कहानी: क्यों, आखिर क्यों
समाज चाहे कितनी भी तरक्की कर ले लेकिन उस की मानसिकता आज भी संकीर्ण है कि बेटा वंश बढ़ाने वाला होता है बेटी नहीं. उस के लिए इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि मां की ममता सिर्फ बच्चे को देखती है बेटा या बेटी नहीं.
आज लगातार 7वें दिन भी जब मालती काम पर नहीं आई तो मेरा गुस्सा सातवां आसमान छू गया, खुद से बड़बड़ाती हुई बोली, ‘क्या समझती है वह अपनेआप को? उसे नौकरानी नहीं, घर की सदस्य समझा है. शायद इसीलिए वह मुझे नजरअंदाज कर रही है…आने दो उसे…इस बार मैं फैसला कर के ही रहूंगी…यदि वह काम करना चाहे तो सही ढंग से करे वरना…’ अधिक गुस्से के चलते मैं सही ढंग से सोच भी नहीं पा रही थी.
मालती बेहद विश्वासपात्र औरत है. उस के भरोसे घर छोड़ कर आंख मूंद कर मैं कहीं भी आजा सकती हूं. मेरी बच्चियों का अपनी औलाद की तरह ही वह खयाल रखती है. फिर यह सोच कर मेरा हृदय उस के प्रति थोड़ा पसीजा कि कोई न कोई उस की मजबूरी जरूर रही होगी वरना इस से पहले उस ने बिना सूचित किए कभी लंबी छुट्टी नहीं ली.
मेरे मन ने मुझे उलाहना दिया, ‘राधिका, ज्यादा उदार मत बन. तू भी तो नौकरी करती है. घर और दफ्तर के कार्यों के बीच सामंजस्य बनाए रखने की हरसंभव कोशिश करती है. कई बार मजबूरियां तेरे भी पांव में बेडि़यां डाल कर तेरे कर्तव्य की राह को रोकती हैं…पर तू तो अपनी मजबूरियों की दुहाई दे कर दफ्तर के कार्य की अवहेलना कभी नहीं करती?’
दफ्तर से याद आया कि मालती के कारण मेरी भी 7 दिन की छुट्टी हो गई है. बौस क्या सोचेंगे? पहले 2 दिन, फिर 4 और अब 7 दिन के अवकाश की अरजी भेज कर क्या मैं अपनी निर्णय न ले पाने की कमजोरी जाहिर नहीं कर रही हूं?
तभी धड़ाम की आवाज के साथ ऋचा की चीख सुन कर मैं चौंक गई. मैं बेडरूम की ओर भागी. डेढ़ साल की ऋचा बिस्तर से औंधेमुंह जमीन पर गिर पड़ी थी. मैं ने जल्दीजल्दी उसे बांहों में उठाया और डे्रसिंग टेबल की ओर लपकी. जमीन से टकरा कर ऋचा के माथे की कोमल त्वचा पर गुमड़ उभर आया था. दर्द से रो रही ऋचा के घाव पर मरहम लगाया और उसे चुप कराने के लिए अपनी छाती से लगा लिया. मां की ममता के रसपान से सराबोर हो कर धीरेधीरे वह नींद के आगोश में समा गई.
फिर मुझे मालती की याद आ गई जिस की सीख की वजह से ही तो मैं अपनी दोनों बेटियों को स्तनपान का अधिकार दे पाई थी वरना मैं ने तो अपना फिगर बनाए रखने की दीवानगी में बच्चियों को अपनी छाती से लगाया ही न होता…सोच कर मेरी आंखों से 2 बूंदें कब फिसल पड़ीं, मैं जान न पाई.
ऋचा को बिस्तर पर लिटा कर मैं अपने काम में उलझ गई. हाथों के बीच तालमेल बनाती हुई मेरी विचारधारा भी तेजी से आगे बढ़ने लगी.
मां से ही जाना था कि जब मेरा जन्म हुआ था तब मां के सिर पर कहर टूट पड़ा था. रंग से तनिक सांवली थीं. अत: दादीजी को जब पता चला कि बेटी पैदा हुई है तो यह कह कर देखने नहीं गईं कि लड़की भी अपनी मां जैसी काली होगी, उसे क्या देखना? चाचीजी ने जा कर दादी को बताया, ‘मांजी, बच्ची एकदम गोरीचिट्टी, बहुत ही सुंदर है, बिलकुल आप पर गई है…सच…आप उसे देखेंगी तो अपनेआप को भूल जाएंगी.’
‘फिर भी वह है तो लड़की की जात…घर आएगी तब देख लूंगी,’ दादी ने घोषणा की थी.
मेरे भैया उम्र में मुझ से 3 साल बड़े थे…सांवले थे तो क्या? आगे चल कर वंश का नाम बढ़ाने वाले थे…अत: उन का सांवला होना क्षम्य था.
ज्योंज्यों मैं बड़ी होती गई, त्योंत्यों मेरी और भैया की परवरिश में भेदभाव किया जाने लगा. उन के लिए दूध, फल, मेवा, मिठाई सबकुछ और मेरे लिए सिर्फ दालचावल. यह दादी की सख्त हिदायत थी. वह मानती थीं कि लड़कियां बड़ी सख्त जान होती हैं, ऐसे ही बड़ी हो जाती हैं. लड़के नाजुक होते हैं, उन की परवरिश में कोई कमी नहीं होनी चाहिए. आखिर वही हमारे परिवार की शान में चार चांद लगाते हैं. बेटियां तो पराया धन होती हैं… कितना भी खिलाओपिलाओ, पढ़ाओ- लिखाओ…दूसरे घर की शोभा और वंश को आगे बढ़ाती हैं.
मम्मी और चाचीजी दोनों ही गांव की उच्चतर माध्यमिक पाठशाला में शिक्षिका थीं. वे सुबह 11 बजे जातीं और शाम साढ़े 6 बजे लौटतीं. मेरी देखभाल के लिए कल्याणी को नियुक्त किया गया था, लेकिन दादी उस से घर का काम करवातीं. बहुत छोटी थी तब भी मुझे एक कोने में पड़ा रहने दिया जाता. कई बार कपड़े गीले होते…पर कल्याणी को काम से इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती कि वह मेरे गीले कपड़े बदल दे. एक बार इसी वजह से मैं गंभीर रूप से बीमार भी हो गई थी. बुखार का दिमाग पर असर हो गया था. मौत के मुंह से मुश्किल से बहार आई थी.
इस हादसे की बदौलत ही मम्मी को पता चला था कि दादी के राज में मेरे साथ क्या अन्याय किया जा रहा था. तब मां दादी से नजरें बचा कर एक कोने में छिप कर खूब रोई थीं…पापा 1 महीने के दौरे पर से जब लौटे तब मां ने उन्हें सबकुछ बता दिया. अपनी बच्ची के प्रति मां द्वारा किए गए अन्याय ने उन्हें बहुत दुख पहुंचाया था किंतु मम्मीपापा के संस्कारों ने उन्हें दादी के खिलाफ कुछ भी करने की इजाजत नहीं दी.
कुछ समय बाद पता चला कि मां ने सूरत के केंद्रीय विद्यालय में अर्जी दी थी. साक्षात्कार के बाद उन का चयन हो जाने पर पापा ने भी अपना तबादला सूरत करवा लिया. मैं मम्मी के साथ उन के स्कूल जाने लगी और भैया अन्य स्कूल में.
दादी मां द्वारा खींची गई बेटेबेटी की भेद रेखा ने मुझे इतना विद्रोही बना दिया था कि मैं अपने को लड़का ही समझने लगी थी. शहर में आ कर मैं ने मर्दाना पहनावा अपना लिया. मेरी मित्रता भी लड़कों से अधिक रही.
मम्मी कहतीं, ‘बेटी, तुम लड़की बन कर इस संसार में पैदा हुई हो और चाह कर भी इस हकीकत को झुठला नहीं सकतीं. मेरी बच्ची, इस भ्रम से बाहर आओ और दुनिया को एक औरत की नजर से देखो. तुम्हें पता चल जाएगा कि दुनिया कितनी सुंदर है. सच, दादी की उस एक गलती की सजा तुम अपनेआप को न दो, अभी तो ठीक है, लेकिन शादी के बाद तुम्हारे यही रंगढंग रहे तो मुझे डर है कि पुन: तुम्हें कहीं मायका न अपनाना पड़े.’
मम्मी के लाख समझाने के बावजूद मैं चाह कर भी अपनेआप को बदल नहीं पाती. सौभाग्य से मुझे वेदांत मिले जिन्हें सिर्फ मुझ से प्यार है, मेरी जिद से उन्हें कोई सरोकार नहीं. उन्होंने कभी मेरे लाइफ स्टाइल पर एतराज जाहिर नहीं किया.
टेलीफोन की घंटी कानों में पड़ते ही मैं फिर वर्तमान में आ पहुंची. दूसरी तरफ अंजलि भाभी थीं. उन्होंने बताया कि तेजस लोकल टे्रन से गिर गया था. इलाज के लिए उसे अस्पताल में दाखिल करवाया गया है. मैं ने उसी वक्त वेदांत को एवं आलोक भैया को फोन द्वारा सूचित तो कर दिया लेकिन मैं अजीब उलझन में पड़ गई. न तो मैं ऋचा को अकेली छोड़ कर जा सकती थी और न ही उसे अस्पताल ले जाना मेरे लिए ठीक रहता. अब क्या करूं…एक बार फिर मुझे मालती की याद आ गई…उफ, इस औरत का मैं क्या करूं?
डोरबेल बजने पर जब मैं ने दरवाजा खोला तो दरवाजे के बाहर मालती को खड़ा पाया. उसे सामने देख कर मेरा सारा गुस्सा हवा हो गया क्योंकि उस की सूजी हुई आंखें और चेहरे पर उंगलियों के निशान देख कर मैं समझ गई कि वह फिर अपने पति के जुल्म का शिकार हुई होगी.
‘‘क्या हुआ, मालती? तुम्हारे चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही हैं?’’ लगातार रो रही मालती उत्तर देने की स्थिति में कहां थी. मैं ने भी उसे रोने दिया.
मालती ने रोना बंद कर बताना शुरू किया, ‘‘भाभी, मैं तुम से माफी मांगती हूं. बंसी ने मुझे इतना पीटा कि मैं 3 दिन तक बिस्तर से उठ नहीं पाई.’’
‘‘लेकिन क्यों?’’ मुझे रहरह कर उस के पति पर गुस्सा आ रहा था. मन कर रहा था कि उसे पुलिस के हवाले कर दूं. पर अभी तो अस्पताल जाना ज्यादा जरूरी है.
‘‘मालती, मेरे खयाल से तुम काफी थकी हुई लग रही हो. थोड़ी देर आराम कर लो. मुझे अभी अस्पताल जाना है,’’ मैं ने उसे संक्षेप में सब बता दिया और बोली, ‘‘मेरे लौटने तक तुम्हें यहीं रुकना पड़ेगा. हम बाद में बात करेंगे…करिश्मा स्कूल से आए तो उस के लिए नाश्ता बना देना.’’
मैं अस्पताल पहुंची. मुझे देखते ही अंजलि मेरे कंधे से लग कर बेतहाशा रोने लगी. मेरी भी आंखें छलछला आईं. मेडिकल कालिज का मेधावी छात्र, लेकिन पिछले 6 महीनों से दूरदर्शन के एक मशहूर धारावाहिक में प्रमुख किरदार निभा रहा था. अभी तो उस के कैरियर की शुरुआत हुई थी, लोग उसे जानने, पहचानने और सराहने लगे थे कि शूटिंग से लौटते वक्त लोकल टे्रन से गिर कर ब्रेन हैमरेज का शिकार हो गया. मां, पिताजी और मैं भाभी को संभालतेसंभालते खुद भी हिम्मत हारने लगे थे. सभी एकदूसरे को ढाढ़स बंधाने का असफल प्रयास कर रहे थे.
काफी रात हो चुकी थी. बच्चोें के कारण मुझे बेमन से घर जाना पड़ा. मालती की गोद में ऋचा तथा होम वर्क के दिए गए गणित के समीकरण को सुलझाने का प्रयास करती हुई करिश्मा को देख मेरी आंखें भर आईं.
मैं निढाल सी सोफे पर लेट गई. मेरे दिल और दिमाग पर तेजस की घटना की गहरी छाप पड़ी थी. थोड़े समय बाद जब कुछ सामान्य हुई तो यह सोच कर कि आज जितने हादसों से साक्षात्कार हो जाए अच्छा होगा, कम से कम, कल का सूरज आशाओं की कुछ किरणें हमारे उदास आंचल में डालने को आ जाए. यही सोच कर मैं ने मालती से उस की दर्दनाक व्यथा सुनी.
‘‘भाभी, मैं चौथी बार पेट से हूं. बंसी मेरे पीछे पड़ गया है कि मैं जांच करवा लूं और लड़की हो तो गर्भपात करा दूं. मैं इस के लिए तैयार नहीं हूं, इस बात पर वह मुझे मारतापीटता और धमकाता है कि अगर इस बार लड़की हुई तो मुझे घर से निकाल देगा, वह जबरदस्ती मुझे सरकारी अस्पताल भी ले गया था लेकिन डाक्टर ने उसे खूब डांटा, धमकाया कि औरत पर जुल्म करेगा, जांच के लिए जबरदस्ती करेगा तो पुलिस में सौंप दूंगी क्योंकि गर्भपरीक्षण कानूनी अपराध होता है. मैं ने तो उसे साफ बोल दिया कि वह मुझे मार भी डालेगा तो भी मैं गर्भपात नहीं कराऊंगी.’’
‘‘तो क्या तुम यों ही मार खाती रहोगी? इस तरह तो तुम मर जाओगी.’’
‘‘नहीं, भाभी, मैं ने उस को बोल दिया कि बेटा हुआ तो तुम्हारा नसीब वरना मैं अपनी चारों बच्चियों को ले कर कहीं चली जाऊंगी. हाथपैर सलामत रहे तो काम कहीं भी मिलेगा, वैसे भी बंसी तो सिर्फ नाम का पति है, वह कहां बाप होने का धर्म निभाता है? उस को भी तो मैं ही पालती हूं. मैं मां हूं और मां की नजर सिर्फ अपने बच्चे को देखती है, बेटी, बेटे का भेद नहीं. फिर लड़का या लड़की पैदा करना क्या मेरे हाथ में है?’’
कितनी कड़वी मगर सच्ची बात कह दी इस अनपढ़ औरत ने. एक मां अपने बच्चे के लिए बड़ी से बड़ी कुरबानी दे सकती है पर शायद यह पुरुष प्रधान भारतीय समाज की मानसिकता है कि वंश को आगे बढ़ाने के लिए और अर्थी को कांधा देने के लिए बेटे की जरूरत होती है…अत: अगर परिवार में बेटा न हो तो परिवार को अधूरा माना जाता है.
मेरी दादी मां क्यों औरत की कदर करना नहीं जानतीं? वह क्यों भूल गईं कि वह खुद भी एक औरत ही हैं? दादी की याद आते ही मेरा हृदय कड़वाहट से भर उठा. लेकिन अगले ही पल मेरे मन ने मुझे टोका कि तू खुद भी संकुचित मानसिकता में दादी मां से कम है क्या? अगर मालती चौथी बार मां बनने वाली है तो तेरे उदर में भी तो तीसरा बच्चा पल रहा है. तीसरी बार गर्भधारण के पीछे तेरा कौन सा गणित काम कर रहा है…? 2 बेटियों की मां बन कर तू खुश नहीं? क्या जानेअनजाने तेरे मन में भी बेटा पाने की लालसा नहीं पनप रही?
मैं सिर से पैर तक कांप उठी. यह मैं क्या करने जा रही हूं? दादी को कोसने से मेरा यह अपराधबोध क्या कम हो जाएगा? नहीं, कदापि नहीं. उसी वक्त मैं ने फैसला ले लिया कि तीसरे बच्चे के बाद मैं आपरेशन करवा लूंगी. यह फैसला करते ही मेरे दिमाग की तंग नसें धीरेधीरे सामान्य होती चली गईं.
चैन से सो रही मालती के चेहरे पर निर्दोष मुसकान खेल रही थी. जल्द ही मैं भी नींद के आगोश में समा गई. सुबह जब आंख खुली तब मैं अपने को हलका महसूस कर रही थी.
मालती पहले ही उठ कर घर के कामों को पूरा कर रही थी. उस ने करिश्मा को नाश्ता बना कर दे दिया था और वह स्कूल जाने को तैयार थी.
मैं ने करिश्मा के कपोल चूमते हुए उसे विश किया तो लगा कि वह कुछ बुझीबुझी सी थी.
‘‘क्यों बेटी, क्या आप की तबीयत ठीक नहीं?’’
‘‘नहीं मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं.’’
‘‘मम्मी आप के चेहरे की हर रेखा पढ़ सकती है, बेटा, जरूर कोई बात है… मुझ से नहीं कहोगी?’’ सोफे पर बैठ कर मैं ने उसे अपनी गोद में खींच लिया.
ममता भरा स्पर्श पा कर उस की आंखें भर आईं. मैं ने सोचा शायद पढ़ाई में कोई मुश्किल सवाल रहा होगा, जिस का हल वह नहीं ढूंढ़ पा रही होगी.
‘‘बेटा, क्या मैं आप की कोई मदद कर सकती हूं?’’
‘‘नो, थैंक्स मम्मा,’’ उस के शब्द गले में ही अटक गए.
‘‘चलो, मैं प्रियंका को फोन कर देती हूं. वह आप की समस्या का कोई हल ढूंढ़ पाएगी, क्या उस से झगड़ा हुआ है?’’ मैं फोन की ओर बढ़ी, ‘‘उसे मैं कह देती हूं कि वह जल्दी आ जाए ताकि मैं आप दोनों को स्कूल में ड्राप कर दूं.’’
‘‘मम्मा,’’ वह चीख उठी, ‘‘प्रियंका अभी नहीं आ सकेगी.’’
‘‘क्यों…?’’ मुझे धक्का लगा.
‘‘सौरी, मम्मा,’’ वह धीरे से बोली, ‘‘प्रियंका लाइफ लाइन अस्पताल में है.’’
आश्चर्य का इतना तेज झटका मैं ने महसूस किया कि मैं संभल नहीं पाई, ‘‘क्या हुआ है उसे?’’
हमारे पड़ोस में ही निर्मल परिवार रहता है जिन की बड़ी बेटी प्रियंका करिश्मा की खास सहेली है. दोनों एकसाथ 7वीं कक्षा में पढ़ती हैं.
पता चला कि प्रियंका ने मिट्टी का तेल छिड़क कर खुद को जलाने की कोशिश की थी जिस में उस का 80 प्रतिशत बदन आग की लपेट में आ गया था. मेरा दिमाग सुन्न हो गया. मेरी नजरों के सामने प्रियंका का चेहरा उभर आया. इतनी कम उम्र और इतना भयानक कदम…? इतना सारा साहस उस फू ल सी बच्ची ने कहां से पाया होगा? न जाने किस पीड़ादायी अनुभव से वह गुजर रही होगी जिस से छुटकारा पाने के लिए उस ने यह अंतिम कदम उठाया होगा? लगातार रोए जा रही करिश्मा को बड़ी मुश्किल से चुप करा कर उसे स्कूल के गेट तक छोड़ दिया. फिर मैं प्रियंका को देखने अस्पताल के लिए चल पड़ी.
अस्पताल के गेट पर ही मुझे मेरी एक अन्य पड़ोसिन ईराजी मिल गईं. उन से जो हकीकत पता चली उसे जान कर तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए, कल्पना से परे एक हकीकत जिसे सुन कर पत्थर दिल इनसान का भी कलेजा फट जाएगा.
प्रियंका की मम्मी को एक के बाद एक कर के 4 बेटियां हुईं. जाहिर है, इस के पीछे बेटा पाने की भारतीय मानसिकता काम कर रही होगी. धिक्कार है ऐसी घटिया सोच के साथ जीने वाले लोगों को…मेरे समग्र बदन में नफरत की तेज लहर दौड़ गई.
उन की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं चल रही थी. इस महंगाई के दौर में 4 बेटियां और आने वाली 5वीं संतान की, सही ढंग से परवरिश कर पाना उन के लिए मुश्किल था. ऐसे में राजनजी के किसी मित्र ने उन की चौथी बेटी सोनिया को गोद लेने का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने मान लिया. क्या सोच कर उन्होंने ऐसा निर्णय किया यह तो वही जानें लेकिन प्रियंका इस बात के लिए हरगिज तैयार नहीं थी. उस ने साफ शब्दों में मम्मीपापा से कह दिया था कि यदि उन्होंने सोनिया को किसी और को सौंपने की बात सोची भी तो वह उन्हें माफ नहीं करेगी.
प्रियंका बेहद समझदार और संवेदनशील बच्ची थी. वह उम्र से कुछ पहले ही पुख्ता हो चुकी थी. घर के उदासीन माहौल ने उसे कुछ अधिक ही संजीदा बना दिया था. बचपन की अल्हड़ता और मासूमियत, जो इस उम्र में आमतौर पर पाई जाती है, उस के वजूद से कब की गायब हो चुकी थी.
अपने को आग की लपटों के हवाले करने से पहले उस ने अपने हृदय की सारी पीड़ा शब्दों के माध्यम से बेजान कागज के पन्ने पर उड़ेल दी थी, अपने खून से लिखी उस चिट्ठी ने सब का दिल दहला दिया :
‘‘श्रद्धेय मम्मीपापा, अब मुझे माफ कर दीजिए, मैं आप सब को छोड़ कर जा रही हूं. वैसे मैं आप के कंधों से अपनी जिम्मेदारी का कुछ बोझ हलका किए जा रही हूं ताकि आप के कमजोर कंधे सोनिया का बोझ उठाने में सक्षम बन सकें. अपनी तीनों बहनों को मैं अपनी जान से भी ज्यादा चाहती हूं. किसी को भी परिवार से अलग होते हुए मैं नहीं देख पाऊंगी. सोनिया न रहे उस से अच्छा है कि मैं ही न रहूं…अलविदा.’’
आप की लाड़ली बेटी,
प्रियंका.’’
4 दिन तक जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करती हुई प्रियंका आखिर हार गई और जिंदगी का दामन छोड़ कर वह मौत के आगोश में हमेशा के लिए समा गई पर वह मर कर भी एक मिसाल बन गई. उस की कुरबानी ने हमारे परंपरागत, दकियानूसी समाज पर हमेशा के लिए कलंक का टीका लगा दिया, जिसे अपने खून से भी हम कभी न मिटा पाएंगे.
प्रियंका की मौत के ठीक एक हफ्ते बाद मेरे भतीजे तेजस ने भी बेहोशी की हालत में ही दम तोड़ दिया. तेजस हमारे परिवार का एकमात्र जीवन ज्योति था, जो अपनी उज्ज्वल कीर्ति द्वारा हमारे परिवार को समृद्धि के उच्च शिखर पर पहुंचाता. हमारे समाज के फलक पर रोशन होने वाला सूर्य अचानक ही अस्त हो गया फिर कभी उदित न होने के लिए.
दिनरात मेरी नजर के सामने उन दोनों के हंसते हुए मासूम चेहरे छाए रहते. हर पल अपनेआप से मैं एक ही सवाल करती, क्यों? आखिर क्यों ऐसा होता है जिसे हम चाह कर भी स्वीकार नहीं कर पाते? उन की मौत क्या हमारे समाज के लिए संशोधन का विषय नहीं?
दादीमां की पीढ़ी से ले कर प्रियंका के बीच कितने सालों का अंतराल है? दादीमां 85 वर्ष की हो चली हैं. तेजस सिर्फ 20 वसंत ही देख पाया और प्रियंका सिर्फ 12. इस लंबे अंतराल में क्या परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं थी?
दादीमां औरत थीं फिर भी मानती थीं कि संसार पुरुष से ही चलता है. हर नीतिनियम, रीतिरिवाज सिर्फ पुरुष के दम से है फिर मालती का पति तो पुरुष है. उस का यह मानना लाजमी ही था कि जो पुरुष बेटा न पैदा कर पाए वह नामर्द होता है. प्रियंका के मातापिता भी तो इसी मानसिकता का शिकार हैं कि वंश की शान और नाम आगे बढ़ाने के लिए बेटा जरूरी है. क्या सोनिया की जगह अगर उन्होंने बेटा पैदा किया होता तो उसे किसी और की गोद में डालने की बात सोच सकते थे? या उस के बाद और बच्चा पैदा करने की जरूरत को स्वीकार कर पाते? नहीं, कभी नहीं….
भला हो मालती का जिस ने मेरी आंखें खोल दीं वरना जानेअनजाने मैं भी इन तमाम लोगों की तरह ही सोचती रह जाती. अपनी कुंठित मान्यताओं के भंवर से बाहर निकालने वाली मालती का मैं जितना शुक्रिया अदा करूं कम ही है.
तेजस की अकाल मौत ने दादी मां को यह सोचने पर मजबूर किया कि जिस कुलदीपक की चाह में उन्होंने अतीत में एक मासूम बच्ची के साथ अन्याय किया था उस कुलदीपक की जीवन ज्योति को अकाल ही बुझा कर नियति ने उन की करनी की सजा दी थी.
प्रियंका भी पुकारपुकार कर पूछ रही है, हर नारी और हर पुरुष यही सोचे और चाहे कि उन के घर बेटा ही पैदा हो तो भविष्य में कहां से लाएंगे हम वह कोख जो बेटे को पैदा करती है?