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कहानी: उस का हौसला

ऐसे समाज में जहां जातिधर्म को ले कर असमानता की दीवारें खड़ी हों, कोई ब्राह्मण परिवार की बेटी किसी जनजाति समाज के लङके से शादी करे, यह किसी को कैसे मंजूर हो सकता था? मगर डिंपी ना सिर्फ अपने निर्णय पर अडिग थी, उस का हौसला भी बुलंद था.

सुधा बहुत ध्यान से टीवी धारावाहिक देख रही थी. सामने सोफे पर बैठे परेश अखबार पढ़ रहे थे. टीवी की ऊंची आवाज उन के कानों में भी पड़ रही थी. बीचबीच में  अखबार से नजर हटा कर वे सुधा पर डाल लेते। सुधा के चेहरे पर चढ़तेउतरते भाव से साफ पता चल रहा था कि टीवी धारावाहिक का असर उस के दिमाग के साथ सीमित नहीं था वरन उस के अंदर भी हलचल मचा रहा था.


धारावाहिक की युवा नायिका अपनी मम्मी से सवालजवाब कर रही थी. सुधा को उस के डायलौग जरा भी पसंद नहीं आ रहे थे.


वह बोली,”देखो तो इस की जबान कितनी तेज चल रही है…”


“तुम किस की बात कर रही हो?”


“टीवी पर चल रहे धारावाहिक की.”


“तो इस में इतना परेशान होने की क्या जरूरत है? सीरियल ही तो है.”


“देखा नहीं, इस की हरकतें अपनी डिंपी से कितनी मिलती हैं.”


“पता नहीं क्यों हर समय तुम्हारे दिल और दिमाग पर डिंपी सवार रहती है. तुम्हें तो हर जगह आवाज उठाने वाली लड़की डिंपी दिखाई देती है. लगता है, जैसे तुम हर नायिका में उसी का किरदार ढूंढ़ती रहती हो.”


“वह काम ही ऐसा कर रही है. खानदान की इज्जत उतार कर रखना चाहती है. भले ही तुम्हें उस की हरकतों पर एतराज न हो लेकिन मैं उसे ले कर बहुत परेशान हूं।”


“सुधा, डिंपी जो करने जा रही है आज वह समाज में आम बात हो गई है।”


“तुम्हारे लिए हो गई होगी. मेरे लिए नहीं. एक उच्च कुल की ब्राह्मण लड़की हो कर वह जनजाति समाज के लड़के से शादी करना चाहती है और तुम्हें इस में कोई बुराई नजर नहीं आ रही?”


“राहुल बहुत समझदार है। उस का पूरा परिवार पढ़ालिखा है. मानता हूं कि कभी वे जनजाति समाज में रहते थे लेकिन आज उन की स्थिति हम से किसी भी हालत में कम नहीं है। अगर डिंपी उस के साथ खुश रह सकती है तो हमें भी उस की खुशियों में शामिल हो जाना चाहिए.”


“जब पापा ही लड़की का इतना पक्ष ले तो बेटी को क्या चाहिए? वह तो कुछ भी कर सकती है.”


“तुम इस बात में मुझे क्यों दोष दे रही हो? डिंपी ने अपने लिए लड़का खुद चुना है लेकिन वह शादी भाग कर नहीं कर रही है.”


“इसी बात का तो मुझे दुख है. भाग कर चली जाती तो कोई परेशानी न होती. आज बाबूजी जिंदा होते तब देखती तुम इस रिश्ते के लिए कैसे राजी होते?”


“जो है नहीं उस के बारे में क्या सोचना? मैं तो वही करना चाहता हूं जो मेरे बच्चों के लिए ठीक हो. तुम केवल अपने तक ही सोच रही हो.”


“इस से पहले हमारे खानदान में किसी लड़की ने ऐसा काम नहीं किया। यह लड़की तो हमारी इज्जत मिट्टी में मिला कर रहेगी.”


“शायद पहले भी किसी में इतना हौसला होता तो वह भी कर लेता। इस के लिए भी सब्र और साहस दोनों ही चाहिए। हर किसी के बस का भी यह सब नहीं होता,” कह कर परेश वहां से उठ गए.


सुधा समझ गई थी कि परेश से इस बारे में कुछ कहना बेकार है. वह जब भी बेटी को ले कर कुछ कहना चाहती है, परेश उसे इसी तरह चुप करा देते.


सुधा आगे कुछ न कह कर इस समय अतीत में उतरने लगी. उसे अपनी बेटी डिंपी का बचपन याद आने लगा था. वह जानती थी कि डिंपी की हरकतें बचपन से हमेशा बहुत उच्छृंखल थी. पढ़ाईलिखाई में उस का जरा भी मन ना लगता था. घर में हरकोई उस की इस कमजोरी को जानता था. खासकर उस की बुआ रमा को तो उस की हरकतें जरा भी पसंद न थीं.


उस के मायके आते ही सुधा डिंपी को ढूंढ कर उसे पढ़ने बैठा देती,”चुपचाप बैठ कर पाठ याद करो.”


“मैं ने अपना सारा काम कर लिया है मम्मी.”


“तभी तो कह रही हूं बैठ कर पाठ याद करो.”


इस के आगे डिंपी की कुछ कहने की हिम्मत न पड़ती. उस की हरकतें देख कर रमा भी भाभी को सुना देती,”भाभी, तुम इस पर जरा भी ध्यान नहीं देती हो.”


“तू ही बता रमा मैं क्या करूं? मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करती हूं। मानती हूं कि वह पढ़नेलिखने में बहुत होशियार नहीं है. वह एक औसत लड़की है और हर इंसान की क्षमता अलगअलग होती है.”


“यह बात डिंपी को अभी से समझ लेनी चाहिए.”


“तुम कुछ समय के लिए मायके आई हो. यहां रह कर आराम करो. छोड़ो इन सब बातों को.”


सुधा बात को टालने की कोशिश करती। वह जानती थी कि डिंपी का पढ़ाईलिखाई में मन नहीं लगता पर खेलकूद में और अन्य गतिविधियों में वह बहुत अच्छा प्रदर्शन करती है. खेलने के लिए भी जब वह दूसरे शहर जाना चाहती तो सुधा को यह बात बहुत अखरती थी.


“चुपचाप जो कुछ करना है घर में रह कर करो. इधरउधर जाने की कोई जरूरत नहीं है।”


“कैसी बातें करती हो मम्मी? मेरे साथ की सारी लड़कियां खेलने जा रही हैं. एक आप ही हो जो हर काम के लिए मना कर देती हो.”


“कौन सा तुझे खेल कर गोल्ड मैडल मिलने वाले हैं…”


“जब खेलने का मौका दोगी तो मैडल भी मिल जाएंगे. आप तो शुरुआत में ही साफ मना कर देती हो,” डिंपी अपना तर्क रखती.


हार कर सुधा परेश को समझाती, “परेश, डिंपी बड़ी हो रही है. इस तरह उस का घर से बाहर रहना मुझे ठीक नहीं लगता।”


“वह स्कूल की ओर से खेलने जाती है सुधा. उस के साथ मैडम और स्कूल की और भी लड़कियां हैं. वह अकेले थोड़ी ही है।”


जब कभी डिंपी को ले कर परेश और सुधा में बहस होती, परेश हमेशा बेटी का पक्ष ले कर पत्नी को चुप करा देते.

“पता नहीं आप की समझ में मेरी बात क्यों नहीं आती?”


“सुधा, आज पढ़ाई के साथ खेल भी जरूरी है. डिंपी एक अच्छी खिलाड़ी है. उसे प्रदर्शन का मौका तो मिलना चाहिए।”


“तुम्हारी छूट के कारण ही तो डिंपी मेरी एक बात नहीं सुनती। तुम से तो कुछ कहना ही बेकार है.”


“तुम टैंशन मत लिया करो सुधा. हर बच्चे का अपना शौक होता है. लड़की अपना शौक मायके में ही तो पूरा करती है,”परेश बोले तो सुधा चुप हो गई.


समय के साथ डिंपी जवान हो रही थी और उस के व्यवहार में भी बहुत खुलापन आ गया था. वह कहीं जाती तो किसी को कुछ बताने की जरूरत तक नहीं महसूस करती.


सुधा ने उसे कई बार टोका,”डिंपी, अब तुम छोटी बच्ची नहीं रही हो.”


“तभी तो कहती हूं मम्मी, अब हर बात पर टोकना छोड़ दें।”


“कम से कम बता तो दिया करो तुम क्या कर रही हो?”


“अपने दोस्तों से मिलने जा रही हूं,” कह कर डिंपी चली गई.


उस के ऐसे व्यवहार के कारण सुधा कभीकभी बहुत परेशान हो जाती.


परेश उसे समझाते,”तुम डिंपी पर विश्वास रखो। वह ऐसा कोई काम नहीं करेगी.”


“मुझ से तो वह सीधी मुंह बात तक नहीं करती.”


“तुम उस के साथ प्यार से पेश आया करो तो वह भी तुम से अच्छे ढंग से बात करेगी। मुझ से तो कभी ऊंची आवाज में नहीं बोलती.”


“मैं मां हूं. मुझे हर वक्त उस की चिंता लगी रहती है.”


“मैं भी उस की फिक्र करता हूं। वह मेरी भी तो बेटी है.”


“वह आप की छूट का बहुत नाजायज फायदा उठा रही है.”


“मैं तो ऐसा नहीं समझता…”


जब कभी डिंपी को ले कर परेश और सुधा में बहस होती, परेश हमेशा बेटी का पक्ष ले कर पत्नी को चुप करा देते. यह बात डिंपी भी बखूबी जानती थी. इसी वजह से वह कोई भी बात मम्मी को बताने की जरूरत तक ना महसूस करती. हां, पापा को अपने प्रोग्राम के बारे में जरूर बता देती.


इंटर पास करते ही बीए में आ कर डिंपी कि नजदीकियां अपनी सहेली जया के भाई राहुल के साथ बढ़ने लगी थीं। जया उस की सहपाठी थी. कभीकभार उस के साथ डिंपी उन के घर चली जाती। वहीं पर उस की मुलाकात राहुल से हुई। मुलाकातें घर तक सीमित न रह कर घर से बाहर भी बढ़ने लगी. जानपहचान पहले दोस्ती में बदली और फिर दोस्ती कब प्यार में बदल गई डिंपी को पता ही नहीं चला.


राहुल ने अपने प्यार का इजहार डिंपी के सामने कर दिया था। पापा की बात को ध्यान में रखते हुए डिंपी ने अभी उसे अपने दिल की बात नहीं बताई थी। वह पहले इस के लिए माहौल बनाना चाहती थी और तब घर वालों से इस बारे में बात करना चाहती थी.  वह सही वक्त का इंतजार कर रही थी.


राहुल एक मल्टीनैशनल कंपनी में इंजीनियर था। कभीकभी वह डिंपी को छोड़ने घर भी आ जाता। उस की दोस्ती पर परेश और सुधा को कोई एतराज न था।


यह बात डिंपी पापा को पहले ही कह चुकी थी कि राहुल उस का बहुत अच्छा दोस्त है। तब परेश ने उसे समाज की ऊंच नीच समझा दी थी,”डिंपी तुम एक ब्राह्मण परिवार से हो और राहुल जनजाति समाज से है। बेटी, तुम्हें अपनी सीमाएं पता होनी चाहिए।”


“पापा, मैं छोटी बच्ची थोड़ी हूं. आप के कहने का मतलब मुझे समझ में आ रहा है.”


“मैं तुम से यही उम्मीद करता हूं। कल को ऐसा न हो कि तुम मेरी दी हुई छूट का नाजायज फायदा उठा कर कोई गलत कदम उठा लो.”


“मुझे पता है पापा,” कह कर डिपी ने बात टाल दी थी।


विस्फोट तो उस वक्त हुआ जब एक दिन राहुल डिंपी को घर छोड़ने आया। उस समय रमा भी घर आई हुई थी. डिंपी को राहुल के साथ बेफिक्र हो कर मोटरसाइकिल पर बैठी देख कर सुधा भड़क गई।


रमा को भी अच्छा नहीं लगा। उस के कुछ कहने से पहले ही सुधा बोली,”डिंपी, तुम्हें कुछ खयाल भी है, तुम क्या कर रही हो? सारा मोहल्ला तुम्हें इस हालत में देख कर क्या सोचता होगा?”


राहुल के सामने मम्मी ने जब यह बात कही तो डिंपी उसे सह न सकी और बोली,” आप जानती हैं राहुल मेरा दोस्त है.”


“तो क्या दोस्तों के लक्षण इस तरह के होते हैं?”


“जमाना बहुत बदल गया है मम्मी. अब पहले वाली बात नहीं है. आज लड़के और लड़की की दोस्ती को बुरी नजर से नहीं देखा जाता. वे आपस में बहुत अच्छे दोस्त होते हैं.”


डिंपी के घर में सामाजिक मर्यादाओं को ले कर ही अड़चन थी परेश जानते थे कि अपनी बिरादरी में भी उन्हें राहुल जैसा नेक और सुलझा हुआ दामाद नहीं मिल सकता.

“ऐसा नया जमाना तुम्हें ही मुबारक हो डिंपी जो तुम सब को इतनी बेशर्मी की छूट देता है.”

“आप को हमारी दोस्ती पर एतराज है ना मम्मी, तो ठीक है हम शादी कर लेंगे। तब तो किसी को कोई एतराज नहीं रहेगा। राहुल तुम मुझ से शादी करने के लिए तैयार हो?” डिंपी ने पूछा.


रमा के सामने मम्मीबेटी की बहस में राहुल चुप रहा। इस समय कुछ कह कर उन का गुस्सा बढ़ाना नहीं चाहता था। वह कभी सुधा आंटी का मुंह देख रहा था तो कभी रमा बुआ का.


“चुप कर। जो मुंह में आ रहा है वह बके जा रही है,”रमा जोर से बोली. “आंटी ठीक कह रही हैं. हमें बड़ों की इज्जत करनी चाहिए और उन का मान भी रहना रखना चाहिए,” कह कर राहुल दरवाजे से ही लौट गया.


डिंपी भी गुस्से से पैर पटकती हुई अपने कमरे में आ गई. रमा ने वहां रुकना ठीक नहीं समझा और घर लौट गई. अगर वह कुछ देर और वहां रुकती तो शायद बात बहुत बढ़ जाती. डिंपी की हरकतें देख कर सुधा आज बहुत परेशान थी.


डिंपी के कहे शब्द सुधा के कानों में हथौड़े की तरह बज रहे थे। वह बड़ी बेसब्री से परेश के औफिस से वापस आने का इंतजार कर रही थी. शाम को 6 बजे परेश घर आए। आते ही उन्होंने सुधा से पूछा,”तुम्हारा मुंह क्यों उतरा हुआ है?”


“यह तो तुम अपनी बेटी से पूछो.” “हुआ क्या है?” परेश बोले तो सुधा ने पूरी बात बता दी.

“डिंपी ने गुस्से में कह दिया होगा  मैं जानता हूं वह ऐसा नहीं कर सकती” “तुम उस से खुद ही पूछ लो,” कह कर पैर पटकते हुए सुधा वहां से हट गई.


सुधा के जाते ही डिंपी खुद ही पापा के पास आ गई। परेश ने पूछा,”यह मैं क्या सुन रहा हूं डिंपी?”

“आप ने ठीक सुना पापा.” “क्या कह रही हो तुम?” “पापा, मुझे राहुल पसंद है।”


“सबकुछ जान कर भी तुम ऐसी बात कर रही हो?”


“आप को समाज की परवाह है? मुझे नहीं.”


“तुम्हारे इस फैसले मे मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकता.”


“साथ तो आप को देना ही होगा पापा। मैं शादी करूंगी तो सिर्फ राहुल से और वह भी आप की सहमति से,” कह कर डिंपी वहां से चली गई।


परेश को उस से ऐसी उम्मीद ना थी। इतना सब होने पर भी परेश ने धैर्य नहीं खोया।


सुधा बोली,”सुन ली अपनी लाड़ली की बातें.”


परेश ने समझाया,”हमें डिंपी को कुछ समय देना चाहिए। हो सकता है उस ने जज्बात मे बह कर ऐसा कह दिया हो।”


“मैं तो आप को शुरू से ही कह रही थी कि मुझे डिंपी का राहुल से मेलजोल कतई पसंद नहीं है.”


“मैं ने उससे इस बारे में बात की थी. उस ने राहुल को केवल अपना दोस्त बताया था.”


“पता नहीं आप उस की हर बात को आंख मूंद कर कैसे सच मान लेते हैं.”


“तुम थोड़ा सब्र रखो सुधा। देख लेना एक दिन सब ठीक हो जाएगा.”


“अब ठीक होने के लिए बचा ही क्या है?”


“डिंपी हमारी बेटी है दुश्मन नहीं।”


“लेकिन काम तो वह दुश्मनों से भी बुरा कर रही है,” कह कर सुधा किचन में आ गई।


उस दिन के बाद से राहुल कभी डिंपी को छोड़ने घर नहीं आया। अकसर डिंपी ही उस से मिलने चली जाती। परेश ने डिंपी को सोचने के लिए पूरा 1 साल इंतजार किया लेकिन डिंपी ने अपना फैसला नहीं बदला।


“पापा, मैं राहुल से ही शादी करूंगी.”


“मैं इस की इजाजत नहीं दे सकता डिंपी। तुम चाहो तो कोर्ट मैरिज कर सकती हो.”


“पापा, मुझे यह सब करना होता तो बहुत पहले कर लेती। मैं चाहती हूं कि आप सब मेरी खुशी में शामिल हों।”


“मुझ से नहीं होगा, बेटा।”


“अपने बच्चों की खुशी से बढ़ कर दुनिया में कोई और खुशी नहीं होती पापा।


“तुम्हारे इस फैसले से पूरा परिवार नाखुश है।”


“मुझे उन की नहीं आप की परवाह है पापा?” कह कर डिंपी वहां से चली गई।


इस बारे में सुधा से उस की पहले ही बहुत बहस हो गई थी। डिंपी जानती थी यदि पापा मान गए तो मम्मी को उन की बात माननी ही पड़ेगी। राहुल के घर वालों को इस रिश्ते पर एतराज ना था। उन सभी को डिंपी बहुत पसंद थी।


डिंपी के घर में सामाजिक मर्यादाओं को ले कर ही अड़चन थी परेश जानते थे कि अपनी बिरादरी में भी उन्हें राहुल जैसा नेक और सुलझा हुआ दामाद नहीं मिल सकता। डिंपी  ने भी हार नहीं मानी।


परेश ने जब भी उसे समझाना चाहा उस का एक ही जवाब होता,”मैं राहुल के अलावा किसी और से शादी नहीं करूंगी.”


बेटी की जिद के आगे आखिर परेश  और सुधा को झुकना पड़ा। रिश्तेदारी में बड़ी थूथू हुई। बेटी की खुशी की खातिर परेश ने सादे समारोह में डिंपी और राहुल की शादी करा दी।


हरकोई सुधा की परवरिश को ही दोष दे रहा था जिस में बेटी को इतनी छूट दे रखी थी. अच्छे प्रतिष्ठित ब्राह्मण खानदान की बेटी इस तरीके से जनजाति परिवार में चली जाएगी, यह बात उन के गले से नीचे ही नहीं उतर रही थी. पीठ पीछे सब चटकारे ले कर बातें बना रहे थे। रमा के लिए भी यह सब सहन करना बहुत मुश्किल हो रहा था।


रिश्तेदार परेश से तो कुछ ना कहते लेकिन रमा को खूब सुना कर चले जाते। रमा का मन इस शादी में शामिल होने का जरा भी नहीं था, मगर अमन की जिद के कारण रमा को भी इस शादी में शामिल होना पड़ा था।


परेश ने कुछ गिनेचुने लोगों को भी समारोह में बुलाया था. बिरादरी में बड़े दिनों तक इस की चर्चा होती रही और धीरेधीरे सब चुप हो गए थे।


दीपक ने उसे समझाया,'हम कुछ गलत नहीं कर रहे हैं रमा तुम चाहो तो हम एक नई जिंदगी का आगाज कर सकते हैं.'

डिंपी राहुल के साथ बहुत खुश थी।अब सुधा भी अपनी नाराजगी भूल कर उन की खुशियों में शामिल हो गई लेकिन रमा को यह बात बहुत अखर गई थी कि डिंपी ने अपनी बिरादरी से बाहर जा कर जनजाति समाज से ताल्लुक रखने वाले राहुल से शादी की थी. उसे अपने खानदान पर बहुत गुरूर था।


डिंपी ने राहुल को अपना कर उस के खानदान के मान को ठेस पहुंचाई थी जब कभी रमा इस बारे में सोचती तो उसे मन ही मन बहुत परेशानी होती.


डिंपी की शादी को पूरे 3 बरस हो गए थे। आज भी घर पर रमा से मिलने जो भी रिश्तेदार आता वह किसी न किसी बहाने उस का जिक्र जरूर छेड़ देता.


दोपहर में रमा के मामा आए थे। उन्होंने भी परेश और डिंपी को ले कर रमा को काफी कुछ कहा. वह चुपचाप रही. कुछ बोल कर वह अपनी खीज मामा के सामने नहीं उतारना चाहती थी लेकिन जब भी वह मायके जाती इस बात का जिक्र परेश भैया और सुधा भाभी से जरूर कर देती। रमा की जलीकटी बातें वे एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देते.


मामाजी के जाने के बाद रमा के दिमाग में बहुत देर तक मायके की घटनाएं चलचित्र की तरह घूमती रहीं और काफी समय तक वहां भटकने के बाद वह वर्तमान में लौट आई थी।


अमन उसे आवाज दे रहे थे,”कहां हो रमा? याद है, आज एक शादी के रिसेप्शन पर जाना है.”


“मुझे याद है लेकिन अभी तो उस में बहुत समय है,” कह कर रमा उठी और शादी में जाने की तैयारी करने लगी।


सारी पुरानी बातों को झटक कर वह तैयार होने में व्यस्त हो गई। रात के 8:00 बजे दोनों घर से निकले। संयोग से वैडिंग पौइंट में उन की मुलाकात सब से पहले परेश भैया और सुधा भाभी से हो गई।


रमा ने पूछा,”आप कब आईं भाभी?”


“बस अभी आई हूं। चलो, पहले दूल्हादुलहन को आशीर्वाद दे दें फिर आराम से बैठ कर बातें करेंगे,” कह कर सुधा और रमा स्टैज की ओर बढ गए.


ग्रुप फोटो के बाद वे नीचे आए और एक किनारे बैठ गए। तभी वहां पर डिंपी और राहुल भी आ गए. उन्हें देख कर रमा बुरी तरह चौंकी. दोनों ने बढ़ कर बुआ का अभिवादन किया। बदले में रमा ने सिर पर हाथ रख कर उन्हें शुभकामनाएं दीं.


“तुम कब आईं?”


“कल रात आई थी और कल सुबह वापस जाना है। मम्मीपापा के कहने पर हम यहां आ गए,” बुआ के तेवर देख कर डिंपी ने अपनी सफाई दी.


रमा के चेहरे को देख कर साफ झलक कहा था कि उसे डिंपी और राहुल का इस तरह आना अच्छा नहीं लगा था.


“भाभी आप ने बताया नहीं?”


“हम अभी तो मिले हैं रमा बात करने की फुरसत कहां लगी जो तुम्हें घर के बारे में कुछ बताती, ” सुधा ने कहा.


राहुल के आगे बढ़ते ही रमा बोली,”सच में भाभी आप का दिल बहुत बड़ा है.”


“बच्चों के लिए दिल बड़ा रखना पड़ता है रमा। उन की खुशी से बढ़ कर हमारे लिए और कोई खुशी नहीं है,” बातों का रूख अपनी ओर होता देख डिंपी ने वहां रुकना ठीक नहीं समझा और वह बुआ और मम्मी के बीच से हट कर दूसरी ओर बढ़ गई.


डिंपी को जाते देख कर परेश ने अंदाजा लगा लिया कि रमा जरूर उसे आज फिर कुछ न कुछ सुनाने से बाज नहीं आएगी। वे झट से रमा के पास पहुंच गए और बोले,”मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था रमा.”


“क्यों भैया?”


“मेरे साथ आओ. आज मैं तुम्हें एक बहुत खास व्यक्ति से मिलाना चाहता हूं.”


“किस से भैया?”


“तुम खुद ही देख लेना.”


परेश के आग्रह पर रमा उन के साथ चली गई। सुधा भी डिंपी के साथ आ गई। परेश ने रमा को दीपक के सामने खड़ा कर दिया।


“कैसी हो रमा?” दीपक ने पूछा.


बरसों बाद उसे अचानक यों अपने सामने देख कर रमा को अपनी आंखों में विश्वास नहीं हुआ.


“तुम अचानक यहां?”


“अपने औफिस के सहयोगी की बेटी की शादी में आया हूं। भाई साहब को देख कर मैं ने तुम्हारे बारे में पूछा। उन्होंने तुम से ही मिला दिया.”


“तुम भाई साहब को कैसे जानते हो? मैं ने तो तुम्हें कभी उन से नहीं मिलाया…”


“जरूरत इंसान से सब कुछ करा लेती है रमा। बस यही समझ लो, “कह कर दीपक ने इस बात को यहीं पर खत्म कर दिया।


वे दोनों बातें करने लगे. पुरानी यादों को ताजा कर के दोनों ही भावुक हो गए थे.


दीपक और रमा दोनों ग्रैजुएशन में एकसाथ पढ़ते थे। रमा ब्राह्मण परिवार से और दीपक राजपूत खानदान से ताल्लुक रखते थे। दोनों एकदूसरे को बहुत पसंद करते थे।


दीपक ने उसे जताया भी था,’रमा, मुझे तुम बहुत पसंद हो.’


लेकिन रमा अपनी जबान से कभी उसे कह नहीं पाई कि वह भी उसे बहुत चाहती है। दीपक की दिली इच्छा थी कि वे दोनों अपनी जिंदगी एकसाथ बिताएं। उस ने रमा से बहुत आग्रह किया कि वह इस सचाई को स्वीकार कर ले लेकिन समाज के डर से रमा अपनी भावनाओं को कभी इजहार ही नहीं कर पाई।


दीपक ने उसे समझाया,’हम कुछ गलत नहीं कर रहे हैं रमा तुम चाहो तो हम एक नई जिंदगी का आगाज कर सकते हैं.’


‘तुम तो मेरी पारिवारिक परिस्थितियों को जानते हो। बाबूजी शादी के लिए कभी राजी नहीं होंगे,’रमा हर बार एक ही बात दोहरा देती।


वह जानती थी कि बाबूजी के सामने उस की पसंद का कोई मोल नहीं होगा।


दीपक भी इतनी आसानी से हार मानने वाला ना था। रमा को पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था। बहुत सोचसमझ कर उस ने अपनी इच्छा परेश भाई साहब से साझा की थी।


परेश ने भी अपनी मजबूरी बता दी थी,’दीपक, मैं जानता हूं तुम बहुत अच्छे लड़के हो पर इस बारे में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता.’


‘कोई तो रास्ता तो होगा।’


‘एक ही रास्ता है। यदि रमा बाबूजी के सामने अपनी पसंद का इजहार करे और अपने निर्णय पर अड़ी रहे तो हो सकता है बाबूजी मान जाएं।’


‘आप को लगता है कि रमा ऐसा करेगी?’


‘तुम उस से बात करके तो देखो। हो सकता है कि उस पर कुछ असर हो जाए,’परेश ने समझाया।


परेश दीपक की भावनाओं की बड़ी कद्र करते थे। उस ने समझदारी दिखाते हुए रमा से पहले उन्हें विश्वास में लिया था।


परेश के कहने पर दीपक ने अपनी भावनाओं का इजजहार रमा के सामने कर दिया था,’रमा, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और पूरी जिंदगी तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूं।’


‘ऐसा नहीं हो सकता दीपक। बाबूजी कभी नहीं मानेंगे.’


‘तुम एक बार कोशिश कर के तो देखो.’


‘मैं अपने बाबूजी को अच्छी तरह जानती हूं. वह बिरादरी से बाहर मेरी शादी के लिए कभी तैयार नहीं होंगे.’


‘रमा, मेरी खातिर एक बार फिर से सोच लो। यह हम दोनों की जिंदगी का सवाल है.’


‘दीपक, बाबूजी को बेटी से ज्यादा अपनी इज्जत प्यारी है। वह बेटी का दुख तो बरदाश्त कर सकते हैं पर इज्जत खोने का भय उन्हें जीने नहीं देगा.’


दीपक ने उसे बहुत समझाया लेकिन रमा परिवार के खिलाफ जा कर शादी के लिए तैयार नहीं हुई। दीपक ने यह बात परेश भाई को बता दी थी।


‘दीपक, मैं रमा का साथ जरूर देता यदि वह खुद अपना साथ देने के लिए तैयार हो जाती। मैं मजबूर हूं,’कह कर परेश ने दीपक को समझाया.


उस के बाद से वह शहर छोड़ कर ही चला गया। रमा के दिल में दीपक से बिछड़ने की बड़ी कसक थी पर वह किसी भी कीमत पर बगावत करने के लिए तैयार न थी।


बाबूजी ने अपनी बिरादरी में अच्छा लड़का देख कर अमन से उस की शादी करा दी थी। धीरेधीरे रमा के दिल से दीपक की यादें धूमिल सी हो गई थीं. आज वह सब फिर से ताजा हो गई। परेश भाई के आ जाने से वे दोनों अतीत से बाहर आ गए।


“दीपक, तुम ने अपनी घरगृहस्थी बसाई या नहीं?” परेश ने पूछा।


“गृहस्थी तो तब बसती जब आप मेरा साथ देते,” दीपक हंस कर बोला।


तभी किसी ने दीपक को आवाज लगाई और वह उन से विदा ले कर चला गया। दीपक की बात सुन कर रमा आसमान से जमीन पर गिर पड़ी। उस के चेहरे का रंग उड़ गया,’तो क्या, भाई साहब उस के बारे में सबकुछ जानते थे…’


रमा की हालत से परेश भी अनभिज्ञ ना थे। उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोले,”जो कुछ तुम ने नहीं बताया मुझे वह सब दीपक ने बता दिया था। डिंपी में मुझे हमेशा तुम्हीं नजर आती रहीं रमा। बस, अंतर इतना था कि डिंपी में साहस के साथ बात मनवाने का हौसला था। उस ने बड़ी हिम्मत से सारी परिस्थिति का मुकाबला किया। आज हम सब खुश हैं। मुझे उस के निर्णय पर गर्व है। काश, तुम भी इतनी हिम्मत दिखा पाती…”


“भाई साहब, जो हो गया अब उस पर क्या पछताना… शायद वक्त को यही मंजूर था,”रमा सिर झुका कर बोली.


इस समय उस में इतना साहस ना था कि वह भाई साहब से गरदन उठा कर बात कर पाती। आज वह अपनेआप को डिंपी के सामने बहुत छोटा महसूस कर रही थी। किसी तरह रमा ने भाई के साथ खाना खाया और भाभी और डिंपी से मिले बगैर घर वापस लौट गई।


अमन महसूस कर रहे थे कि रमा आज बहुत चुपचुप सी है।


“क्या हुआ रमा?”


“कुछ नहीं.”


“लगता है, डिंपी के कारण तुम्हारा मूड खराब हो गया है,”अमन ने झिझकते हुए कहा।


उसे डर था कि कहीं डिंपी का नाम सुन कर रमा भड़क न जाए।


“नहीं ऐसी बात नहीं। उसे देख कर मुझे भी अच्छा लगा। अब सोचती हूं कि मेरी सोच कितनी संकुचित थी।”


“ऐसी बात सोच कर मन छोटा न करो।”


“इरादा पक्का हो तो इंसान एक दिन सब को मना ही लेता है। डिंपी ने यही सब तो किया. कितने लोग ऐसा कर पाते हैं,” कह कर रमा ने गहरी सांस ली।


परेश भैया के कहे हुए शब्द अभी तक उस के दिमाग में घूम रहे थे।


‘सच में भैया कितने महान हैं,’ वह बुदबुदाई।


आंसू की 2 बूंदें उस की आंखों के कोरों पर अटक गई, जिसे वह बड़ी सफाई से अमन से छिपाने की कोशिश करने लगी।

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