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कहानी: मान मर्दन

मां की उदारदिली पर मैं हैरान रह जाती थी. कुढ़ कर कहती, ‘यह तो ग्रहण है भैया के जीवन पर. जब तक जिएगी, डसती रहेगी भैया को और इस परिवार को.’

अपर्णा को मानसी ने अपने भाई अविनाश के लिए पसंद किया था. शादी के बाद उस के ब्रेन ट्यूमर की खबर ने सब को चौंका दिया. परंतु सकुशल आपरेशन के पश्चात उस के स्वस्थ होने पर भी मानसी के मन में उस के प्रति नफरत का बीज पनपने लगा लेकिन अपर्णा ने कुछ ऐसा किया कि पत्थर दिल मानसी सहित पूरे परिवार का दिल जीत लिया…


कुत्ता जोरजोर से भौंक रहा था. बाहर गली में चौकीदार के जूतों की चपरचपर और लाठी की ठकठक की आवाज से स्पष्ट था कि अभी सुबह नहीं हुई थी.


एक नजर स्वप्निल पर डाली. गहरी नींद में भी उन के चेहरे पर पसीने की 2-4 बूंदें उभर आई थीं. पूरा दिन दौड़भाग करने के बाद रात 12 बजे तो लौटे थे. मुझ से तो किसी प्रकार की सहानुभूति या अपनत्व की अपेक्षा नहीं करते ये लोग. किंतु आज मेरे मन को एक पल के लिए भी चैन नहीं था. मां और अपर्णा का रुग्ण चेहरा बारबार मेरी आंखों के आगे घूम जाता था. क्या मनोस्थिति होगी पापा और भैया की? डाक्टरों ने बताया था कि यदि आज की रात निकल गई तो दोनों खतरे से बाहर होंगी, वरना…


मां परिवार की केंद्र हैं तो अपर्णा परिधि. यदि दोनों में से किसी को भी कुछ हो गया तो पूरा परिवार बिखर जाएगा. किस तरह जोड़ लिया था मां ने बहू को अपने साथ. बहू नहीं बेटी थी वह उस घर की. घर का कोई भी काम, कोई भी सलाह उस के बिना अधूरी थी.


लेकिन इतना सब देने के बाद मां को बदले में क्या मिला? तीमारदारी? मैं ने कई बार अपर्णा को तिरस्कृत करने के लिए मां से कहा भी था, ‘बहुएं दानदहेज के साथ डिगरियां लाती हैं लेकिन तुम्हारी बहू तो अपने साथ मेडिकल रिपोर्ट, एमआरआई और एक्सरे रिपोर्ट से भरी फाइलें लाई है.’


यह सुनते ही मां हंस देतीं, ‘संस्कारों की अनमोल धरोहर भी तो लाई है अपने साथ.’


मां कमरा छोड़ कर चली जातीं. जाहिर था, उन्हें अपर्णा के प्रति मेरे द्वारा कहे गए कठोर शब्दों से दुख पहुंचता था पर मैं भी क्या करती? मन था कि लाख प्रयासों के बाद भी नियंत्रित नहीं होता था.


सुबह के 5 बजे थे. कुछ देर पहले ही स्वप्निल अस्पताल के लिए निकल चुके थे. फोन की घंटी बज रही थी. कहीं कोई अप्रिय समाचार न हो? कांपते मन से फोन का चोंगा उठाया. पापा थे, बोले, ‘रुक्मिणी की तबीयत ठीक है लेकिन बहू की हालत चिंताजनक है.’


मन आत्मग्लानि से भर उठा. क्यों पापा और भैया के कहने पर मैं लौट आई? इस समय तो भैया और उन दोनों को सहानुभूति की आवश्यकता होगी. स्वप्निल भी तो बिना कुछ कहे चले गए. एक बार कहते तो मैं भी चली जाती उन के साथ. कुछ पल ठहर कर मैं कम से कम उन का मनोबल तो बढ़ा सकती थी. लेकिन उन्हें क्या पता, अपर्णा के प्रति मेरे मन में अब किसी प्रकार का मलाल नहीं.


अपर्णा से मेरा परिचय बोट्सवाना में हुआ था. उन दिनों मैं स्वप्निल के साथ एक ‘असाइनमेंट’ पर बोट्सवाना आई थी. चारों तरफ हरियाली, पेड़पौधे और वादियां और उन के बीच बसी वह छोटी सी कालोनी. कुल मिला कर वहां 10-12 ही घर थे और एक घर से दूसरे घर का फासला इतना कम था कि मौकेबेमौके आसानी से लोग एकदूसरे के यहां आतेजाते थे. यों तो अन्य परिवार भी थे वहां पर अपर्णा के परिवार से कुछ ही दिनों में हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी. उस के पिता स्वप्निल की कंपनी में ही वरिष्ठ पद पर थे. दूसरे, वह हमारी ही तरह ब्राह्मण थे और लखनऊ के मूल निवासी भी. रीतिरिवाज और बोलचाल में समानता होने की वजह से कुछ ही दिनों में हमारी दोस्ती घनिष्ठता में बदल गई और हम हर दिन मिलने लगे.


कभी घर पर, कभी क्लब में. बातचीत का सिलसिला इधर- उधर की बातों  से घूमता फिरता लखनऊ की नफासत नजा- कत, खानपान या फिर चौड़ीसंकरी गलियों से होता हुआ एकदूसरे के रीतिरिवाजों और तीजत्योहारों के मनाने के ढंग पर अटक जाता.


मुझे गोरी, लंबी, छरहरी, काली आंखों और घने बालों वाली अपर्णा का व्यक्तित्व हर समय आकर्षित करता था. वह जितनी सुंदर थी उतनी ही मेधावी भी. लगभग हर विषय पर अपने विचार खुल कर व्यक्त कर सकती थी. कालिज के बाद वह अकसर मेरे घर आ जाती और किसी न किसी विषय पर  बहस छेड़ देती.


अपर्णा की मां भी एक शिष्ट, व्यावहारिक और सुलझी हुई महिला थीं. 2 बहुओं की सास और 4 पोतेपोतियों की दादी होने के बाद भी उन के व्यवहार में बचपना ही झलकता था. उम्र में वह मुझ से काफी बड़ी थीं, फिर भी उन का सान्निध्य मुझे भला लगता था.


एक शाम मैं उन के घर गई तो मुझे ऐसा लगा जैसे वह मेरी ही बाट जोह रही हों. मुझे पास बिठा कर बोलीं, ‘मानसी, अपर्णा तेरी हर बात मानती है. तू ही इसे समझा. ब्याह की बात करो तो रोनाधोना शुरू हो जाता है इस का.’


‘मुझे ब्याह नहीं करना है,’ उस की आंखें सूजी हुई थीं. ऐसा लगा जैसे रो कर आई हो.


‘क्यों? ब्याह तो सभी लड़कियां करती हैं,’ जवानी की दहलीज पर खड़ी सुनहरे, रुपहले सपनों को देखने की उम्र में अपर्णा का वह वाक्य मुझे अचरज में डाल गया था.


‘कब तक बिठा कर रखूंगी तुझे? जब तक मांबाप हैं तब तक ठीक, उस के बाद भाईभौजाई नहीं पूछेंगे.’


‘मुझे किसी का सहारा नहीं चाहिए, पढ़ीलिखी हूं, नौकरी कर के अपनी देखभाल स्वयं कर लूंगी.’


‘औरत को जीने के लिए किसी का तो अवलंबन चाहिए. ब्याह, परिवार और बच्चे इन्हीं सब में उलझ कर तो स्त्री का जीवन सार्थक बनता है.’


‘और अगर ब्याह के बाद भी यही एकाकीपन हाथ आया तो?’ अपर्णा के शब्दों में छिपी निराशा देख मन विचलित हो उठा था. शायद हर दिन तलाक, टूटन और बिखराव की खबरें पढ़तेपढ़ते उस ने सफल, सुखद, वैवाहिक जीवन की उम्मीद ही छोड़ दी थी.


‘ऐसा कुछ नहीं होगा,’ मैं ने दृढ़ता से कहा तो वह मेरा चेहरा देखने लगी.


‘अपर्णा के लिए मेरी नजर में एक रिश्ता है. अगर आप चाहें तो…’


‘हांहां क्यों नहीं,’ अपर्णा की मां ने अति उत्साह से मेरी बात बीच में ही काट दी.


‘मैं अपने भाई अविनाश के लिए, अपर्णा का हाथ आप से मांग रही हूं. वहां आप की अपर्णा को बहू नहीं बेटी का प्यार मिलेगा.’


किसी विशेष परिचय के मुहताज नहीं थे अविनाश भैया. दिल्ली आईआईटी से इंजीनियरिंग करने के बाद उन्होंने लंदन से एम.बी.ए. किया था. भारत लौट कर जब से उन्होंने पापा की फैक्टरी संभाली, मेरे मन में भाभी की इच्छा प्रबल हो उठी थी. जब भी मां से भैया के ब्याह की बात करती तो वह हंस कर टाल जातीं.


‘पहले तुझे ब्याहेंगे, फिर बहू आएगी इस घर में.’


‘कुछ दिन मैं भी तो भाभी के  साथ हंसबोल लूं.’


‘दूर थोड़े ही भेजेंगे तुझे. इसी शहर में ब्याहेंगे. जब मरजी हो चली आना और भाभी के साथ रह कर हंसबोल लेना,’ मां ने कहा था.


धूमधाम से ब्याह दी गई थी मैं लखनऊ में ही. स्वप्निल साफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर थे. सासससुर, देवरानीजेठानी का परिवार था मेरा. मां से अकसर फोन पर बात होती रहती थी. मेरा जब जी चाहता, स्वप्निल मुझे मम्मीपापा से मिलवाने ले जाते. मां, मेरी पसंद के  पकवान पकातीं लाड़ जतातीं. भैया और पापा मेरे इर्दगिर्द ही घूमते रहते. मन खुशियों से भरा रहता था. लेकिन ज्यादा दिन नहीं चल पाया यह सब. 2 माह बाद ही स्वप्निल को बोट्सवाना का प्रोजेक्ट मिला और हम दोनों यहां चले आए.


अपर्णा की मां से स्वीकृति पाते ही मैं ने लखनऊ फोन मिला कर मां से बात की. अपर्णा के विषय में सारी जानकारी दे कर मैं ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘मां, लड़की स्वभाव से सुशील और सुंदर है और सब से बड़ी बात, एम.बी.ए. भी है. भैया और पापा को बिजनेस में भी मदद करेगी.’


‘विदेश में पलीबढ़ी लड़की हमारे यहां तारतम्य बिठा पाएगी? हमारे और वहां के रहनसहन और तौरतरीकों में बहुत अंतर है,’ मां को चिंता ने घेर लिया था.


‘आप नहीं जानतीं अपर्णा


का स्वभाव. वह बेहद सरल और सादगीपसंद है. हमारे परिवार के लिए सुशील बहू और भैया के लिए आदर्श पत्नी साबित होगी वह. उन के और हमारे परिवार के वातावरण में कोई अंतर थोड़े ही है.’


‘विवाह संबंधों में पूरे परिवार का लेखाजोखा लिया जाता है,’ मां ने कहा था.


‘भारद्वाज साहब हमारी कंपनी में मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. पिछले 20 वर्षों से बोट्सवाना में हैं. अगले वर्ष रिटायर होने वाले हैं. 2 बेटे, 2 बहुएं, बच्चे सब लखनऊ में ही हैं. हजरतगंज के पास 500 गज की कोठी है.’


मां इस जानकारी से संतुष्ट हो गई थीं. कंप्यूटर के इस युग में फोटो का आदानप्रदान कुछ ही घंटों में हो गया था. शीघ्र ही संबंध को स्वीकृति दे दी गई. प्रोजेक्ट समाप्त होते ही मैं स्वप्निल के साथ लखनऊ पहुंच गई थी. मम्मीपापा का विश्वास देखते ही बनता था. बारबार कहते, हमारे घर लक्ष्मी आ रही है. एकएक दिन यहां पर सब के लिए एक युग के समान प्रतीत हो रहा था. आकांक्षाएं, उम्मीदें आसमान छू रही थीं. कब वह दिन आए और मम्मीपापा बहू का मुंह देखें.


भैया की जिज्ञासा उन की बातों से स्पष्ट थी. प्रत्यक्षत: कुछ नहीं पूछते थे पर जब भी अपर्णा का प्रसंग छिड़ता, उन की आंखों में चमक उभर आती. बारबार कहते, ‘जाओ, बाजार से खरीदारी कर के आओ.’


अपर्णा के गोरे रंग पर क्या फबेगा, यह सोच कर साडि़यां ली जातीं. हीरेमोती के सेट लेते हुए मुझे भी कीमती साड़ी व जड़ाऊ सेट पापा ने दिलवाया था.


ब्याह से ठीक एक माह पूर्व भारद्वाज परिवार ने लखनऊ पहुंचने की सूचना दी थी. हवाई अड्डे पहुंचने से पहले मां का फोन आया. बोलीं, ‘मैं, अपनी बहू को पहचानूंगी कैसे?’


‘हवाई जहाज से जो सब से सुंदर लड़की उतरेगी, समझ लेना वही तुम्हारी बहू है.’


अपर्णा और उस के परिवारजनों से मिल कर मां धन्य हो उठी थीं. ब्याह की काफी तैयारियां तो पहले ही हो चुकी थीं. रहीसही कसर अपर्णा के परिजनों से मिल कर पूरी हो गई.


घर लौट कर मैं ने भैया को टटोला था, ‘कैसी लगी हमारी अपर्णा?’


चेहरे पर गंभीरता का मुखौटा ओढ़ कर उन्होंने शांत भाव से सहमति प्रदान की तो हम सब संतुष्ट हो गए थे.


ब्याह धूमधाम से हुआ. भारद्वाज दंपती ने बरात का स्वागत और दानदहेज देने में कोई कसर नहीं रखी. हीरेमोती कुंदन के सैट, कलर टीवी, वाशिंग मशीन और इंपोर्टेड फर्नीचर दे कर उन्होंने पूरा घर भर दिया था. मम्मीपापा की साध पूरी हुई, मुझे प्यारी भाभी मिली और भैया को स्नेहमयी पत्नी.


ब्याह से अगले दिन नए जोड़े ने हनीमून के लिए गोवा प्रस्थान किया तो मां बिखरा घर समेटने में जुट गई थीं. मैं भी मां की सहायता के लिए कुछ दिन वहीं ठहर गई थी.


पूरा घर व्यवस्थित कर के मां निश्ंिचत हुईं तो दरवाजे की घंटी बजी. पापा घर पर ही थे. दरवाजा स्वप्निल ने ही खोला था. भैया दरवाजे पर थे. पीछे अपर्णा खड़ी थी.


नवब्याहता जोड़े को यों अचानक वापस आया देख कर सभी हैरान रह गए थे.


कहीं झगड़ा तो नहीं हो गया, यह सोच मां चिंतित हो उठी थीं.


अपर्णा कमरे में अपना बैग खोलने में व्यस्त हो गई और भैया हमारे पास ही टेबल पर बैठ गए. मां ने जिज्ञासा व्यक्त की, ‘यों अचानक कैसे लौट आए? तुम लोग तो 15 दिन बाद आने वाले थे.’


‘मां, अपर्णा की तबीयत अचानक खराब हो गई थी. सिरदर्द और उलटियां शुरू हो गईं, इसीलिए लौटना पड़ा.’


पहाड़ी क्षेत्रों में चढ़ाई उतरनेचढ़ने से अकसर उलटियां हो जाती हैं. यही सोच कर मां ने कहा, ‘तो किसी डाक्टर से मशविरा कर के दवा दिलवा देते.’


‘कहा था मैं ने, पर अपर्णा नहीं मानी. बोली घर चलना है,’ भैया अब भी चिंतित थे.


हमेशा हंसनेखिलखिलाने वाली अपर्णा का चेहरा बेहद फीका और बेजान सा दिखा था उस पल.


‘चलो, कोई बात नहीं. अगली बार किसी और जगह हो आना,’ कह कर मां ने मीटिंग बर्खास्त कर दी थी.


यों घर में काम करने के लिए नौकरचाकर थे पर चौके का काम मां ही संभालती थीं. अपर्णा ने अगले दिन से ही उन्हें इस कार्यभार से मुक्त कर दिया. सब की पसंद का भोजन पकाने और खिलाने में उसे विशिष्ट आनंद की अनुभूति होती थी. कोई भी काम, अपने हाथ में ले कर, जब तक दौड़भाग कर पूरी तन्मयता से संपूर्ण नहीं करती, उसे चैन नहीं मिलता था.


एक दिन मां अपर्णा को अपने पास बुला कर बोलीं, ‘तुम ने एम.बी.ए. किया है. यों घरगृहस्थी के कामों में उलझ कर तो तुम्हारी सारी शिक्षा व्यर्थ चली जाएगी. तुम्हें घर से बाहर निकल कर कुछ करना चाहिए.’


‘पर घर का कामकाज…’ अपर्णा मां के इस अचानक आए प्रस्ताव से घबरा गई थी.


‘वह तो पहले भी होता था और आगे भी होता रहेगा. अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करो, बेटी,’ मां की मुसकराहट और विश्वास उसे धीरे से सहला गया था.


अगले ही दिन पापा और भैया के साथ जा कर फैक्टरी का वित्तीय कार्यभार उस ने अपने जिम्मे ले लिया था.


पूरी तन्मयता के साथ काम करने लगी थी अपर्णा. परिणाम अच्छे घोषित हुए. मुनाफे में वृद्धि हुई. हर किसी की प्रशंसा की पात्र बनी अपर्णा कभीकभी खुशी के उन लम्हों में भी बेहद उदास हो जाती. उस की यों असमय चुप्पी का कारण कई बार हम ने जानने का प्रयास भी किया पर वह कभी किसी से कुछ कहती नहीं थी.


कुछ ही दिन बीते थे. उसे फिर से भयानक दर्द हुआ. इस बार दर्द की तीव्रता पहले से भी ज्यादा थी. चेहरा काला पड़ गया था. होंठ टेढ़े हो गए थे.


पापा और मां सोच रहे थे उस की यह दशा तनाव की वजह से है, पर मैं उस के स्वास्थ्य को ले कर बेहद चिंतित थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि अपर्णा इस घर में खुश नहीं? अपर्णा का ब्याह मैं ने ही करवाया था. ‘अगर उसे किसी बात से परेशानी है तो उस का समाधान भी मैं ही करूंगी,’ मैं ने सोचा.


इसी निश्चय के साथ मैं उस के कमरे में चली गई. अपर्णा आरामकुरसी पर बैठी कुछ सोच रही थी. मैं ने पूछा, ‘अपर्णा, कहां खोई हो? कुछ कहोगी नहीं?’ मेरे अंदर समुद्रमंथन जैसी हलचल मची हुई थी.


वह आंखें नीचे किए फर्श को निहार रही थी.


‘तुम्हें सिरदर्द क्यों हो रहा है? किसी चीज की कमी है या तुम किसी बात से असंतुष्ट हो? मुझे बताओ, शायद मैं तुम्हारी मदद कर सकूं.’


अजगर की तरह पसरा सन्नाटा जैसे अंधियारे को लील रहा था. निराशा के पल में प्यार का स्नेहिल स्पर्श और आश्वासन पाते ही उस की आंखों में आंसू छलक उठे.


‘यह सिरदर्द नया नहीं पुराना है. मुझे बे्रन ट्यूमर है.’


‘क्या… ब्रेन ट्यूमर?’ मेरे पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई थी.


‘चाची ये सब जानती थीं?’ मेरे अंतर्मन की पीड़ा पके फोडे़ सी लहकने लगी थी.


‘हां, उन दिनों मैं एम.बी.ए. फाइनल में थी, जब मुझे पहली बार सिरदर्द उठा. मां ने मुझे दर्द निवारक गोली दी और नियमित रूप से बादाम का दूध देने लगीं. सभी सोच रहे थे कि यह सिरदर्द कमजोरी और तनाव की वजह से है. आंखों का भी टेस्ट हुआ. सबकुछ सामान्य निकला. उस के बाद जब दर्द फिर हुआ तो पापा मुझे विशेषज्ञ के पास ले गए. वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मुझे ब्रेन ट्यूमर है, जिस का एकमात्र इलाज आपरेशन ही है. एक दिन पापा ने एक मशहूर डाक्टर से मेरे आपरेशन की बात की. अपाइंटमेंट भी ले लिया, पर मां नहीं मानी थीं. बोलीं, ‘ब्याह योग्य बेटी के दिमाग की चीड़फाड़ करवाएंगे? अपर्णा को कुछ हो गया तो रिश्ता करना मुश्किल हो जाएगा.’ इस पर पापाजी बोले थे, ‘तुम्हें इस के रिश्ते की चिंता है. मैं तो उस के स्वास्थ्य को ले कर परेशान हूं. इसे कुछ हो गया तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा.’


अपर्णा की बीमारी के बारे में धीरेधीरे सब को पता चल गया.


पापा संज्ञाशून्य से हो गए थे. भैया गंभीरता का मुखौटा ओढ़े कभी पत्नी को निहारते और कभी हम सब को. अपनी जीवनसंगिनी को इस रूप में देख कर उन की आकांक्षाओं पर तुषारापात हुआ था. मां गश खा कर गिर पड़ी थीं.


भैया दौड़ कर डाक्टर को बुला लाए थे. पूरी जांच के बाद पता चला, उन्हें हलका हार्टअटैक हुआ है. अचानक रक्तचाप इतना बढ़ गया कि उन्हें तुरंत अस्पताल में भरती कराना पड़ा था.


जिस दिन उन्हें थोड़ा स्वास्थ्य लाभ हुआ मैं घर लौट आई थी. इतना रोई कि  शायद दीवारें भी पसीज गई होंगी.


मैं सोच रही थी कि कितने प्रसन्न और सुखी थे मेरे पीहर के लोग. मगर अब मेरे भाई का जीवन अंधकारमय हो गया है. अब तो पूरे परिवार का जीवन ही दुख से भर गया है. मूकदर्शिका सी बनी, परिवार की खुशियों को लुटते देख रही थी मैं. अपने भाई की खुशियों को आग में जलता देख कर कौन सी बहन का दिल रो नहीं पड़ेगा. अपर्णा के रोग का एक ही इलाज था आपरेशन. सफल हुआ तो ठीक, नहीं तो अपर्णा अपंग भी हो सकती है. फिर मेरे भैया उस अपंग पत्नी के साथ कैसे जीएंगे? उम्र भर अपर्णा की सेवा में ही जुटे रहेंगे. अब क्या मां के दिन हैं सेवा करने के? पर जो कुछ भी था उस सब के लिए मैं खुद को दोषी मान रही थी.


पहली बार मेरे मन के एक चोर कोने में विचार आया. यदि इस पूरे परिदृश्य से अपर्णा को ही हटा दिया जाए तो सब सही हो जाएगा. आजकल तो लोग बातबेबात तलाक ले लेते हैं और दूसरा ब्याह भी कर लेते हैं, अगर भैया भी ऐसा ही करें तो?


उस दिन मैं मां के कमरे में न जा कर सीधे भैया के कमरे में चली गई थी. भैया अकेले कमरे में बैठे गजलें सुन रहे थे. अपर्णा मां को जूस पिला रही थी. दोनों को अनदेखा कर के मैं भैया के पास जा कर तीखे स्वर में बोली, ‘क्या आप गलत गाड़ी में सिर्र्फ इसलिए सवार रहेंगे कि पहले आप गलती से उस पर चढ़ गए थे और अब सामान समेटने और नया टिकट कटवाने के झंझट से डर रहे हैं?’


भैया शायद मेरा आशय समझ नहीं पाए थे. मैं ने दोबारा कहा, ‘अब भी वक्त है. अपर्णा से तलाक ले लीजिए और दोबारा शादी कर लीजिए.’


कुछ देर तक चुप्पी छाई रही.


‘भैया, विश्वास कीजिए. अपर्णा की मां के छल को मैं समझ नहीं पाई, वरना वह कभी मेरी भाभी नहीं बनती.’


‘कारण जाने बिना तुम भी परिणाम तक पहुंच गईं,’ वह फीकी हंसी हंस दिए,  ‘अपर्णा बहुत अच्छी है. सच बात तो यह है कि वह ब्याह करना ही नहीं चाहती थी पर मां के आगे उस की चली नहीं.’


‘झूठ की बुनियाद पर क्या इमारत खड़ी हो सकती है?’ मेरा मन अब भी अशांत था.


‘झूठ उस ने नहीं, उस की मां ने बोला था, वैसे उन का निर्णय भी गलत  कहां था? हर मां की तरह उस की मां के मन में भी अपनी बेटी को सुखी गृहस्थ जीवन देने की कामना रही होगी. तुम्हारे ब्याह के समय भी मां कितनी चिंतित थीं.’


भैया पुन: बोले, ‘अपर्णा की मां की दशा भी कुछ वैसी ही रही होगी. मानसी, कितना अजीब है हमारे समाज का चलन. बेटी की इच्छाअनिच्छा जाने बिना ब्याह की चिंता शुरू हो जाती है. अधिकांश विवाह लड़की की अनुमति के बिना होते हैं. अपर्णा ने भी विरोध किया था पर उस की एक नहीं चली और अब अपर्णा मेरी पत्नी है. उस का हर सुखदुख मेरा है.’


मैं विस्मित सी अपने भाई का चेहरा निहारती रह गई.


उस दिन के बाद मैं ने उस चौखट पर कदम नहीं रखा. स्वप्निल ने कई बार समझाया, ‘रिश्ते, संयोगवश बनते हैं. तुम्हारे भैया का ब्याह अपर्णा के साथ ही होना लिखा था. इस संबंध में व्यर्थ की चिंता करने से क्या लाभ? जरा सोचो, यही बीमारी उसे ब्याह के बाद होती तब क्या करतीं? और फिर यह रोग, असाध्य नहीं है.’


मैं चिढ़ कर जवाब देती, ‘तब की बात और थी. देखभाल कर कोई मक्खी निगलता है क्या?’


मां अकसर फोन पर अपर्णा की तबीयत के विषय में बताती रहती थीं. एक दिन बोलीं, ‘कल अपर्णा फिर बेहोश हो गई थी. उस की तबीयत देख कर घबराहट होती है. डाक्टरों ने जल्द आपरेशन करवाने की सलाह दी है.’


‘भेज दो उसे मायके. जिस तरह उन लोगों ने हमारे साथ खेल खेला है तुम भी चालाकी से काम लो,’ क्रोध से मेरी कनपटियां बजने लगीं.


‘उन्होंने तो हवाई जहाज की टिकटें भेजी हैं पर अपर्णा खुद ही नहीं जाना चाहती. सच पूछो तो मेरा भी मोह पड़ गया है इस बच्ची में,’ मां ने कहा था.


‘तो, करती रहो सेवा.’


मां निरुत्तर हो जातीं. उन्हें कुछ कहने का मौका ही मैं कब देती थी.


मुझे बारबार मम्मीपापा और भैया पर क्रोध आ रहा था. इस नए युग में एक बीमार बहू के प्रति इतनी आत्मीयता और सहृदयता दिखाने की क्या जरूरत थी.


मेरे मनोभावों से बेखबर स्वप्निल ने मुझे आगाह किया, ‘मानसी, कल अपर्णा को अस्पताल में भरती किया जा रहा है. वैलूर से एक विशेषज्ञ सीमाराम अस्पताल आ रहे हैं. वह आपरेशन करेंगे.’


मैं ने एक बार भी पलट कर उस का हाल नहीं पूछा, बल्कि पीहर फोन ही नहीं किया. अपर्णा के प्रति मेरे मन में छिपा तिरस्कार स्वप्निल बखूबी पहचान रहे थे. एक दिन बुरी तरह झल्लाए मुझ पर, ‘हद होती है रूखे व्यवहार की. एक व्यक्ति जीवनमरण के बीच झूल रहा है और तुम्हारे विचार इतने ओछे हैं कि तुम उस का चेहरा भी देखना नहीं चाहतीं.’


स्वप्निल का मन रखने के लिए मैं एक बार अस्पताल हो आई थी. नाक में आक्सीजन, मुंह में नली, एक बांह में ग्लूकोज, दूसरी बांह में दवाओं की नलिकाएं लगी थीं. मां का सेवाभाव, पापा का दुलार और भैया की आत्मीयता देखते ही बनती थी. एक पल के लिए मुझे तरस भी आया पर अगले ही पल वह भाव घृणा में बदल गया, ‘कितना अच्छा हो अगर अपर्णा की आपरेशन टेबल पर ही मृत्यु हो जाए. कम से कम भैया को तो छुटकारा मिलेगा इस रोगिणी पत्नी से.’


पर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था. कुछ ही दिनों में वह बिलकुल ठीक हो गई. अब वह भैया के साथ गाड़ी में बैठ कर दफ्तर भी जाने लगी थी. पापा अब वृद्ध हो गए थे. वह फैक्टरी कम ही जाते थे. भैया बाहर आर्डर लेने जाते तो अपर्णा घर और फैक्टरी अच्छी तरह संभाल लेती थी. मां को अब भी अस्वस्थता घेरे रहती. बहू से कई बार उन्होंने कहा भी कि एक बार बोट्सवाना घूम आओ पर वह हर बार यही कहती, ‘एक बार आप अच्छी तरह से ठीक हो जाएं, तभी जाऊंगी.’


एक सुबह वह मेरे घर आई. मेरी बिटिया को तेज बुखार था. डाक्टर ने टायफायड बताया था. मैं पूरी रात जाग कर उस के माथे पर बर्फ की पट्टियां रखती रही थी. एक ओर बिटिया की तबीयत को ले कर मैं बुरी तरह तनावग्रस्त थी, दूसरी ओर थकावट की वजह से बुरा हाल था मेरा. उस ने चौके में जा कर पूरा नाश्ता तैयार किया. फिर दोपहर की दालसब्जी तैयार कर के हमारे पास आ कर बैठी तो स्वप्निल दफ्तर की कुछ उलझनें ले कर बैठ गए. अपर्णा चुपचाप सुनती रही. फिर भैया के साथ मिल कर उस ने बहुत मशविरे दिए. उस के सुझावों से स्वप्निल को काफी लाभ हुआ था.


मां का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था. बैठेबैठे सांस फूलने लगती, थकावट महसूस होती, छाती में दर्द उठता. मुझे ये खबरें स्वप्निल से मिलती रहती थीं. वह अकसर मम्मीपापा से मिलने मेरे घर जाया करते थे.


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उस दिन रविवार था. स्वप्निल समय से पहले ही तैयार हो गए थे.


‘कहीं बाहर जा रहे हो?’ नाश्ते की प्लेट डाइनिंग टेबल पर रखते हुए मैं ने पूछा.


‘नहीं,’ उन्होंने रूखे स्वर में उत्तर दिया. फिर चौके में जा कर उन्होंने दूध गरम कर के थरमस में उडे़ला और 4 डबलरोटी के स्लाइस पर मक्खन लगा कर पैक करने लगे. मैं ने अपना प्रश्न फिर दोहराया, ‘कहीं जा रहे हो?’


‘हां, अस्पताल.’


‘क्यों, अब कौन बीमार है? कहीं अपर्णा, फिर तो अस्पताल नहीं चली गई?’ मेरे स्वर की कड़वाहट छिपी नहीं थी.


‘तुम, इतनी कठोर और अहंकारी हो, मैं नहीं जानता था.’


मैं अवाक् उन का चेहरा निहारने लगी.


‘कम से कम, इनसानियत के नाते ही मां का हाल पूछ लेतीं?’


‘क्या हुआ मां को?’ मैं बुरी तरह चौंक उठी थी.


‘2 दिन से अस्पताल में हैं.’


‘क्या तुम जानते थे?’


‘हां.’


‘तो फिर बताया क्यों नहीं?’


‘इसलिए क्योंकि तुम्हारे जैसी पत्थरदिल औरत कभी पसीज ही नहीं सकती. एक इनसान अगर बुरा है तो बुरा है, अच्छा तो वह हो ही नहीं सकता. एक ग्रंथि पाल ली तुम ने अपर्णा के विरुद्ध और इतनी दुश्मनी पाल ली कि मायके से नाता ही तोड़ लिया. कम से कम बूढ़े मातापिता की तो खबर ली होती. जानती हो, तुम्हारी मां का आपरेशन हुआ है और उन्हें खून की जरूरत थी. वह खून अपर्णा ने दिया है. अपर्णा की दशा चिंताजनक बता रहे हैं डाक्टर,’ इतना कह कर स्वप्निल बाहर निकल गए.


कितना गिरा हुआ समझ रही थी मैं खुद को उस पल? बीमार, कमजोर, पराए घर की बेटी, मां की सेवा करती रही, स्नेह बरसाती रही और मैं उन की अपनी बेटी बेखबर बैठी रही.


आज अपने खून का एक कतरा दे कर भी मां की जान बचा सकूं तो खुद को धन्य समझूं, यह सोचती हुई मैं अस्पताल पहुंची. बाहर कोरिडोर में भैया और पापा खड़े थे. स्वप्निल डाक्टरों से परामर्श कर रहे थे. मुझे देखते ही भैया फूटफूट कर रो पड़े.


‘मां कैसी हैं?’ मैं ने उन्हें धीरज बंधा कर आत्मीयता से पूछा.


‘खतरे से बाहर हैं.’


‘और अपर्णा?’ पहली बार मुझे अपर्णा के प्रति चिंतित देख कर सभी के चेहरों पर ताज्जुब मगर संतुष्टि के भाव मुखर हो उठे थे.


‘रक्तचाप गिर गया है बेहोश है,’ पापा अब भी चिंतित थे.


‘उसे क्यों खून देने दिया? ब्लड बैंक से ले लेते.’


‘कहा तो था पर अपर्णा नहीं मानी. बोली, जब उस का खून मैच कर रहा है तो ब्लड बैंक से खून ले कर बीमारियों का खतरा क्यों मोल लिया जाए?’ सभी सन्नाटे में थे. भैया निढाल से बैंच पर बैठे थे. मैं देख रही थी इन लोगों का अपर्णा के साथ बंधन अटूट है. वह वास्तव में इस घर की बहू नहीं बेटी है. मेरा मन उस के प्रति सहानुभूति से भर गया था….


बाहर किसी शोर से अचानक मेरे विचारों का सिलसिला टूटा. जल्दीजल्दी तैयार हो कर मैं अकेली ही अस्पताल पहुंची.


उसी समय डाक्टर ने बाहर आ कर  बताया, ‘‘अपर्णा स्वस्थ है. आप लोग उस से मिल सकते हैं.’’


सब के चेहरे पर संतुष्टि के भाव तिर आए थे. अगर अपर्णा को कुछ हो जाता तो कोई भी खुद को माफ नहीं कर पाता. सब से ज्यादा मैं खुद को दोषी समझती.


भाग कर मैं अपर्णा के बिस्तर पर पहुंच गई और उस के माथे पर चुंबनों की बौछार लगा दी. सभी अचरज से मुझे देख रहे थे. शायद किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरे हृदय के इर्दगिर्द उगा खरपतवार यों एकाएक कैसे छंट गया. आंसुओं से विगलित तीव्र वेदना की धार मुख से निकली, ‘‘अपर्णा, तुम ने मां को जीवनदान दिया है.’’


‘‘नहीं दीदी, जीवनदान तो आप सब ने मुझे दिया है. मैं ने तो केवल अपना कर्तव्य निभाया है.’’


मेरी आंखों की कोर से ढुलके आंसू कब अपर्णा के आंसुओं से मिल गए, मैं नहीं जानती.

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