कहानी: मां, तुम गंदी हो
आगे की पंक्तियां शेखर के कानों में नहीं पड़ीं. पहली पंक्ति ही बदली बन कर उस के मन के आकाश में बारबार उमड़नेघुमड़ने लगी.
कहीं दूर रेडियो बज रहा था. हवा की लहरों पर तैरती ध्वनि शेखर के कानों में पड़ी.
मन रे, तन कागद का पुतला, लागै, बूंद बिनसि जाइ छिन में, गरब करै क्यों इतना.
शेखर पहचान गया कि यह कबीरदास का भजन है. जीवन की क्षणभंगुरता को जतला रहा है. कौन नहीं जानता कि जीवन के हासविलास, रागरंग और उल्लास का समापन अंतिम यात्रा के रूप में होता है, फिर भी मनुष्य का पागल मन सांसारिक सुखों के लिए भटकना नहीं छोड़ता.
कुछ मिल गया तो खुशी से बौरा जाता है. कुछ छिन गया तो पीड़ा से सिसक उठता है.
यही पुरानी कहानी हर बार नई हो कर हर जिंदगी में दोहराई जाती है. उस का खुद का जीवन इस का एक उदाहरण है.
ऊंची नौकरी, नंदिता के साथ विवाह और निधि का जन्म. ये जीवन के वे सुख हैं जिन्हें पा कर वह खुशी से बौरा उठा था. फिर एक दुर्घटना में सदा के लिए अपाहिज हो जाना, नौकरी छूटना और बेटी को साथ ले कर पत्नी का घर छोड़ जाना वे दुख हैं जिन्होंने दर्द की तीखी लहर उस के सर्वांग में दौड़ा दी.
अनायास ही शेखर की आंखों में दो बूंद आंसू झिलमिला उठे. जब से तन जर्जर हुआ है, मन भी न जाने क्यों बेहद दुर्बल हो गया है. तनिक सी बात पर आंखें भर आती हैं. यह सच है कि पुरुष की आंखों में आंसू अच्छे नहीं लगते लेकिन क्या किया जाए.
जिस का सब कुछ लुट गया है, ब्याहता पत्नी तक ने जिसे छोड़ दिया है, उस एकाकी पुरुष की वेदना नारी की प्रसव पीड़ा से कम भयंकर नहीं. वह तो कहो कि अम्मां जिंदा थीं वरना…
शेखर के मुंह से एक ठंडी सांस निकल गई. सिरहाने बैठी अम्मां नीचे झुक कर मृदु स्वर में बोलीं, ‘‘कुछ चाहिए, बेटा?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘थोड़ा दूध लाऊं? सुबह से तुम ने कुछ नहीं खायापिया है.’’
‘‘निधि के आने पर खाऊंगा पर नंदिता ने निधि को भेजने से इनकार कर दिया तो?’’
‘‘इनकार कैसे करेगी? पड़ोस के मनोहरजी अदालत का हुक्मनामा ले कर गए हैं. पुलिस के 2 सिपाही साथ हैं. वे लोग अब आते ही होंगे.’’
‘‘उफ, कैसी विडंबना है कि बाप को अपनी बच्ची से मिलने की खातिर अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा है, पुलिस भेजनी पड़ी है. अगर कहीं जज साहब भी नंदिता की तरह तंगदिल होते तो मुझे अपनी आखिरी इच्छा को मन में लिए हुए ही दुनिया से जाना पड़ता,’’ यह कह कर शेखर ने एक ठंडी सांस खींची.
अम्मां कुछ नहीं बोलीं. चुपचाप बेटे के कमजोर चेहरे पर अपना झुर्रियों भरा हाथ फिराती रहीं.
वर्षों से गुमसुम हो चुका शेखर आज न जाने क्यों इतना बोल रहा था. नंदिता के चले जाने के बाद उस ने ‘हां’ ‘हूं’ के अलावा कोई बात ही नहीं की थी. उस की बोलने की इच्छा ही जैसे मर गई थी. अब तो यह हाल हो चुका है कि चाहने पर भी वह बातचीत नहीं कर पाता.
कमजोरी इतनी हो गई है कि पूरी ताकत लगा कर बोलने पर भी चिडि़या की तरह ‘चींचीं’ से ज्यादा तेज आवाज नहीं निकलती. उस को सुनने के लिए अम्मां को झुक कर उस के मुंह के पास अपना कान ले जाना पड़ता है.
वैसी ही धीमी आवाज में वह बोला, ‘‘बड़ी गलती हो गई अम्मां जो नाई को बुलवा कर दाढ़ी नहीं बनवा ली. जरूर मेरा चेहरा भयानक लगता होगा. निधि बच्ची है, देख कर डर जाएगी.’’
‘‘लेकिन अब वे लोग आते ही होंगे. नाई को बुलाने का समय नहीं बचा है,’’ अम्मां ने जवाब दिया.
शेखर ने आंखें मूंद लीं. 4 साल पहले देखी बिटिया की छवि याद करने लगा. बच्ची का मुसकराता चेहरा ही तो वह औषध था जिस के सहारे इस लंबी बीमारी को उस ने काटा था. तकिए के नीचे संभाल कर रखा बेटी का फोटो निकालनिकाल कर इतनी बार देखा था कि फोटो की हर रेखा मन में पूरी तरह उतर गई थी.
लंबी बीमारी में पुरानी यादें रोगी की अनमोल थाती होती हैं. बीते हुए दिनों की सुहानी याद उस के घायल मन पर मरहम का काम करती है. यदि यह सहारा न हो तो आदमी पागल हो जाए. अकेले पड़ेपड़े छत और दीवारों को कोई कितनी देर देख सकता है.
हर सुबह खिड़की से जब धूप का पहला टुकड़ा भीतर घुसता था तो शेखर यह कल्पना करता था कि निधि दबेपांव भीतर घुस रही है. यह कल्पना बड़ी मधुर होती थी पर कल्पना आखिर कल्पना थी. यथार्थ से उस का क्या संबंध. संयोग से आज जीतीजागती निधि इस कमरे में आएगी. जाड़े की सुहानी धूप की तरह कमरे को उजास से भर देगी.
शेखर के पपडि़याए होंठों पर हलकी सी मुसकान दौड़ गई.
तभी अचानक अम्मां उठते हुए बोलीं, ‘‘लगता है वे लोग आ गए,’’ फिर वह उठ कर दरवाजे पर गईं. वहीं उन्होंने मनोहरजी से पूछा, ‘‘किसी ने इसे भेजने में आनाकानी तो नहीं की?’’
‘‘सरकारी हुक्म की तौहीन करने की जुर्रत कौन कर सकता है? लेकिन इतना तय है कि मुहलत सिर्फ 8 घंटे की है,’’ मनोहरजी ने जवाब दिया.
‘‘8 घंटे तो बहुत हैं. बाप के तड़पते सीने में इसे देखते ही ठंडक पड़ जाएगी,’’ कहते हुए अम्मां ने 7 साल की पोती को सीने से चिपका लिया और भीगी आंखें पोंछ कर उसे साथ लिए भीतर आ गईं. आ कर देखा कि शेखर की दोनों आंखों से आंसुओं की धाराएं बह कर दाढ़ी के जंगल में समा रही हैं.
अम्मां ने प्यार से झिड़का, ‘‘बेटा, अब आंसू मत बहा. बच्ची सहम जाएगी. कितने इंतजार के बाद तो इसे देख सका है तू. पास बैठ कर बातचीत कर.’’
शेखर लटपटाती जबान से बोला, ‘‘तुम ने मुझे पहचान लिया, बेटी?’’
मुंह खोलते ही सामने के 2 टूटे दांतों की खाली जगह नजर आई. लंबी, कष्टदायक बीमारी ने उसे 35 वर्ष की आयु में ही बूढ़ा बना दिया था. सचमुच उस का चेहरा काफी विकृत और भयानक लगने लगा था.
निधि बड़े धैर्य से रोगी के सिरहाने बैठ गई. उस की आंखों में न भय था, न जान छुड़ा कर भागने की छटपटाहट. मीठी आवाज में बोली, ‘‘पहचानूंगी क्यों नहीं? आप मेरे पापा हैं.’’
शेखर तो जैसे निहाल हो गया. जल्दीजल्दी अपने कमजोर हाथों से बच्ची को स्पर्श करने लगा. पितापुत्री के इस भावविह्वल मिलन को अम्मां न देख सकीं. उधर से मुंह घुमा लिया उन्होंने और आगे बढ़ कर अलमारी से एक खूबसूरत कीमती गुडि़या निकाल लाईं. उन्होंने यह कल ही बाजार से मंगवाई थी.
निधि ने गुडि़या की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा. 7 साल की उस बच्ची में न जाने कहां से इतनी समझ आ गई थी कि उस के भोले बाल मन ने भावी अमंगल को सूंघ लिया था. जैसे संयोग से हासिल हो जाने वाले पिता के दुर्लभ प्यार का वह एकएक क्षण आत्मसात कर लेना चाहती थी.
अपने हाथों से उस ने शेखर को एक प्याला दूध पिलाया. किसी कुशल परिचारिका की तरह एकएक चम्मच दूध पिता के मुंह में डालती रही. फिर तौलिया उठा कर बड़ी सफाई और जतन से मुंह पोंछ दिया.
वह एक मिनट भी पिता के पास से हिली नहीं. दादी का दिया साग, परांठा भी उस ने वहीं बैठ कर खाया. अपने नन्हेनन्हे कोमल हाथों से वह पिता का सिर दबाती रही. बैठेबैठे अपने स्कूल की, अपनी सहेलियों की, अपने खिलौनों की ढेरों बातें सुनाती रही. उस ने पिता को अंगरेजी और हिंदी के शिशु गीत भी बड़ी लय में सुनाए. पिता को थका जान कर उस ने पिता से कुछ देर सोने का अनुरोध भी किया.
अम्मां वहीं जमीन पर चटाई बिछाए आराम करती रहीं. जितनी बार वह शेखर को दवा पिलाने उठतीं, निधि उन के हाथ से दवा ले लेती और पिता को खुद दवा पिलाती. कौन कह सकता था कि यह लड़की 4 साल बाद अपने पिता से मिली है.
वक्त गुजरता गया. 8 घंटे पलक झपकते बीत गए.
‘‘चलो, निधि,’’ सख्त आवाज में दिया यह आदेश सुन कर शेखर के कमरे में सब चौंक पड़े. नंदिता अपने बड़े भाई दीपक के साथ दरवाजे पर खड़ी हुई थी.
निधि ने घबरा कर पिता की कमजोर कलाई मजबूती से पकड़ ली, ‘‘मैं नहीं जाऊंगी. यहीं पापा के पास रहूंगी.’’
‘‘चलोगी कैसे नहीं?’’ कहते हुए दीपक ने उसे झपट कर गोद में उठा लिया और उस के रोनेमचलने की परवा किए बिना उसे ले कर चल दिया.
पल भर तो कमरे में मौत की सी खामोशी छाई रही. फिर शेखर की करुण हंसी उभरी जो रोने जैसी लग रही थी. वह बोला, ‘‘अम्मां, बेकार ही निधि को बुलवाया, आखिरी समय में मेरे मन में मोह जगा गई है. सालों अकेले पड़ेपड़े संन्यासी की तरह दुखसुख से ऊपर हो गया था. मन में कोई चाह ही बाकी नहीं रही थी लेकिन अब चाहता हूं कि 10-5 दिन और जिंदगी मिल जाए जिसे निधि के साथ गुजार सकूं. तब चैन से प्राण निकलेंगे.’’
‘‘इस बात को भूल जाओ, बेटा. वह अब तुम्हें देखने को भी नहीं मिलेगी. उस की तरफ से अपना मन हटा लो,’’ अम्मां ने कांपते स्वर में समझाया.
‘‘सच कहती हो अम्मां,’’ एक ठंडी सांस ले कर शेखर बोला.
पर कहने से ही क्या बच्ची को भूला जा सकता था. वह ध्यान हटाने की जितनी कोशिश करता, बच्ची मानस पटल पर उतनी ही शिद्दत से छा जाती. लगता, जैसे झुक कर पूछ रही हो, ‘पापा, आप को संतरे की एक फांक छील कर और दूं?’
खींच कर ले जाते वक्त कैसी मचल रही थी, ‘मैं अपने पापा के पास रहूंगी. मुझे यहां से मत ले जाओ.’
अपने घर जा कर निधि पांव पटकते हुए मचल गई, ‘‘हांहां, मैं अपने पापा के पास रहूंगी. मुझे वहां से क्यों ले आए तुम लोग?’’
नंदिता ने खिसिया कर उस के गाल पर एक तमाचा जड़ दिया, बोली, ‘‘पापा के पास लड्डू मिल रहे थे तुझे. घंटों से उसी एक बात को रटे जा रही है. दिमाग खराब कर दिया है मेरा.’’
दरवाजे के पास आ कर दीपक ने गंभीर स्वर में समझाया, ‘‘बच्ची के साथ तुम भी बच्ची मत बनो नंदिता. उसे प्यार से समझाबुझा कर चुप कराओ. मारनेपीटने से कुछ नहीं होगा.’’
दीपक चला गया तो नंदिता पल भर खामोश रही. फिर उस ने बेटी की पीठ पर प्यार से हाथ फेरा, बोली, ‘‘अच्छे बच्चे जिद नहीं करते हैं. तुम तो बहुत अच्छी बिटिया हो. आंसू पोंछ कर दूध पी लो. देखो, कितनी रात हो गई है.’’
‘‘मैं क्यों तुम्हारा कहना मानूं? तुम ने भी तो मेरा कहना नहीं माना है. जबरदस्ती मुझे ले आईं वहां से. मेरा मन क्या अपने पापा के पास रहने को नहीं होता? निशा, गौरव, सोनू सब बच्चे अपने मम्मीपापा के घर रहते हैं. मैं नानी के घर क्यों रहूं?’’ निधि ने हिचकियां लेते हुए मान भरे स्वर में कहा.
नंदिता समझ नहीं पा रही थी कि बच्ची को क्या कह कर बहलाए. पर उसे बहलाना जरूरी था. वह हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘देखो बेटे, बात यह है… असल में तुम्हारे पापा बीमार हैं. वहां रहने से तुम्हारी पढ़ाईलिखाई कुछ नहीं हो सकती थी. उन की बीमारी कब तक चलेगी, इस का कोई ठीक पता नहीं. रातदिन बीमार आदमी के साथ कहां तक रहा जा सकता था? हमारी भलाई इसी में थी कि हम यहां आ जाते.’’
‘‘छि:, मां, तुम कितनी गंदी हो,’’ नफरत भरे स्वर में निधि बोल पड़ी.
‘‘क्यों?’’ नंदिता ने पूछा.
‘‘गंदी न होतीं तो ऐसी बात नहीं सोचतीं. तुम से हजार गुना अच्छी दादी हैं जो बीमार पापा की देखभाल कर रही हैं. मैं अब उन्हीं के पास रहूंगी. तुम इतनी मतलबी हो कि बीमारी में मुझे भी छोड़ सकती हो. दादी कम से कम मुझे छोड़ेंगी तो नहीं,’’ निधि की आवाज में नफरत और डर दोनों थे.
नंदिता सहम गई. उसे लगा जैसे मासूम बच्ची ने उसे निरावरण कर दिया है. बेटी की परवरिश तो एक बहाना थी. क्या सचमुच अपने स्वार्थ की खातिर वह रोगी पति को नहीं छोड़ आई थी.
उस के कानों में 4 वर्ष पहले की वे बातें गूंजने लगीं जो मां और भैया ने उस से कही थीं.
‘अभी तेरी उम्र ही क्या है? महज 22 साल. न जाने जिंदगी कैसे कटेगी?’
‘जीवन भर अपाहिज पड़े रहने से तो मरना भला था. अगर शेखर इस दुर्घटना में मर जाता तो उसे भी मुक्ति मिलती और घर वाले भी एक बार रोपीट कर सब्र कर लेते.’
‘भई, मरने वाले के साथ मरा तो जाता नहीं है. शेखर के लिए तू कहां तक खुद को तबाह करेगी?’
‘अपनी न सही, अपनी बच्ची की फिक्र कर. उस की पढ़ाईलिखाई की बात सोच. यहां रह कर वही एक बीमारीपुराण चलता रहेगा.’
‘साल 2 साल की बात हो तो धीरज से मरीज की सेवा भी की जाए. शेखर 4-6 साल भी जी सकता है और 15-20 साल भी. उस की जिंदगी की डोर अगर लंबी खिंच गई तो तू कहीं की नहीं रहेगी.’
नंदिता के कानों में हर रोज यही मंत्र फूंके गए थे. उस के स्वार्थ और कर्तव्य भावना में कुछ दिन संघर्ष चला था. आखिर स्वार्थ ही जीता था पर छोटी सी बच्ची ने आज बता दिया कि दुनिया स्वार्थ से नहीं त्याग से चलती है. स्वार्थ के वशीभूत हो कर राम को वनवास दिलाने वाली कैकेयी भी क्या बाद में अपने कुकृत्य पर नहीं पछताई थी.
नंदिता का मन भी उसे धिक्कारने लगा. वह अपराधबोध से भर कर बोली, ‘‘सचमुच मैं ने बहुत बड़ी भूल की है. मुझे माफ कर दो बेटी. मैं वादा करती हूं कि कल सुबह तुझे साथ ले कर तेरे पापा के पास चलूंगी और अब हमेशा वहीं रहूंगी.’’
‘‘सच कह रही हो, मां?’’ निधि ने चहक कर पूछा. उस की आवाज में खुशी भी थी और अविश्वास भी.
‘‘बिलकुल सच,’’ नंदिता ने भर्राए स्वर से उत्तर दिया.
मां के आश्वासन पर निधि दूध पी कर सो गई. नंदिता की आंखों के सामने कभी शेखर का विवाह के वक्त का हंसमुख चेहरा घूमता तो कभी दुर्घटना के बाद का मुर्झाया चेहरा. वह मुर्झाया चेहरा नंदिता से बारबार कह रहा था, ‘तुम ने मुझ से किस बात का बैर निकाला था, प्रिय? जीवन भर साथ निभाने का वादा कर के मुझे अकेला छोड़ गईं. यही दुर्घटना यदि तुम्हारे साथ घटी होती और मैं ने तुम्हें अकेला छोड़ दिया होता तो? तो तुम पर क्या गुजरती?’
‘मैं भी इनसान था. मेरे सीने में भी एक धड़कता हुआ दिल था. मुझे अकेला छोड़ते हुए तुम्हें तनिक भी तड़प नहीं हुई. अकेले पड़ेपड़े तुम्हें न जाने कितनी आवाजें दीं मैं ने. उन में से एक भी तुम्हारे कानों में नहीं पड़ी?’
‘अपने जीवन के लिए मुझे एक ही उपमा याद आ रही है… पतझड़ की सूनी शाख. वसंत में जो डाली फूलों से लदी हुई थी वह पतझड़ में बिलकुल वीरान पड़ी है. खैर, अकेलेपन से क्या डरना. आदमी अकेला ही दुनिया में आया है और अकेला ही जाएगा.’
‘बंधुसंबंधी अधिक से अधिक श्मशान तक उस का साथ निभा सकते हैं. तुम ने वह भी नहीं निभाया. जिंदगी के सफर में बीच रास्ते में साथ छोड़ गईं. परंतु अब मैं उस मोड़ पर पहुंच गया हूं जहां सारे गिलेशिकवे खत्म हो जाते हैं. यकीन मानो, मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है.’
नंदिता की आंखों से आंसू बरसने लगे. हृदय में ग्लानि का ज्वार उमड़ने लगा. उधर रात भी आहिस्ताआहिस्ता ढलने लगी.
भोर की पहली किरण के साथ वह उठ खड़ी हुई. किसी को कुछ बताए बिना वह निधि को साथ ले कर घर से निकल पड़ी. रिकशा जब ससुराल की गली के मोड़ पर पहुंचा तो सूरज निकल आया था.
रिकशा वाले को पैसे दे कर नंदिता ने बेटी की उंगली थामी और आगे बढ़ी. तभी दिल को चीरने वाला रुलाई का स्वर कानों से टकराया. निधि और नंदिता दोनों ने अम्मां की आवाज पहचान ली. आवाज उसी मकान से आ रही थी जहां एक दिन नंदिता मांग में सिंदूर सजाए डोली में चढ़ कर पहुंची थी. रात को निधि ने नफरत भरी आवाज में कहा था, ‘मां, तुम गंदी हो.’
नंदिता को महसूस हुआ जैसे यही वाक्य हर ओर से उस पर लांछन बन कर बरस रहा है, ‘तुम गंदी हो.’
हथेलियों से चेहरा ढांप कर वह रो पड़ी पर इन खारे मोतियों का मोल पहचानने वाला जौहरी अब कहां था.