कहानी: महुए की खुशबू
शहर में जन्में व पलेबढ़े व्यक्ति एक सुदूर गांव के सरकारी स्कूल में अध्यापक के पद पर जौइन करने के लिए पहली बार वहां गए. जैसा सुना व सोचा था, वैसा न था.
पोस्टमैन ने हाथ में पकड़ा दिया एक भूरा लिफ़ाफ़ा. तीसचालीस साल पहले इसे सरकारी डाक माना जाता था. लिफ़ाफ़ा किस दफ़्तर से आया? कोने में एक शब्द ‘प्रेषक’ लिखा दिखाई दे रहा था. आगे कुछ लिखा तो है पर अस्पष्ट है.
सरकारी मोहर ऐसी ही होती थी. उस के मजमून से ही भेजने वाले दफ्तर का पता चलता. उत्सुकता से लिफ़ाफ़ा खोला औऱ खुशी से उछल पड़ा.
सुदूर गांव की प्राइमरी पाठशाला में मुझे शिक्षक की नियुक्ति और तैनाती देने की बाबत आदेश था और अब भूरा सरकारी लिफ़ाफ़ा मुझे रंगीन नज़र आने लगा.
‘गांव की पाठशाला…’ एक पाठ था बचपन में. साथ में अनेक चित्र दिए थे उस पाठशाला के ताकि शहर के बच्चों को पाठ की वस्तुस्थिति सचित्र दिखाई जा सके. वे सभी चित्र अब मेरी आंखों के सामने आ गए…
साफसुथरा स्कूल. छोटा सा मैदान. उस में खेलतेदौड़ते बच्चे. 2 झूले भी, जिन पर बालकबालिकाएं झूलती दिख रही होतीं. वहीं सामने लाइन से बने खपरैल वाले क्लास के 4 कमरे, अंदर जूट की लंबीलंबी रंगीन टाटपट्टियां. ऊपर घनी छांव डालते नीम और आम के पेड़. ध्यान से देखने पर एकदो चिड़िया भी बैठी दिख गईं डाल पर. एक क्लास तो पेड़ के नीचे ही लगी थी.
तिपाये पर ब्लैकबोर्ड था. मोटे चश्मे में सदरी डाले माटसाब पढ़ा रहे थे.स्कूल का घंटा पेड़ की एक डाल से ही लटका था जिसे एक सफेद टोपी लगाए चपरासी बजा रहा होता. ईंटों पर रखा मटका और पानी पीती एक बच्ची.
कक्षा के दरवाज़े से अंदर दिखतेपढ़ाते गुरुजी और ध्यान लगा कर पढ़ते बच्चे. कमीजनिक्कर में लड़के और लाल रिबन लगाए बच्चियां, सब गुलगोथने और लाललाल गाल वाले प्यारेप्यारे.
दूर पीछे गांव के खेत, तालाब और झोपड़ियां दिख रही थीं, जिनके आगे भैंसगाय हरा चारा खा रही होतीं. गांव की तरफ़ एक सड़क मोड़ ले कर आती दिख रही थी. आकाश में सफ़ेद कपास के जैसे उड़ते बादल और साथ में एक पक्षियों की टोली.
शायद हवा पुरवाई चल रही होगी, पर तसवीरों में पता नहीं चलता हवा के रुख का. सरकारी किताब थी, इसलिए सबकुछ ठीकठाक ही नहीं, अत्यंत मनमोहक दिखाना मजबूरी थी चित्रकार की शायद. असलियत दिखा कर भूखे थोड़े ही मरना था.
गांव के स्कूल की वही पुरानी किताबी तसवीरें मन में उतारे मैं बस में बैठ गया. गांव में रहनेखाने का क्या होगा, अख़बार मिलेगा या नहीं, कितने बच्चे होंगे, सहशिक्षक, प्रिंसिपल, क्लर्क, चपरासी आदि सोचते हुए मेरा सिर सीट पर टिक गया था.
‘ए बाबू साहब, मटकापुर आय गवा, उतरो,’ कंडक्टर ने कंधा पकड़ कर उठाया. मेरे एक बक्सा, झोला और होल्डाल ले कर सड़क पर टिकते ही बस धुआंधूल उड़ाती आगे निकल गई.मेरे साथ ही एक सवारी और उतरी थी, एक महिला, उस के साथ 2 बच्चे. उन्हें लेने 2 मर्द साइकिलों से आए थे. एक साइकिल पर बच्चे और दूसरी पर पीछे वह महिला बैठ गई.
मुझे ऐसा आभास हुआ कि महिला साथ आए पुरुष को मेरी तरफ़ इशारा कर के कुछ बता रही थी. पुरुष ने एक उचटती सी नज़र मुझ पर मारी, सिर हिलाया और साइकिल पर बैठ कर पैडल मारता चल दिया.
‘होगा कुछ,’ मैं ने मन ही मन सोचा और रूमाल से चेहरा पोंछ कर चारों तरफ नज़र दौड़ाई. दूरदूर तक गांव का कोई निशान नहीं था. इकलौती पगडंडी सड़क से उतर कर खेतों की तरफ जाती सी लगी. मैं उसी पर बढ़ लिया और मुझे चित्र की ग्रामीण सड़क याद आ गई. पता नहीं वह कौन सा गांव था, यह वाला तो पक्का नहीं था.
कभी इतना बोझा मैं ने उठाया नहीं था. ऊपर से मंज़िल और रास्ते की लंबाई भी अज्ञात थी व दिशा अनिश्चित. तभी सामने से गमछा डाले एक आदमी साइकिल पर आता दिखाई दिया. मैं कुछ कहता, इस के पहले ही वह खुद पास आ गया, साइकिल से उतरा और सवाल दाग दिया, ‘कौन हो, कौन गांव जाए का है?’ गांव में आप को परिचय देना नहीं पड़ता, आप से लिया जाता है.
रास्तेभर में मेरा पूरा नाम, जाति, जिला, पिताजी, बच्चे, परिवार आदि की पूरी जानकारी साइकिल वाले को ट्रांसफर हो चुकी थी. बीसपचीस कच्चे और दोतीन मकान पक्के यानी छत पक्की वाले दिखने लगे. मेरी पोस्टिंग वाला गांव आ चुका था- मटकापुर.
यह वह तसवीर वाला गांव नहीं ही था. समझ आने लगा कि चित्रकार के रंगों का गांव हक़ीक़त से कितना अलग होता है. वह कभी मटकापुर आया नहीं होगा. कूची भी झूठ बोलती है. गांव के स्कूल का नया ‘मास्टर’ आया है, यह ख़बर जंगल की आग बन गांव में फ़ैलने लगी. बड़ेबूढ़े जुटने लगे. कौन हैं, कौन गांव, जिला, पूरा नाम, जाति सब बारबार पूछा और बताया जा रहा था.
मेरे नाम का महत्त्व नाम के साथ दी गई अनावश्यक जानकारी के आधार पर ही लगाया जाने लगा. किसी को समझ आया, कुछ सिर हिला रहे थे, ‘पता नहीं को है, किते से आए.’ ख़ैर, मैं जो भी था, प्रारंभिक आवभगत में कमी नहीं हुई. गांव में जो व्यक्ति मेरी बिरादरी के सब से क़रीब साबित हुए, उन का ही धर्म बन गया मुझे आश्रय देने का. खाना हुआ और सोने के लिए खटिया डाल दी गई.
मैं अनजाने में और घोर अनिच्छा से पहले ही दिन गांव के लोगों के एक धड़े में जा बैठा था. गांव मे न्यूट्रल कुछ नहीं होता. हर आदमी होता है इस तरफ का या दूसरी तरफ या ऊंचा या नीचा. चुनो या न चुनो. एक पाले की मोहर तो लग ही जाएगी, मतलब लगा दी जाएगी आप की शख्सियत के लिफ़ाफ़े पर.
यह मोहर सरकारी वाली नहीं, सामाजिक होती है जो दूर से ही दिख जाती है. इस का छापा जन्मभर का होता है.
एक कमरे पर ताला था, शायद, औफिस होगा. बुजुर्ग ने गर्व से कहा, "देखो माटसाब, कितेक नीक है जे इस्कूल बीसबाइस बच्चा आत पढबे ख़ातिर. दुई माटसाब और हैं.
चाय की तलब बड़ी ज़ोर से उठ रही थी. पास खड़े एक बुजुर्ग से इच्छा बताई और वे पता नहीं कहां से एक पीतल के लोटे में चाय भर लाए और बहुत आग्रह से ग्रहण करने को कहने लगे.
उन से बोला कि मुझे स्कूल ले चलो, तो वे बड़ी खुशी से चल पड़े. छोटा सा गांव एकमुश्त ही दिख गया. दो मिनट बाद ही वे बोले, ‘जेई है तुमाओ इस्कूल.’ मुझे कुछ समझ नहीं आया कि किस घर की तरफ इशारा किया. वे और आगे बढ़े. दो झोपड़ियों के बीच से रास्ता था जो आगे हाते में खुल गया. खपरैल वाले 2 जीर्णशीर्ण कमरे में दरवाज़े थे जिन में पल्ले नहीं थे. खिड़कियों के नाम पर दीवार में छेद भर थे. आगे बरामदा था. न तो वहां पेड़ था न ही हैंडपंप और न ही कोई घंटा लटका था.
“प्राइ…री पाठ ..ला , ..टका पु ..” पीले बैकग्राउंड पर काले रंग से पहले कभी पूरा नाम लिखा गया होगा, पर अब इतना ही बचा था. वक़्त के साथ कुछ अक्षर मिट गए, कुछ शायद बजट की भेंट चढ़ गए. क्लासरूम में कटीफटी दरियां पड़ी थीं. दीवार पर ब्लैकबोर्ड था ज़रूर, पर उस का काला रंग दीवार का सफेद चूना खा गया था. अब यह ब्लैक एंड व्हाइट बोर्ड बन गया था.
एक कमरे पर ताला था, शायद, औफिस होगा. बुजुर्ग ने गर्व से कहा, “देखो माटसाब, कितेक नीक है जे इस्कूल बीसबाइस बच्चा आत पढबे ख़ातिर. दुई माटसाब और हैं. अब आप तीसरे हो गए. आराम से कट जे इते.”
11 बज रहे थे, गरमी तेज़ थी और स्कूल में सन्नाटा पसरा था. तभी एक कुत्ता क्लास से निकल कर मुझे घूरने लगा और अनजान देख गुर्राने भी लगा. बुजुर्ग के पत्थर उठाने की ऐक्टिंग करते ही वह भाग गया, अनुभवी था.
“चाचा, बाकी स्टाफ़ कहां हैं, बुलवाइए ज़रा, मुझे रिपोर्ट करना है ड्यूटी पर.” मुझे यह वातावरण असहनीय लग रहा था, पाठशाला ऐसी भी हो सकती है. इस बीच बुजुर्ग हंस कर बोले, “आइए मेरे साथ, आप को गांव दिखाते हैं.” मैं बेमन से चल पड़ा.
कुछ खुले में आ कर उन्होंने उंगली से इशारा किया और मैं ने उस दिशा में देखा, खेतों में कटाईमड़ाई चल रही थी. सारा गांव ही वहां जमा था. लोगलुगाई, बड़ेबूढ़े. गांव इस समय बहुत व्यस्त था. यह भी पता चला कि दोनों सहशिक्षक भी इसी भीड़ का हिस्सा थे.
मैं ढूंढ रहा था कि स्कूल के बच्चे कहां थे. बुजुर्ग से पूछा, तो उन का जवाब सुन कर चकित रह गया. वे बोले, “बच्चे महुआ बीनने गए हैं. गांव के जमींदार के हाते में महुआ के कई पेड़ इस समय फूलों से लदे पड़े थे. सवेरे से फूलों की बिछायत बिछ जाती है और बच्चे उन्हीं पेड़ों के नीचे काम पर लग जाते हैं.”
यह भी बताया गया कि उन पेड़ों के मालिक-जमींदार ऊंची जाति के थे. गांव का कोई आदमी हाते में घुसने की भी हिम्मत नहीं कर सकता था. फूल उठाना तो दूर की बात. फिर बच्चे कैसे घुस आते थे? मेरा प्रश्न जायज था. पता चला कि जमींदार का मानस कहता है कि बच्चों की जाति नहीं होती, यानी, वे पवित्र होते हैं.
जमींदार की कोई औलाद नहीं थी शायद, इसलिए उस की भावनाओं ने धर्म को अपने हिसाब से परिभाषित कर दिया था. अंतिम सवाल था कि बच्चे महुए का करेंगे क्या? बुजुर्गवार ने मेरी यह जिज्ञासा भी शांत कर दी, “माटसाब, महुआ की शराब भट्टी लगी है गांव के बाहर. बच्चे फूल बीन कर निहोरे को दे आते हैं और वह उस की देसी शराब खींचता है. बदले में, बच्चों को रेवड़ी मिलती है.” मतलब वे यह भी बता गए कि गांव में नशेड़ियों की कमी नहीं थी, जो मेरे लिए एक और बुरी खबर भी थी.
गरीबी में यह नशा मिल जाए, तो घर, बकरी, खेत बिकवा दे, बच्चो की पढ़ाईलिखाई का नंबर तो बाद में आता. मुझे कुछ सोचता देख बुजुर्ग मुसकराए, “वह तो सुधा बहन जी लगी हैं गांव सुधारने में, वरना यह गांव तो कब का शराब की भट्ठी में जल, डूब जाता.”
सुधा बहनजी…मेरे चेहरे पर प्रश्न देख वे बोले, “माटसाब, यह समझिए कि ऊपर वाले ने ही बहनजी को भेजा. वखत पर हम मिलवा देंगे नहीं तो वे खुद्दई फेरा मारती रहती हैं. हो सकता है आप के आने की ख़बर उन को मिल भी चुकी हो. आसपास के गांवों के लोगलुगाई उन्हें ख़ूब जानते व मानते हैं.” मुझे लगा जैसे गांव में कोई तो एक चेतनापुंज था.
बहनजी आसपास की होंगी और खबर लग गई, मतलब, उन का अपना सूचनातंत्र भी विकसित लग रहा था और उन की अपनी एक साख भी गांव में थी, यह भी स्पष्ट हो गया था.
इतनी भद्दर जगह में गांव के लोगों की भलाई के लिए सोचने वाली बहनजी से मिल कर अपने स्कूल के लिए क्याक्या किया जा सकता है, मैं इन विचारों में खोया हुआ उस कमरे पर आ गया जिस में मेरा सामान रखवा दिया गया था. एकडेढ़ दिन की रोटी, अचार, सब्ज़ी का राशन साथ लाया था, वह काम आ गया.
मालिक मकान ने खुले में खटिया डाल कर गद्दा फैला दिया था और पास एक घड़ा व कुल्हड़ भी धर दिया था. गरमी की रातों में तारोंभरा खुला आकाश, चांद, टूटते तारे और स्पुतनिक को आतेजाते देखना मेरे लिए स्वप्निल अनुभव था. चारों तरफ़ से कभी सियार, तो कभी गीदड़ व उल्लू, तो कभी न जाने किस पशु की आवाज़ मेरे कानों में पड़ती रहीं और मैं ठीक से सो नहीं पाया. एक कहावत सुनी थी कि गांव की सुबह और शाम जितनी चित्ताकर्षक होती है उतनी ही दोपहर और रात डरावनी. उस कहावत को सच होते देख रहा था.
महुए की भट्टियां सिर्फ नशा ही नहीं बेच रही थीं बल्कि घरगांव में लड़ाईझगड़े, मारपीट, रोनाधोना मचाए रहने का भी कारण थीं. मजदूरीमेहनत का एक बड़ा हिस्सा निहोरे की जेब में जा रहा था.
तड़के चारों तरफ की हलचल ने मेरी आंख खोल दी. साढे 5 बजे थे, पर लग रहा था जैसे पूरा गांव काम पर लग गया था. गाय भैंसों के तबेले में काफ़ी काम चल रहा था. महिलाएं भी चूल्हेचौके की तैयारी में थीं. कहीं हैंडपंप चल रहा था तो कहीं कुओं से पानी खींचा जा रहा था. कोई कपड़े धो रहा था तो कोई मिट्टी से पीतल के बरतन रगड़ रहा था. गांव जाग चुका था.
मैं भी लोटा ले कर खेत हो आया. आदत नहीं थी आड़ देख कर खुले में बैठने की. अपने घर, कसबे और गांव का अंतर मुझे दिखने लगा और पहली बार मुझे लगा कि इस वातावरण में खुद को ढालने के लिए खासी मेहनत ही नहीं, बहुत सारा त्याग भी करना पड़ेगा. उस पुस्तक वाले चित्रकार के चित्र में लोटा, आड़ थोड़ी न दिखाया गया था.
कुंए पर पहली बार पानी ख़ुद खींच कर स्नान कर के कपड़े पहन कर रेडी होते ही चाय की तलब ने अपना काम करना शुरू कर दिया था. जीभ चाय का जुगाड़ ढूंढने लगी थी. पर गांव में कोई होटल नहीं था. इधरउधर देखा, बेचैनी बढ़ती जा रही थी.
तभी वही कल वाले बुजुर्ग आते दिखाई दिए और अभिवादन कर आत्मीयता से निकट आ बैठे, “’और सुनाओ माटसाब, कैसी रही रात, कौनो दिक्कत?” के साथ ही उन्होंने किसी राधे को आवाज़ दी जो कुंए पर कपड़े पटक रहा था. राधे कपड़े वैसे ही छोड़ कर पास आ गया.
बुजुर्ग उस से बोले, “जल्दी से नहा लेयो और दिनभर माटसाब के साथ रहो काहे से कि आज इन का पहला दिन है. अब जे गांव में रहेंगे, यहीं. कौनो दिक्कत न होय के चाही समझे, जाओ चाय ले आओ पहले.” राधे तुरंत बोला, “आप बैठा, हम गुड़ की चाय बनाये लात.”
बुजुर्ग ने मेरा चार्ज जवान राधे को सौंप दिया था. बुजुर्ग कुछ देर उसे अलग ले जा कर समझाते रहे और मुझ से विदा लेते हुए बोले. “हम इसे सहेज दिए हैं आप को. जो चाहिए, इसे बता दीजिए. अपना आदमी है.” मैं ने झुक कर बुजुर्ग का आभार माना. वे हंसते हुए खेतों की तरफ़ चले गए.
मुझे कुछ रिलैक्स फील हुआ कि चलो, मैं अकेला नही हूं और लोग जुड़ते जा रहे हैं. राधे कुछ ही देर में आ गया और हम दोनों खेतों की तरफ़ निकल पड़े. अभी 8 ही बजे थे. स्कूल तो 10 बजे खुलना था.
ज़ाहिर था कि ये खेत बुजुर्ग के ही थे. राधे सब बताता चल रहा था- कौन तिकड़मी है, कौन सज्जन, कौन नेता है और कौन सरपंच. प्रधानजी, पटवारीजी, पेशकारजी, पुलिस चौकी के मुंशी जी, दारोगा जी, वक़ील साहब, फौजदारी-दीवानी तहसील, ब्लौक दफ़्तर, नहर दफ़्तर, बिजली औफिस, मंडी, आढ़त और पता नहीं क्याक्या…राधे की बातें चलती ही जा रही थीं.
गांव का वह बाल पुस्तक चित्र अब स्वच्छता छोड़ छींटदार होता जा रहा था और अचानक चित्र के रंग मुझे उतने चटक नहीं लग रहे थे. अब मुझे यह भी लगा कि गांव शब्द चित्र को शहरी बच्चों के मन में अतिशुद्ध रूप में ही दिखाया गया था.
हम दोनों बात करते हुए एक खाद की दुकान के सामने आ खड़े हुए, जिस के बाहर एक टप्पर में चाय बनती दिखाई दी. चाय में शक्कर डलते देख मेरी जान में जान आई क्योंकि सवेरे वाली गुड़ की चाय से मेरा मूड और मुंह कसैले हो गए थे. सुनी तो थी पर गुड़ की चाय आज पी पहली बार. पर 2 कुल्हड़ शक्कर वाली चाय पीने से लगा जैसे जीभ पर चीनी चिपक गई हो. कुल्ला कर के जब हैंडपंप का खारा पानी पिया तब जा कर राहत महसूस हुई.
अचानक खाद की दुकान का शटर उठने की घड़घड़ाहट ने मेरा ध्यान खींचा. एक सज्जन दुकान खोल कर अंदर जाने की तैयारी कर रहे थे. उन्हें देखते ही लगा कि इन्हें अभीअभी कहीं देखा है. राधे ने ‘प्रसाद बाबू’ आवाज़ दे कर उन्हें बुलाया. प्रसाद बाबू ने राधे के साथ मुझ अजनबी को देख हम दोनों को दुकान में आने का इशारा किया.
“आप तो कल ही बस से उतरे थे न तिगाला पर?” ओहहो, तो मेरे आने की ख़बर फैल चुकी थी. गांव का सूचनातंत्र इतना चुस्त होता है, आज आंखों से देख लिया. बातचीत में अनोखी बातें पता चलीं. ये सज्जन मेरे स्कूल में ही सहायक शिक्षक थे. बगल के गांव में रहते थे. ख़ुशी हुई अपने एक सहकर्मी से मिल कर, पर इस वक़्त तो उन्हें स्कूल के लिए तैयार होना था, हालांकि, वे खाद भंडार खोल रहे थे…
दुसरी खबर जो उन्होंने दी, उस ने मुझे चौंका दिया. मेरे कल सवेरे बस से उतरने की ख़बर उन्हें कल दोपहर को मिली थी सुधा बहनजी से. ये बहनजी के गांव के ही थे जो आधे कोस पर था. सुधा बहनजी को खबर लग चुकी होगी, कल ही मुझे बताया गया था, यह बात सही निकली. कौन हैं ये सुधा बहनजी? मैं उत्सुक हो चला.
“आप नाश्ता कर लीजिए, मिलते हैं स्कूल में,” बोल कर वे दुकान की गद्दी सहेजने लगे और मैं व राधे सड़क पर निकल गां की तरफ चल पड़े. मुझे यह समझते देर न लगी कि स्कूल की नौकरी यहां साइड बिजनैस था. स्कूल की नौकरी पर गए, नहीं गए, सब चलता है. घर की दुकान छोड़ कर कोई नौकरी करता है क्या?
राधे मुझे स्कूल में छोड़ कर चला गया और मैं स्कूल का चक्कर मार कर एक क्लासरूम में आ गया. ज़मीन पर बिछी बेतरतीब दरियों को झटक कर उन पर जमीं धूल उड़ाई और आलों में रखी अगड़मबगड़म चीजों की साफसफाई में जुट गया. दीवारों पर मकड़ी के जाले लगे पड़े लटक रहे थे और पूरे फर्श पर किताबकौपियों के पन्ने, टूटी पैंसिल, चाक, और बकरी व कुत्ते की लीद भी बिखरी पड़ी थी. गंदगी देख कर मुझे जनून सा चढ़ गया कि क्लासरूम को आज साफ कर के ही रहूंगा. मेरे स्कूल में आने का असर कम से कम यह ख़ाली कक्षा ही देख ले.
“नमस्ते जी, मैं सुधा.” मेरे पीछे एक महिला की आवाज़ सुनाई दी और मैं मुड़ कर देखने लगा. औसत ऊंचाई और मध्यम कदकाठी की महिला दरवाज़े पर हाथ जोड़े खड़ी थी. मेरे हाथ में झाड़ू देख वह मुसकरा उठी और मैं थोड़ा झेंप कर उस के सामने आ कर खड़ा हो गया. अभिवादन के बाद परिचय हुआ और अचानक मुझे ध्यान आया कि महिला तो वही थी जो कल बस से उतरते ही दिखी थी और मेरे बारे में किसी को कुछ बता रही थी.
वह भी मुझ से यही बोली कि कल देखते ही वह समझ गई थी कि यह परदेसी व्यक्ति गांव के स्कूल का नया टीचर ही होना चाहिए. हम दोनों के बीच वातावरण सहज हो चला था. उस ने मेरी पूरी जानकारी ली और अपना बताना शुरू किया.
वह पड़ोस के गांव में ही रहती थी और ख़ुद से ही गांव की महिलाओं की भलाई के लिए कुछ अच्छा करने के विचार से उन्हें संगठित करने का प्रयास कर रही थी.
गरीब और अनपढ़ महिलाओं के समूह बनाने का कार्य उस ने लगभग 2 वर्ष पूर्व शुरू किया था. धीरे-धीरे गांव की महिलाओं का आनाजाना शुरू हुआ और समूह एक मनोरंजन व मिलनेजुलने का केंद्र बन चला जहां चूल्हेचौके, सिलाईबुनाई की बातों के अलावा नियमित अति लघु बचत की बात भी सुधा जी क़रतीं.
हर महीने एक बैठक होती, जिस में हर महिला 5 या 10 रुपए एक टिन के डब्बे वाली गुल्लक में डालती और सुधा जी एक कौपी में सब का हिसाबखाता लिखती जातीं. गुल्लक में अब तक दोएक हज़ार रुपए जमा हो चुके थे जिसे महिलाओं को अतिलघु ऋण राशि यानी सौपचास रुपए के रूप में दिया जा रहा था जिस से वे कभी डलिया, बरतन खरीदतीं तो कभी झोपड़ी ठीक करवातीं.
सुधा जी का यह महिला समूह, लघुतम बैंक, आसपास काफ़ी लोकप्रिय हो चला था. उन के पति आयुर्वेद के डाक्टर थे. घर में ही दवाखाना था. सस्ती व कारगर दवाइयां देने की वजह से उन का भी इलाके में नाम था. घर की खेतीबाड़ी थी, सो, कोई आर्थिक दिक्कत नहीं थी.
उन के दोनों बच्चों के नाम मेरे ही स्कूल में लिखे थे. पर पढ़ाईलिखाई ख़ास न होने से सुधा जी दुखी थीं. मुझे समझते देर न लगी कि एक मां अपने बच्चों की शिक्षा की आशा लिए भी मेरे पास आई थी. उन्होंने बताया कि उन के 2 वर्षों के ज़मीनी कार्य के अब अच्छे सकारात्मक परिणाम मिलने लगे थे और अब उन के लिए 2 मुख्य कार्य करने ज़रूरी थे. पहला कार्य, महिला समूह शक्ति के द्वारा गांव में लगी महुआ शराब की भट्टियों को हटाना और दूसरा, गांव के बच्चों को नियमित स्कूल भेजना ही नहीं बल्कि उन्हें वहां तीनचार घंटे बैठाना ताकि वे क़ायदे से पढ़ने की आदत डाल सकें.
ध्यान से देखने पर पता चल ही गया था कि दोनों बातों का आपस में गहरा संबंध था. सुधा जी के साथ हुई लंबी वार्त्ता ने मेरे अंदर उत्साह का संचार किया. मैं समझ गया कि अब आने वाले समय में हम दोनों को मिल कर कार्य करना होगा ताकि इस विद्यालय की शक्ल-सूरत ही नहीं, बल्कि सीरत भी बदल सके.
महुए की भट्टियां सिर्फ नशा ही नहीं बेच रही थीं बल्कि घरगांव में लड़ाईझगड़े, मारपीट, रोनाधोना मचाए रहने का भी कारण थीं. मजदूरीमेहनत का एक बड़ा हिस्सा निहोरे की जेब में जा रहा था जिस की वजह से गांव के बच्चों पर विपरीत असर पड़ रहा था.
सच तो यह भी था कि कुछ बच्चे भी महुए का नशा करने लगे थे. यह सब तुरंत रोकने की ज़रूरत सभी को लग रही थी पर बिल्ली के गले में घंटा बांधे कौन वाली बात थी. गांव मे फैली महुए की नशीली खुशबू को खत्म करने के लिए स्थानीय महिलाओं का लामबंद होना ज़रूरी था और यह कार्य सुधा जी ने बख़ूबी अपने हाथों में ले लिया था.
कसर थी तो बस विद्यालय से मदद मिलने की जो उन्हें अब तक मिल नहीं पाई थी क्योंकि यहां के वातावरण में भी स्थानीय महुआ घुलमिल चुका था. मेरा परदेसी होना सुधा जी को और उन का स्थानीय होना मुझे, इस मिशन के लिए वरदान ही लगा. महुए की क्यारी को हटा कर ज्ञान के केसर की पौध लगाने के लिए उचित मौसम की ज़रूरत थी जो अब बदलने वाला था.
समय बीत चला और मैं गांव के रहनसहन में ढल चला था. धीरेधीरे मेरी संगत बढ़ने लगी और मेरे दोनों सहकर्मी भी हमारे साथ जुड़ गए. सरकारी बजट का धन सही दिशा में लगने लगा. स्कूल के प्रांगण अब गुलज़ार हो चले थे और बच्चों की आमद में भारी इज़ाफ़ा हुआ. स्कूल में घंटा भी लग गया और तिपायी पर बड़ा सा मटका भी आ टिका और स्कूल का नाम भी नए पेंट से रंग दिया गया.
कुछ ही महीनों बाद स्कूल के मैदान में झूले भी लग गए. बचपन के उस कलाकार ने गांव के स्कूल का जो चित्र मनमस्तिष्क में चिपका दिया था, अब आंखों के सामने साकार हो चला था. सुधा जी की जीवटता के कारण स्थानीय प्रशासन भी साथ आया और महुए की भट्टियां जमींदोज हो गईं.
सुधा जी के कानों में मैं ने एक मंत्र और फूंक दिया, मुफ़्त प्रौढ़ शिक्षा का, जिसे सुनते ही उन्होंने महिला समूहों को इस का आधार बनाने की बात कर के मेरे मन की बात कर दी.
बच्चे हों या बड़ेबुजुर्ग, सभी को जातिधर्म, अगड़ेपिछड़े की दुर्गंध वाली महुए की भट्टी से निकाल कर शिक्षा व ज्ञान की ताज़ी हवा में लाने की इच्छा अब हक़ीक़त बनती नज़र आने लगी थी. नन्हें बच्चों की फ़ितरत तो केसर के फ़ूलों की तरह खिलने और सुगंधित होने की थी, महुए के फूल की शराब बन गंधाने की नहीं.