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कहानी: बाहरवाली

बेटे की बहू न मान कर सास ने उसे सदा अपना प्रतिद्वंद्वी ही माना था. 20 वर्ष बीत जाने पर भी वह उसे स्वीकार नहीं कर पाई थी. शायद वह बहू को वही परोस रही थी जो उसे मिला था.

बूआ का दुखड़ा सुनना मेरी दिनचर्या में शामिल था. रोज दोपहर में वे भनभनाती हुई चली आतीं और रोना ले कर बैठ जातीं, ‘‘क्या बताऊं सुधा, बेटों को पालपोस कर कितने जतन से बड़ा करो और बहुएं उन्हें ऐसे छीन ले जाती हैं जैसे सब उन्हीं का हो. अरे, हम तो जैसे कुछ हैं ही नही.’’


‘‘आप ने तो जैसे कभी किसी को पलापलाया छीना ही नहीं है, क्यों बूआ?’’ मेरे पति ने अकारण ही हस्तक्षेप कर दिया, ‘‘आप की तीनों बेटियां भी तो किन्हीं के पलेपलाए छीन कर बैठी हैं.’’


मैं ने आंखें तरेर कर पति को मना करना चाहा, मगर अखबार एक तरफ फेंक वे बोलते ही चले गए, ‘‘मेरी मां भी कहती हैं, शादी के बाद मैं सुधा का ही हो कर रह गया हूं. अब तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं? समझ में नहीं आता, जब बहुओं से इतनी ही जलन होती है तो उन्हें तामझाम के साथ घर लाने की क्या जरूरत होती है?


‘‘बेटे की शादी करने से पहले हर मां को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अब उसे बेटा किसी और को सौंपना है, जैसे लड़की के मांबाप सोच लेते हैं. एक नया घर बनता है बूआ, लड़के पर जिम्मेदारी पड़ती है. वह भी कई रिश्तों में बंट जाता है. ऐसे में मां का यह सोचना कि वह अभी भी दुधमुंहा बच्चा बन उस का पल्लू थामे ‘राजा बेटा’ ही बना रहे तो यह उस के प्रति अन्याय होगा.’’


‘‘न, न सुधीर, मां का पल्लू क्यों पकड़े बेचारा राजा बेटा, वह हूर जो मिल गईर् है, पल्लू देने को,’’ बूआ ने हाथ झटक दिया.


मैं विषय उलझाना नहीं चाहती थी पर लाख इशारों के बाद भी पति मान नहीं रहे थे. वे बोले, ‘‘हूर लाता कौन है, तुम्हीं तो ठोकबजा कर, सैकड़ों लड़कियां देख अपनी बहू लाई थीं. फिर रोजरोज बहू का रोना ले कर क्यों बैठ जाती हो. उसे आए 2 महीने ही तो हुए हैं. नईनई शादी हुई है, तुम्हें तो बहू को लाड़प्यार से अपने काबू में रखना चाहिए. कभी तुम भी तो किसी की बहू बनी थीं.’’


‘‘लाड़प्यार करे मेरी जूती, मैं पीछेपीछे घूमने वालों में से नहीं हूं. देख सुधीर, मुझे विशू का उस की ससुराल वालों से ज्यादा मेलजोल पसंद नहीं है. 3 दिन से उस का छोटा भाई आया हुआ है. बाहर पढ़ता है न, इसलिए छुट्टियों में बहन के घर चला आया.’’


‘‘तो क्या हुआ, तुम भी 3-3 महीने अपनी बेटियों के घर रह आती हो. वह तो फिर भी छोटा भाई है.’’


‘‘वह…वह… मैं तो इलाज कराने…’’


‘‘इलाज कराने ही सही, पर दामाद ने भरपूर सेवा की, तुम स्वयं ही तो सुनाती रही हो. क्या तुम्हारा दामाद किसी का पलापलाया बेटा नहीं है? तब तो तुम्हारी समधिन भी तुम्हारी तरह ही चीखतीचिल्लाती होगी?’’


‘‘सुधीर’’, बूआ का चेहरा फक पड़ गया. उन का चेहरा देख मुझे घबराहट होने लगी. मैं कभी बूआ की बातों को काटती नहीं थी. हमेशा यही सोचती, क्यों बुजुर्ग औरत का मन दुखाऊं. दो घड़ी मन हलका कर के भला वे मेरा क्या ले जाती हैं. परंतु पति का उन्हें आईना दिखा देना मुझे अनावश्यक सा लगा.


मेरे पति आगे बोले, ‘‘अपनी बेटी पराए घर में जा कर चाहे जो नाच नचाए, परंतु बहू का ऊंची आवाज में बात करना भी तुम्हें खलता है. अच्छा बूआ, घर में सुखशांति रखने का एक गुरुमंत्र लोगी मुझ से, बोलो?’’


बूआ कुछ न बोलीं, गुस्से से इन्हें घूरती रहीं.


पति बातें करते रहे, परंतु बूआ चली गईं. मुझे अच्छा नहीं लगा, मगर प्रत्यक्ष में मैं मौन ही रही. समय ने अतीत को पीछे धकेल दिया था, परंतु एक घाव सदा मेरे मानसपटल पर हरा रहा. चाहती तो पति को फटकार कर बूआ के अपमान पर नाराजगी प्रकट कर सकती थी, मगर ऐसा किया नहीं. शायद मैं भी बूआ को आईना दिखाना चाहती थी.


यही बूआ थीं जिन्होंने कभी सासुमां का पैर इस घर में जमने नहीं दिया था. मुझे अपनी सास निरीह गाय सी लगी थीं. पता नहीं क्यों, सासुमां ने मुझे कभी अपना नहीं समझा था. बूआ के सामने चुप रहने वाली सासुमां मेरे सामने शेरनी सी बन जाती थीं.


शायद अपने साथ हुए अन्याय का प्रतिकार सासुमां मुझ से लेना चाहती थीं. मुझ से मन की बात कभी न करतीं और जराजरा सी बात मेरे पति के कानों में जा डालतीं, जिस का प्रभाव अकसर हमारी गृहस्थी पर पड़ता. हम आपस में झगड़ पड़ते, जिस की कोई वजह हमारे पास होती ही नहीं थी.


एक शाम मायके से मेरे भाई की सगाई का पत्र आया तो मैं खुशीखुशी अम्मा को सुनाने दौड़ी. पर मेरी प्रसन्नता पर कुठाराघात हो गया. वे गुस्से से बोलीं, ‘बसबस, हमारे घर में मायके की ज्यादा चर्चा करने का रिवाज नहीं है.’


मैं अवाक रह गई और पति के सामने रो पड़ी, ‘इस घर में ब्याह दी गई, इस का अर्थ यह तो नहीं कि मेरा मायका समाप्त ही हो गया.’


उस दिन पहली बार पति को मां पर क्रोध आया था. मेरे मन में अम्मा के लिए संजोया सम्मान धीरेधीरे समाप्त होने लगा. यह सत्य है, अम्मा ने जो कुछ अपनी ससुराल से पाया था, वही मुझे लौटा रही थीं, मगर क्या यह न्यायसंगत था?


तब इन्होंने अम्मा से कहा था, ‘तुम्हें इस तरह नहीं करना चाहिए, अम्मा. तुम बबूल का पेड़ बो कर आम के फल की उम्मीद कैसे कर सकती हो? बिना वजह सुधा का मन दुखाओगी तो घर में सुखशांति कैसे रहेगी? इज्जत चाहती हो तो इज्जत देना भी सीखो, उस की खुशी में भी तो हमें खुश होना चाहिए.’


‘अरे’, विस्फारित आंखें लिए अम्मा मुझे यों घूरने लगीं मानो पति ने मेरी वकालत कर किसी की हत्या जैसा अपराध कर दिया हो. वे तुनक कर बोलीं, ‘यह कल की आई तुझे इतनी प्यारी हो गई, जो मुझे समझाने चला है. जोरू का गुलाम.’


उसी पल से अम्मा मेरी प्रतिद्वंद्वी बन गईं. कभी रुपए चोरी हो जाने का इलजाम मुझ पर लगता और कभी यह आरोप लगता कि मैं अपनी ननदों की पूरी देखभाल नहीं करती. धीरेधीरे पति ने हस्तक्षेप करना छोड़ दिया. 20


वर्ष बीत जाने पर भी अम्मा मुझे स्वीकार नहीं कर पाईं. पति पर जोरू का गुलाम होने का ठप्पा आज भी लगा है. अम्मा और मैं नदी के 2 किनारों की तरह जीते हैं.


मैं हैरान थी कि मेरी ननदों के घर में अम्मा का पूरा दखल है, मगर मेरे मायके से किसी का आना उन्हें पसंद नहीं. अम्मा, जो स्वयं बूआ और अपनी सास के दुर्व्यवहार से आजीवन अपमानित होती रहीं, क्यों मेरे मन की पीड़ा समझ नहीं पाईं? मैं उन के बेटे की पत्नी हूं, उन की प्रतिद्वंद्वी नहीं.


बूआ तो चली गईं, मगर अपने पीछे कड़वाहट का गहरा धुआं छोड़ गई थीं. पति बुरी तरह झल्ला रहे थे, ‘‘पता नहीं प्रकृति ने स्त्री को ऐसा क्यों बनाया है? 10-10 पुरुष एकसाथ  रह लेते हैं, लेकिन 2 औरतें जब भी साथ रहेंगी, अधिकारों को ले कर लड़ेंगी, विशेषकर अपना बेटा, बहू के साथ बांटने में औरत को बड़ी तकलीफ होती है.’’


‘‘हर घर में तो ऐसा नहीं होता,’’ मैं ने उन्हें टोका.


‘‘हां, सच कहती हो. 10 प्रतिशत घर ऐसे होंगे, जहां सासबहू में तालमेल होता होगा, वरना 90 प्रतिशत तो ऐसे ही हैं, जिन में अमनचैन नहीं है. सास अच्छी है तो बहू नकचढ़ी और कहीं बहू सेवा करने वाली हो, तो सास मेरी मां और बूआ जैसी.


‘‘सत्य तो यह है कि झगड़ा होता ही नहीं, सिर्फ उसे पैदा किया जाता है. भई, सीधी सी बात है, बेटा काबू में रखना हो तो बहू को वश में करो, उस से प्रेम करो, वह वश में रहेगी तो बेटा भी पीछेपीछे खिंचा चला आएगा.’’


‘‘और पति को वश में रखना हो तो क्या बहू को सास को वश में रखना चाहिए, ताकि बेटा, बहू के वश में रहे?’’ मेरी इस बात पर पति हंस पड़े, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. बहू बाहर से आती है, उसे विश्वास में लेना ज्यादा जरूरी होता है. बेटा तो अपना ही होता है, उस से इतना प्यार बढ़ाने की भला क्या जरूरत होती है.


‘‘मजा तो तब है जब पराई को अपना बनाओ. मगर होता उलटा है. शादी कर के सास अकसर असुरक्षा से घिर जाती है, बेटे पर हाथ कसने लगती है और बस, यहीं से झगड़ा शुरू हो जाता है.’’


‘‘यह सब अपनी अम्मा से भी कहा है कभी?’’


‘‘नहीं कह पाया न, इसीलिए तुम्हें समझा रहा हूं. आने वाले कुछ वर्षों में तुम भी तो सास बनने वाली हो, कुछ समझीं?’’


मैं क्या कहती, सिर्फ हंस कर रह गई कि कौन जाने जब सास बनूंगी, तब मैं कैसी हो जाऊंगी. कहीं मैं भी अपनी बहू को वही न परोसने लगूं, जो मुझे मिलता रहा था.

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