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कहानी: माटी की गंध के परे

शोखभरी, आत्मविश्वास से भरी गीता में अमीर बनने की ख्वाहिश शुरू से थी. तभी तो अमीर लड़कियों से दोस्ती करती, उन के तौरतरीके जानती.

शुभा खाना खातेखाते टीवी देख रही थी, बीचबीच में नीरज से बातें भी करती जा रही थी. सहसा उसे लगा कि उस ने टीवी में गीता को देखा है. मुंह में कौर था. उंगली के इशारे से टीवी की तरफ देखती हुई शुभा बोल उठी, ‘‘देखो, देखो, गीता है वहां.’’ बच्चे चौंक कर मां को देखने लगे, फिर उस की मुद्रा पर हंस दिए. मुंह में कौर होने से शब्द अस्पष्ट से निकले. अस्पष्ट शब्दों से नीरज एकाएक समझ नहीं पाया बात को. समझ कर देखा, तब तक कोई और खबर आने लगी थी.


‘‘ए, चुप रहो तुम लोग,’’ बच्चों को डपट कर शुभा फिर नीरज से बोली, ‘‘सच नीरज, गीता ही थी, शतप्रतिशत, 2 बार क्लिप में देखा. अभी अपने अलबम में उस का फोटो दिखाऊंगी तुम्हें.’’


खाना समेटने के बाद तौलिए से हाथों को पोंछती शुभा कालेज के समय का अपना अलबम निकाल लाई. पन्ने पलटपलट कर देखने लगी, फिर एक जगह रुक कर उंगली रखती हुई नीरज को दिखाने लगी. चित्र में एक कन्या अपने होंठों के कोने पर उंगली रखे झिलमिल दांत दिखाती हंस रही थी. साधारण सी लड़की का असाधारण फोटो.


नीरज को बड़ी शोख सी लगी लड़की. ‘‘वाह, क्या पोज बनाया है तुम्हारी सहेली ने, एकदम फिल्म स्टार लग रही है.’’‘‘हां, पापा ठीक कहते हैं. हेमा मालिनी लग रही हैं, आंटी,’’ नन्ही नीता होहो कर के हंसने लगी. कुछ मजाक का पुट था उन के स्वरों में. शुभा तुनक गई.


‘‘देखो, मजाक मत करो तुम लोग. सच, इसी को टीवी पर देखा था किसी भाषण में. आई होगी भाषण सुनने.’’‘‘अरे छोड़ो, तुम्हें क्या करना है. तुम शाम के खाने की तैयारी करो. याद है न, करीब 7 लोग आएंगे खाना खाने. मैं जाता हूं औफिस.’’


नीरज चला गया था. बच्चे खेलने में व्यस्त हो गए थे. शुभा को अकेलापन मिला तो फिर गीता स्मृतियों में हलचल मचाने चली आई. अतीत की झील में वर्तमान ने कंकड़ उछाल दिया. छोटीबड़ी लहरें एकदूसरे को उलांघती उसे छूने लगीं. गीता उस की प्रिय सहेली थी. बचपन की, गुड्डेगुडि़यों की उम्र की, चुहल शरारतों की, कालेज की. बचपन तो सहज सा ही गुजरा था. कालेज के दिनों में गीता अपने में डूब गई थी. एक अलग सी दुनिया बसा ली थी उसने.


अचानक नीता के रोने की आवाज आई. नलिन, नीता के लड़ने के स्वर तो बहुत देर से सुनाई दे रहे थे, पर जैसे चेतना के दायरे में न थे. विचारों में व्यवधान पड़ने पर उसे होश आया. झपट कर बच्चों के पास पहुंची. पूरा कमरा खिलौनों से अटा पड़ा था. बस्ते इधरउधर मुंह औंधा कर पड़े थे. कपड़े अलमारी से बाहर लटक रहे थे. शुभा ने कमरा देखा तो चिल्ला पड़ी, ‘‘यह क्या हाल कर दिया कमरे का.’’


दोनों बच्चे सहम कर खड़े हो गए. नीता का रोना थम गया. डरतेडरते वह ही बोली, ‘‘मैं ने तो भैया के बाद फेंका है उन का सामान, पहले तो…’’नलिन बात काट कर खीजा, ‘‘नहींनहीं, इसी ने पहले मेरे बैग से ड्राइंग की कौपी निकाली थी.’’‘‘चुप रह कर खेलो, खबरदार जो अब आवाज सुनाई दी,’’ बच्चों को डांट कर उस का ध्यान गीता में ही उलझ गया.


कालेज के दिन, कितने ही वाकिए, बातें याद आती रहीं. इन सब में गीता कहीं न कहीं से आ टपकती. गीता एक पहेली सी लगती थी. बेबाक, शोख, शर्मलिहाज से परे, पर उद्दंड नहीं थी. कब क्या कर गुजरती, कोई जान नहीं पाता था. मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी थी, पर सपने ऐसे कि आसमान को छू कर भी आगे निकलने का प्रयास करते, गहरा असंतोष दिखाती,  कभी बड़ेबड़े लोगों से मिलने की ललक, धनवान बन जाने की चाह. आज उस की बहुत सारी बातें समझ में आ रही थीं. वरना तब तो कैसी लगती थी वह, कभी तेजतर्रार, कभी मायूस, कभी मासूम.


शुभा ने अपना ध्यान गीता की यादों से बाहर निकालने की कोशिश की तो एकदम से उस को याद आ गया कि उसे मेहमानों के लिए शाम की तैयारी करनी है, जल्दीजल्दी सारा घर सैट किया. अलबम अलमारी में रख कर शाम की व्यवस्था में लग गई. काम करते हुए हाथ अभ्यासवश चल रहे थे पर दिलदिमाग दूर, बहुत दूर उड़े जा रहे थे गीता के संगसंग. भीतर ही भीतर खदबदा रही थी शुभा.


फिर बहुत दिन निकल गए. रोजमर्रा के काम के बीच गीता के बारे में सोचना छोड़ दिया. एक शाम नीरज ने आते ही पूछा, ‘‘तुम्हारी बिनाका के पोज वाली सहेली का क्या नाम है, शुभा?’’‘‘गीता, पर क्यों, कैसे याद आई अचानक से?’’‘‘अचानक से क्यों? आज सुबह ही देखा था, हमारे बैंक में आई थी लौकर डील करने.’’ शुभा के कान उत्सुक हो उठे.


‘‘मंत्री की बीवी है वह, साथ में क्या लावलश्कर था. अर्दली, सिक्योरिटी, 3-4 कारें थीं. पूरा दफ्तर ही व्यस्त हो गया उन्हें लौकर डील कराने में. कोई दौड़ कर कुरसी ला रहा था तो कोई पानी, कोई कोल्डडिं्रक तो कोई क्लर्क फाइल ले कर उन के पीछे चुपचाप खड़ा था. लौकर वाला क्लर्क चाबी ले कर साथ चलने के इंतजार में खड़ा था. क्या शान से आई और क्या शान से चली गई. किसी की तरफ आंख उठा कर तक न देखा.’’


‘‘तुम क्या कर रहे थे, तुम भी तो कुछ कर ही रहे होगे मंत्रीजी की पत्नी को दिखाने के लिए?’’‘‘मैं तो कुछ कर ही नहीं पाया. धड़धड़ाती आई थी तो कुछ सूझा ही नहीं. बस, बारबार किसी को यह बताने का मन कर रहा था कि इस को मैं जानता हूं. यह मेरी बीवी की सहेली है. पर बाबा, अच्छा हुआ जो किसी से नहीं कहा वरना बड़ी खिंचाई करते सब के सब. कुछ भी कहो, बड़ा ठसका था उस का.’’


‘‘कौन से मंत्री हैं?’’


‘‘राज्यमंत्री हैं.’’‘‘गीता ने शादी मंत्री से की या मंत्री बाद में बने?’’‘‘अब यह जन्मपत्री मैं कैसे जान सकता हूं. तुम्हारी सहेली है, तुम्हें ज्यादा पता होना चाहिए.’’


एक झटका ही काफी था, शुभा की स्मृतियों की मुट्ठी खुल गई. कितने ही क्षण लुढ़क पड़े, अपने, बेगाने, जेहन में कितनी ही परछाइयां सी आड़ीतिरछी हो कर घूमने लगीं. गीता का शोखभरा व्यक्तित्व. अपने साधारण से कपड़ों को संवारसंवार कर पहनती, नित नए ढंग से बाल बनाती, कभी चुन्नी से सिर ढकती, कभी गले में लहरा कर चलती, अलगथलग दिखने की चाह में कसे कपड़ों पर ढीला सा मर्दाना स्वेटर पहनती. कालेज की अमीरअमीर लड़कियों से दोस्ती करती, उन के घर चली जाती फिर आ कर उन के घर का विस्तार से वर्णन खूब रस लेले कर करती.


न जाने किस भाव से उस की आंखें चमकने लगती थीं. दृष्टि में स्वप्न से उतर आते थे. एक बार तंग आ कर शुभा ने पूछा, ‘क्या वे बुलाती हैं?’


‘नहीं बुलातीं तो क्या, मुझे उन के बारे में जान कर अच्छा लगता है. मसलन, वे कैसे रहती हैं. क्या तौरतरीके हैं उन के रहनेसहने के, उन के पास क्याक्या है?’


‘तुझे क्या करना है यह सब जान कर?’‘वाह, क्यों नहीं करना मुझे. सब पता तो होना चाहिए न. जब मैं अमीर बन जाऊंगी तब मुझे सबकुछ आता होगा उन जैसा ही.’


ओह तो यह रहस्य था, फिर भी न जाने क्यों यह सब पागलपन के अलावा कुछ नहीं लगता था तब. उस की बातें कोरी गप लगती थीं पर उस के कहने का आत्मविश्वास ऐसा होता था कि लगता था शायद सच ही कह रही हो. उस का सोचने का आलम निराला ही था. कालेज की लाइब्रेरी में मैगजीन के पन्ने पलटती रहती, किसी हीरोइन के गहने देखती. किसी व्यवसायी की जीवनी पढ़ती. उस के फोटो देखती, उस का घर, ड्राइंगरूम, लौन. कितनी हरसत होती थी उस की निगाहों में, कितनी महत्त्वाकांक्षाएं टहलती होती थीं. हम फिल्म देखने जाते तो कहानी, अभिनय के बारे में कोई बात नहीं. बस, घर के भव्य सैट्स उसे लुभाते रहते, गाडि़यों की शान में उस की जान रत्तीरत्ती बस जाती. उस की बातों के विषय हमेशा गाड़ी, बंगला, नौकरचाकर, गहने, साडि़यां होते. यह शौक पागलपन की हद तक पहुंचता, कालेज के कंपाउंड में कोई अच्छी गाड़ी दिखी कि वह पहुंच जाती ड्राइवर से गाड़ी के बारे में बातें करने, उसे छू कर देखने.


शादीब्याह में भी सजीधजी, गहनेसाड़ी पहने, मौडर्न दिखती महिलाओं के आसपास मंडराती रहती. तब अजब दीवानगी थी और अब मंत्री की पत्नी. यही तो चाहिए था उसे. चलो, ठीक ही हुआ. जो वह चाहती थी, मिल गया, पर ताज्जुब है, मंत्रीजी मिले कहां से? आखिर अमीर बन ही गई, नाम भी पा ही लिया.


समय के साथसाथ बात फिर आईगई हो गई. जबतब गीता का ध्यान आता भी पर गृहस्थी की व्यस्तता में खो जाता. एक शाम महीने के प्रारंभ में गृहस्थी के सामान से लदेफंदे शुभा और नीरज सवारी की प्रतीक्षा कर रहे थे. तभी एक चमचमाती कार नजदीक आ कर रुकी. कार के काले शीशे को नीचे करता एक चेहरा झांका. शुभा को पलभर भी न लगा उसे पहचानने में, पर वह अनजान बनी सकुचाई सी चुपचाप खड़ी रही. गीता ही लपक कर आई.


‘‘पहचाना नहीं शुभा, मैं गीता हूं. मैं ने तो दूर से ही पहचान लिया था. बहुत खुश हूं तुझे देख कर. यहां कैसे, कब से?’’‘‘यहीं पर हूं 2 साल से. पतिदेव हैं नीरज, यहीं पर पोस्टेड हैं,’’ उत्तर में बचपन की अंतरंगता का लेशमात्र भी पुट न था.‘‘नमस्कार, नीरजजी. आइए, घर छुड़वा दूंगी.’’


फिर ड्राइवर को संबोधित करती हुई वह बोली, ‘‘ड्राइवर, पहले मुझे घर छोड़ देना. शुभा, मुझे पार्टी में जाना है. तैयार होऊंगी. इसलिए घर जल्दी जाना है. ड्राइवर को घर बता देना, वह छोड़ देगा.’’


शुभा अभी तक असंयत थी. सारी शाम दालमसालों और गृहस्थी की खरीदारी में निकली थी जिस से सूती साड़ी बुरी तरह मुस गई थी…गंधा रही थी. यही हाल नीरज का भी था. पैर आगे ही नहीं बढ़े.


‘‘अरे आ न, बैठ.’’


फिर सारे रास्ते गीता ही बोलती रही थी. शुभा को अभी भी छोटेपन का एहसास था, कुछ भी बोलते नहीं बन रहा था. शब्द खो गए थे. बातचीत का विषय ढूंढ़े से भी नहीं मिल रहा था. अजीब सा उतावलापन छाया हुआ था. दोनों हथेलियों को धीरेधीरे मसलती शुभा चुप ही रह गई. नीरज तो एकाध बात कर भी रहा था. बंगले के बाहर गीता उतर गई और भीतर चली गई. अब एक नजर बंगले पर डाली शुभा ने. बहुत बड़ा आधुनिक शैली का बना हुआ था, बड़ा सा लौन, उस में पड़ी रंगबिरंगी कुरसियां, लौन की छतरी, कोने में स्विमिंगपूल. हां, कुत्तों के भूंकने की आवाज भी आई थी. 2-4 तो होंगे ही. कार चल दी थी. नीरज रास्ता बताता जा रहा था.


घर आ कर भी शुभा पर कार वगैरह का रोब इतना हावी रहा कि मूड उखड़ा ही रहा.वह चिनचिनाई, ‘‘क्या जरूरत थी तुम्हें कार में जाने की.’’‘‘मैं गया था क्या कार में? आगेआगे तो तुम ही लपकी थीं,’’ नीरज तुनका.


जूड़े का पिन निकालती हुई वह बड़बड़ाई, ‘शान दिखाने को ले गई थी साथ. यह न हुआ कि घर तक छोड़ने आ जाती. गैरों की तरह ड्राइवर के साथ भेज दिया. हम भी पागल थे जो उस के बुलाते ही तुरंत चल पड़े. होगी अपने घर की बड़ी अमीर. हम तो जैसे हैं वैसे ही अच्छे,’ शुभा अपने मन की खीज उतार रही थी. शीशे में साड़ी का मुसापन और चेहरे की थकान बुरी लग रही थी.


‘‘अब बंद करो यह बड़बड़ाना. जो हो गया सो हो गया. तब क्यों नहीं बोलीं? तब बोलतीं न?’’क्या बोलती शुभा? तब तो सबकुछ भूल गई थी. एक भी बात न पूछी गीता से. न ही अपनी कही. कैसी गूंगी सी बैठी रही पूरे समय. रात तक यही बातें घूमफिर कर सालती रहीं उसे.


अगले दिन सुबह ही सादे परिवेश में लिपटी गीता आ गई मुसकराते हुए. आ कर जोर से शुभा को गले लगाया और खुद घर तक न छोड़ने की क्षमा भी मांग ली. बातचीत की सहजता ने शुभा को प्रभावित किया. फिर भी सहज होने में थोड़ा समय लिया उस ने. गीता तो सदा से अलमस्त थी. पलंग पर आलथीपालथी मार कर बैठ गई. शुभा को पास ही बिठा लिया.


‘‘पहले यह बता, खाना तो नहीं बनाया तू ने?’’‘‘नहीं, अब बनाऊंगी. नीरज लंच पर घर आते हैं.’’गीता चहक उठी जैसे, ‘‘तब तो बड़ा मजा आएगा, मैं भी तेरे साथ मिल कर खाना बनाऊंगी.’’‘‘आज अमिया बड़ी, अरहर की दाल बनाएंगे, चावल भी. साथ में प्याज व बैगन का भरता और कुरकुरी मोटी रोटी. आम का अचार है क्या?’’


पुरानी मित्रता का भाव उभर आया. लाड़ से सिर हिलाती शुभा गीता के साथ रसोई में चली गई. खाना बनातेबनाते शुभा ने गीता के बारे में जानना चाहा.‘‘कैसी हो, गीता? कैसा लगता है?’’


‘‘छोड़ न, आज हमतुम बचपन की बातें करते हैं.’’‘‘तुझे याद है कैसे बड़ों से छिप कर अमराई जाते थे? पूरी दोपहरी अमिया और इमली बटोरते रहते थे.’’


‘‘हां, नमक लगा कर खाते समय तू कितने तरह के मुंह बनाती थी और कितना हंसते थे हम दोनों.’’‘‘सच शुभा, वैसी हंसी तो अब आती ही नहीं. बातबेबात कितनी हंसी आती थी, तेरी नानी बहुत डांटती थीं. क्या कहती थीं वे डांटते हुए?’’


‘‘ठट्ठा के नहीं हंसती लड़कियां, मुंह की शोभा चली जाती है,’’ मोटी आवाज में शुभा ने नानी की नकल की. देर तक गीता और शुभा हंसती रहीं फिर.


गुडि़यों के ब्याह में सीधे पल्ले की साडि़यां पहन कर गुड्डेगुडि़यों की मां होने का अभिनय करना, इकियादुकिया का खेल, छुपनछुपाई, गुट्टे तिकतिक और जो कुट्टी हो गई तो एकएक चिए का हिसाबकिताब, अमिया की गुठली के पीछे झगड़ा, गुडि़या के जेवर नोचनोच कर वापस करना. और भी न जाने कितने छोटेबड़े, सार्थकनिरर्थक प्रसंग, सारा बचपन ही दोहरा डाला. कालेज के समय की एक भी बात गीता ने नहीं की और न ही अपनी बात, न अपने पति की बात. पूरी चर्चा में गाड़ीबंगला, नौकरचाकर, अमीरी कहीं नहीं थे. था तो हुलसताहुमकता बचपन. उसे पूरे जोश के साथ याद करती रही गीता.


नीरज आए तो लंच में बहुत बेतकल्लुफ हो कर गीता ने खाना खाया. हाथ से चावलदाल का खाना, उंगलियां चाटना. रोटी की तारीफ, भरते के लिए बारबार पूछना शुभा को अच्छा लग रहा था, सहज सा.‘‘शुभा, ऐसा मनोहारी दिन फिर न जाने कब मिले. ला, 1 गिलास पानी पिला, फिर चलती हूं.’’


सुराही की मिट्टी की सोंधी गंध से युक्त पानी के 3-4 गिलास पी गई गीता. मुंह को हथेली से साफ करती गीता की आंखें स्वप्निल हो उठीं, ‘‘कितना बढि़या पानी है, कितनी सोंधी खुशबू है इस में. फ्रिज का पानी पीपी कर तो इस गंध को भूल ही गई थी. शुभा, मिट्टी से तो रिश्ता ही टूट गया मेरा. ऐसा फूल हो गई हूं जो गुलदस्ते में सजा है, फिर भी खिले रहने की भरपूर कामना करता है,’’ कहतेकहते हंस दी गीता, पर कैसी थी यह हंसी, उजड़ीउजड़ी, बियाबान सी हंसी, कितनी मरी हुई, दर्द की खनक से भरी.


‘‘सबकुछ मैं ने अपने हाथों आप ही तो बरबाद कर डाला. शादी के लिए न वर देखा, न उस की उम्र देखी, देखा तो पैसा, नौकरचाकर, बंगला, गाड़ी, हाई सोसाइटी. किसी से शिकायत भी तो नहीं कर सकती. खाली कोख उजाड़ लगती है. मातम मना कर भी क्या करूं? कौन है जो मुझे चाहते हुए भी देखे? मंत्री की पत्नी हूं, एक मुलम्मा चढ़ा रखा है अपने चेहरे पर, मेकअप का, हंसी का. अभी भी मन पूरी तरह मरा नहीं है शुभा, इसलिए फलनेफूलने की उसी चाह को सीने से लगाए मिट्टी तलाशती रहती हूं. धन पाने की चाह में क्याक्या खो दिया. शायद सबकुछ.’’


शुभा की दोनों हथेलियों को अपनी हथेलियों में भींच कर विदा ले कर गीता चल दी अपने सुविधायुक्त गुलदस्ते की ओर, कुछ दिन और खिले रहने की चाह से…माटी की गंध मन में समा कर.

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