कहानी: कलाकार का प्रतिशोध
राजस्थान के उदयपुर क्षेत्र में भीलवाड़ा नाम का एक जिला है. इसी की पर्वतीय उपत्यकाओं में मेणाल नामक एक दर्शनीय स्थल है.
मेणाल के मंदाकिनी कुंड की सीढि़यों पर वतुराज पिछले एक पहर से नेत्र बंद किए लेटा हुआ था. उस के मस्तिष्क में भयंकर हलचल थी. वास्तव में समस्या विकट थी.
निकट के शिव मंदिर के निर्माण में वह पिछले 4 वर्षों से व्यस्त था. उस ने देवालय सहित पश्चिममुखी मुख्यमंडप, प्रदक्षिणा पथ, अंतराल, शिखर व तोरण की साजसज्जा पर अपना स्थापत्य ज्ञान व संपूर्ण शिल्प व्यय कर दिया था.
पर देवालय का प्रवेशद्वार तथा भित्तियां अभी भी किसी विधवा की मांग की तरह सूनी थीं. अनवरत चिंतन के उपरांत भी वह इन के अनुरूप सुंदर चित्रों के अंकन तथा प्रतिमाओं के निर्माण में अपनेआप को असमर्थ पा रहा था.
उस की इच्छा विशेषकर प्रवेशद्वार को अनूठे व अगाध आकर्षण से भर देने की थी. पर उस की कल्पना तो जैसे दम तोड़ चुकी थी. देवालय की आत्मा को उस ने अतीव भव्यता प्रदान की थी.
विशाल शिवलिंग, भयावह काली, रौद्र रूप महाकाल, भैरव व अन्य परंपरागत देवीदेवताओं की सुंदर प्रतिमाएं उस ने चौहान शासक की इच्छा के अनुरूप निर्मित की थीं. मनोहर बेलबूटे, कई रंगों से युक्त नक्काशी, पशुपक्षियों के सजीव चित्रण आदि उस की शिल्पश्रेष्ठता के प्रमाण थे.
पर वह कुछ जीवंत चित्रण प्रस्तुत करना चाहता था. जैसे अप्सराएं, नर्तकियां, युगल गायक, नर्तक आदि. इन सब के लिए दिनप्रतिदिन के जीवन से वह किसी अछूते नारी सौंदर्य की खोज करना चाहता था. ऐसा सौंदर्य जिस के चित्रण से देवालय के बाह्य कलेवर में प्राण फूंके जा सकें. ऐसे अप्रतिम नारी सौंदर्य की खोज में वतुराज जहाजपुर, माडण व मेवाड़ में पिछले 4 माह से भटक कर लौटा था.
चौहान शासक विग्रहराज तृतीय कई बार मंदिर को पूर्ण करने के लिए संदेशवाहक भेज चुका था. जबजब भी विग्रहराज शाकंभरी (सांभर) से पृथ्वीपुर (वर्तमान अजमेर) में डेरा डालता, उस के तकाजों में वृद्धि होती जाती. किसी भी क्षण विग्रहराज के मेणाल में आ जाने की आशंका थी. केवल प्रवेशद्वार व दीवारों की अपूर्णता के कारण वह उस का कोपभाजन नहीं बनना चाहता था. इसीलिए गहन चिंता में वह फिर खो गया.
‘‘सुनिए, उठिए, देखिए तो…’’ अचानक एक मधुर किंतु चिंतित नारी स्वर सुन कर वतुराज की नींद खुल गई. चिलचिलाती धूप उस की आंखों में चौंध उत्पन्न कर रही थी. उसे आश्चर्य हुआ कि नींद में 3 सीढि़यों से लुढ़क कर वह कुंड के निकट की अंतिम सीढ़ी पर आ पहुंचा था. एक करवट और ले लेने पर निश्चय ही उस की जल समाधि लग जाती.
उस ने पीछे की ओर पलकें उठा कर देखा. एक युवती ने उस के अंगरखे व धोती के कोनों को दोनों हाथों से पकड़ रखा था तथा वही उसे पुकारपुकार कर जगा रही थी.
वतुराज सकपका कर उठ बैठा.
‘‘अनोखे व्यक्ति हैं आप भी. मेरे देखतेदेखते निद्रा में आप ने 3 सीढि़यां पार कर लीं,’’ युवती खिलखिला उठी, ‘‘यदि जलाशय छोड़ कर मैं आप का अंगरखा न पकड़ लेती तो आप तो जलमग्न होते ही, आप को रोकने में असमर्थ हो शायद मेरी भी यही नियति होती.
‘‘पर मैं ने भी निश्चय कर लिया था कि जब तक मुझ में शक्ति है, अपने जाट पिता का नाम नहीं डूबने दूंगी और आप को कुंड में उतरने से रोके रहूंगी. पर बाप रे, नींद में तो आप मुझे पानी में खींचे ही लिए जा रहे थे.’’
युवती उठ खड़ी हुई. दूर रखी अपनी गगरी की ओर वह बढ़ गई. उस ने सहसा पीछे मुड़ कर अपनी गगरी सिर पर रखते हुए वतुराज की ओर निहारा. वह गगरी को सीढि़यों पर रख कर उस के सामने बैठ गई.
‘‘इस प्रकार अपलक आप मेरी ओर क्यों ताक रहे हैं?’’
वतुराज ने युवती का अब सूक्ष्मा- वलोकन किया. कुछ पलों में ही मुसकराहट उस के होंठों पर नाच उठी. उस के नेत्रों में चमक उत्पन्न हो गई.
‘‘सुंदर… अति सुंदर,’’ वतुराज बुदबुदा उठा.
‘‘ऐ… क्या बोल रहे हैं आप?’’
‘‘देवी, मैं तुम्हारा जीवनपर्यंत ऋणी रहूंगा. सचमुच तुम ने मुझे प्राणदान दिया है. मेरी कई माह की खोज पूर्ण हो चुकी है.’’
असमंजस में पड़ी युवती उस की निरर्थक बातों को सुनती रही. वतुराज एक शिल्पी की दृष्टि से युवती के अंगप्रत्यंग का अवलोकन कर चुका था. ग्रामीण वेशभूषा में भी उस का तीखा सौंदर्य उस की पारखी दृष्टि से छिप नहीं सका था.
उस का मुख अत्यंत आकर्षक था. उस की तोते जैसी नासिका, गुलाब की पंखड़ी जैसे उस के अधर, हिरणी जैसे बड़ेबड़े चंचल नेत्र, धनुषाकार भौंहें, पूरे नयनों का अवगुंठन बनी बड़ी घनी पलकें, रेशम जैसी मुलायम काली केशराशि, स्निग्ध व कोमल गात, सुगठित यौवन तथा कल्पना से भी कहीं अधिक संकुचित कटि प्रदेश.
ऐसे अनूठे सौंदर्य को ही वह देवालय की प्राचीरों, मुख्यद्वार व भित्तियों पर अंकित कर देने का आकांक्षी था. पुरुष सौंदर्य तो उस की कल्पना की परिधि में पहले से ही था. इस युवती के साथ युगल नर्तक, गीतकार व वादकों के चित्र कितने सुंदर प्रतीत होंगे? इस कल्पना मात्र से ही वह हर्षित हो उठा.
‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’
‘‘केचल.’’
‘‘कौन से गांव में रहती हो?’’
‘‘ऊपर पहाड़ पर एक छोटी सी ढाणी (गांव) है-बेस. वहां 30 घर हैं.’’
‘‘मुझे जानती हो?’’
‘‘तुम्हें? सच बताऊं?’’ युवती खिलखिला उठी, ‘‘पास के मंदिर में पत्थरों से घंटों सिर खपाने वाले सिरफिरे पागल से इस क्षेत्र का बच्चाबच्चा परिचित है.’’
‘‘हूं. तो मैं सिरफिरा पागल हूं?’’
‘‘हां, यही नामकरण किया गया है तुम्हारा. वैसे भी सिरफिरे पागल नहीं होते तो क्या इस कुंड की सीढि़यों पर मुर्दों से शर्त लगा कर सोते? मैं ने चुपचाप, रात में पहरों तुम्हें छेनीहथौड़े से दत्तचित्त पत्थरों को तराशतेसंवारते देखा है.
‘‘मेरी उस समय कितनी इच्छा होती थी कि तुम्हें विश्राम करने के लिए मजबूर करूं. पर लाज के कारण मैं मंदिर में पैर रखने का भी साहस नहीं कर सकी. अब जब इस देवालय की काया कुछ निखरी तो तुम्हारी मेहनत का मूल्य मुझे ज्ञात हुआ. सचमुच मेरी ढाणी का हर प्राणी, छोटा या बड़ा, तुम्हारी बहुत इज्जत और सम्मान करता है.’’
‘‘अच्छा… और तुम?’’
‘‘मैं?’’ केचल के मुख पर शरारत नाच उठी, ‘‘तुम्हें सब से अधिक…’’ अपनी बात बीच में छोड़ कर वह चुनरी का पल्ला मुख में दबा कर भागते हुए बोली, ‘‘तुम्हें चाहती…नहींनहीं, घोंघा- बसंत मानती हूं.’’
वतुराज देखता रह गया. केचल पल भर में भाग कर दूर अंतर्धान हो गई.
रात्रि के दूसरे पहर तक वतुराज शिव मंदिर में एकाग्रता से कार्य करता रहा.
‘‘केचल, इधर आओ,’’ बिना पीछे गरदन मोड़े वतुराज ने सहसा आवाज दी.
‘‘अरे, तुम्हें कैसे पता चला कि मैं यहां बैठी हूं?’’ केचल ने आश्चर्य प्रकट किया.
‘‘क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि मेरी पीठ में भी 2 आंखें हैं जिन से केचल को पहचानना कठिन नहीं है.’’
‘‘रहने दो, बातें बनाने की आवश्यकता नहीं है,’’ पल भर रुक कर वह फिर बोली, ‘‘देखो तो मैं तुम्हारे लिए क्या ले कर आई हूं. मक्का की रोटी और गाजरपालक का साग. मैं गरमगरम लाई थी पर तुम ने अपनी तन्मयता में इन्हें ठंडा कर दिया.’’
‘‘ओहो, पर तुम ने कितना घी डाला है साग और रोटियों में. अरे, यदि मैं ऐसा खाना 4 दिन भी लगातार खा लूं तो 5वें दिन थुलथुल हो कर यहीं कहीं लुढ़का पड़ा मिलूं. भला बताओ कि फिर ये मूर्तियां कौन बनाएगा?’’
‘‘हाय,’’ सहसा केचल के मुख से विस्मयपूर्ण स्वर निकला, ‘‘तुम ने तो सभी प्रतिमाओं में मेरी छवि बना दी है. तुम्हारे हाथ में कोई चमत्कार है क्या?’’
‘‘अभी तो देखना, केचल, इस पूरे देवालय के कणकण में मैं तुम्हारी ही मुखाकृति अंकित करूंगा. जानती हो क्यों?’’
‘‘क्यों?’’ पुलकित हो कर केचल ने प्रश्न किया.
‘‘इसलिए कि मैं तुम्हें हृदय से चाहता…नहींनहीं, ईर्ष्या करता हूं.’’
‘‘धत,’’ लाल बहूटी बनी केचल मंदिर से भाग छूटी.
वतुराज ने थोड़े ही समय में अपने निपुण हाथों से केचल की कई सुंदर प्रतिमाएं बनाईं. कहीं नृत्य मुद्रा, कहीं स्नान करते, पक्षियों को पकड़ते, प्रोषित पतिका नायिका तथा उल्लास, करुण, विरह, प्रेम, रोष, घृणा आदि प्रकट करती उस की सजीव आकृतियां उस की छेनी व हथौड़ी से बोलती सी प्रतीत हो रही थीं. इसी प्रकार भित्तिचित्रों में भी केचल के ही आकर्षक भिन्नभिन्न रूप थे.
लोग वतुराज की कला की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे. देवालय के कोनेकोने में लगाई जाने वाली अपनी मुखाकृतियों को देखदेख कर तथा सहेलियों को दिखा कर केचल आठों पहर मानो सपनों के मेघों पर आरूढ़ रहती.
नई प्रतिमाओं व यथार्थवादी जीवन के सुंदर चित्रों से देवालय का रूप निखर आया. चौहान विग्रहराज तृतीय के कानों में भी मेणाल के देवालय की भव्यता की खबर पहुंची.
वतुराज के शिल्प को अपनी आंखों से देखने के लिए वह लालायित हो उठा.
दूसरी ओर वतुराज व केचल अनवरत प्रेम की पेंगें भर रहे थे. रात्रि के दूसरे व तीसरे पहर में केचल बिना नागा देवालय की परिधि में ही दिखाई पड़ती. अब तो प्रात: व संध्या दोनों समय वह वतुराज को सुस्वादु खाना ले जा कर देती. कई आकृतियां तो वतुराज ने केचल को घंटों अपने सामने बैठा कर ही निर्मित की थीं.
‘‘एक बात तो बताओ,’’ एक संध्या को अपनी छेनीहथौड़ी एक ओर रख कर वतुराज ने अचानक केचल से प्रश्न किया, ‘‘तुम यहां प्रतिदिन आती हो, घंटों मेरे सामने बिना हिलेडुले विशेष भावभंगिमा में मौन बैठी रहती हो, क्या तुम्हारे घर वाले और ढाणी के लोग तुम पर उंगलियां नहीं उठाते?’’
दूर के उच्च स्थान से उठ कर, अंगड़ाई लेते हुए केचल बोली, ‘‘आज तो एक ही मुद्रा बना कर बैठने से मेरी कमर दुख गई है. घर वाले या गांव वाले मुझ पर क्रोध क्यों करेंगे? मैं छिप कर तो यहां आती नहीं हूं. वैसे भी जब मैं कोई पाप नहीं कर रही हूं तो मुझे चिंता भी किस की है? फिर मैं अपनी अंधी, बूढ़ी मां को सबकुछ बता चुकी हूं तुम्हारे विषय में. यहां आने का अपना महत्त्व भी मैं उसे स्पष्ट कर चुकी हूं.
‘‘यदि मेरे कारण तुम्हारी कला में निखार आता है तो घंटों क्या, कई बरस, बल्कि जीवन भर बिना हिलेडुले तुम्हारे सामने मैं बैठी रह सकती हूं. एक बात और भी है मूर्तिकार, प्रत्येक नारी सामने वाले पुरुष को परख कर ही उस से संपर्क बढ़ाती है. तुम्हारे स्थान पर और कोई होता तो शायद मैं देवालय की सीमा में ही पैर न रखती.’’
‘‘पर, केचल, लोग कहते हैं और मैं भी जानता हूं कि मैं अत्यंत कुरूप व्यक्ति हूं. मेरे मुख पर चेचक के मोटेमोटे दाग हैं, मेरा रंग आबनूस सा काला है और…’’
‘‘और तुम्हारी आंखें हाथी जैसी छोटी हैं, तुम्हारी नाक बहुत चौड़ी है, तुम्हारा मुख सपाट है, होंठ बहुत मोटे हैं, हाथपैर टेढ़ेमेढ़े हैं, तुम्हारा सीना भीतर को दबा हुआ है. बस, या तुम्हारे रूप का और भी बखान करूं?
‘‘तुम्हारे इस शारीरिक रूप का वर्णन तो मैं अपनी सहेलियों से दिन भर सुनती रहती हूं. पर तुम्हारा चांदी सा निर्मल मन, स्फटिक जैसा हृदय, हजारों नवीन कल्पनाओं व विचारों में खोया रहने वाला तुम्हारा मस्तिष्क, मूक पत्थरों को स्वर प्रदान करने वाले तुम्हारे हाथ, इन सब की खूबसूरती तो मैं ही उन्हें बताती हूं.
‘‘मैं ही नहीं, तुम्हारी प्रशंसा मुझ से सुनसुन कर मेरी मां भी तुम्हारी दीवानी हो उठी है. यह तो बताओ कि तुम्हारे मंदिर का यह कार्य कब तक पूरा होगा?’’
‘‘बस, एक सप्ताह का कार्य और है. फिर हम दोनों यहां से बहुत दूर चले जाएंगे अपनी गृहस्थी बसाने के लिए…’’
‘‘सच,’’ केचल प्रसन्नता से नाच उठी. भावावेश में उस ने वतुराज की दोनों खुरदरी हथेलियां अपने कोमल हाथों में भर लीं. यह उन का प्रथम शारीरिक संपर्क था. चातक पक्षी की भांति दोनों एकदूसरे को अपलक ताकते रहे.
‘‘केचल,’’ लंबे मौन के पश्चात वतुराज बोला, ‘‘मुझे विश्वास है कि चौहान शासक की ओर से मुझे इस देवालय के निर्माण के लिए पुरस्कार अवश्य मिलेगा. मैं ने सारी प्रतिमाएं व चित्र लगभग पूर्ण कर लिए हैं. केवल निश्चित स्थान पर उन के लगाने की आवश्यकता है. सम्राट की ओर से मिलने वाले पुरस्कार द्वारा हम अपनी गृहस्थी को सुगमतापूर्वक संचालित कर सकेंगे. उस छोटे से परिवार में केवल हम 2 ही सदस्य रहेंगे.’’
‘‘नहीं, 3 सदस्य रहेंगे. मेरी बूढ़ी मां भी तो हम पर ही निर्भर है.’’
‘‘अरे हां, यह तो मैं भूल ही गया था.’’
वतुराज स्वप्नों में खो गया. केचल के मन में विवाह की इंद्रधनुषी कल्पना से रंग ही रंग बिखर पड़े. उस का हृदय आलोडि़त हो उठा. अनायास हृदय के वशीभूत हो कर वह वटवृक्ष पर लिपटी किसी लता जैसी वतुराज के हृदय से लग गई.
वतुराज भी धीरेधीरे केचल को अपनी बांहों में समेटता गया. फिर भी उस का विवेक उसे चेतावनी दे रहा था, ‘वतुराज, संभल जाओ, तुम वासना के हाथों लुटे जा रहे हो.’
वह अभी अपने बंधन को ढीला करने ही वाला था कि ‘सुंदर, अति सुंदर’ का अपरिचित स्वर सुन कर केचल चौंक उठी. वह तीर की भांति, देवालय से, दृष्टि धरती पर गड़ाए घर की ओर भाग गई.
भागतेभागते उस ने देख लिया कि वतुराज को संबोधित करने वाला व्यक्ति प्रभावशाली व्यक्तित्व का धनी था. उस की वेशभूषा राजसी थी तथा देवालय के बाहर कई सेवक उस की पालकी के पास प्रतीक्षा में खडे़ थे.
‘‘हमें तो भ्रम हुआ वतुराज कि हमारी दृष्टि के सम्मुख आलिंगनबद्ध किसी विवाहित युगल की प्रतिमा साकार हो उठी हो,’’ राजसी पुरुष ने अट्टहास किया.
‘‘माईबाप, आप? आप ने तो अपने आगमन की कोई सूचना ही नहीं दी,’’ वतुराज अधोमुख किए हुए बोला.
‘‘सूचना दे देते तो हम इतने आकर्षक जीवंत शिल्प के अवलोकन से वंचित नहीं रह जाते?’’ वह व्यक्ति व्यंग्य से होंठों के भीतर ही हंस उठा.
‘‘माईबाप, वह तो मेरी प्रेरणा का स्रोत है. तनिक दृष्टि डालिए, प्रत्येक प्रतिमा की मुखाकृति भिन्न होते हुए भी उस की भावभंगिमा व शरीर सौष्ठव में आप को गहरा साम्य मिलेगा, क्योंकि इस युवती को आधार बना कर मैं ने इन सब का निर्माण किया है. कुछ प्रतिमाओं में तो मैं ने मुखाकृति भी इसी युवती की बनाई है.’’
चौहान विग्रहराज तृतीय एकएक मूर्ति को देख कर चमत्कृत रह गया. भित्तिचित्रों व प्रतिमाओं के अंगसौष्ठव को देख कर तो उस के आश्चर्य का पारावार ही नहीं रहा. वह सोच ही नहीं सकता था कि उस ग्रामीण क्षेत्र में इतना प्रभावशाली सौंदर्य भी होगा. उसे प्रतीत हुआ जैसे उस युवती का अंगप्रत्यंग सांचे में ढला हुआ हो. यह भी सच था कि उस युवती के अपरिमित सौंदर्य के कारण मेणाल का आकर्षण कई गुना बढ़ गया था.
‘‘कौन है यह युवती?’’
‘‘जी, पास की ढाणी की रहने वाली है. केचल नाम है.’’
‘‘उस के मातापिता, भाईबहन कौनकौन हैं? देवालय में इस के योगदान के लिए मैं शासन की ओर से उसे पुरस्कृत करूंगा.’’
‘‘जी, उस की केवल एक अंधी मां घर में रहती है,’’ पुरस्कार की बात सुन कर वतुराज अत्यधिक प्रसन्न था. उसे गर्व था कि उस ने वास्तव में एक श्रेष्ठरूपा युवती का चयन देवालय की प्रतिमाओं के लिए किया था.
विग्रहराज ने वतुराज की पीठ ठोकते हुए कहा, ‘‘वतुराज, मैं तुम से अत्यधिक प्रसन्न हूं. तुम ने वास्तव में अपनी कला से इस देवालय को चौहान राज्य का सर्वोत्तम देवालय बना दिया है. मैं तुम्हें अभी तो यह तुच्छ भेंट दे रहा हूं. काम समाप्त करने पर मैं तुम्हें और भी पुरस्कृत करूंगा,’’ कहतेकहते विग्रहराज ने अपने गले की हीरों की माला उस की हथेली पर रख दी. पुन: बोला, ‘‘सुनो, वतुराज, यहां का कार्य पूर्ण होने पर तुम मुझे सूचना देना. यहां से निकट, केकड़ी देवी क्षेत्र में मैं एक नगर, अपने नाम वीसलदेव चौहान से मिलता- जुलता, वीसलपुर बसाना चाहता हूं. इसी प्रकार गोविंदपुर नामक पहाड़ों से घिरे कसबे में मैं शाकंभरी राज्य का प्रधान केंद्र स्थापित करना चाहता हूं. मुझे विश्वास है कि चौहान राजधानी भी भविष्य में यहीं स्थापित होगी. तुम्हें इस नगर के विकास में भी अपना पूर्ण योगदान देना है.’’
वतुराज की इच्छा थी कि वह हवा के साथ उड़ कर केचल को जा कर अपने पुरस्कार की सूचना दे. पर वह चौहान शासक के सम्मुख केचल व अपने संबंधों को प्रकट नहीं करना चाहता था. वैसे भी उसे विश्वास था कि विग्रहराज से प्राप्त पुरस्कार को देखने के लिए वह स्वयं ही दूसरे दिन देवालय में अवश्य आएगी.
अत: उस ने अपने हृदय पर पत्थर रख कर अपनेआप को नियंत्रित कर देवालय के कार्य को पूर्ण करने के लिए और परिश्रम किया. उस रात्रि को वह तीसरे पहर तक कार्य करता रहा. देवालय से बाहर निकल कर पालकी में बैठते हुए विग्रहराज ने पालकी चालकों को आगे बढ़ने का आदेश दिया.
रात्रि के प्रथम पहर में भी जब केचल नहीं आई तो उस ने अपने हाथ की छेनीहथौड़ी दूर फेंक दी. वह उठ कर खड़ा हो गया.
इसी समय दूर देवालय के सोपान पर केचल को आता देख कर वह शिखर से उतर कर विमान और फिर मुख्यमंडप में पहुंच गया.
‘‘तुम? तुम कौन हो?’’ केचल के स्थान पर एक अन्य युवती को खड़ा देख कर उस ने प्रश्न किया.
‘‘मेरा नाम कंचन है. मैं केचल की मुंहलगी सहेली हूं…’’
‘‘केचल कहां है?’’ बीच में ही उस की बात काट कर आतुरता से उस ने प्रश्न किया.
‘‘उसी के विषय में तो आप को मैं सूचित करने आई हूं. उस ने मुझे आप के विषय में सारी बातें बता रखी हैं. जैसे, उस ने बताया था कि आप को कार्य करते हुए कभी न टोका जाए. इसी भय से मैं दिन भर नहीं आई. सचमुच केचल आप की पुजारिन थी…’’
‘‘‘थी’ का क्या अर्थ है?’’ वतुराज व्यग्रता से लगभग चीखता हुआ बोला.
‘‘शांति से आप मेरी पूरी बात सुन लीजिए. कल रात्रि को वह प्रतिदिन की भांति अपने घर से खाना ले कर देवालय के लिए निकली. मैं हर रात्रि की भांति उस के साथ थी. पर घर से निकलते ही 2 अपरिचित व्यक्तियों ने उसे पीछे से अचानक आ कर दबोचा और बाहर खड़ी पालकी में ले जा कर डाल दिया. पालकी में सवार व्यक्ति ने उस का मुंह कस कर दबा लिया.
‘‘मैं कुछ शोर मचाती इस से पूर्व 2 व्यक्तियों ने मुझे घर में घुसने से पहले ही धमकी दी, ‘ए लड़की, सावधान, अपने प्राणोें की खैर चाहती है तो केचल को भूल जा. समझ ले उस का कोई अस्तित्व ही अब नहीं है. राजाजी उसे ले जा रहे हैं अपनी पटरानी बनाने के लिए. यदि तू ने किसी को, विशेषकर देवालय में कलाकार वतुराज को, जा कर सूचना दी तो तेरे साथ उस की भी हत्या कर दी जाएगी.’
‘‘मैं इस भय से कि कहीं आप का कुछ अनिष्ट न हो जाए, दिन के उजाले की अपेक्षा रात्रि के अंधरे में आई हूं,’’ कह कर वह सुबक उठी.
‘‘ओह,’’ कह कर वतुराज ने अपने हाथ की प्रतिमा क्रोध में धरती पर दे मारी. अपने पैर की ठोकर से उस ने धरती पर पड़ी कई प्रतिमाओं को नष्ट कर डाला.
‘‘आप को तो शायद ज्ञात नहीं है कि चौहान विग्रहराज बहुत व्यभिचारी है. उस ने अंत:पुर में कई युवतियां पकड़ मंगाई हैं. इस के अतिरिक्त वह 2 बार बलात्कार के अभियोग में जनता द्वारा घेर लिया गया था, जहां से बड़ी कठिनाई से उस के प्रधान अमात्य ने उसे बचाया है.’’
‘‘विग्रहराज, अभी तक तू ने कलाकार की कला ही देखी है, अब उस का प्रतिशोध देख कर तुझे अपनी छठी का दूध याद आ जाएगा,’’ वतुराज क्रोध से कांपने लगा.
‘‘सुनो,’’ कंचन को देवालय से बाहर निकाल कर वह देवालय के सेवक को आदेश देते हुए बोला, ‘‘मैं देवालय के भीतर के द्वार बंद कर रहा हूं. जब तक मैं स्वयं द्वार न खोलूं कोई भी भीतर पदार्पण न करने पाए, चाहे वह व्यक्ति कितना ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो. आज मैं देवालय की मूर्तियों को स्थापित करूंगा.’’
1, 2, 3…10 दिन तक देवालय के द्वार नहीं खुले. भूखाप्यासा वतुराज शिल्प निर्माण में लगा रहा. भीतर से रातदिन छेनी की ठुकठुक सुनाई देती रही. सेवक देवालय की छोटी सी खिड़की से रोटीपानी रखता रहा. पानी तो वतुराज उठाता रहा, पर खाने को उस ने हाथ तक नहीं लगाया.
10 दिन के पश्चात बाहर निकल कर वतुराज सेवक से बोला, ‘‘जाओ, चौहान सम्राट को जा कर संदेशा दो कि देवालय का काम पूर्ण हो चुका है. मैं यह पत्र भी दे रहा हूं. उन्हें अपने साथ ले कर आना और देवालय का द्वार खोल कर केवल उन्हीं को भीतर ले जाना. चाबी तुम्हें यहीं पड़ी मिल जाएगी. पहले सम्राट स्वयं देवालय का अवलोकन कर दूसरे दिन उस का उद्घाटन करें.’’
संदेश पा कर विग्रहराज तृतीय को अत्यधिक प्रसन्नता हुई. वह मेणाल के लिए रवाना हो गया.
जैसे ही उस ने मुख्यद्वार में चौथे दिन प्रवेश किया उस की आंखें फटी की फटी रह गईं. लज्जा से सेवकों ने आंखें नीची कर लीं. उन के सामने मुख्यमंडप द्वार व भित्तियों पर कामकेलि प्रदर्शित करने वाले अश्लील चित्र व प्रतिमाएं बड़ी संख्या में लगी हुई थीं. आश्चर्य यह था कि रतिक्रिया में निमग्न पुरुषों की आकृति के स्थान पर स्वयं विग्रहराज तृतीय की मुखाकृति बनी हुई थी.
विग्रहराज को धरती नाचती प्रतीत हुई. चक्कर खा कर वह धरती पर बैठ गया. उस के सेवकों ने आ कर बताया कि देवालय के प्रत्येक कोने में विग्रहराज की ऐसी आकृतियां जड़ी हुई हैं. बेसुध अवस्था में विग्रहराज को गोविंदपुर ले जाया गया. यहां उसे कुछ सेवकों ने आ कर बताया कि अंत:पुर का एक नया रसोइया, जो शायद वतुराज स्वयं ही था, केचल को ले कर कहीं भाग गया है. शाकंभरी पहुंचते ही विग्रहराज के प्राण निकल गए.
नए शासक पृथ्वीराज प्रथम ने स्वयं अपनी आंखों से जा कर मेणाल में अपने पिता की दुर्गति देखी. ‘अनाचारी का यही दंड होता है,’ वह मन ही मन बुदबुदाया. उस के आदेश पर उस के पिता के स्थान पर किसी अन्य पुरुष की आकृतियां लगाने के लिए कलाकारों को बुलाया गया. किंतु वे विग्रहराज की आकृतियों को तोड़ कर उन के स्थान पर नई आकृतियां नहीं लगा सके. इस का कारण था चौहान राज्य पर लगातार गजनी की ओर से होने वाले मुसलिम आक्रमण. इन में व्यस्त रहने के कारण मेणाल उपेक्षित व त्याज्य ही रहा.
पृथ्वीराज तृतीय के पश्चात चौहान राज्य का पतन हो गया. इतिहासकारों व विद्वानों द्वारा कई सौ वर्षों के पश्चात इस मंदिर को मुसलिम आततायियों द्वारा नष्ट करने तथा वाममार्गी शाखा द्वारा इस देवालय में वासनाजन्य चित्रों के निर्माण किए जाने का आरोप लगाया गया.
मूर्धन्य ज्ञानियों का कहना था, ‘‘मानव मन की कुत्सित भावनाओं के प्रकटीकरण से हृदय निश्छल व पवित्र हो जाता है. मेणाल इसी भावना का प्रतीक है.’’
पर वास्तविकता जिन 4-5 व्यक्तियों को ज्ञात थी, उन में से एक केचल की सहेली कंचन थी व दूसरा मेणाल मंदिर का सेवक था. इन दोनों ने केचल व वतुरात के लाभ के लिए अपने मुंह सी लिए थे.