कहानी: अधिक्रमण
प्रिया की एकदम चुस्तदुरुस्त और स्मार्ट मां उस की बड़ी बहन लगती थी. प्रिया की सुनील से शादी के बाद उन्हीं के आग्रह पर वह उन के साथ रहने लगी. लेकिन दिन पर दिन मां और सुनील के बीच बढ़ती अनौपचारिकता और घुलनेमिलने से प्रिया के मन में शक पनपने लगा...
‘‘देखो प्रिया, मैं ने तो हां कर दी,’’ सुनील ने कौफी में चीनी डाल कर चम्मच से हिलाते हुए कहा, ‘‘अब तुम्हारी हां का इंतजार है. कह दो न.’’
‘‘इस में कहना क्या है, मेरी भी हां है,’’ बिना ध्यान दिए सुनील का प्याला उठाते हुए प्रिया ने कहा, ‘‘तुम मेरी मजबूरी जानते तो हो.’’
‘‘भई वाह, पत्नी हो तो ऐसी,’’ सुनील ने हंस कर कहा, ‘‘मैडम, अभी तो आप ने मेरे प्याले पर अधिकार किया है, कल को मेरी जेब पर अधिकार जमा लेंगी और फिर मेरे समूचे जीवन पर तो होगा ही.’’
‘‘क्या मैं ने तुम्हारा प्याला उठा लिया,’’ प्रिया ने आश्चर्य से कहा, ‘‘ओह हां, पता नहीं क्या सोच रही थी. लो, तुम्हारा प्याला वापस किया.’’
‘‘धन्यवाद,’’ सुनील मुसकराया, ‘‘तो हम तुम्हारी समस्या के बारे में सोच रहे थे.’’
‘‘अब समस्या मेरी है. कुछ मुझे ही सोचना पड़ेगा,’’ प्रिया ने गहरी सांस ले कर कहा.
‘‘बहनजी,’’ सुनील चिढ़ाने के लिए अकसर प्रिया को बहनजी कहता था, ‘‘हर समस्या का कोई न कोई समाधान अवश्य होता है.’’
‘‘तो मां का क्या करूं? पिताजी की असमय मौत के बाद वह मेरे ऊपर पूरी तरह निर्भर हैं,’’ प्रिया ने मेज पर कोहनी टिका कर कहा, ‘‘मैं उन्हें छोड़ नहीं सकती, सुनील.’’
‘‘तो मां को साथ ले आओ,’’ सुनील हंसा, ‘‘इस से बढ़ कर और दहेज क्या हो सकता है.’’
‘‘यह हंसी की बात नहीं है,’’ प्रिया ने गंभीरता से कहा, ‘‘उस घर के साथ मां की इतनी यादें जुड़ी हैं कि वह कभी भी घर छोड़ने को तैयार नहीं होंगी. दूसरी बात, अगर मां हमारे साथ रहने को तैयार हो भी गईं तो क्या तुम्हारे घर वाले इसे कभी स्वीकार करेंगे?’’
‘‘मेरे लिए तो कोई समस्या ही नहीं है,’’ सुनील ने कहा, ‘‘मातापिता तो सांसारिक दुनिया को त्याग कर ऋषिकेश के एक आश्रम में रहते हैं. एक बड़ा भाई है जो शादी कर के चेन्नई में रहने लगा है. मैं अपनी मरजी का मालिक हूं.’’
अचानक प्रिया की आंखों में चमक आ गई, ‘‘तुम मेरी मां से मिलोगे? शायद उन्हें समझा पाओ.’’
सुनील ने मुसकरा कर पूछा, ‘‘बताओ, उन्हें पटाने का कोई नुस्खा है क्या?’’
‘‘शरम करो, अपनी सास के लिए क्या कोई ऐसे कहता है,’’ प्रिया को हंसी आ गई.
‘‘तो फिर कब आना है?’’ सुनील ने पूछा.
‘‘पहले मां से बात कर लूं फिर तुम्हें बता दूंगी.’’
घंटी बजने पर जब दरवाजा खुला तो सुनील चौंक गया. प्रिया ने आज तक उसे यह नहीं बताया था कि घर में बड़ी बहन भी है. बिलकुल प्रिया की शक्ल की.
‘‘नमस्ते, दीदी,’’ सुनील ने कहा, ‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’
‘‘हांहां, आओ न, तुम्हारा ही तो इंतजार था,’’ मां ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मैं प्रिया की मां हूं.’’
बिलकुल कल्पना से परे, वह एकदम चुस्तदुरुस्त और स्मार्ट लग रही थीं. सुनील ने सोचा था कि मां तो वृद्धा होती हैं. उन के चेहरे पर बुढ़ापा झलक रहा होगा. पर यहां तो सबकुछ उलटा था. मां ने आधुनिक स्टाइल के कपड़े पहने हुए थे. और उन की आंखों में हंसी नाच रही थी.
प्रिया उन के पीछे खड़ी हो शरारत से मुसकरा रही थी, ‘‘जब भी हम दोनों बाजार जाते हैं तो सब हमें बहनें ही समझते हैं. तुम भी धोखा खा गए.’’
सोफे पर बैठते हुए सुनील ने शिकायत की, ‘‘प्रिया, तुम्हें मुझे सतर्क कर देना चाहिए था.’’
‘‘तो फिर क्या करते?’’ प्रिया ने पूछा.
‘‘अरे, मांजी के लिए विदेशी परफ्यूम लाता. साथ में कोई और अच्छा सा उपहार लाता.’’
‘‘ठीक है, तुम मां से बातें करो,’’ प्रिया ने कहा, ‘‘मैं चाय बना कर लाती हूं.’’
कुछ ही देर में सुनील मां से घुलमिल गया. अपने बारे में पूरी जानकारी दी और प्रिया से शादी करने की इच्छा भी जता दी.
‘‘मुझे तो कोई आपत्ति नहीं है,’’ मां ने सहजता से कहा, ‘‘प्रिया ने तुम्हारे बारे में इतना कुछ बता दिया है कि तुम बिलकुल अजनबी नहीं लगे.’’
‘‘तो आप ने मुझे पसंद कर लिया?’’ सुनील ने द्विअर्थी संवाद का सहारा लिया.
‘‘प्रिया की पसंद मेरी पसंद,’’ मां ने भी नहले पर दहला मारा.
सुनील ने प्रिया से आते ही कहा, ‘‘मांजी तो राजी हैं.’’
मां के गले में बांहें डाल कर प्रिया ने पुलकित स्वर में कहा, ‘‘मां, तुम हमारे साथ आ कर रहोगी न?’’
‘‘तुम्हारे साथ?’’ मां ने आश्चर्य से कहा, ‘‘तुम्हारे साथ क्यों रहूंगी?’’
‘‘क्यों, सुनील ने कहा नहीं कि दहेज में मुझे मां चाहिए,’’ प्रिया ने हंसते हुए कहा.
‘‘ऐसी तो हमारे बीच कोई बात नहीं हुई,’’ मां ने कहा.
आत्मीयता से मां का हाथ अपने हाथों में लेते हुए सुनील बोला, ‘‘अरे मां, शादी के बाद आप अकेली थोड़े ही रहेंगी. आप साथ रहेंगी तो प्रिया को भी तसल्ली रहेगी.’’
‘‘साथ रहने में मुझे कोई एतराज नहीं,’’ मां ने थोड़ा हिचकिचा कर कहा, ‘‘लेकिन तुम्हारे घर में…’’
‘‘ओह मां, एक ही बात है,’’ सुनील ने समझाया, ‘‘हम तीनों एकसाथ मेरे घर में रहें या इस घर में, क्या फर्क पड़ता है?’’
तुम्हारे घर में रहना अच्छा नहीं लगेगा,’’ मां ने कहा, ‘‘लोग क्या कहेंगे?’’
थोड़ी देर की बहस के बाद सुनील ने मां को इतना राजी कर लिया कि वह शादी के बाद सुनील के घर कुछ समय रह कर देखेंगी अगर मन नहीं लगा तो सब यहां आ जाएंगे.
बिना धूमधाम के कोर्ट में शादी हो गई. सुनील का घर व कमरा मां ने खुद सजाया था. लगता था सजावट करने में उन्हें विशेष रुचि थी. घर पूरी तरह से मां ने संभाल लिया था.
एक सप्ताह बाद सुनील और प्रिया को अपनेअपने कार्यालय जाना था. प्रिया का दफ्तर सुनील के दफ्तर से अधिक दूर नहीं था. बीच में एक दक्षिण भारतीय रेस्तरां था जहां दोनों का परिचय, दोस्ती व प्रणयलीला का आरंभ हुआ था. उन के जीवन में इस रेस्तरां का विशेष स्थान था.
नाश्ता करने के बाद मां ने दोनों को अपनाअपना टिफनबाक्स पकड़ा दिया.
‘‘आप जितनी अच्छी हैं उतनी ही पाक कला में भी निपुण हैं,’’ सुनील ने टिफनबाक्स लेते हुए कहा, ‘‘मुझे अगर पहले पता होता तो शादी के मामले में इतनी देर न लगाता. यह सारी गलती आप की बेटी की है.’’
प्रिया ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा, ‘‘तुम तो शादी करने को ही राजी नहीं थे. कहते थे न कि ऐसे ही साथ क्यों नहीं रहते?’’
मां ने हंस कर कहा, ‘‘अरेअरे, लड़ो मत. जो कुछ इतने दिनों में तुम ने खोया है वह सब मैं पूरा कर दूंगी.’’
‘‘बहुत चटोरे हैं मां, इन्हें ज्यादा मुंह न लगाओ,’’ प्रिया ने इठला कर कहा, ‘‘अब चलो भी.’’
मां उन्हें जाते हुए देखती रहीं. कहां गए वे दिन जब वह इसी तरह अपने पति को विदा करती थीं. उन के जाने के बाद वह घर की सफाई में लग गईं.
दिन में 2 बार फोन कर के सुनील ने मां से बात कर ली. मां को अच्छा लगा. प्रिया को तो अकसर समय ही नहीं मिलता था और अगर फोन करती भी थी तो केवल अपने मतलब से.
मोटरसाइकिल की आवाज सुनते ही मां ने दरवाजा खोला और दोनों का हंस कर स्वागत किया.
सुनील ने देखा कि मां भी एकदम तरोताजा लग रही थीं. अच्छी साड़ी के साथ हलका सा शृंगार कर लिया था. प्रिया की ओर देखा तो वह दफ्तर से हारीथकी आई थी. बालों की लटें बिखर रही थीं. चेहरे का रंग किसी बरतन की कलई की तरह उतर रहा था.
एक दिन सुनील मां से कह बैठा, ‘‘मां, आप प्रिया को अपनी तरह स्मार्ट रहना क्यों नहीं सिखातीं?’’
प्रिया चिढ़ गई और नाराज हो कर अपने कमरे में चली गई.
थोड़ी देर तक कमरे में से सुनील और प्रिया के बीच झगड़ने की आवाजें आती रहीं.
मां ने आवाज लगाई, ‘‘अरे भई, जल्दी से बाहर आओ. मैं गरमागरम पालक की पकौडि़यां बना रही हूं. बैगन की पकौड़ी भी तो तुम्हें अच्छी लगती हैं. वह भी काट रखा है.’’
सुनील उत्साह से बाहर आया, ‘‘लो, मैं आ गया. मांजी, आप ने तो मेरी कमजोरी पकड़ ली है. वाहवाह, साथ में धनिए की चटनी भी है.’’
हाथमुंह धो कर प्रिया भी बाहर आ गई. उस का क्रोध ठंडा हो गया था लेकिन मुंह फूला हुआ था.
‘‘खाओखाओ,’’ सुनील ने कहा, ‘‘प्रिया, तुम भी मांजी के कुछ गुण सीख लो.’’
‘‘मुझे आता है. वह तो मां ही किचन में नहीं घुसने देतीं.’’
‘‘अरे, अभी बच्ची है,’’ मां ने मुसकरा कर कहा, ‘‘और जब तक मैं हूं उसे कुछ करने की जरूरत क्या है?’’
‘‘मां, मुझे क्षमा करो. मैं भूल गया था. नजरें कमजोर हो गईं लगता है,’’ सुनील ने विनोद से प्रिया को ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, ‘‘सच ही तो, प्रिया अभी बच्ची है.’’
सुनील रोज सुबहशाम मां की प्रशंसा करते नहीं थकता था. लेकिन इस बीच परिस्थिति कुछ ऐसी हो गई कि प्रिया को अंदर से बुरा लगने लगा. फिर भी वह चुप रह कर झगड़ा अधिक न बढ़े इस की चेष्टा करती थी.
एक दिन जब प्रिया नहा कर बाथरूम से बाहर आई तो देखा सुनील मां की गोद में सिर रख कर लेटा हुआ था और मां उस के ललाट पर बाम लगा रही थीं. यह देख कर वह चकित रह गई.
इस बीच मां ने मुसकरा कर सुनील से पूछा, ‘‘कैसा लग रहा है?’’
‘‘बहुत अच्छा,’’ सुनील ने उठने की चेष्टा की.
‘‘लेटे रहो. आराम करो,’’ मां ने उठते हुए कहा, ‘‘प्रिया, एक प्याला गरम चाय बना दे. थोड़ी देर में ठीक हो जाएगा.’’
‘‘सिर में दर्द था तो मुझ से क्यों नहीं कहा?’’ प्रिया ने शिकायत की, ‘‘मां को नाहक कष्ट दिया. मां, आप ही चाय बना दो. मैं यहां बैठी हूं.’’
कुछ दिनों से प्रिया महसूस कर रही थी कि मां अब छोटेमोटे कामों के लिए उसे ही दौड़ा देती थीं जबकि पहले सारे काम खुद ही करती थीं, उसे हाथ तक नहीं लगाने देती थीं. कहीं मां से ईर्ष्या तो नहीं होने लगी उसे?
एक दिन उत्साह से सुनील ने कहा, ‘‘चलो, आज दिल्ली हाट चलते हैं. दक्षिण की हस्तकला की प्रदर्शनी है और विशेष व्यंजनों के स्टाल भी लगे हैं.’’
मां ने खुश हो कर कहा, ‘‘हांहां चलो. मेरी तो बहुत इच्छा थी ऐसी प्रदर्शनियां देखने की पर क्या करूं, अकेली जा नहीं सकती और कोई अवसर भी नहीं मिलता.’’
‘‘चलो, प्रिया, झटपट तैयार हो जाओ,’’ सुनील ने आग्रह किया.
प्रिया ने सोचा कि अगर वह नहीं जाएगी तो कोई नहीं जाएगा. इसलिए उस ने कह दिया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है, मैं नहीं जाऊंगी.
‘‘अरे, चल भी,’’ मां ने कहा, ‘‘बाहर चलेगी तो तबीयत ठीक हो जाएगी.’’
‘‘नहीं मां, सारे बदन में दर्द हो रहा है. मैं तो कुछ देर सोऊंगी,’’ प्रिया ने सोचा दर्द की बात सुन कर सुनील कोई गोली खिलाएगा या डाक्टर के पास चलने को कहेगा.
‘‘तो ऐसा करो,’’ सुनील ने कहा, ‘‘तुम आराम करो. मैं मां को ले जाता हूं. वैसे भी मोटरसाइकिल पर 2 ही लोग बैठ सकते हैं.’’
‘‘ठीक है, प्रिया. तू आराम कर,’’ मां ने कहा और तैयार होने चली गईं. प्रिया आश्चर्य से उन्हें देखती रह गई. मां को क्या हो गया है?
कुछ देर बाद मां और सुनील अपनेअपने कमरों से तैयार हो कर बाहर आ गए. आश्चर्य से आंखें फाड़ कर वह दोनों को देख रही थी. मां ने सुनील की दी हुई साड़ी पहन रखी थी. गले और कानों में आभूषण भी थे. लिपस्टिक व पाउडर का भी इस्तेमाल किया था. बगल में छिड़के मादक परफ्यूम से कमरा महक रहा था.
‘‘हाय, हम चलते हैं, अपना खयाल रखना,’’ सुनील ने चलते हुए कहा.
‘‘ठीक है प्रिया, फ्रिज में खिचड़ी रखी है. उसे गरम कर के जरूर खा लेना और आराम करना,’’ मां ने बिना मुड़े कहा.
उन के जाने के बाद प्रिया बहुत देर तक सूनी आंखों से छत को देखती रही और फिर जब अपने पर नियंत्रण न कर पाई तो सिसकसिसक कर रोने लगी. लगता है मां और सुनील के बीच चक्कर चल रहा है. मां कोई इतनी बूढ़ी तो हुई नहीं हैं…इस के आगे प्रिया बस, यही सोच सकी कि क्या यह उस के अधिकारों पर अधिक्रमण है? प्रिया ने सोचा, चलो, मां के व्यवहार का कोई कारण था तो सुनील को क्या हो गया? शादी उस से और प्यार मां से? नहीं, समस्या और परिस्थिति दोनों पर अंकुश लगाना पड़ेगा.
वे लौट कर आए तो बहुत खुश थे. सुनील मां का बारबार हाथ पकड़ लेता था और मां की ओर से कोई आपत्ति भी उसे नजर नहीं आई. इस खुलेआम प्रेम प्रदर्शन को देख कर उस का मन और भी दुखी हो उठा.
‘‘सच प्रिया, बहुत मजा आया. अच्छा होता तुम भी साथ चलतीं. दक्षिण भारतीय खाना तो बड़ा ही स्वादिष्ठ था,’’ सुनील ने हंस कर कहा, ‘‘चलो, फिर सही.’’
मां स्वयं विस्तार से मौजमस्ती का बखान कर रही थीं.
सब अपनीअपनी हांक रहे थे. किसी ने उस से यह तक नहीं पूछा कि उस की तबीयत कैसी है. उस ने कुछ खाया भी या नहीं. क्रोध से प्रिया अंदर ही अंदर उबल रही थी. सोचा, नहीं, यह तमाशा वह और नहीं चलने देगी.
बहुत रात हो गई थी. प्रिया मुंह ढक कर लेटी जरूर थी पर उसे नींद नहीं आ रही थी.
‘‘क्या बात है, प्रिया,’’ सुनील ने पूछा, ‘‘कोई तकलीफ है क्या?’’
‘‘हां, है,’’ प्रिया बिफर पड़ी, ‘‘मां को अपने घर जाना होगा. तुम दोनों का नाटक अब और अधिक बरदाश्त नहीं होता.’’
‘‘यह अचानक तुम्हें क्या हो गया,’’ सुनील ने पूछा. वैसे वह सब समझ रहा था. मां के प्रति वह आकर्षित तो हो गया था, लेकिन कुछ अपराधबोध भी था. इस संकट से उबरना होगा.
‘‘तुम सब समझ रहे हो, इतने मूर्ख नहीं हो,’’ प्रिया ने क्रोध से कहा, ‘‘मां को किसी भी तरह उन के घर छोड़ आओ.’’
‘‘लेकिन साथ रखने की शर्त तो तुम्हारी थी,’’ सुनील ने कहा.
‘‘वह मेरी भूल थी,’’ प्रिया ने कटुता से पूछा, ‘‘तुम मेरे साथ क्या खेल खेल रहे हो? मां को क्यों बहका रहे हो?’’
सुनील उठ कर बैठ गया, ‘‘सुनना चाहती हो तो सुनो. मैं ने मां को हमेशा मां की नजरों से ही देखा है. अगर मेरी मां यहां होतीं तो भी मैं ऐसा ही करता. अभी तक मैं ने कोई अनुचित सोच उन के प्रति मन में कायम ही नहीं की है.’’
‘‘यह तुम कह रहे हो? निर्लज्जता की भी कोई हद होती है,’’ प्रिया ने क्रोध से कहा.
‘‘मैं चाहता था कि तुम अच्छे कपड़े पहनो, ठीक शृंगार करो, स्मार्ट दिखो, लेकिन दिन पर दिन तुम लापरवाह होती गईं, मानो शादी कर ली तो जीवन का लक्ष्य पूरा हो गया. अरे, शादी के पहले भी तो तुम अच्छीखासी थीं,’’ सुनील ने कहा.
‘‘नहीं करता मेरा मन तो…’’ प्रिया का वाक्य अधूरा रह गया.
‘‘वही तो. मेरी कितनी तमन्ना थी कि साथ चलो तो नईनवेली पत्नी लगो, कोई नौकरानी नहीं,’’ सुनील ने कहा, ‘‘और इसीलिए मैं ने यह नाटक किया कि ईर्ष्या के मारे तुम सही दिखने की कोशिश करो, लेकिन तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया.’’
प्रिया काफी देर तक चुप रही. फिर उस ने पूछा, ‘‘सुनील, तुम सच बोल रहे हो या मुझे बेवकूफ बना रहे हो.’’
‘‘सच, एकदम सच,’’ सुनील ने प्रिया को पास खींचा. मां पानी पीने कमरे से बाहर आई थीं. बेटी और दामाद की बातें कानों में पड़ीं. सुना और चुपचाप दबेपांव अपने कमरे में चली गईं. अगले दिन बहुत स्वादिष्ठ नाश्ता परोसते हुए मां ने मुसकरा कर कहा, ‘‘यहां रहते बहुत दिन हो गए हैं. अब मुझे जाना पड़ेगा.’’
‘‘क्यों, मां?’’ प्रिया ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अकेली कैसे रहोगी?’’
‘‘आदत तो डालनी पड़ेगी न बेटी,’’ मां ने कहा, ‘‘और फिर तुम लोग तो आतेजाते रहोगे. है न बेटे?’’ प्रिया ने सुना. आज मां ने पहली बार सुनील को बेटा कह कर संबोधन किया था.