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कहानी: दर्द आत्महत्या का

जीवन में हमेशा वह कहां होता है जो सोचासमझा हो, वह भी हो जाता है जो अनजानाअनचाहा हो और वह भी जिसे शायद कभी सपने में ही सोचा हो.

कभी सोचतेसोचते हम कितना कुछ सोच लेते हैं जो बड़ा सुखद, बड़ा मीठा होता है और कभीकभी कड़वा और डरावना भी कल्पना में आ कर चला जाता है.


उस दिन सहसा एक दूर के रिश्तेदार के दाहसंस्कार पर जाना पड़ा. पता चला जाने वाले ने आत्महत्या कर ली थी. क्या हुआ, क्यों हुआ, इस पर तो परिवार वाले भी असमंजस और सदमे में थे लेकिन जाने वाला चर्चा का विषय जरूर बना था. हर आने वाला चेहरा एक सवालिया निशान बना दूसरे का चेहरा देख रहा था.


‘‘क्या हुआ, भाई साहब, कुछ पता चला?’’


‘‘क्या पतिपत्नी में झगड़ा हुआ था? सुना है आजकल हर रोज झगड़ा होता था. बनवारी भाई साहब तो कईकई दिन घर पर खाना भी नहीं खाते थे. कहते हैं, कल रात भी सुबह से भूखे थे. खाली पेट जहर ने असर भी जल्दी किया. बस, खाते ही गरदन ढुलक गई…’’


‘‘कौन जाने खुद खा लिया या किसी ने खिला दिया. अब मरने वाला तो उठ कर बताने से रहा कि उसे किसी ने मारा या वह खुद मरा.’’


मैं लोगों की भीड़ में बैठा सब सुन रहा था. तरहतरह के सवाल और तरहतरह के जवाब. संवेदना कहां थी वहां किसी के शब्दों में. मरने वाले ने खुद ही अपनी मौत को एक तमाशा बना दिया था. पुलिस केस बन गया था जिस वजह से लाश का पोस्टमार्टम होना भी जरूरी था.


जो चला गया सो गया लेकिन अपनी मौत पर रोने वालों के मन में दुख कम गुस्सा आक्रोश अधिक छोड़ गया. पत्नी पर कोई भी ससुराल का सदस्य ताना कस सकता था, ‘अरी, तू तो अपने पति की सगी नहीं हुई जिस का दिया खाती थी, तो भला हमारी क्या होगी.’


बच्चों पर सदा एक आत्मग्लानि का बोझ था कि उन का पिता उन से दुखी हो कर मौत के मुंह में चला गया. कोई कुछ भी सुना दे, भला बच्चों के पास क्या उत्तर होगा कि क्यों उन का पिता उन्हें सवालों के इस चक्रव्यूह में छोड़ गया.


वापस तो चला आया मैं, लेकिन सामान्य नहीं हो पा रहा हूं. बारबार वही सब नजर आता है. सोचता हूं, क्यों मरने वाला यों मर गया. यदि जीवन में कोई परेशानी थी तो क्या मर कर हल हो गई होगी?


जीवित रहते तो कुछ भी करते लेकिन मरने के बाद क्या पा लिया होगा, सिवा इस के कि न खुशी से जी पाए न मर कर ही चैन पाया. परिवार पर दाग लगा सो अलग.


होता है न ऐसा कभीकभी, किसी का साहस या दुस्साहस हमें भी कमजोर या बहादुर बना देता है. कोई कहता है  ‘‘अरे भई, सबकुछ था पास, बेटीबेटा, कमाऊ पत्नी, अच्छा घर, गाड़ी और अच्छी नौकरी. जीवन का हर वह सुख जो इनसान को चाहिए. सब था, फिर क्या कम था जिस वजह से जहर ही खा लिया.’’


यह सुन थोड़ा असमंजस में पड़ गया मैं. क्या उत्तर दूं? शायद मैं इतनी हिम्मत कभी नहीं जुटा सकता कि आत्महत्या ही कर लूं.


‘‘बनवारी लाल को जमीन खरीदने का बहुत शौक था. मांबाप बचपन में ही लंबाचौड़ा परिवार छोड़ कर मर गए थे. 6-7 बहनें थीं, भाई था, जो कमाया उन पर लगाया. उन से फारिग हुआ तो अपना परिवार शुरू हो गया. जरा सा पैसा एक जमीन के टुकड़े पर लगाया जिस से कुछ लाभ हुआ और लगाया और लाभ हुआ, और होता गया. आज की तारीख में 40-50 लाख की जमीन है बनवारी के परिवार के पास. सुना है और जमीन खरीदना चाहता था जिस के लिए पत्नी से रुपए मांगता था. उस ने नहीं दिए तो जोश में आ कर जहर खा लिया.’’


बनवारी लाल तो चले गए लेकिन एक प्रश्न छोड़ गए, ‘‘क्या सचमुच आत्महत्या करना बड़ी बहादुरी का काम है?’’


मैं एक भावुक इनसान हूं. मन में जो धंस गया बस, धंस गया. जीवन और मृत्यु दोनों में क्या वरण करना बहादुरी का काम है और क्या कायरता का. उस दिन के बाद मैं अकसर अब अपनी ही आत्महत्या का सपना देखने लगा हूं. सपने में डरने लगा हूं मैं यह देख कर कि मेरी आत्महत्या मेरे परिवार के लिए कितना बड़ा अभिशाप बन गई. वे तो रोतेपीटते मेरा दाहसंस्कार भी कर चुके हैं. मेरी चिता की आग बुझ गई है लेकिन उस आग का क्या जो आजीवन मेरे परिवार के जीवन में जलती रहेगी. बेटी की शादी की बात चलेगी तो मेरा प्रश्न कैसे नहीं उठेगा. बेटा पत्नी लाना चाहेगा तो लोग मेरी पत्नी के व्यवहार पर भी उंगली उठाएंगे ही.


अगर मैं भी बनवारी लाल की तरह लाखों की जमीन छोड़ कर मरता हूं तो उस का मुझे क्या लाभ मिलेगा? जमीनजायदाद पर एक दिन परिवार वाले ही ऐश करेंगे. मुझे क्या मिला? अगर मैं बनवारी लाल होता तो क्या मैं आत्महत्या करने की हिम्मत करता? क्या मुझ में इतनी हिम्मत होती? मैं यह सोचता भी हूं और डरता भी हूं. असहनीय लगता है मुझे अपने परिवार पर ऐसा कहर ढा देना. मुझ में इतनी हिम्मत नहीं है.


इसी सोच में मैं कुछ दिन डूबता- उतराता रहा.  मेरे सोचते रहने को पत्नी अकसर कुरेदने लगती. उस दिन  युवा होता बेटा भी पास में बैठा था, सहसा मैं ने पूछ लिया,  ‘‘क्या बनवारी लाल ने आत्महत्या कर के हिम्मत का काम किया?’’


‘‘ पापा, कैसी बात पूछ रहे हैं, मरने के लिए भला हिम्मत की क्या जरूरत? यह तो पागल, डरपोक और मानसिक रोगों से पीडि़त इनसान का काम है. आत्महत्या करना तो कायरता है. जीवन से पलायन को आप हिम्मत का काम कैसे कह सकते हैं? बनवारी लाल अंकल तो अवसाद के मरीज थे. बातबात पर मरने की धमकी देना उन का रोज का काम था. उन का तो इलाज भी चल रहा था.’’


‘‘अच्छा, तुम्हें कैसे पता?’’


‘‘उन का बेटा ही बता रहा था. उस के चाचा ने भी तो 4 साल पहले आत्महत्या ही की थी.’’


‘‘क्या…लेकिन उन का तो ब्लड प्रैशर…’’


‘‘अरे, नहीं पापा,’’ बीच में बात काटते हुए बेटा बोला, ‘‘यह सब तो लोगों को सुनाने के लिए होता है. बनवारी अंकल के लिए भी तो वे अपने मुंह से यही कहते हैं.’’


वह एक पल को रुका फिर कहने लगा, ‘‘इन की तो पारिवारिक हिस्ट्री है. इन के एक और चाचा हैं, वह भी जराजरा सी बात पर आत्महत्या की ही धमकी देते हैं. बनवारी अंकल ने भी उस दिन धमकी ही दी थी. अब परिवार वालों ने भी रोज का तमाशा समझ कह दिया, ‘‘ठीक है, जाइए, आप की जो इच्छा है कर लीजिए…और बस…’’


स्तब्ध सा मैं पत्नी और बेटे का चेहरा देखता रहा.


बेटा हाथ का काम छोड़ मेरे पास आ बैठा. धीरे से मेरा हाथ पकड़ लिया.


‘‘आप ऐसा बेतुका प्रश्न क्यों कर रहे हैं, पापा? आप ने ही तो समझाया है मुझे कि जीवन से भागना कायर लोगों का काम है.’’


मुसकरा दिया मैं. बेटे का माथा सहला दिया.


‘‘जी कर कुछ तो करेंगे. भला मर कर क्या कर पाएंगे…कुछ भी तो नहीं.’’


कभीकभी सब गड्डमड्ड हो जाता है, जब परिवार में या करीबी ही कोई ऐसा कायरता भरा कदम उठा ले. कहते हैं, आत्महत्या बड़ी हिम्मत का काम है. अरे, तनाव तो सब के जीवन में है. कुछ आफिस का तनाव, कुछ बेटी के लिए उचित वर न मिल पाने का तनाव, कुछ पत्नी की अस्वस्थता का तो कुछ बेटे के   भविष्य को ले कर तनाव. अगर कोई आत्महत्या ही करना चाहे तो हरेक के  पास कितनी वजह हैं. जमीन न खरीद पाने का दुख भी क्या कोई वजह है. आखिर क्या जरूरत थी इतनी जमीन खरीद कर यहांवहां घर की संपत्ति बिखेर देने की?


अवसाद में मर गया वह, शायद मजाकमजाक में परिवार को डराना चाहता था, नहीं सोचा होगा कि मर ही जाएगा. डराना चाहता होगा बस, उसी प्रयास में मर गया क्योंकि किसीकिसी खानदान में यह प्रयास वंश दर वंश चलता है जो कभी  सफल हो जाता है और कभी असफल भी.


बनवारी जैसे भी मरा, बस, मर गया और यही सत्य है कि अपना इस से बड़ा नुकसान वह नहीं कर सकता था. एक इज्जत भरी मौत तो हमारा हक है न. कोई हमारी मौत पर भी हमें धिक्कारे इस से बड़ा अपमान और क्या होगा?


जोश में यों ही मर जाना प्रकृति का घोर अपमान है. बनवारी लाल ने अच्छा नहीं किया. तरस आता है मुझे उस पर. बेचारा बनवारी लाल…

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