कहानी: छोटी छोटी बातें
इनसान अपना बचपन छोड़ना नहीं चाहता क्योंकि बचपन उसे छोड़ जाता है तभी तो इनसान कितना भी बूढ़ा हो जाए पर मन में कहीं छोटा सा बच्चा छिपा रहता है जो शरारतें, बिना लागलपेट हंसना, खेलना चाहता है.
मेरी एक पोती है. कुछ दिन हुए उस का जन्मदिन मनाया गया था. इस तरह वह अब 6 वर्ष से ज्यादा उम्र की हो गई है. उस की और मेरी बहुत छनती है. मेरे भीतर जो एक छोटा सा लड़का छिपा हुआ है वह उस के साथ बहुत खेलती है. उस के भीतर जो एक प्रौढ़ दिमाग है उस के साथ मैं वादविवाद कर सकता हूं. जब वह हमारे पास होती है तो उस का सारा संसार इस घर तक ही सीमित हो कर रह जाता है. जब वह चली जाती है तो फिर फोन पर बड़ी संक्षिप्त बात करती है. खुद कभी फोन नहीं करती. हम करें तो छोटी सी बात और फिर ‘बाय’ कह कर फोन रख देती है.
आज अचानक उस का फोन आ गया. मैं ने पूछा तो बोली, ‘‘बस, यूं ही फोन कर दिया.’’
‘‘क्या तुम स्कूल नहीं गईं?’’
‘‘नहीं, आज छुट्टी थी.’’
‘‘तो फिर हमारे पास आ जाओ. लेने आ जाऊं?’’
‘‘नहीं. मम्मी घर पर नहीं हैं. उन की छुट्टी नहीं.’’
‘‘तो उन को फोन पर बता दो या मैं उन को फोन कर देता हूं.’’
‘‘नहीं, मैं आना नहीं चाहती.’’
‘‘तो क्या कर रही हो?’’
‘‘वह जो कापी आप ने दी थी ना, उस पर लिख रही हूं.’’
‘‘कौन सी कापी?’’
‘‘वही स्क्रैप बुक जिस में हर सफे पर एक जैसे आदमी का नाम लिखना होता है, जो मुझे सब से ज्यादा अच्छा लगता हो.’’
‘‘तो लिख लिया?’’
‘‘सिर्फ 3 नाम लिखे हैं. सब से पहले सफे पर आप का. दूसरे सफे पर मम्मी का, तीसरे पर नानी का…बस.’’
मैं ने सोचा, बाप के नाम का क्या हुआ, दादी के नाम का क्या हुआ? वह उसे इतना प्यार करती है. बेचारी को बहुत बुरा लगेगा. किंतु यह तो दिल की बात है. मेरी पोती की सूची, स्वयं उस के द्वारा तैयार की गई थी. किसी ने उसे कुछ बताया व सिखाया नहीं था. फिर मैं ने कहा, ‘‘उस के साथ उन लोगों की तसवीरें भी लगा देना.’’
‘‘आप के पास अपनी लेटेस्ट तसवीर है?’’
मैं ने कल ही तसवीर खिंचवाई थी. अच्छी नहीं आई थी. अब मेरी तसवीरें उतनी अच्छी नहीं आतीं जितनी जवानी के दिनों में आती थीं. न जाने आजकल के कैमरों को क्या हो गया है.
‘‘हां, है,’’ मैं ने उत्तर दिया. फिर मैं ने सलाह दी, ‘‘उन लोगों के जन्म की तारीख भी लिखना.’’
‘‘उन को अपने जन्म की तारीख कैसे याद होगी?’’
‘‘सब को याद होती है.’’
‘‘नहीं, जब वह पैदा हुए थे तो बहुत छोटे थे न, छोटे बच्चों को तो अपने जन्म की तारीख का पता नहीं होता.’’
‘‘बाद में लोग बता देते हैं.’’
‘‘आप कब पैदा हुए?’’
‘‘23 मार्च 1933’’
‘‘अरे, इतना पहले? तब तो आप पुराने जमाने के हुए ना?’’
‘‘हां,’’ मैं ने कहा.
मुझे एक धक्का सा लगा. वह मुझे बूढ़ा कह रही थी बल्कि उस से भी ज्यादा प्राचीन काल का मानस, मानो मुझे किसी पुरातत्त्ववेत्ता ने कहीं से खोज निकाला हो.
‘‘तो फिर आप को नए जमाने की बातें कैसे मालूम हैं?’’
‘‘तुम्हारे द्वारा. तुम जो नए जमाने की हो. मुझे तुम से सब कुछ मालूम हो जाता है.’’
‘‘इसीलिए आप मेरे मित्र बनते हो?’’ उस ने बड़े गर्व से कहा.
‘‘हां, इसीलिए.’’
उसे मैं ने यह नहीं बताया कि वह मुझे हर मुलाकात में नया जीवन देती है. मुझे जीवित रखती है. यह बातें शायद उस के लिए ज्यादा गाढ़ी, ज्यादा दार्शनिक हो जातीं. तत्त्व ज्ञान और दर्शन भी आयु के अनुसार उचित शब्दों में समझाना चाहिए.
इस के पश्चात मैं चाहता था कि उस से कहूं कि वह जिन लोगों को प्यार करती है और जिन के नाम उस ने अपनी स्क्रैप बुक में लिखे हैं उन की उन खूबियों के बारे में लिखे जिन के कारण वह उसे अच्छे लगते हैं ताकि वह उस के मनोरंजन का विषय बन सके और बाद में फिर जब उस के अपने बच्चे हों तो उन की मानसिक वृद्धि और विस्तार का साधन बन सके.
इतने में उस ने सवाल किया, ‘‘आप के मरने की तारीख क्या होगी?’’
‘‘वह तो मुझे मालूम नहीं. मौत तो किसी समय भी हो सकती है. इसी समय और देर से भी. वह तो बाद में लिखी जा सकती है.’’
‘‘आप में से पहले कौन जाएगा, आप या दादी?’’
‘‘शायद मैं. परंतु कुछ कहा नहीं जा सकता.’’
‘‘आप क्यों?’’
‘‘क्योंकि साधारण- तया मर्द लोग पहले मरते हैं.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि वह उम्र में बड़े होते हैं.’’
‘‘परंतु अनिश से तो मैं बड़ी हूं.’’
मैं हंस पड़ा. अनिश उस का चचेरा भाई है. उस से 2 वर्ष छोटा और आजकल दोनों की बड़ी गहरी दोस्ती है.
‘‘तो क्या तुम अनिश से शादी करोगी?’’
मैं ने पूछा. ‘‘हां,’’ उस ने ऐसे अंदाज में कहा मानो फैसला हो चुका है और हमें मालूम होना चाहिए था.
‘‘परंतु अभी तो तुम बहुत छोटी हो. शादी तो बड़े हो कर होती है. हो सकता है कि तुम्हें बाद में कोई और लड़का अच्छा लगने लगे.’’
‘‘अच्छा,’’ उस ने हठ नहीं किया. वह कभी हठ नहीं करती. उचित तर्क हो तो उसे मान लेती है.
‘‘अच्छा, तो लोग मरते क्यों हैं?’’
इस प्रश्न का उत्तर तो अभी तक कोई नहीं दे सका है, बल्कि अनगिनत लोगों ने जरूरत से ज्यादा उत्तर देने की कोशिश की है और वह भी मरने से पहले. जिस बात का निजी अनुभव न हो उस के बारे में मुझे कुछ कहना पसंद नहीं. वह तो ‘सिद्धांत’ बन जाता है और मैं ‘सिद्धांतों’ से बच कर रहता हूं. लेकिन यह भी तो एक ‘सिद्धांत’ है.
बहरहाल, इस समय सवाल मेरी पोती के सवाल के जवाब का था और उस का कोई संतोषजनक उत्तर मेरे पास नहीं था, फिर भी मैं उसे निराश नहीं कर सकता था. मुझे एक आसान सा उत्तर सूझा. मैं ने कहा, ‘‘क्योंकि लोग बीमार हो जाते हैं.’’
‘‘बीमार तो मैं भी हुई थी, पिछले महीने.’’
‘‘नहीं, ऐसीवैसी बीमारी नहीं. बहुत गंभीर किस्म की बीमारी.’’
‘‘इस का मतलब कि बीमार नहीं होना चाहिए.’’
‘‘हां.’’
‘‘तो आप भी बीमार न होना.’’
‘‘कोशिश तो यही करता हूं.’’
‘‘आप भी बीमार न होना और मैं भी बीमार नहीं होऊंगी.’’
‘‘ठीक है.’’
‘‘तो फिर अगले इतवार को आप से मिलूंगी. आप की तसवीर भी ले लूंगी. हां, दादी से भी कहना कि वह भी बीमार न हों, नहीं तो खाना कौन खिलाएगा.’’
‘‘अच्छा, तो मैं दादी तक तुम्हारा संदेश पहुंचा दूंगा.’’
‘‘अच्छा, बाय.’’
अब मुझे अगले हफ्ते तक जिंदा रहना है ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी की यह कड़ी कायम रह सके.