कहानी: चाहत
साथ ही अपनी चाहत का भी तिरस्कार न करते हुए, कहा, ‘‘आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए बीच चलेंगे और सनसैट देखेंगे.
शोभा खुद के लिए जीना चाहती थी और वह सब करना चाहती थी जो सालों से नहीं कर पाई. मगर यह क्या, उस की यही चाहत उसे वापस उसी दुनिया में ले आई जहां उस की दिली खुशी थी. ‘थक गई हूं मैं घर के काम से. बस, वही एकजैसी दिनचर्या, सुबह से शाम और फिर शाम से सुबह. घर की सारी टैंशन लेतेलेते मैं परेशान हो चुकी हूं. अब मु?ो भी चेंज चाहिए कुछ,’ शोभा अकसर ही यह सब किसी न किसी से कहती रहतीं. एक बार अपनी बोरियतभरी दिनचर्या से अलग, शोभा ने अपनी दोनों बेटियों के साथ रविवार को फिल्म देखने और घूमने का प्लान बनाया. शोभा ने तय किया इस आउटिंग में वे बिना कोई चिंता किए सिर्फ और सिर्फ आनंद उठाएंगी.
मध्यवर्गीय गृहिणियों को ऐसे रविवार कम ही मिलते हैं जिस में वे घर वालों पर नहीं, बल्कि अपने ऊपर समय और पैसे दोनों खर्च करें. इसलिए इस रविवार को ले कर शोभा का उत्साहित होना लाजिमी था. यह उत्साह का ही कमाल था कि इस रविवार की सुबह, हर रविवार की तुलना में ज्यादा जल्दी उठ गई थीं. उन को जल्दी करतेकरते भी सिर्फ नाश्ता कर के तैयार होने में ही 12 बज गए. शो 1 बजे का था, वहां पहुंचने और टिकट लेने के लिए भी समय चाहिए था. ठीक समय पर वहां पहुंचने के लिए बस की जगह औटो ही विकल्प दिख रहा था और यहीं से शोभा के मन में ‘चाहत और जरूरत’ के बीच में संघर्ष शुरू हो गया. अभी तो आउटिंग की शुरुआत ही थी, तो चाहत की विजय हुई. औटो का मीटर बिलकुल पढ़ीलिखी गृहिणियों की डिगरी की तरह,
जिस से कोई काम नहीं लेना चाहता पर हां, जिन का होना भी जरूरी होता है, एक कोने में लटका था. इसलिए किराए का भावताव तय कर के सब औटो में बैठ गए. शोभा वहां पहुंच कर जल्दी से टिकट काउंटर पर जा कर लाइन में लग गईं. जैसे ही उन का नंबर आया तो उन्होंने अंदर बैठे व्यक्ति को ?ाट से 3 उंगलियां दिखाते हुए कहा, ‘3 टिकट.’ अंदर बैठे व्यक्ति ने भी बिना गरदन ऊपर किए, नीचे पड़े कांच में उन उंगलियों की छाया देख कर उतनी ही तीव्रता से जवाब दिया, ‘1200 रुपए.’ शायद शोभा को अपने कानों पर विश्वास नहीं होता यदि वे साथ में उस व्यक्ति के होंठों को 1,200 रुपए बोलने वाली मुद्रा में हिलते हुए न देखतीं. फिर भी मन की तसल्ली के लिए एक बार और पूछ लिया, ‘कितने?’ इस बार अंदर बैठे व्यक्ति ने सच में उन की आवाज नहीं सुनी पर चेहरे के भाव पढ़ गया. उस ने जोर से कहा, ‘1200…’ शोभा की अन्य भावनाओं की तरह उन की आउटिंग की इच्छा भी मोरनी की तरह निकली जो दिखने में तो सुंदर थी पर ज्यादा ऊपर उड़ नहीं सकी और धम्म… से जमीन पर आ गई. पर फिर एक बार दिल कड़ा कर के उन्होंने अपने परों में हवा भरी और उड़ीं, मतलब 1,200 रुपए उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिए और टिकट ले कर थिएटर की ओर बढ़ गईं.
10 मिनट पहले दरवाजा खुला. हौल में अंदर जाने वालों में शोभा बेटियों के साथ सब से आगे थीं. अपनीअपनी सीट ढूंढ़ कर सब यथास्थान बैठ गए. विभिन्न विज्ञापनों को ?ोलने के बाद, मुकेश और सुनीता के कैंसर के किस्से सुन कर, साथ ही उन के वीभत्स चेहरे देख कर तो शोभा का पारा इतना ऊपर चढ़ गया कि यदि गलती से भी उन्हें अभी कोई खैनी, गुटखा या सिगरेट पीते दिख जाता तो 2-4 थप्पड़ उसे वहीं जड़ देतीं और कहतीं कि मजे तुम करो और हम अपने पैसे लगा कर यहां तुम्हारा कटाफटा लटका थोबड़ा देखें. पर शुक्र है वहां धूम्रपान की अनुमति नहीं थी. लगभग आधे मिनट की शांति के बाद सभी खड़े हो गए. राष्ट्रगान चल रहा था.
साल में 2-3 बार ही एक गृहिणी के हिस्से में अपने देश के प्रति प्रेम दिखाने का अवसर प्राप्त होता है और जिस प्रेम को जताने के अवसर कम प्राप्त होते हैं उसे जब अवसर मिले तो वह हमेशा आंखों से ही फूटता है. वैसे, देशप्रेम तो सभी में समान ही होता है चाहे सरहद पर खड़ा सिपाही हो या एक गृहिणी, बस, किसी को दिखाने का अवसर मिलता है किसी को नहीं. इस समय शोभा वीररस में इतनी डूबी हुई थीं कि उन को एहसास ही नहीं हुआ कि सब लोग बैठ चुके हैं और वे ही अकेली खड़ी हैं, तो बेटी ने उन को हाथ पकड़ कर बैठने को कहा. अब फिल्म शुरू हो गई. शोभा कलाकारों की अदायगी के साथ भिन्नभिन्न भावनाओं के रोलर कोस्टर से होते हुए इंटरवल तक पहुंचीं.
चूंकि, सभी घर से सिर्फ नाश्ता कर के निकले थे तो इंटरवल तक सब को भूख लग चुकी थी. क्याक्या खाना है, उस की लंबी लिस्ट बेटियों ने तैयार कर के शोभा को थमा दी. शोभा एक बार फिर लाइन में खड़ी थीं. उन के पास बेटियों द्वारा दी गई खाने की लंबी लिस्ट थी तो सामने खड़े लोगों की लाइन भी लंबी थी. जब शोभा के आगे लगभग 3-4 लोग बचे होंगे तब उन की नजर ऊपर लिखे मैन्यू पर पड़ी, जिस में खाने की चीजों के साथसाथ उन के दाम भी थे. उन के दिमाग में जोरदार बिजली कौंध गई और अगले ही पल बिना कुछ समय गंवाए वे लाइन से बाहर थीं. 400 रुपए के सिर्फ पौपकौर्न, समोसा 80 रुपए का एक सैंडविच 120 रुपए की एक और कोल्डड्रिंक 150 रुपए की एक. एक गृहिणी, जिस ने अपनी शादीशुदा जिंदगी ज्यादातर रसोई में ही गुजारी हो, को एक टब पौपकौर्न की कीमत दुकानदार 400 रुपए बता रहे थे. शोभा के लिए यह वही बात थी कि कोई सूई की कीमत 100 रुपए बताए और उसे खरीदने को कहे. उन्हें कीमत देख कर चक्कर आने लगे.
मन ही मन उन्होंने मोटामोटा हिसाब लगाया तो लिस्ट के खाने का खर्च, आउटिंग के खर्च की तय सीमा से पैर पसार कर पर्स के दूसरे पौकेट में रखे बचत के पैसों, जो कि मुसीबत के लिए रखे थे, तक पहुंच गया था. उन्हें एक तरफ बेटियों का चेहरा दिख रहा था तो दूसरी तरफ पैसे. इस बार शोभा अपने मन के मोर को ज्यादा उड़ा न पाईं और आनंद के आकाश को नीचा करते हुए लिस्ट में से सामान आधा कर दिया. जाहिर था, कम हुआ हिस्सा मां अपने हिस्से ही लेती है. अब शोभा को एक बार फिर लाइन में लगना पड़ा. सामान ले कर जब वे अंदर पहुंचीं तो फिल्म शुरू हो चुकी थी. कहते हैं कि यदि फिल्म अच्छी होती है तो वह आप को अपने साथ समेट लेती है. ऐसा लगता है मानो आप भी उसी का हिस्सा हों. और शोभा के साथ हुआ भी वही. बाकी की दुनिया और खाना सब भूल कर शोभा फिल्म में बहती गईं और तभी वापस आईं जब फिल्म समाप्त हो गई. वे जब अपनी दुनिया में वापस आईं तो उन्हें भूख सताने लगी. थिएटर से बाहर निकलीं तो थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक छोटी सी चाटभंडार की दुकान दिखाई दी और सामने ही अपना गोलगोल मुंह फुलाए गोलगप्पे नजर आए. गोलगप्पे की खासीयत होती है कि उन से कम पैसों में ज्यादा स्वाद मिल जाता है और उस के पानी से पेट भर जाता है.
सिर्फ 60 रुपए में तीनों ने पेटभर गोलगप्पे खा लिए. घर वापस पहुंचने की कोई जल्दी नहीं थी, तो शोभा ने अपनी बेटियों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए घूम कर जाने वाली बस पकड़ी. बस में बैठीबैठी शोभा के दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही थीं. कभी वे औटो के ज्यादा लगे पैसों के बारे में सोचतीं तो कभी फिल्म के किसी सीन के बारे में सोच कर हंस पड़तीं, कभी महंगे पौपकौर्न के बारे में सोचतीं तो कभी महीनों या सालों बाद उमड़ी देशभक्ति के बारे में सोच कर रोमांचित हो उठतीं. उन का मन बहुत भ्रमित था कि क्या यही वह ‘चेंज’ है जो वे चाहतीं थीं? वे सोच रही थीं कि क्या सच में वे ऐसा ही दिन बिताना चाहती थीं जिस में दिन खत्म होने पर उन के दिल में खुशी के साथ कसक भी रह जाए? तभी छोटी बेटी ने हाथ हिलाते हुए अपनी मां से पूछा, ‘‘मम्मी, अगले संडे हम कहां चलेंगे?’’ अब शोभा को ‘चाहत और जरूरत’ में से किसी एक को चुनना था. उन्होंने सब की जरूरतों का खयाल रखते हुए,
साथ ही अपनी चाहत का भी तिरस्कार न करते हुए, कहा, ‘‘आज के जैसे बस से पूरा शहर देखते हुए बीच चलेंगे और सनसैट देखेंगे.’’ शोभा सोचने लगीं कि अच्छा हुआ जो प्रकृति अपना सौंदर्य दिखाने के पैसे नहीं लेती और प्रकृति से बेहतर चेंज कहीं और से मिल सकता है भला? शोभा को प्रकृति के साथसाथ अपना घर भी बेहद सुंदर नजर आने लगा था. उस का अपना घर, जहां उस के सपने हैं, अपने हैं और सब का साथ भी तो.