कहानी: संपेरन
शंकराचार्य मंदिर के पुरोहित कपिल ने कश्यपपुर की विधवा शासिका यशोवती के विरुद्ध जन आंदोलन छेड़ा, पर एक दिन जब यशोवती ने उसी के हथियार से उस पर वार किया तो वह हतप्रभ रह गया.
‘‘तुम्हारी सूचना विश्वसनीय तो है?’’ शंकराचार्य मंदिर के मुख्यद्वार पर पुरोहित के पांव सहसा रुक गए.
‘‘स्वामी जयेंद्र ने आज तक आप को अविश्वसनीय सूचना नहीं दी है.
1-2 बार नहीं, जितनी बार भी आप पूछेंगे, मेरी सूचना अपरिवर्तित रहेगी कि विधवा यशोवती कश्यपपुर (कश्मीर) की शासिका मनोनीत की गई हैं.’’
‘‘तो क्या राज्य के पंडितों, ज्ञानीध्यानी व्यक्तियों और शिक्षाविदों को एक विधवा की अधीनता स्वीकार करनी होगी? यह बात क्या नीति, वेद, उपनिषद, धार्मिक शिक्षाओं व शालीनता के विपरीत नहीं होगी? प्रात: जीवनचर्या प्रारंभ करने से पूर्व राज्य निवासियों द्वारा ईश्वर के साथ ऐसी स्त्री का नाम उच्चारित करना क्या पापाचार नहीं होगा?’’ कपिल का स्वर आक्रोशपूर्ण हो गया.
‘‘विप्रश्रेष्ठ, इस से तो भारत व अन्य पड़ोसी राज्यों में भी हमारी हेठी होगी. सब लोग हमारी बुद्धि व मानसिक संतुलन पर तरस खाएंगे,’’ पुरोहित के साथ चलती भीड़ में से कोई बोल उठा.
‘‘निश्चय ही राज्य की सधवाएं इस प्रस्ताव का घोर विरोध करेंगी,’’ मुख में तांबूल दबाए, चंचल नयनों में काजल व होंठों पर लाल मिस्सी सज्जित युवती का स्वर सुन कर कपिल मन ही मन हर्षित हो उठा.
‘‘एक तो नारी,
ऊपर से विधवा? शिव…शिव…ऐसी शासिका के राज्य में रहने की अपेक्षा आत्महत्या कर लेना या राज्य से कहीं अन्यत्र पलायन कर लेना ही हमारे लिए उचित रहेगा,’’ एक अन्य पुरुष स्वर ने भी कपिल का समर्थन किया.
‘‘यदि आप सब लोगों की सहमति है तो मैं रानी यशोवती के सिंहासनारोहण के विरुद्ध अपने आत्मदाह की घोषणा करता हूं.’’
पुरोहित कपिल की घोषणा का भीड़ ने तुमुल हर्ष व तालियों से स्वागत किया.
‘‘जयेंद्र, तुम कश्यपपुर के प्रत्येक स्त्रीपुरुष तक मेरा यह प्रण पहुंचा दो कि यदि विधवा यशोवती को राज्य की गद्दी पर बैठाया गया तो राज्यारोहण के दिन ही कोंसरनाग से उत्पन्न वितस्ता (झेलम) की लहरों में डूब कर मैं अपने प्राण दे दूंगा.’’
‘‘महाज्ञानी, अपने प्रण के साथ हमारे इस निर्णय को भी जोड़ लें कि आप के बाद भी कश्यपपुर का पुरुष समुदाय प्रतिदिन इसी प्रकार अपने प्राण देता रहेगा, जब तक वह दुष्टा राज्य की गद्दी से स्वयं विमुख नहीं हो जाती अथवा उसे सिंहासन से हटा नहीं दिया जाता.’’
शंकराचार्य मंदिर में एक निश्चित समय पर संध्या काल में कपिल द्वारा प्रतिदिन 1-2 घंटे तक पारलौकिक ज्ञान व दर्शन जैसे विषयों पर प्रवचन दिया जाता था. उस के शब्दों में चमत्कार था. उस की वाणी ओजस्वी थी. देवा-लय के निकट के स्त्रीपुरुष बड़ी संख्या में इन प्रवचनों को सुनने के लिए एकत्रित होते थे.
धर्म व दर्शन के साथसाथ कपिल नीति व कूटनीति का भी पंडित था. अपने गहन अध्ययन के बल पर उस ने चाणक्यनीति का एकएक शब्द कंठस्थ कर लिया था. इन्हीं सब बातों के आधार पर राज्य की नीतियों में उस का अत्यधिक हस्तक्षेप था.
कश्यपपुर के शासकों का पुरोहित कपिल के बढ़ते प्रभाव पर चिंतित होना स्वाभाविक था, पर साथ ही यह भी एक तथ्य था कि उस के सहयोग से शासकों को सफलता भी प्राप्त हो जाती थी. अत: ब्राह्मणवाद के बढ़ते प्रभाव के साथ शासकों की सफलता निश्चित होती जाती थी.
संक्षेप में, शासकों व पुरोहित दोनों ने ही एकदूसरे के अस्तित्व को स्वाभाविक रूप में स्वीकार कर लिया था, पर यशोवती के शासिका बन जाने से कपिल को अपना प्रभाव समाप्त होता दिखाई दिया. वह पुरुषोचित अहं व दंभ के कारण एक नारी का आधिपत्य कैसे सहन कर सकता था.
कपिल के साथ कश्यपपुर की जनता ने यशोवती के राज्यारोहण को अस्वीकार कर दिया था. पुरोहित के मस्तिष्क में इस के लिए कुछ कुतर्क थे, पर भीड़ ने तो केवल अंधानुभक्ति के वशीभूत हो कर ही यह निर्णय लिया था. परिणामस्वरूप यशोवती के विरुद्ध गालियों व कटु वचनों का प्रयोग किया गया. उस की हंसी उड़ाई गई. उस के संबंध में निम्नस्तरीय बातें कही गईं.
शंकराचार्य मंदिर में जमा भीड़ में नारियों की भी अच्छीखासी संख्या थी, पर उन में से अधिकतर का उद्देश्य केवल कपिल के प्रवचनों को सुनना तथा घर के उबाऊ वातावरण से थोड़ी देर के लिए मुक्ति प्राप्त करना था. अत: कपिल बिना किसी औपचारिकता के उन के रूखेसूखे जीवन का एक मनोरम व अविभाज्य अंग बन चुका था. प्रत्येक मूल्य पर वे आनंद के इस साधन को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहती थीं. इसीलिए पुरुषों के साथ स्वर मिला कर नारियों ने भी यशोवती को वारांगना सिद्ध कर दिया.
देवालय की भीड़ में एक युवती बिलकुल मौन थी. कपिल उस की सहमति प्राप्त करने के लिए, यशोवती के विरुद्ध विषवमन करते हुए बारबार उस की ओर निहार रहा था. उसे मौन देख कर वह दूसरी ओर दृष्टि मोड़ लेता था. अपनी चालढाल व वेशभूषा से वह कुलीनवर्गीय लग रही थी.
अपने लंबे चोगे के साथ उस ने अपने मुख, नाक तथा होंठों को एक पारदर्शक रेशमी घूंघट से ढक रखा था. घूंघट के बीच टुकुरटुकुर ताकती उस की आंखों में एक अनोखा आकर्षण था. उन में सागर की गहराई थी. कई सुरापात्रों की लालिमा जैसे उन में सिकुड़सिमट गई थी. अपने निकट खड़ी परिचारिका के कानों में वह कुछ फुसफुसाई.
‘‘महोदय,’’ कपिल को संबोधित करते हुए परिचारिका बोली, ‘‘आप में से किसी ने कभी रानी यशोवती से भेंट भी की है?’’
‘‘नहीं तो,’’ सकुचा कर कपिल ने प्रत्युत्तर दिया.
‘‘क्यों न अपना अभियान प्रारंभ करने से पूर्व आप एक बार उन से भेंट कर लें.’’
‘‘महादेवी, रथ स्वयं कभी संचालित नहीं होता, बैल या घोड़े उसे चलाते हैं. अत: रथ तो अपने स्थान पर मौन खड़ा रहता है. वह पुकारपुकार कर अपने संचालनकर्ता को नहीं बुलाएगा. यशोवती व मुझ में आप को कौन क्या प्रतीत होता है, यह मैं आप पर ही छोड़ता हूं. मेरा निश्चय अटल है. वितस्ता की जलराशि जल्दी ही मेरा समाधिस्थल बनेगी.’’
घूंघट ओढ़े युवती फिर भी मौन खड़ी रही.
पुरोहितवाद का विषैला जादू शीघ्र कश्यपपुर की जनता के सिर चढ़ कर बोला. रानी यशोवती के विरुद्ध अचानक ही नगर के चतुर्मार्गों व राजपथों पर जनता का आक्रोश फूट पड़ा, प्रतिदिन नए जुलूसों, भाषणों व गोष्ठियों द्वारा यशोवती को शासिका बनाए जाने के विरुद्ध तीव्र लोकमत प्रकट किया गया.
आंदोलनकर्ता मुख्य रूप से ‘विधवा रानी नाक कटानी, ‘एक ध्येय, उद्देश्य बनाओ, यशोवती से देश बचाओ’ अथवा ‘जब तक है सांसों में सांस, नहीं चलेगा विधवा राज’ जैसे नारों से कश्यपपुर को गुंजाते रहे. आंदोलनकर्ताओं पर जब कुछ अत्याचार किए गए तो आंदोलन और भी अधिक भड़क उठा. लगता था कि कपिल की सफलता असंदिग्ध है.
एक रात्रि को दूसरे प्रहर में कपिल शंकराचार्य मंदिर में निद्रा में लीन था. दिन भर यशोवती विरोधी अभियान के कारण वह थक गया था. उस के अन्य साथी भी निद्रा में मग्न थे. अचानक किसी ने उसे झिंझोड़ कर जगा दिया. पूरी तरह नींद खुलने पर उस ने दीपक के प्रकाश में 4 राज्य सैनिकों को अस्त्रशस्त्रों से सुसज्जित देखा.
‘‘कहिए, क्या बात है?’’
‘‘तुम्हें इसी पल हमारे साथ चलना है.’’
‘‘पर कहां व क्यों?’’
‘‘जनसाधारण के प्रश्नों के उत्तर देना शासनाधिकारियों के लिए आवश्यक नहीं है. हमें केवल इतना ज्ञात है कि आनाकानी करने पर हम तुम्हें जबरदस्ती ले जाएंगे. ऐसा ही हमें आदेश है. आदेशकर्ता का नाम भी हम नहीं बताएंगे.’’
‘‘उस का नाम तो मैं ज्ञात कर लूंगा, पर क्या तुम मेरे प्राणों की सुरक्षा का वचन देते हो?’’
‘‘वचन? शासन के वचन का क्या तुम कोई मूल्य समझते हो? हम तो प्रतिपल वचन दे कर उसी क्षण उसे तोड़ भी डालते हैं. फिर भी हम तुम्हें आश्वस्त कर सकते हैं कि अभी तुम्हारे प्राण लेने की कोई योजना नहीं है. वैसे भी तुम ने राजनीतिक आंदोलन प्रारंभ करने से पूर्व क्या शासन को कोई सूचना दी थी या उस की अनुमति मांगी थी? यदि नहीं तो तुम्हें अपने प्राणों की आशा तो उसी पल छोड़ देनी चाहिए थी. चलो, उठ कर खड़े हो जाओ.’’
‘‘मैं एक बार अपने विश्वस्त मित्रों व साथियों से तो बात कर लूं.’’
‘‘मित्र व साथी?’’ एक सैनिक अट्टहास कर उठा, ‘‘इन्हीं के बल पर क्या तुम ने राज्य क्रांति का बीड़ा उठाया है? तुम्हारे ‘साथी व मित्र’ हमारे आगमन का समाचार सुनते ही नौ दो ग्यारह हो गए हैं. विश्वास न हो तो चारों ओर दृष्टि डाल कर देख लो. वास्तव में एक क्षुद्र भुनगा होते हुए, कश्यपपुर साम्राज्य रूपी पर्वतमाला को चूरचूर करने का निर्णय ले कर तुम ने अपनेआप को सब की हंसी का पात्र बना लिया है. चलो, शीघ्रता करो.’’
‘‘पर यदि मेरे प्राण ले लिए जाएं तो यह तथ्य मेरे सगेसंबंधियों तक तो पहुंचा दिया जाए.’’
‘‘प्राणों की चिंता में घुलने वाले कापुरुष, तुम्हें अपने प्राण इतने ही प्यारे थे तो जनता का नेतृत्व क्यों संभाला था? क्यों उसे भ्रमित किया? मैं विश्वास दिलाता हूं कि तुम्हारे प्राण लिए जाएंगे तो कश्यपपुर की जनता ही नहीं, पड़ोसी देशों तक इस की सूचना पहुंचेगी. अभी तुम इतने महान नहीं बने हो कि तुम से भयभीत हो कर शासन तुम्हें गुप्त रूप से प्राणदंड दे दे. सैनिको, इसे उठा कर बाहर पालकी में ले जा कर डाल दो.’’
आज्ञा का तुरंत पालन हुआ. बंद खिड़कियों वाली अंधेरी पालकी में पड़ा हुआ कपिल अपनी भयंकर भूल पर पश्चात्ताप करने लगा. सारे संसार को कूटनीति का पाठ पढ़ाने वाला स्वयं अपनी मूर्खता को कोसने लगा. उसे शासन की ओर से किसी ऐसे कदम की आशा प्रारंभ में तो थी, पर जनआक्रोश की तीव्र लहर के कारण उस ने अपनेआप को अपराजेय मान लिया था.
केवल नारी होने के कारण उसे यशोवती की ओर से असावधान नहीं होना चाहिए था. जब उस के मित्रों ने ही उस का साथ छोड़ दिया तो जनता तो निश्चित रूप से मैदान छोड़ भागेगी.
अपने अनुयायियों पर उसे भयंकर क्षोभ उत्पन्न हुआ. वे लोग वास्तव में यशोवती के विरोधी न थे, प्रत्युत अंधानु- भक्ति के कारण वे कपिल का साथ दे रहे थे. सचमुच उस ने यशोवती का विरोध कर मृत्यु को आमंत्रित कर लिया था.
अब उसे अपने प्राणों के बचने की कोई आशा नहीं रही थी. अब उसे स्पष्ट हो गया था कि साधारण हाड़मांस की पुतली, भोली और कमजोर प्रतीत होने वाली नारी भी आवश्यकता पड़ने पर साक्षात काल बन सकती है. स्पष्टतया बाजी उस के हाथों से निकल कर यशोवती के हाथों में पहुंच चुकी थी.
सहसा अपने विश्वस्त साथी द्वारा यशोवती के संबंध में एकत्र की गई सूचना उस के मस्तिष्क में कौंध उठी. उस दिन का वार्त्तालाप उस की स्मृति में ताजा हो उठा.
‘यह समस्या अचानक कश्यपपुर में क्योंकर उत्पन्न हो गई. यशोवती के पति सम्राट दामोदर ने बैठेबिठाए मथुरा के यादवों से वैर क्यों मोल ले लिया?’ उस के इस प्रश्न पर उस के साथी ने एक लंबी सांस ले कर प्रत्युत्तर दिया था.
‘पुरोहितजी, मेरी सूचनाओं के अनुसार हमारे कश्यपपुर के सम्राट गोनंद प्रथम के काल में ही इस समस्या के कंटीले बीज इस धरती में डाल दिए गए थे. राजगृह के राजा जरासंध की सहायता के लिए गोनंद प्रथम कश्मीर से बड़ी सेना सहित बिहार में जा पहुंचे थे. जैसी आशा थी, मथुरा के यादवों ने जरासंध पर आक्रमण कर दिया. यादव बलराम के हाथों गोनंद प्रथम का प्राणांत हुआ.
‘समस्या यहीं नहीं समाप्त हो सकती थी,’ उस ने बात आगे चलाई, ‘हारनाजीतना तो युद्ध में होता ही रहता है. गौरवपूर्ण बात यह थी कि कश्यपपुर का राजा भारत के एक संकटग्रस्त शासक की सहायता करते हुए शहीद हो गया. कटोचवंशीय गोनंद प्रथम का यह अमर बलिदान हमें हमेशा प्रेरणा प्रदान करता रहेगा. यह गौरवगाथा भारत से हमारे घनिष्ठ व अटूट संबंधों की भी साक्षी है.’
‘रानी यशोवती फिर कश्यपपुर की शासिका बनने कैसे आ पहुंची?’ कपिल ने प्रश्न किया.
‘श्रीमन, गोनंद प्रथम का पुत्र राजा दामोदर जिस पल से कश्यपपुर के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, अपने पिता की असमय मृत्यु उस के हृदय को दग्ध करती रही. उन के प्राणहंता से प्रतिशोध लेना उस के जीवन का मूलमंत्र बन गया. आठों पहर उस के मनोमस्तिष्क पर केवल एक नाम ‘बलराम’ अंकित रहने लगा. प्रतिशोध लिए बिना उसे अपने पिता की पीड़ायुक्त अंतिम आकृति कल्पना में और भी अधिक करुणाजनक प्रतीत होती थी. वह स्पप्न में भी अपने पितृहंता का मुख देखतेदेखते असंतुलित हो उठता.
‘सहसा राजा दामोदर की मनोवांछित इच्छा लगभग पूर्ण हुई. गांधार शासक की पुत्री का स्वयंवर उन्हीं दिनों आयोजित हुआ और देशविदेश के राजाओं सहित मथुरा के बलराम यादव को भी आमंत्रित किया गया. कश्यपपुर के राजा दामोदर ने स्वयंवर के बहाने अपने शत्रु बलराम पर तुरंत चढ़ाई कर दी. उस का यह कार्य कूटनीति के साथसाथ शालीनता के भी विरुद्ध था.
‘पर दामोदर का मस्तिष्क इस समय पूर्णतया असंतुलित था. बलराम ने दामोदर को परास्त ही नहीं किया, अपितु उस के प्राण भी ले लिए. अब सुना है कि दामोदर के पुत्र गोनंद द्वितीय के वयस्क होने तक उस की मां यशोवती को कश्यपपुर की शासिका घोषित किया गया है.’
‘ओह, तो यों कहो कि यह सब स्थिति बलराम यादव के कारण पैदा हुई है,’ कपिल बोला.
‘और क्या, बलराम यादव ने दामोदर के प्राण ले कर कश्यपपुर के माथे पर यशोवती रूपी घिनौना, काला तिलक अंकित कर दिया है.’
‘तुम चिंता मत करो,’ उस ने कहा था, ‘मैं अपने प्राण रहते तक विधवा यशोवती को कश्यपपुर की गद्दी पर नहीं बैठने दूंगा. किसी विधवा स्त्री को गद्दी पर बैठाने की अपेक्षा कश्यपपुर की गद्दी का खाली रहना ही उचित है.’
वह इन्हीं विचारों में लीन था कि अचानक पालकी रुक गई और 2 व्यक्तियों ने उसे पालकी से बाहर निकलने का आदेश दिया. उस ने आंखें टिमटिमा कर देखा, बाहर भयावह अंधेरा था. हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था. यशोवती को ढेर सारी गालियां देते हुए वह कल्पना के सहारे राजधानी पुरानाधिष्ठान के राजमहल के सम्मुख पालकी से उतर कर आगे बढ़ा.
मुख्यद्वार व कई सीढि़यों को पार करने के पश्चात सहसा ही उसे एक रत्नमंडित दीवारों व स्तंभों वाले कक्ष में तीव्र चौंधियाते प्रकाश में खड़ा कर दिया गया. तीव्र प्रकाश के कारण स्तंभों व दीवारों के रत्नों से इंद्रधनुषी आभा फूट रही थी. उसे लगा जैसे वह कई इंद्रधनुषों के बीच खड़ा हो.
‘‘पुरोहित कपिल का विधवा यशोवती के कक्ष में स्वागत है.’’
कपिल कुछ पल स्तब्ध खड़ा रह गया. उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. प्रकाश की सहस्रों किरणों के बीच जो युवती उस के सम्मुख बैठी हुई थी, वह उसे परिचिता प्रतीत हो रही थी. अपने मस्तिष्क पर जोर डालने पर भी वह युवती का परिचय ज्ञात नहीं कर सका.
उस के चेहरे पर बड़ेबड़े 2 नेत्र सागर के समान गहरे और सम्मोहनयुक्त लगे. इन नयनों की गंभीरता उस के हृदय में सीधी पैठ रही थी. विधवा यशोवती इतनी आकर्षक, सुकुमार और कोमलांगी होगी इस की तो उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. धीरेधीरे उस के प्रति उस का सारा रोष, आक्रोश और विरोध न जाने क्यों हवा होता प्रतीत हुआ.
‘‘आइए, पुरोहितजी, इस आसन पर विराजिए.’’
‘‘नहीं…नहीं, महिषी, मैं आप के समकक्ष कैसे बैठ सकता हूं.’’
स्वयं कपिल को अपने शब्दों पर आश्चर्य हो रहा था कि वह क्या बोल रहा है. सचमुच यशोवती ने उसे सम्मोहित कर लिया था. कुतर्क, हठधर्मिता व धार्मिक श्रेष्ठता का गर्व धीरेधीरे उस का साथ छोड़ते प्रतीत हो रहे थे.
‘‘देखिए पुरोहितजी, प्रकृति ने हमें रूप, समृद्धि व सम्मान सभी कुछ प्रदान किया, पर आप के ढोंगी समाज ने, जानते हैं, मुझे क्या भेंट दी? यह देखिए…’’ उस ने अपनी सूनी कलाइयां तथा पैर की नंगी उंगलियां प्रदर्शित कर दीं, ‘‘और देखिए…’’ उस ने अपने सूने ललाट व लंबे, धरती को छूते बालों को हटा कर, सीधीसपाट सूनीसूनी मांग की ओर इंगित किया.
‘‘यह इस बात का दंड है कि मैं अपने पति को जीवित नहीं रख सकी. दूसरे शब्दों में, मैं अपने पति को खा गई. सर्वविदित है कि गांधार में उन का प्राणांत हुआ. मैं आप से पूछना चाहती हूं कि क्या यह मेरी इच्छा थी कि मैं विधवा हो जाऊं? पुरुष अपनी पत्नी के देहांत के पश्चात कुछ भी नहीं खोता, तो फिर नारी ही विधवा बनने के लिए बाध्य क्यों है?’’ यशोवती की मुखमुद्रा क्रोध व आक्रोश से भरी हुई थी.
कपिल क्या प्रत्युत्तर देता? आज तक कुतर्कों से वह अपने विरोधियों को जीतता रहा था, पर यशोवती को कुतर्कों से बहलाना सरल नहीं था. अपने सामाजिक नियमों का खोखलापन उसे स्पष्ट महसूस हुआ.
‘‘मैं ने आप को यहां आने का कष्ट इसलिए दिया जिस से अपने विधवापन का दंड मैं आप के मुख से ही सुन लूं. अपराधी आप के सम्मुख बैठा है न्यायाधीश महोदय, उस का दंड उसे सुना दीजिए.’’
‘‘राजमहिषी, मुझे लज्जित मत कीजिए. मैं आप से क्षमा चाहता हूं कि आप से एक बार भी भेंट किए बिना केवल सामाजिक व धार्मिक आधार पर मैं ने आप के विरुद्ध विषवमन किया.’’
‘‘पुरोहितजी, मैं तो आप के मुख से वही सब कुछ सुनना चाहती हूं जो अप्रत्यक्ष रूप से आप मुझे सुनाते आ रहे हैं. वही गालियां, अपशब्द, कटुवचन आदि.’’
कहतेकहते यशोवती ने पास में पड़ा घूंघट अपने मुख पर लपेट कर केवल अपने नेत्र खुले रहने दिए.
‘‘ओह,’’ चौंक कर कपिल बोला, ‘‘तो आप प्रतिदिन मेरे प्रवचनों में देवालय में उपस्थित होती रही हैं? धिक्कार है मुझे कि मैं आप को पहचान भी नहीं पाया.’’
‘‘सचमुच आप का ज्ञान अपरिमित है. आप की कूटनीतिक बातों में गांभीर्य है. आप की नीतिज्ञता की मैं पुजारिन हूं. इसीलिए तो मैं आप से विवाह रचाना चाहती हूं.’’
‘‘जी…?’’ कपिल को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.
‘‘जी, हां…आप को मेरे वैधव्य और नारी होने से ही तो चिढ़ है? आप ही मेरे वैधव्य को मिटा सकते हैं. और मेरे पति के रूप में कश्यपपुर की गद्दी पर भी बैठ सकते हैं. मेरे इन हाथों, पैरों, माथे व मांग का सूनापन केवल आप ही दूर कर सकते हैं. कहिए, आप को मेरा प्रस्ताव स्वीकार है?’’
कपिल को अपनी कूटनीतिज्ञता व राजनीतिक उपदेशों की होली जलती प्रतीत हुई. यशोवती ने सचमुच उस के गले में स्वादिष्ठ कबाब के साथ हड्डी अटका दी थी. न उसे निगलते बन रहा था, न उगलते.
‘‘आप मौन क्यों हैं? क्या आप मुझे अपने योग्य नहीं समझते हैं?’’ यशोवती ने मानो नहले पर दहला जड़ दिया.
‘‘नहीं, महादेवी, आप से विवाह रचाने वाला तो अपने जीवन को सफल ही मानेगा…पर मैं सोच रहा था कि…’’
‘‘विधवा से कैसे विवाह रचाया जाए, यही न?’’ यशोवती उसे बिना संभलने का अवसर दिए लगातार वार पर वार कर रही थी, ‘‘विधवा विवाह तो हमारे कश्मीरी समाज में पहले से होते रहे हैं. स्वयं आप को अपने धर्मग्रंथों में सहस्रों उदाहरण मिल जाएंगे.’’
‘‘मैं तो सोच रहा हूं कि आप से विवाह रचा कर क्या मेरी कूटनीतिक पराजय नहीं हो जाएगी?’’ कपिल का स्वर पश्चात्तापपूर्ण था.
‘‘ओह, तो आप को यह चिंता है कि लोग क्या कहेंगे? तो ठीक है आप यहीं राजमहलों में रहिए. मैं घोषणा करा देती हूं कि आप कश्यपपुर छोड़ कर कहीं चले गए हैं.’’
‘‘महादेवी, तब तो मेरी स्थिति उस कुत्ते जैसी हो जाएगी जो न घर का रहा, न घाट का. आप मुझे कुछ सोचने का अवसर दीजिए.’’
‘‘जैसी आप की इच्छा. आज से ठीक चौथे दिन अर्थात विधिवत राज्यारोहण से एक दिन पूर्व तक मैं आप के निर्णय की प्रतीक्षा करूंगी.’’
‘‘जी,’’ मन ही मन मुक्ति की संभावना से वह प्रसन्न हो उठा, ‘मूर्खा कहीं की, मुझ से टक्कर लेने चली है? यहां से बाहर निकल कर इसे ऐसा बदनाम कर डालूंगा कि जिंदगी भर नहीं भूलेगी.’
‘‘एक बात और. यदि विवाह कर आप मुझे कहीं अन्यत्र ले जाना चाहें तो मैं उस के लिए भी सहर्ष तैयार हूं. मेरा लक्ष्य राज्य सिंहासन प्राप्त करना नहीं, केवल आप के प्रेम में पगे रहना है. आप की बौद्धिक श्रेष्ठता ने मुझे अत्यधिक प्रभावित कर दिया है, इसलिए यह राज्य, इस से प्राप्त सम्मान, सब गौण हैं. आप को प्राप्त करने के लिए मैं सब को लात मार सकती हूं.’’
‘‘ओह, राजमहिषी, आप को प्राप्त कर मैं वास्तव में गौरव का अनुभव करूंगा,’’ कहतेकहते वह सहसा मौन हो गया. उस ने एक भरपूर दृष्टि यशोवती पर डाली. वैधव्य का सूनापन उस के मुख पर अंकित होते हुए भी यशोवती में एक अनोखी तेजस्विता, एक गर्वीला मान था. उस के सांचे में ढले मुख पर ओस में भीगे गुलाब की पंखडि़यों जैसी ताजगी थी.
उस की काली भौंहों, लंबी, काली व भारी केशराशि के अतिरिक्त उस के अधरों व गालों पर किसी चित्रकार की तूलिका से निर्मित स्वाभाविक लालिमा थी. अपने उन्नत यौवन व दूधिया तन के कारण वह बैठी हुई कोई जीवित प्रतिमा प्रतीत हो रही थी.
कपिल को विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई युवती इतनी सुंदर भी हो सकती है, जबकि कश्मीर में एक से एक सुंदर युवतियां उस के संपर्क में आ चुकी थीं. उसे अपना निर्णय परिवर्तित करना पड़ा. उस का मन कह उठा, ‘नहीं…नहीं, वह इस सरल व भोली युवती को कभी धोखा नहीं दे सकता.’
‘‘अद्भुत, अवर्णनीय.’’
‘‘ऐं, क्या बोल रहे हैं आप?’’ मधुर स्मिति बिखेरते हुए यशोवती ने प्रश्न किया.
‘‘महादेवी, आप सचमुच किसी कवि की कविता जैसी निर्मल व पवित्र हैं. वास्तव में मुझे आप का प्रस्ताव स्वीकार है. यदि पहले ही मैं आप के संपर्क में आ जाता तो यह आंदोलन कभी प्रारंभ न करता.’’
‘‘सोच लीजिए, अपने निर्णय पर कहीं आप को पश्चात्ताप न करना पड़े.’’
‘‘जी, नहीं. मैं ने यह अभियान प्रारंभ किया था अपने अस्तित्व को बचाने व अपने प्रभाव को अक्षुण्ण रखने के लिए. अब आप देखिएगा कि राजनीति का यह पंडित किस प्रकार आप को जनसहयोग दिलाता है.’’
‘‘क्षमा कीजिए, पुरोहितजी, पुरुषों पर मुझे तनिक भी विश्वास नहीं रह गया है. इस क्षण एक निर्णय ले कर दूसरे ही क्षण वे दूसरी विरोधी बात स्वीकार कर सकते हैं. आप तो मुझे लिख दीजिए कि आप मुझ से विवाह के लिए सहमत हैं तथा मेरे विरुद्ध प्रारंभ अभियान को आप वापस लेने को तैयार हैं. आप जानते ही हैं, यह मेरे जीवन का प्रश्न है. मैं सचमुच आप की दासी बन कर आप की सेवा करूंगी,’’ मुग्धा नायिका की भांति यशोवती ने ताड़ का पत्ता व सरिए की कलम आगे रख दी. उस ने एक तीखी चितवन कपिल पर डाली.
‘‘यशोवती, मेरी हृदयेश्वरी, तुम्हें, अभी तक मुझ पर विश्वास नहीं हुआ? लो, तुम जो चाहो लिख लो, मैं ने अपने हस्ताक्षर कर दिए हैं.’’
‘‘दिव्या, तनिक अंगूर का रस लाना. मैं पुरोहितजी को अपने हाथों से पिलाऊंगी. आप ने ही तो अपने प्रवचन में कश्यपपुर की विशेषताओं में से एक अंगूर भी
बताई थी.’’
‘‘हां, मैं तो भूल ही गया था कि तुम मेरी शिष्या भी हो, पर अभीअभी मैं यहां की एक विशेषता और ढूंढ़ चुका हूं और वह है रानी यशोवती, मेरी हृदयेश्वरी, मेरी प्रियतमा…’’ कहतेकहते भावनाओं में बहते हुए कपिल ने यशोवती के गोरेगोरे श्वेत कबूतरों जैसे पैरों को चूम लिया.
उसी पल यशोवती के कक्ष का दरवाजा खुला. एकएक कर शंकराचार्य देवालय में यशोवती के विरुद्ध बढ़चढ़ कर बोलने वाले कपिल के भक्त आ खड़े हुए. उन्हें देख कर यशोवती अपने स्थान से उठ खड़ी हुई. उस ने अपने पैर के दोनों पंजे पीछे हटाने चाहे, पर कपिल उन से और चिपट गया.
‘‘थू है तुम पर, पुरोहित, हमें तुम से ऐसी आशा न थी. जिस के विरुद्ध तुम ने कश्यपपुर की जनता को भड़काया उसी के पैरों में पड़ कर तुम उस से प्रेम जता रहे हो? धिक्कार है तुम्हें,’’ जयेंद्र क्रोध से बोला.
‘‘कश्यपपुर के निवासियो, अपने पुरोहित की एक और करतूत देखिए. इस दुष्ट ने यशोवती से विवाह रचाने और अपना आंदोलन वापस लेने का भी वचन दिया है, देखिए,’’ यशोवती की परिचारिका दिव्या ने कपिल की हस्ताक्षरयुक्त घोषणा सामने रख दी.
‘‘ओह, यह नराधम इतनी नीचता पर उतर आया. आप इसे हमें सौंप दीजिए. हम इस की बोटीबोटी अलग कर देंगे. महादेवी, हम आप को कश्यपपुर की शासिका स्वीकार करते हैं.’’
सब के चले जाने पर यशोवती मुसकराई. वह बोली, ‘‘पुरोहित, तुम इतने मूढ़ होगे, मुझे आशा न थी. शत्रु के घर में पदार्पण से पूर्व कुछ सावधानी तो तुम्हें रखनी चाहिए थी. अपने गर्व, दर्प व ज्ञानी बन जाने के झूठे विश्वास ने तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ा.
‘‘मेरे विवाह प्रस्ताव पर तेरी बाछें खिल गईं. मूर्ख, पूरे कश्यपपुर में क्या तू ही बचा था जिस से मैं पुनर्विवाह रचाती? अपने एक साधारण जन से विवाह कर क्या मुझे अपने पद व गौरव की हंसी उड़वानी थी?
‘‘तुम्हारे पतन पर मुझे खेद है, पर मैं ने तुम से ही सीखा राजनीति का अस्त्र प्रयुक्त किया है. तुम ने ही तो एक बार कहा था, ‘शत्रु को शत्रु के हथियार से ही मारना चाहिए.’ ले जाओ इस सांप को और बाहर छोड़ आओ. मैं ने इस के विषैले दांत तोड़ डाले हैं.’’
वास्तव में कपिल उसी रात्रि को कश्यपपुर से गायब हो गया. विधवा यशोवती पूरे 15 वर्ष तक कश्यपपुर पर एकछत्र राज्य करती रही.