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कहानी: अस्तित्व

पतिपरिवार का साथ मिलने के बजाय उसे दुत्कार झेलनी पड़ी. जिल्लत का दंश सह कर भूल जाना क्या आसान था काम्या के लिए?

‘नहीं आऊंगी, मैं कभी नहीं आऊंगी. जिस घर में मुझे और मेरे बच्चे को इज्जत नहीं मिल सकती, हक नहीं मिल सकता, वहां मैं कभी नहीं आऊंगी.’ ससुराल से निकलते समय कहे गए अपने शब्द काम्या आज भी भूली नहीं थी लेकिन पति के मुन्ने सहित लौट आने के अनुरोधपत्र और हालत के मद्देनजर उसे लौटना पड़ रहा था.मायके से ससुराल तक की यात्रा तय करने के बाद कश्मीरी गेट, दिल्ली के बसअड्डे पर बैठी काम्या गोद में मुन्ने को लिए पति की प्रतीक्षा कर रही थी.


गुजरा हुआ कल उसे वर्तमान से बारबार खींच अतीत में ले जा रहा था…‘हां, नहीं भूल सकती मैं उस रात को, जिस ने सजा बना दिया है मेरी जिंदगी को’, रो पड़ी थी वह कहते हुए.‘तो बारबार उस बात का जिक्र कर के घर की शांति क्यों भंग कर देती हो?’ पति शायद चिल्ला कर अपनी बात को सही करार देना चाहता था. उस की गुस्सैल लाल आंखें मानो मुझ से इस बात पर चुप्पी चाहती हों. मानो उस के मन में मेरे लिए अपवित्रता की ईर्ष्या ने जन्म ले लिया हो.‘इसलिए कि उस में मेरा कोई दोष नहीं था और वह जो भी था, आप के अपनों में से ही था’, वह आक्रोशित हो उठी थी. 


आंखों से आंसू मानो लुढ़कने को तैयार ही थे.मुन्ना के रोने से सहसा ही वह अतीत से उबर आई. मुन्ने को बहलाने के बाद उस ने घड़ी में समय देखा तो उसे कुछ चिंता सी होने लगी. समय अधिक हो गया था और बसअड्डे पर आवाजाही कम होने लगी थी. एक मन हुआ कि यहीं से कोई औटो या रिकशा करे और खुद ही घर पहुंच जाए, लेकिन कई महीनों बाद पति के बिना ससुराल की दहलीज पर पैर रखना उसे एकदम से सही नहीं लगा. कुछ उलझन से भरी काम्या की नजरें एक बार फिर से पति को देखने की चाह में इधरउधर घूमने लगीं.शायद मेरी बस ही समय से पहले आ गई थी या यह भी हो सकता है कि शिखर को ही आने में देर हो गई हो.


अपने मन को तस्सली दे कर वह फिर अपने अतीत में डूबने लगी थी.विवाह के कुछ ही महीने गुजरे थे जब ससुराल में एक पारिवारिक समारोह में उस के साथ धोखे से बेहोशी की हालत में दुराचार हुआ था. पति सहित ससुराल के दबाव में उन के मानसम्मान की खातिर उसे उस विष को पीना पड़ा. लेकिन जब विष का प्रभाव मुन्ना के रूप में सामने आया तो बहुत देर हो चुकी थी. घर की हालत ही नहीं, घरवालों के मन भी बदल गए थे.समाज के लिए वह बच्चा उन की संतान था लेकिन शिखर की नजरों में वह जायज नहीं था. 


बस, यहीं से शुरू हुआ था एक पति के विरोध का सिलसिला और मां के मातृत्व का संघर्ष, जिस की परिणति उस की मायके लौटने के रूप में हुई थी.‘हां, बस, बहुत हुआ यह हर दिन का जलना.’ इस बार वह अपना सामान बांधे मायके लौटने को तैयार हो गई थी. ‘नहीं रहना मुझे अब, बारबार की इस बेइज्जतीभरी जिंदगी में जहां मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है.’‘तो लौट कर भी मत आना इस दहलीज पर अगर इतने ही मानसम्मान की चिंता है तुम्हें.’ शिखर के कहे इन शब्दों में जैसे पूरी ससुराल की आवाज शामिल थी उस दिन.‘हां, नहीं आऊंगी…’ और उन्हीं शब्दों पर फिर आ अटकी थी काम्या सोचतेसोचते.‘‘क्या सोच रही हो, काम्या?’’


सामने आ खड़े हुए शिखर की आवाज ने जैसे उसे एक गहरी खाई में से वापस जमीन की सतह पर ला खड़ा किया हो.‘‘जी, कुछ नहीं,’’ उस ने सामान समेटते हुए शिखर को जवाब दिया,’’ ‘‘जेठजी के अचानक गुजर जाने का सुन कर बहुत दुख हुआ.’’ ‘‘मनुष्य के कर्म उस के आगेआगे चलते हैं, काम्या,’’ शिखर के स्वर में गंभीरता थी, ‘‘शायद, यही उन के कर्मों का फल था. चलो, घर चलें.’’ अपनी बात पूरी करते हुए पति ने काम्या के हाथ से मुन्ने को उठा गोद में ले लिया.इस अप्रत्याशित क्रिया से जहां काम्या के मन में खुशी की लहर उठी, वहीं वह अपनी हैरानी को भी दबा नहीं सकी थी, ‘‘आप ने मेरे मुन्ने को गोद में उठाया.’’‘‘हां काम्या, मैं ने इस के साथ बहुत अन्याय किया है. लेकिन मुझे क्या पता था कि यह हमारे ही वंश की एक बेल है.’’ कहते हुए पति का स्वर अनायास ही कांपने लगा था, ‘‘दरअसल काम्या, बड़े भैया ने अपने आखिरी समय में ही खुद बताया कि उस रात…’’‘‘क्या…?’’ शिखर की अनकही बात की तह में जाते ही काम्या का रोमरोम सुलग उठा. 


पलभर को लगा कि उस के पैरों के नीचे से जमीन और सिर के ऊपर से जैसे आसमान हटा दिया गया हो. एकाएक पत्थर हो गए कदमों ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया.‘‘रुक क्यों गईं, काम्या? चलो न, घर चलें,’’ शिखर ने कदम आगे बढ़ाते हुए कहा.‘‘घर, कौन से घर? किस के घर?’’ सहसा एक व्यंग्यभरी कंपकंपाती मुसकान काम्या के होंठों पर आ गई. ‘‘अपनी संतान के उस नीच पिता के घर, जिस ने मेरी देह को कलंकित किया और अब मरखप गया या फिर सात वचनों से बंधे उस पति के घर, जिस ने अपने कुल के सम्मुख सभी लिए गए वचनों को दरकिनार कर हमेशा अपनी पत्नी को एक देहमात्र ही समझा.’’‘‘देखो काम्या, हम घर चल कर भी बात कर सकते हैं न, अभी घर में भैया के बेटे का इंतजार हो रहा है ताकि…’’ शिखर ने काम्या को शांत करना चाहा.‘‘भैया का बेटा? हां, उस का बेटा… मेरा नहीं? अब मेरा है भी नहीं,’’ काम्या के चेहरे पर रोष झलक आया था, ‘‘अब मुझे चाहिए भी नहीं यह. हां, ले जाओ इसे,’’ यह कहते हुए काम्या पीछे की ओर लौट पड़ी.‘‘काम्या, काम्या,’’ शिखर उसे पुकार रहा था. लेकिन काम्या वापस पीछे लौटते हुए उसी बस में जा सवार हुई जिस से कुछ देर पहले ही वह अपने पति के शहर लौटी थी.बस का हौर्न अपनी तेज आवाज में बस के चलने की घोषणा कर रहा था.

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