ा, वही जमीन, जायदाद को ले कर हंगामा शुरू हो गया. इस से पहले हाथापाई पर बात पहुंचती, बड़ी बहू के तानों से विराम लग गया.
‘‘मैं तो कहती हूं अम्माजी और पिताजी रहते तो यह सब देखतेसुनते. मैं ने तो खूब ताने सुने, सास, ससुर, ननद, देवर सभी के मुख से, हमेशा मेरे मांबाप को कोसा गया. कभी दहेज को ले कर, कभी मेरे चालचलन को ले कर. अब दोनों सासससुर मिल कर देखें अपनी औलादों को और उन के चालचलन को भी. तुम्हारे खानदान से तो लाख गुना बेहतर हमारा खानदान है.’’
‘‘तुम हमारे मांबाप तक कैसे पहुंच गईं?’’ बड़की चीखी.
‘‘तुम लोगों के लक्षण ही ऐसे हैं, जो मांबाप की परवरिश को बट्टा लगा रहे हैं,’’ यह उषा थी.
अब लड़ाई चारों महिलाओं के बीच शुरू हो गई.
तभी असिस्टैंट सब इंस्पैक्टर दीनानाथ शास्त्री, खाई में गिरी बस दुर्घटना की खबर मिलते ही दुर्घटनास्थल को रवाना हो गए. बस रात में 12 से 2 बजे के बीच दुर्घटनाग्रस्त हुईर् थी. इस समय सुबह के 5 बज रहे थे. अप्रैल के महीने में सुबह का हलका सा उजाला भर दिख रहा था. रातभर हुई बारिश से इस पहाड़ी रास्ते में जगहजगह चट्टान और मलबे के ढेर ने रुकावट डाल रखी थी. हर आधे घंटे की चढ़ाई के बाद जीप को रोकना पड़ता.
7 बजे तक जीप दुर्घटनास्थल तक पहुंची. चारों तरफ चीखपुकार, भीड़ और अफरातफरी का माहौल था. कुछ स्वयंसेवी संगठन, राहतबचाव कार्य में मुस्तैदी से डटे थे.
‘‘बचाओ, मार डाला.’’ का करुण क्रंदन गूंज उठा. दीनानाथ ने आवाज की ओर सिर घुमाया तो सामने से 2 युवाओं को तेजी से भागते हुए देखा.
‘‘रुक बे, इधर आ, कहां भागे जा रहे हो?’’ दीनानाथ चीखा.
‘‘साहिब, मोर माई को पानी चाही, वही लावे जात हैं,’’ उन में से एक युवक हड़बड़ा कर बोला.
‘‘झोले में क्या है?’’
‘‘माई का सामान है.’’
‘‘इधर दिखा बे,’’ झोले को उन के हाथों से छीनते हुए दीनानाथ को माजरा समझते देर न लगी.
दोनों युवकों ने फिर उलटी दिशा में दौड़ लगानी चाही, मगर दीनानाथ ने दबोच लिया.
‘‘झोले को पलटते ही उस में से कटी हुई उंगलियां, सोने की चूडि़यां, मंगलसूत्र, पाजेब आदि जेवर बिखर गए.
‘‘आदमखोर हो क्या, ये उंगलियां क्यों काटीं?’’ दीनानाथ ने घुड़का.
‘‘अंगूठी उंगली में फंसी हुईर् थी, निकली नहीं, तो काटनी पड़ीं.’’
‘‘चल तेरी भी खाल निकलवाता हूं,’’ कह कर दीनानाथ ने उन के हाथ बांधे.
‘‘अरे साहब, इन जैसे लुटेरे तो जहां ऐक्सिडैंट की खबर सुनते हैं तुरंत घायलों व मुर्दों को नोचनेखसोटने को दौड़ जाते हैं. अभी यहां इन के और भी साथी भीड़ में छिपे होंगे,’’ सिपाही उन दोनों को जीप के अंदर धकेलते हुए बोला.
‘‘मारो सालों को, अभी सब उगलेंगे, मैं नीचे घटनास्थल का मुआयना कर के आता हूं,’’ अपने साथ 4 सिपाहियों को ले कर दीनानाथ तेजी से चल पड़े.
शाम के 6 बजे तक सभी घायलों और मृतकों को बरामद कर लिया गया.
‘‘एक बार फिर से सारी झाडि़यों का मुआयना कर लो. कोई जीवित या मृत छूटना नहीं चाहिए. इस इलाके में बहुत गिद्ध हैं. सुनसान होते ही मांस नोचने को टूट पड़ेंगे,’’ दीनानाथ ने दूर पेड़ों की फुनगियों में बैठे गिद्धों को देख कर कहा.
शाम तक सब इंस्पैक्टर भी पहुंच गए.
‘‘क्या प्रोग्रैस है दीनानाथ?’’
‘‘साहब, बरात की बस थी. इस में 40 लोग सवार थे. जिन में से 6 मृत और 4 गंभीर घायलावस्था में अस्पताल को रवाना कर दिए गए हैं. बाकी सभी की प्राथमिक चिकित्सा कर, उन के गंतव्य को भेज दिया गया है. ये हैं वे 4 लुटेरे, जो मृतकों के शरीर को, गिद्धों की तरह, नोचतेखसोटते हुए मौका ए वारदात से पकड़े गए हैं,’’ दीनानाथ ने अपनी जीप की तरफ इशारा कर बताया. इन सब कार्यवाही में बहुत समय लग गया.
दीनानाथ को घर पहुंचने में रात हो गई थी. रात गहरा गई. आंगन में खटिया डाले दीनानाथ को देररात तक नींद ही नहीं आई. एक झपकी सी आईर् थी कि लगा की किसी ने फिर उठा दिया, ‘जल्दी जगो, पास के जंगल में बस पलट गई है.’ चारों तरफ चीखपुकार मची थी. एक बुढि़या जोरजोर से चीख रही थी, ‘बचाओ बचाओ,’ उस ने पलट कर देखा, बुढि़या को गिद्ध नोचनोच कर खा रहे थे. कोई उस के गले पे चिपका है, कोई कान पे. वो गिद्ध भगाने को डंडा खोजने लगा. बुढि़या का चेहरा, मां का जैसा दिख रहा था. उस ने चीखना शुरू कर दिया ‘अम्मा, अम्मा.’ अचानक उसे गिद्धों में जानेपहचाने चेहरे दिखने लगे. उस के भाई, भाभी, बहन, पत्नी, अन्य परिवारजन.
वह पसीने से तरबतर हो उठा. उस की नींद पूरी तरह से खुल चुकी थी.
सब उसे घेर कर खड़े थे, ‘‘बुरा सपना देखा?’’
‘‘अम्मा दिखी क्या?’’
‘‘कुछ मांग तो नहीं कर रही,’’
‘‘कुछ कमी रह गई हो, तो ऐसे ही सपने आते हैं.’’
जितने मुंह उतनी बातें.
‘जीतेजी तो अम्मा को किसी ने पानी भी न पूछा. वे अपनी अलग रसोई बनाती, खाती रहीं. अब उन्हीं के रुपयों से पंडित को सारी सुखसुविधा की वस्तुएं दान भी कर दो, तो क्या फायदा? अब, जब अम्मा की मृत्यु हो गई तो भी चैन कहां हैं सब को? अब उन के सामान को ले कर छीनाझपटी मची हुई है. तुम लोग भी किसी गिद्ध से कम हो क्या? तुम सभी जीतेजी तो अम्मा का खून पीते रहे और अब मरने पर उन की बची संपदा की लूटखसोट में लगे हो. जाओ यहां से, मुझे सब समझ आ गया है.
‘‘वैसे, तुम से अच्छे तो वे गिद्ध हैं जो मरेसड़े को खा कर वातावरण को स्वच्छ रखने में अपना योगदान देते हैं. वे लुटेरे भी कई गुना बेहतर हैं जो अनजान को लूट कर अपने परिवार को पालते हैं. तुम लोग तो उन से भी अधिक गिरे हुए हो जो अपनी ही सगी मां को लूट कर खा गए. हट जाओ मेरे आगे से,’’ कह कर दीनानाथ अपना मुंह ढांप कर बिस्तर पर पड़ गया.
दीदी, अम्मा के पास एक जोड़ी कंगन, एक जोड़ी कान के टौप्स, हार और चांदी की करधनी थी, जिन में से करधनी तो कल हमें मिल गई. बाकी जेवर बड़की जिज्जी उठा ले गई हैं.
‘‘आंटी चाय,’’ यह सुन कर दोनों की बातों को विराम लग गया. सामने भगवती की भतीजी चाय का जग और गिलास थामे खड़ी थी.
दोनों हड़बड़ा कर उठ गईं. वे चाय पीने से इनकार कर अपने घरों को चल पड़ीं.
दोनों पड़ोसिनों के जाते ही घरवाले सक्रिय हो गए.
‘‘जरा इधर आइए,’’ उषा, दीनानाथ की पत्नी, ने उन्हें अंदर के कमरे में चलने को कहा.
उन्होंने एक नजर पुराण श्रोताओं पर डाली, फिर उठ कर अंदर अपनी मां के कमरे में आ गए. अंदर बक्सा, अलमारी व दूसरी चीजें उलटीसीधी बिखरी हुई थीं.
‘‘यह क्या है?’’ वे गुस्से से तमतमाए.
‘‘बड़की जिज्जी संग ये दोनों मिल कर अलमारी खोल कर साड़ी, रुपया खोजती रहीं. फिर अपना मनपसंद सामान उठा कर ले गईं.’’
‘‘दीदी, अम्मा के पास एक जोड़ी कंगन, एक जोड़ी कान के टौप्स, हार और चांदी की करधनी थी, जिन में से करधनी तो कल हमें मिल गई. बाकी जेवर बड़की जिज्जी उठा ले गई हैं,’’ यह संध्या थी, उषा की देवरानी.
‘‘तुम ने करधनी कैसे ले ली? जब सास बीमार थीं तब तो झांकने भी न आईं,’’ उषा उलझ पड़ी.
‘‘उस से क्या होता है? अम्मा के सामान पर सब का हक है,’’ संध्या गुर्राई.
‘‘सेवा के समय हक नहीं था, मेवा के समय सब को अपना हक याद आ रहा है,’’ उषा चिल्ला पड़ी.
‘‘क्या पता? तुम क्याक्या पहले ही ले चुकी हो?’’ संध्या क्रोधित हो उठी.
दोनों को झगड़ता देख दीनानाथ बीचबचाव करते हुए बोले, ‘‘बाहरी कमरे में बिरादरी जमा है. अंदर तुम लोगों को झगड़ते शर्म नहीं आती. मैं इस कमरे में ताला जड़ देता हूं. तेरहवीं निबट जाने दो, फिर खोलेंगे.’’
‘‘हां, क्यों नहीं? सैयां भए कोतवाल अब डर काहे का, चाबी जब अपनी अंटी में ही खोंस लोगे तो रातबिरात कुछ भी हड़प लोगे,’’ संध्या जब भी मुंह खोलती है, जहर ही उगलती है.
‘‘तुम दोनों को जो करना है करो, मुझे बीच में मत घसीटो,’’ यह कह कर दीनानाथ उलटेपांव बैठकी में लौट गए.
उन दोनों के बीच बड़ी बहू किरण कूद पड़ी, ‘‘हम बड़ी हैं. पहले हमारा हक है. फिर तुम दोनों का. ये जिज्जी को क्या पड़ी है मायके में आ कर दखल देने की?’’
‘‘क्या पता? वह तो सब से तेज निकलीं. जब तक हम तुलसी बटोरने गए, उतनी देर में जिज्जी अम्मा के बदन और अलमारी दोनों में हाथ साफ कर गईं,’’ उषा बोली.
‘‘तुम दोनों आपस में बंदर की तरह लड़ती रही हो, इसी का वे हमेशा बिल्ली की तरह फायदा उठाती रहीं. वे तो हमेशा से अम्मा को भड़का कर, अपना माल बटोर कर चल देती थीं. तुम दोनों के घर बैठ बुराई कर, मालपुए उड़ाने में लगी रहीं. अब देखो, तुम दोनों की नाक के नीचे से जेवर उठा ले गईं. तुम अब भी आपस में ही भिड़ी हो,’’ किरण डपट कर बोली.
‘‘जब तुम इतनी सयानी थी तो पहले क्यों नहीं बोली?’’ संध्या गुस्से से बोली.
‘‘क्या कहें? तुम लोग अपने को किसी से कम समझती हो क्या? कुछ बोलो तो बुरे बनो. जब किसी को कुछ सुनना ही नहीं था तो कहें किस से? हम ने तो जिज्जी को कभी मुंह लगाया ही नहीं, इसी से हमें बदनाम करती रहीं वे. करते रहो क्या फर्क पड़ गया? तुम दोनों तो उन की खूब सेवा में लगी रहीं, तो तुम्हें कौन सा मैडल पहना गईं.’’
‘‘अम्मा तुम से हमेशा नाराज क्यों रहती थीं?’’ उषा ने पूछा.
‘‘हम जिज्जी की हरकतों पर अपनी शादी के पहले दिन से ही नजर रखे हुए थे. जब ससुरजी चल बसे, तब मुश्किल से 6 महीने हुए थे हमारे विवाह को. तब भी बड़की जिज्जी शोक के समय अम्मा के बक्से पर नजर रखे बैठी रहीं. 6 महीने बाद जब अम्मा को जेवर का होश आया तो पता चला नथ, मांगटीका, मंगलसूत्र, पायल, बिछिया सब जिज्जी उठा ले गई हैं.’’
‘‘ऐसे कैसे उठा ले गईं?’’ संध्या बोली.
‘‘यही अम्मा ने पूछा तो बोल पड़ीं, ‘अब तो पिताजी रहे नहीं, तुम अब ये सुहागचिन्ह पहन नहीं सकतीं, इसे मैं अपनी बिटिया की शादी में उसे नानी की तरफ से दे दूंगी. तुम्हारा नाम भी हो जाएगा.’ हम वहीं खड़े थे. हम से बोलीं, ‘जाओ, चाय बना लाओ बढि़या सी.’ हमारी पीठ पीछे अम्मा को भड़का कर बोलीं, ‘बड़ी मनहूस बहू है तुम्हारी, आते ही ससुर को खा गई.’ बस, उस दिन से अम्मा ने मन में गांठ बांध ली, जो वो जीतेजी खोल न पाईं.’’
‘‘अब क्या फायदा इन सब बातों का? इस कमरे में भी ताला डालो या न डालो, जिज्जी तो पहले ही डकैती डाल कर चलती बनीं. जरा बाहर जा कर देखो, लोगों के आगे कैसे रोनेधोने का नाटक कर रही हैं,’’ संध्या तिलमिलाई.
बड़की जिज्जी से जुड़े ये शब्द बाहर बैठकी में बैठी बड़की के कानों से टकरा रहे थे. वे सोच रही थीं, कब गरुड़पुराण की कथा को पंडितजी विराम दें और वे लपक कर बहुओं के बीच उन को धमकाने पहुंच जाएं.
बड़की ने चोर नजरों से रुक्मणि और लीला पर नजर डाली. उसे लगा कहीं अंदर की आवाजें इन्होंने तो नहीं सुन लीं. वे दोनों कथा की समाप्ति पर जैसे ही उठ खड़ी हुईं, वह लपक कर उन के पास पहुंच गई.
‘‘‘अरे, बैठो न चाची, तुम्हें देख कर अम्मा की याद ताजा हो जाती है. आप दोनों तो अम्मा की खास सहेलियां रही हो. बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ यह कह कर बड़की ने उन्हें जबरदस्ती बैठने पर मजबूर कर दिया.
‘‘सुन बिटिया, हम तेरे कहने से कुछ देर बैठ जाती हैं, मगर चाय नहीं पिएंगी,’’ मृतक परिवार में तेरहवीं से पहले वे जलपान का परहेज करने के लिहाज से बोलीं.
‘‘अच्छा रुको, मैं फल काट कर लाती हूं,’’ उस ने एक नजर अपने भाई के सामने रखे, रिवाजानुसार लोगों द्वारा लाए, फलों के ढेर की तरफ देख कर कहा.
‘‘अरे, बैठ न तू भी, अब 2 दिनों बाद तेरहवीं हो जाएगी. फिर हम यहां बैठने तो आएंगे नहीं. भगवती की याद खींच लाती है. इसीलिए रोज ही चले आते हैं,’’ लीला ने बड़की का हाथ पकड़ कर बैठा लिया.
बड़की ने इधरउधर ताका, उसे अपनी भाभियां नजर नहीं आईं. बैठकी से भी सभी उठ कर बाहर चले गए थे. सिर्फ बड़ा भाई कोने में जलते दीपक की लौ ठीक करने में लगा हुआ था. फिर अपने जमीन में लगे बिस्तर में दुबक गया. उसे तेरहवीं तक अपनी निर्धारित जगह में रहने का निर्देश मिला था.
बड़की उन दोनों महिलाओं के पास सरक आई और कहने लगी, ‘‘अब आप से क्या छिपा है चाची. इन बहूबेटों की वजह से मेरी मां का जीवन कितना दुश्वार हो गया था. यह भाई, जो अभी बगुलाभगत बना बैठा है, पूरा जोरू का गुलाम है. अपनी औरत से पूछे बिना लघुशंका भी न जाए. इस की औरत बिलकुल बर्र है. ऐसा शब्दबाण छोड़ती है कि बर्र का डंक भी फीका हो. अम्मा को तो वर्षों हो गए इन से अबोला किए हुए.’’