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कहानी: संतुलन

स्वयं दीपकजी गद्गद थे. उन के मातहतों ने उन को नमन किया और वरिष्ठ अफसरों ने उन्हें गले से लगा लिया. दिखावे से दूर अश्रुपूरित वह विदाई समारोह सचमुच अद्वितीय था.

अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से बेखबर दीपकजी हमेशा पासपड़ोस की जरूरतें पूरी करने में लगे रहते. इसी वजह से उन के बच्चे कर्तव्यविमुख व अव्यावहारिक हो गए थे. लेकिन अचानक हुई दुर्घटना के बाद उन्होंने अपने परिवार व जिम्मेदारियों में संतुलन बिठा लिया लेकिन कैसे?


‘‘दीपकजी एक महान हस्ती हैं. उन की प्रशंसा करना सूरज को दीया दिखाना है. ऐसे महान व्यक्ति दुनिया में विरले ही होते हैं. औफिस के हरेक कर्मचारी की उन्होंने किसी न किसी रूप में मदद की है. हम सब उन के ऋ णी हैं. हम उन की दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य की मंगलकामना करते हैं,’’ स्टाफ के सदस्य अपनी भावनाएं प्रकट कर रहे थे. इस दौरान सदस्यों के बीच बैठी प्रभा की ओर दीपकजी ने कनखियों से देखा. ऐसे समय भी उस के चेहरे का भावहीन होना दीपकजी को बेहद खला, पर उन्होंने उसे नजर अंदाज कर दिया.


स्वयं दीपकजी गद्गद थे. उन के मातहतों ने उन को नमन किया और वरिष्ठ अफसरों ने उन्हें गले से लगा लिया. दिखावे से दूर अश्रुपूरित वह विदाई समारोह सचमुच अद्वितीय था, परंतु प्रभा के हृदय को कहीं से भी छू न सका.


‘‘क्यों, कैसा लगा?’’ लौटते समय दीपकजी ने आखिर प्रभा से पूछ ही लिया. ‘‘बुरा लगने का तो सवाल ही नहीं उठता,’’ प्रभा ने सपाट स्वर में उत्तर दिया. ‘‘सीधी तरह नहीं कह सकतीं कि अच्छा लगा. हुंह, घर की मुरगी दाल बराबर,’’ दीपकजी के यह कहने पर प्रभा मौन रही.


अपनी खी?ा मिटाने के लिए घर आ कर दीपकजी फौरन बच्चों के कमरे में गए. चीखते हुए टीवी की आवाज पहले धीमी की, फिर बच्चों को सिलसिलेवार विदाई समारोह के बारे में बताने लगे, ‘‘अपनी मां से पूछो, कितना शानदार विदाई समारोह था. अपनी पूरी नौकरी में मैं ने इतना सम्मान किसी के लिए नहीं देखा.’’


‘‘पापाजी, आप महान हैं,’’ कहते हुए बेटे ने नाटकीय मुद्रा में ?ाक कर पिता का अभिवादन किया. ‘‘दुनिया कहती है, ऐसा पिता सब को मिले, पर मैं कहती हूं ऐसा पिता किसी को न मिले. हां,  इस मामले में मैं पक्की स्वार्थी हूं,’’ बेटी ने पापा  के गले में बांहें डालते  हुए कहा.


तीनों सफलता के मद में ?म रहे थे. एक प्रभा ही थी, उदास, गुमसुम. उन तीनों के सामने आने वाले कल के लिए कोई प्रश्न नहीं था. प्रभा के पास अनगिनत सवाल थे. उन सवालों की ओर से दीपकजी का बेफिक्र होना उसे बेहद अखरता था. दीपकजी की अलमस्त तबीयत के कारण प्रभा की सहेलियां उन्हें साधुमहात्माओं की श्रेणी में रखती थीं, जबकि प्रभा उन्हें गैरजिम्मेदार मानती थी.


सच था, ऐसे व्यक्ति को साधु ही बने रहना था. परिवार बसाने का उन के लिए कोई मतलब ही नहीं था. अपने बच्चों के भविष्य से उन का दूरदूर तक कोई वास्ता न था.बच्चे देर से हुए, उस पर पढ़ाईलिखाई से जैसे उन्हें बैर था. विभा हाईस्कूल परीक्षा की 3 डंडियों का सगर्व बखान करती थी. विकास हायर सैकंडरी की सीढि़यां 2 बार लुढ़क कर बड़ी मुश्किल से तीसरी बार चढ़ पाया. महल्ले के नाटकों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का इनाम पा कर उस की ख्वाहिशें पंख लगा कर उड़ने लगी थीं. एक तरह से जिद कर के ही प्रभा ने उसे आईटीआई करने हेतु भेजा कि पहले पढ़ लो, फिर जो जी चाहे करना.


पढ़ने के बाद भी उस के विचार नहीं बदले. वह दिनभर न जाने कौनकौन से नाटकों की रूपरेखा तैयार करता रहता. अपने बालों को वह नितनए प्रचलित हीरो की स्टाइल में कटवाता. बेढंगी, दुबलीपतली काया पर न फबने वाले कपड़े सिलवाता और दिनभर मटरगश्ती करता. उस में एक अच्छी बात जरूर थी कि घर की या पड़ोस की कोई भी चीज बिगड़ जाए, फौरन उसे ठीक कर के ही दम लेता. चाहे वह साइकिल हो या टीवी, शुरू से ही उसे बिगड़ी चीजें सुधारने में दिलचस्पी थी. उस की यही रुचि देख कर ही तो प्रभा ने उसे तकनीकी प्रशिक्षण दिलवाया था.


‘खबरदार, जो मेरे बच्चों पर कभी हाथ उठाया,’ उन्होंने कड़क कर कहा था.विभा उन की गोद में सिर रख कर जोरजोर से रोने लगी थी. दोनों ने मिल कर प्रभा को ही अपराधी के कठघरे में खड़ा कर दिया.


प्रभा ने सिलाई में डिप्लोमा लिया था. सो सिलाई की क्लास घर पर चलाने लगी. पासपड़ोस की औरतें, लड़कियां सीखने आतीं. कितना चाहा कि विभा भी उस के पास बैठ कर सीखे परंतु उसे सिवा टीवी और सस्ते, घटिया किस्म के उपन्यासों के और कुछ नहीं सू?ाता था. पिता के अंधे प्यार ने बच्चों को सिवा दिशाहीनता के और कुछ नहीं दिया था.


ऐसे व्यक्ति को आज वक्ता लोग महामानव, महामना न जाने क्याक्या कह गए.प्रभा की बहनें और सहेलियां उसे देख कर प्रभा की सराहना करतीं. मातापिता तो ऐसा दामाद पा कर पूरी तरह संतुष्ट थे. प्रभा यदि कोई शिकायत करने लगती तो मां उसे फौरन टोक देतीं, ‘रहने दे, रहने दे, उन के तो मुंह में मानो जबान ही नहीं है, तब भी उन में नुक्स निकाल रही है. तेरे पिताजी, याद है, तुम लोगों के बचपन में क्या हुआ करते थे? उन के गुस्से से तुम बच्चे तो क्या, मैं तक थरथर कांपने लगती थी. घर में उन के आते ही सन्नाटा छा जाता. कोई भी मांग उन के तेवर देख कर ही उन के सामने से हट जाती. तू तो बहुत सुखी है. दामादजी ने तु?ो पूरी स्वतंत्रता दे रखी है. बाजार से सामान लाना, घर का हिसाबकिताब, सब तेरे जिम्मे है. बच्चों को तो वे कितना प्यार करते हैं, बच्चे पिता से दोस्त की तरह बातें करते हैं. और क्या चाहिए भला?’


प्रभा चुप हो जाती. कहना चाहती कि मैं पिताजी के गुस्से का थोड़ा सा हिस्सा उन के व्यक्तित्व में भी देखना चाहती हूं जिस से ये ताड़ सरीखे बड़े होते बच्चे अपनी जिम्मेदारी सम?ा पाएं, लेकिन यह सब मां की दृष्टि में व्यर्थ की बातें थीं.


दीपकजी भागभाग कर पड़ोसिन के लिए दवाइयां ला रहे थे. समय से पूर्व हुए प्रसव के इस जटिल केस को सफलतापूर्वक निबटा कर बेटा पैदा होने के बाद डाक्टर साहब उन्हें ही पिता बनने की बधाई देने लगे.

पति के कोमल हृदय का परिचय वह तभी पा चुकी थी जब उन का पूर्ण परिचय होना अभी बाकी था. शादी हुए अभी 15 दिन ही हुए थे कि प्रभा को तेज बुखार हो गया. दीपकजी उस के माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रख रहे थे, तभी उन की पड़ोसिन के पेट में दर्द उठने लगा. उस की सास दौड़ीदौड़ी आई.


यह जान कर कि पड़ोसी उस समय औफिस के काम से दौरे पर गए हुए हैं, दीपकजी एक क्षण भी गंवाए बिना फौरन सासबहू को अस्पताल ले गए. प्रभा की तरफ उन्होंने मुड़ कर भी नहीं देखा. घर का दरवाजा भी बंद करने का उन्हें ध्यान न रहा. कराहती प्रभा ने उठ कर स्वयं ही दरवाजा बंद किया और समय देख कर दवा निगलती रही. ऐसी हालत में उस ने किस तरह अपनी तीमारदारी स्वयं ही की, उसे आज तक याद है.


उधर, दीपकजी भागभाग कर पड़ोसिन के लिए दवाइयां ला रहे थे. समय से पूर्व हुए प्रसव के इस जटिल केस को सफलतापूर्वक निबटा कर बेटा पैदा होने के बाद डाक्टर साहब उन्हें ही पिता बनने की बधाई देने लगे. घर आ कर जब हंसतेहंसते दीपकजी उसे यह प्रसंग सुना रहे थे, प्रभा की आंखों में स्वयं की अवहेलना के आंसू थे.


प्रभा के प्रथम प्रसव के समय जनाब नदारद थे, अपने बीमार दोस्त के सिरहाने बैठे उसे फलों का रस पिला रहे थे. दीपकजी पड़ोस की भाभियों में खासे लोकप्रिय थे, ‘भाईसाहब, आज घर में सब्जी नहीं आ पाई.’ ‘अरे, तो क्या हुआ, हमारे फ्रिज से मनचाही सब्जी ले जाइए. न हो तो प्रभा बना देगी. पकीपकाई ही ले जाइए.’


‘भाईसाहब, यह बिजली का बिल…’ कोई दूसरी कह देती. ‘बन्नू के स्कूल की फीस…’ ‘गैस खत्म हो गई है…’ ‘पिताजी की पैंशन का रुका हुआ काम…’ पचासों सवालों का एक ही जवाब था, ‘दीपकजी.’ ‘‘कितने फुर्तीले हैं दीपकजी, हमारे पति तो इतने आलसी हैं, दिनभर पलंग तोड़ते रहेंगे. कोई काम उन से नहीं होता. छुट्टी के दिन ताश की मंडली जमा लेंगे, लेकिन भाईसाहब की बात ही अलग है.’’


पड़ोसिनों की प्रशंसा से पुलकित, दीपकजी तब दोगुने उत्साह से पड़ोसियों के काम करते. प्रभा उन के ऐसे व्यवहार से कुढ़ती थी, यह बात नहीं. बस, उस का यही कहना था कि यह घोर सामाजिक व्यक्ति कभी तो पारिवारिक दायित्वों को सम?ो. यह क्या बात हुई कि लोगों के जिन कामों को दीपकजी तत्परता से निबटा आते थे, उन्हीं कामों के लिए प्रभा लाइन में धक्के खाती थी. कभी कुछ कह बैठती तो दीपकजी से स्वार्थी की उपाधि पाती. प्रभा को इस उपाधि से एतराज था भी नहीं. वह कहती, ‘ऐसे परमार्थ से तो स्वार्थ ही भला.’


‘आजकल महिलाएं भी पुरुषों के  कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही  हैं. उन्हें भी बाहर के सारे कामों का  ज्ञान होना अति आवश्यक है,’ दीपकजी  उसे सम?ाते. ‘ये उपदेश अपनी भाभियों को क्यों नहीं देते?’ प्रभा तैश में आ जाती. ‘उन्हें उन के पति देंगे, मैं कौन होता हूं,’ दीपकजी कहते.


‘बो?ा ढोने वाले?’ प्रभाजी मन ही मन कहतीं और मुसकरा पड़तीं. अवकाशप्राप्ति के बाद तो दीपकजी के पास समय ही समय था. मित्र, परिचित, रिश्तेदार सभी की तकलीफें दूर करने को वे हाजिर रहते. बाकी बचे समय में बच्चों के साथ टीवी देखते या ताश खेलते. कभीकभी दुनियाभर के समाचार सुन कर घंटों आपस में उन्हीं विषयों पर लंबा वार्त्तालाप करते, वादविवाद करते, चिंतित होते और सो जाते.


चिंता नहीं थी तो बस, इस बात की कि विकास ने अपने विकास के सारे रास्ते खुद ही क्यों अवरुद्ध कर रखे हैं? तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त कर के भी उसे बेकार घूमना क्यों पसंद है? 12वीं की परीक्षा का तनाव जब बच्चों के साथसाथ उन के मातापिता पर भी हावी रहता हो तब विभा और उस के पिता इस से अछूते क्यों हैं?


बच्चों का गैरजिम्मेदाराना व्यवहार प्रभा के मन में आग लगा जाता, पर जब पिता ही उन का दुश्मन बन बैठा हो तो वह बेचारी क्या करती. एक दिन दीपकजी किसी परिचित की बेटी का फौर्म कालेज में जमा  कर के लौट रहे थे कि दुर्घटना हो गई. उन के स्कूटर को पीछे से आती हुई कार की ठोकर लगी और वे स्कूटर से गिर पड़े. किसी ने उन्हें अस्पताल पहुंचाने के बाद घर पर प्रभा को सूचना दी.


सूचना पाते ही प्रभा के तो हाथपांव फूल गए. विकास को तो कुछ सू?ा ही नहीं रहा था. विभा बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगी. पड़ोसियों ने दोनों को संभाला, प्रभा को अस्पताल पहुंचाया. अस्पताल का बरामदा उन के मित्रों, परिचितों से ठसाठस भरा हुआ था. ऐसा लगता था मानो कोई लोकप्रिय नेता भरती हो. प्रभा को ढाढ़स बंधाने वाले भी कई थे. कोई उसे नीबूपानी पिला रहा था तो कोई उस के घर खाना पहुंचा रहा था. किसी ने दीपकजी के पास रात को रुकने की योजना बनाई थी तो कोई घर पर बच्चों के पास सोने जा रहा था.


प्रभा ने देखा कि विकास और विभा का व्यवहार ऐसी कठिन परिस्थिति में भी धीरज और हिम्मतभरा नहीं था. मां को सहारा देना तो दूर, वे दोनों मानो अपने ही होशोहवास खो बैठे थे. किशोर से युवा हो चुके बच्चों के इस व्यवहार को प्रभा ने काफी नजदीक से महसूस किया.


दीपकजी के पैर की हड्डी टूटी थी. 15 दिन बेहद आपाधापी में गुजरे, लेकिन प्रभा को कोई परेशानी नहीं हुई. एक तरह से सभी ने उन की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा रखी थी. सुबह के नाश्ते से ले कर रात के खाने तक, कोई न कोई सारा इंतजाम कर देता, वह भी अत्यंत विनम्रतापूर्वक, एहसान जताते हुए नहीं. सब का इतना मानसम्मान, प्यारदुलार पा कर प्रभा सचमुच अभिभूत थी.


बड़ी मुश्किल से जब एकांत मिला तब दीपकजी के सामने उस ने अपनी भावना जताई तो दीपकजी गद्गद हो गए. उन्होंने खुशी में प्रभा का हाथ थाम लिया. बच्चे भी कहने लगे, ‘‘मां, देखा, तुम ने पिताजी की समाजसेवा की हमेशा निंदा की है, लेकिन आज वे ही लोग हमारे कितना काम आ रहे हैं.’’


‘‘ठीक है, मैं ने मान तो लिया कि मैं गलत थी,’’ प्रभा तृप्तभाव से बोली. 15 दिनों बाद दीपकजी को अस्पताल से छुट्टी मिली तो घर पर आनेजाने वालों का तांता लग गया, लेकिन अभी 2-3 महीनों तक प्लास्टर लगना था. जैसेजैसे दिन बीतते गए, भीड़ छंटती गई. सभी अपनेअपने कामों में व्यस्त हो गए थे तो वे भी अपनी जगह पर गलत नहीं थे. आखिर कोई किसी के परिवार का कब तक बीड़ा उठाता.


प्रभा पर दोहरी जिम्मेदारी आन पड़ी. घर की व्यवस्था, बाहर का काम. इस के अलावा दीपकजी की परिचर्या. उस के पैरों में जैसे घिर्री लग गई.दीपकजी को अब एहसास होने लगा कि उन के बच्चे मां के काम में जरा भी हाथ नहीं बंटाते. दिनभर टीवी के सामने डटे रहेंगे या बाहर घूमते रहेंगे. दिनभर काम में लगी हुई प्रभा को देख कर उन के मन का रिक्त कोना भीगने लगा. पलंग पर पड़ेपड़े मूकदर्शक बने वे प्रभा की परेशानियों को जैसे नए सिरे से देखने लगे.


एक दिन जब प्रभा सब्जी लेने गई थी, दीपकजी ने बच्चों को आवाज दी और बड़े प्यार से कहा, ‘‘बेटा, घड़ी दो घड़ी पिताजी के पास भी तो बैठा करो,’’ फिर विभा से बोले, ‘‘आज खाना तुम बना लो, तुम्हारी मां सब्जी लेने गई है.’’उन की बात सुन कर विभा की आंखें फैल गईं. ‘‘खाना…मैं बनाऊंगी?’’


प्रभा हैरत से उन्हें देखने लगी, फिर धीरे से बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है? विभा को खाना बनाना कहां आता है?

‘‘इस में अचरज की क्या बात है. क्या तुम्हारी उम्र की और लड़कियां खाना नहीं बनातीं?’’ दीपकजी बोले.


‘‘लेकिन वे अपने पिता की लाड़ली थोड़े ही हैं,’’ विभा ने अपनी बांहें दीपकजी के गले में डाल कर लडि़याते हुए कहा, ‘‘मु?ो कहां आता है खाना बनाना.’’


‘‘विकास, तुम सब्जी ले आया करो. बाहर के कामों में मां का हाथ बंटाया करो,’’ दीपकजी ने बेटे से कहा.


यह सुन कर विकास आश्चर्य से उन्हें देखता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘पिताजी, अब तक तो ये सारे काम मां ही देखती आई हैं.’’


दीपकजी चुप हो गए. उन्हें महसूस हुआ कि कहीं कुछ गलत, बहुत गलत हो रहा है. बच्चों में घर के हालात सम?ा कर जिम्मेदारीपूर्वक कुछ करने की भावना ही नहीं है. लाड़प्यार और सिर्फ लाड़प्यार में पले ये बच्चे इस स्नेह का प्रतिदान करना ही नहीं जानते. वे तो सिर्फ एकतरफा पाना जानते हैं.


उन्हें याद आया कि 5 वर्ष की नन्ही सी उम्र में ही वे अपनी मां का दर्द सम?ाते थे. उन का सिर दबाने की चेष्टा करते. उन का कोई काम कर के धन्यता का अनुभव करते, लेकिन मां उन्हें 7-8 बरस का छोड़ कर चल बसीं. उन के सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा. संयुक्त परिवार में ताईजी, चाचीजी का कृपाभाजन बनने के लिए बहुत जद्दोजेहद करनी पड़ती. उन के कई काम करने के बाद ही दो मीठे बोल नसीब होते. इस तरह छोटी सी उम्र में ही उन्हें दूसरों के काम करने से होने वाले लाभ का पता चला.


धीरेधीरे दायरा बढ़ा. दूसरों को उपकृत कर के अजीब सी संतुष्टि मिलती. बदले में अनेक तारीफें मिलतीं, ढेरों आशीर्वचन मिलते. मातृहीन मन को इस से बड़ा दिलासा मिलता. तब घर का काम करने में आनंद नहीं मिलता. घर वाले उन के कामों को कर्तव्य की श्रेणी में रखते थे. ‘कर्तव्य’ शब्द की शुष्कता और रसहीनता उन के गले नहीं उतरती थी. बाहर वालों के नर्ममुलायम, मीठे प्रशंसा आख्यानों की चाशनी में उन का मन डूब जाता.


उन की शादी हुई, तब भी यह आदत यथावत बनी रही. गृहस्वामी बन कर भी वे जनताजनार्दन के सेवक ही बने रहे.


इधर कुछ दिनों से वे महसूस कर रहे थे कि प्रभा ने उन की मदद के बगैर कैसे परिवार की जिम्मेदारी अकेले अपने कंधों पर उठा रखी थी. उन का बचपन अपने ही घर में आश्रित की तरह रह कर गुजरा. सो, अपने बच्चों को उन्होंने हद से बढ़ कर लाड़प्यार दिया. बच्चों के कारण पत्नी से भी कड़क व्यवहार किया. उस की उपेक्षा ही कर दी. उसे अधिकार ही नहीं दिया कि वह बच्चों में उचित संस्कार डाल पाए.


प्रभा सब्जी ले कर आ रही थी. आंचल से पसीना पोंछते हुए वह घर में दाखिल हुई. उसे देख कर उन के हृदय में बहुत ही दया आई.


‘‘आओ, घड़ी दो घड़ी सुस्ता लो,’’ वे स्नेह से बोले.


लेकिन प्रभा उन के मन में उठ रहे बवंडर से अनजान थी.


‘‘फुरसत कहां है, अब खाना बनाने में जुटना पड़ेगा,’’ प्रभा बोली.


‘‘खाना विभा बना देगी,’’ दीपकजी ने कहा.


यह सुन कर प्रभा हैरत से उन्हें देखने लगी, फिर धीरे से बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है? विभा को खाना बनाना कहां आता है?’’


‘‘नहीं आता तो सीख लेगी,’’ उन्होंने तरल स्वर में कहा, ‘‘प्रभा, दिनरात खटतेखटते तुम कितना थक जाती होगी, मु?ो महसूस हो रहा है कि बच्चों को मेरे अत्यधिक लाड़प्यार ने बिगाड़ कर रख दिया है. वे मांबाप का दुखदर्द जरा भी नहीं सम?ाते.’’


‘‘मांबाप का न सही, दूसरों का तो खूब सम?ाते हैं, जानते हैं, विकास अपने पड़ोसियों के कितने काम आता है? विभा भी सहेलियों के लिए प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार रहती है.’’


सुन कर दीपक कुछ क्षण चुप रहे. वे प्रभा का व्यंग्य भलीभांति सम?ा रहे थे. फिर एकाएक दृढ़ स्वर में बोले, ‘‘प्रभा, माना कि बच्चों को बड़ा करने में मु?ा से बड़ी भूल हुई. उन के व्यक्तित्व के विकास का रास्ता घर से हो कर ही बाहर की ओर जाता है, यह बात मैं खुद नहीं सम?ा पाया तो उन्हें क्या सम?ाता, लेकिन अभी भी समय हाथ से नहीं निकला है. उन्हें सुधारने की कोशिश तो की ही जा सकती है न.’’


प्रभा को तो जैसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. वह, बस, उन्हें अपलक देखे जा रही थी. इतने सालों बाद पति द्वारा उस के काम की कद्र हुई थी, बच्चों के प्रति चिंता प्रकट की गई थी. यह सच था या सपना, लेकिन भावातिरेक में दीपकजी के होंठों से निकले पश्चात्ताप के शब्द ?ाठे कैसे हो सकते हैं.


दीपकजी के कंधों पर अब नई जिम्मेदारी आ पड़ी. उन्होंने बच्चों को आवाज दे कर उन्हें उन के काम बांट दिए और खुद भी बिस्तर पर पड़ेपड़े उन से जो बनता, करते.


बच्चे उन के इस रुख से नाराज थे, लेकिन स्नेह से उन्होंने बच्चों को सम?ाया. उन्होंने सच्चे हृदय से अपनी गलती भी स्वीकार की.


विकास को वे अपने एक मित्र के कारखाने में काम सीखने हेतु भेजने लगे. काम सीख लेने के बाद नौकरी देने का वादा भी मित्र ने उन से किया. विभा को पढ़ाने के लिए शिक्षक नियुक्त कर दिया. टीवी देखने का समय भी उन्होंने निश्चित कर दिया.


इस नए अनुशासित वातावरण के बच्चे बिलकुल अभ्यस्त नहीं थे. अनिच्छा से वे अपनेआप को इस नियमित दिनचर्या के अनुकूल ढाल रहे थे. इतनी बड़ी उम्र में ऐसे संस्कार डालना कठिन काम तो था ही परंतु गनीमत यही थी कि बच्चे उन की अवज्ञा नहीं करते थे.


रात को हंसीखेल में वे बच्चों को कितनी ही बातें सम?ाया करते. प्रभा को तो जैसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, पर यह सच था. पारस्परिक संवाद कायम होने से पति के पत्नी से और बच्चों के अपने मातापिता से नए आत्मीय संबंध स्थापित हो रहे थे.


अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बात है, प्रभा कभी बच्चों के भविष्य के बारे में चिंता प्रकट करती तो दीपकजी बिगड़ जाते, ‘खेलनेखाने की उम्र है बच्चों की. उन्हें टोका मत करो. कोल्हू का बैल बनने के लिए तो सारी उम्र पड़ी है.’


‘जी हां, अपनीअपनी मरजी की बात है. चाहो तो इस उम्र में परिश्रम कर के उम्रभर चैन की बांसुरी बजाई जा सकती है, न चाहो तो अभी खेलकूद कर उम्रभर मेहनतमजदूरी कर लो,’ प्रभा कहती.


‘ठीक है, कर लेंगे मेहनतमजदूरी. तुम बेवक्त की बेसुरी तान तो बंद करो,’ दीपकजी कहते.


प्रभा को आश्चर्य होता. सेवानिवृत्ति के बाद भी दीपकजी में इतनी लापरवाही कैसे? न तो कोई जमीनजायदाद का आसरा है न कोई और जरिया. पैंशन और भविष्य निधि का रुपया पर्याप्त था और मकान अपना था, पर इतनी सी जमापूंजी पर बच्चों के भविष्य के प्रति आंखें मूंद लेना क्या ठीक था?


इस उम्र में जिन हाथों को कमा कर लाना चाहिए उन्हें ताश फेंटते देख प्रभा को बेहद नागवार गुजरता, पर दीपकजी को सब मंजूर था.


इस दुर्घटना ने उन्हें अपने घर को गृहस्वामी के नजरिए से देखने को मजबूर कर दिया. बरसों यह घर, जिसे वे ताईजी के घर की तरह मुसाफिरखाना सम?ाते रहे, आज अपनाअपना सा लगने लगा. कुछ दिनों के एकांतवास ने ही उन्हें गहन आत्मचिंतन दिया, एक नया दृष्टिकोण दिया और भूल सुधार करने की शक्ति भी दी.


दुर्घटना को हुए अब 4 माह से अधिक समय हो चुका था. दीपकजी अब पूर्ण स्वस्थ हो चुके थे. विकास का काम में मन लग गया था और 6 माह बाद उसे पक्की नौकरी का आश्वासन मिल चुका था. विभा के पेपर अच्छे हुए थे और उसे द्वितीय श्रेणी पाने की पूरी उम्मीद थी. घर में सुखशांति का वातावरण था.


एक रात प्रभा अपना काम निबटा कर सोने के कमरे में आई और दीपकजी से बोली, ‘‘लोग दुर्घटना को अभिशाप मानते हैं, पर मेरे लिए तो यह दुर्घटना जैसे वरदान बन गई है.’’


प्रभाजी की आंखें अपार प्रेम बरसा रही थीं. चेहरे पर परमतृप्ति के भाव थे. दीपकजी को महसूस हुआ कि परिवार वालों की प्रशंसा उन के मनोभावों में छिपी होती है, उन के चेहरे पर लिखी होती है, उन की प्रगति में दिखाई देती है.


अभी वे लोग सोने ही जा रहे थे कि दरवाजे की घंटी बजी. कौन है? पूछने पर पड़ोस के सुशीलजी की घबराई सी आवाज आई,‘‘दीपकजी, जल्दी दरवाजा खोलिए.’’


दरवाजा खोलते ही वे जैसे एक सांस में बोल गए, ‘‘पिताजी की छाती में भयंकर दर्द है. कहीं हार्टअटैक न हो. इतनी रात को आप के सिवा किसे जगाता, उन्हें अकेले अस्पताल ले जाने में भी जी घबरा रहा है.’’


‘‘घबराएं नहीं, मैं हूं न,’’ दीपकजी ने फौरन कमीज चढ़ाई और पीछे देखे बगैर उन के साथ हो लिए.


पूरी रात प्रभा चिंतित रही. सुबह 7 बजे दीपकजी का फोन आया, ‘‘समय पर पहुंच जाने से बाबूजी बच गए हैं. चिंता मत करना. भाभीजी को भी यह समाचार दे देना. मैं एकाध घंटे बाद आऊंगा. विभा से कहना कि आ कर मैं उसी के हाथ का बना हुआ नाश्ता करूंगा. विकास चला गया न देवेशजी के यहां? आज उसे सुबह वाली शिफ्ट में जाना था.’’


‘‘हां, चला गया. सब ठीक है,’’ प्रभाजी ने रुंधे कंठ से कहा.


सचमुच, सबकुछ ठीक था. सहज और संतुलित. यदि घर और बाहर का यह संतुलन ठीक हो तो डगमगा कर गिरने की आशंका ही कहां रहती है.

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