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कहानी: लिव इन की इनिंग ओवर

मौडर्न विचारों की ऋतु जो शादी को एक बंधन मानती थी, को आज एहसास हो रहा था कि शादी न कर के उस ने कितनी बड़ी गलती की. यहां तो उसे बिना शादी किए ही गृहस्थी चलानी पड़ रही है.

‘‘ऋतु, आज नाश्ते में क्या बनाया है?’’ सार्थक ने अपनी शेविंग किट बंद करते हुए पूछा.


‘‘ब्रैड, बटर, जैम तथा उबले अंडे हैं,’’ ऋतु ने तनिक ठंडे स्वर में कहा.


‘‘क्या? आज फिर वही नाश्ता, कुछ ताजा भी बना लिया करो कभीकभी,’’ सार्थक ने मुंह बनाते हुए कहा.


ऋतु का पारा चढ़ गया, ‘‘हुंह, रोब तो जनाब ऐसे मारते हैं मानो मुझे ब्याह कर लाए हों. मैं कोई तुम्हारी ब्याहता तो हूं नहीं कि दिनरात तुम्हारी सेवा में लगी रहूं. तुम तो 8 बजे से पहले उठते नहीं हो और उठते ही चाय की गुहार लगाने लगते हो. बालकनी में बैठ कर चाय पीते हुए पेपर पढ़ते हो जबकि मुझे तो काम करते हुए ही चाय पीनी पड़ती है. थोड़ी मदद कर दिया करो तो तुम्हें रोज ही मनचाहा नाश्ता मिले,’’ ऋतु ने भी झल्लाते हुए कहा.


‘‘हांहां, यही तो रह गया है, मैं भी कोई तुम्हारा पति तो हूं नहीं जो जर खरीद गुलाम बन जाऊं और तुम्हारे हुक्म की तामील करूं,’’ सार्थक ने मुंह बनाते हुए कहा और तौलिया उठा कर बाथरूम में नहाने चला गया. ऋतु ने जल्दीजल्दी कमरे को ठीक किया. अपना बैड वह उठते ही सैट कर लेती थी, लेकिन सार्थक का बैड तो बेतरतीब पड़ा हुआ था. जरा भी काम का ढंग नहीं था. सफाई की तो वह परवा ही नहीं करता था. अभी तक मेड भी नहीं आई थी. आखिर वह कितना काम करे, शादी न करने का मन बना कर कहीं उस ने गलती तो नहीं की थी. अब बिना शादी किए ही उसे गृहस्थी चलानी पड़ रही है. फिर मातापिता की ही बात मान ली होती, कम से कम अपना घरपरिवार तो होता. तब तो आधुनिकता का भूत सवार था, जिम्मेदारियां नहीं उठाना चाहती थी, परिवार जैसी संस्था से उस का विश्वास ही उठ गया था.


एमबीए करते ही उसे जौब के औफर आने लगे थे, मातापिता उस की शादी करना चाहते थे. दोएक जगह से अच्छे रिश्ते आए भी लेकिन उस ने मना कर दिया और दिल्ली में एक मल्टीनैशनल कंपनी जौइन कर ली. विवाह न करने के पूर्वाग्रह का कारण भी था. उस की बड़ी बहन श्वेता का जो हश्र हुआ था उस ने उस की अंतरात्मा को हिला दिया था. श्वेता बहुत खूबसूरत तथा काफी पढ़ीलिखी लड़की थी. उस का मेरठ के एक बहुत संपन्न तथा प्रतिष्ठित परिवार में विवाह हुआ था. उस का पति अनुज इंजीनियर था. विवाह के 2 वर्ष बाद ही एक सड़क दुर्घटना में अनुज की मृत्यु हो गई, उस की मृत्यु के 15 दिन बाद ही उस के ससुराल वालों ने उसे दूध की मक्खी की भांति घर से बाहर कर दिया और वह अपनी एक साल की बेटी वान्या के साथ मायके आ गई. उस की सास ने कहा, ‘‘बेटा होता तो यह यहां रह सकती थी, किंतु बेटी जन कर उस ने अपना यह अधिकार भी खो दिया,’’ और उन लोगों ने श्वेता को बैरंग वापस भेज दिया.


मातापिता ने खामोशी से सबकुछ सह लिया. ऋतु ने श्वेता को ससुराल वालों पर केस करने की सलाह दी, लेकिन श्वेता  ने यह कह कर साफ मना कर दिया कि यदि वह मुकदमा जीत जाती है तो भी वह उस घर में नहीं जाएगी जहां उस का तथा उस की बेटी का जीवन खतरे में हो और इस प्रकार इस कहानी का पटाक्षेप हो गया, लेकिन इस घटना का ऋतु पर इतना गहरा असर पड़ा कि अब वह विवाह जैसे बंधन में बंधना ही नहीं चाहती थी. उस ने दिल्ली में एक मल्टीनैशनल कंपनी में आवेदन किया. शीघ्र ही उस का चयन हो गया और वह दिल्ली चली आई. शुरू में तो वह एक गर्ल्स होस्टल में रही, लेकिन वहां उस के मनमुताबिक कुछ भी न था. यों तो अपने घर जैसी सुविधा तथा रहनसहन कहीं भी नहीं मिल सकता था, लेकिन यहां तो वह लौकी, तुरई या राजमाचावल खातेखाते ऊब गई थी. औफिस में अपने सहयोगी सार्थक से उस की अच्छी मित्रता थी. दोनों ही उन्मुक्त विचारों के थे, अविवाहित थे. लंचब्रेक में दोनों कैंटीन में एकसाथ लंच करते थे. शाम को एकसाथ औफिस से निकलते और दूरदूर तक घूमने चले जाते थे या कभी कोई मूवी एकसाथ देखने निकल जाते थे. रात्रि में दोनों अपनेअपने ठिकाने की ओर चल देते थे.


एक दिन सार्थक ने लिव इन रिलेशनशिप का प्रस्ताव रखा तो ऋतु भौचक रह कर उस का मुंह देखने लगी, उस ने सुन तो रखा था कि बड़े शहरों में अविवाहित युवकयुवतियां एकसाथ रहते हैं, लेकिन उसे स्वयं इस अनुभव से दोचार होना पड़ेगा, इस की उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी, उस ने 2 दिन का समय मांगा सोचने के लिए और अपने होस्टल चली आई. इन 2 दिन में उस ने खूब मनन किया, उसे समय भी मिल गया था, क्योंकि 2 दिन औफिस बंद था, वह ऊहापोह में फंसी थी. क्या उसे सार्थक का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए? कुछ गलत हो गया तो? कुछ गलत क्या होगा, उसे अपने पर पूरा विश्वास था. वह कोई कमजोर महिला तो थी नहीं और फिर पिछले 6 महीने से वह सार्थक को जानती है, कभी भी उस ने कुछ गलत फायदा उठाने की कोशिश नहीं की. पर यदि घर वालों को इस बात का पता चला तो क्या होगा? इस से समाज में उस के परिवार की बदनामी होगी, लेकिन घर वालों को इस बारे में बताने की आवश्यकता ही क्या है?


सार्थक का खाना टेबल पर लगा दिया और स्वयं खापी कर अपने बैड पर लेट गई. जल्द ही उसे नींद आ गई. वह गहरी नींद में सो रही थी.

वह खुद ही प्रश्न करती और स्वयं ही उत्तर भी देती. काफी सोचविचार के बाद उस ने सार्थक को हां कहने का मन बना लिया. जल्द ही दोनों ने रोहिणी में एक छोटा सा फ्लैट किराए पर ले लिया. घर की जरूरतों का थोड़ाबहुत सामान भी खरीद लिया. 2 सिंगल बैड खरीदे और इस प्रकार उन्होंने एकसाथ रहना शुरू कर दिया. घर की साफसफाई के लिए एक मेड भी रख ली तथा घरखर्च दोनों ने आधाआधा बांट लिया. कुछ ही समय बाद ऋतु को सार्थक का व्यवहार थोड़ाथोड़ा बदला सा नजर आने लगा, ऐसा लगता था मानो वह खुद को ऋतु पर हावी करना चाहता है, गाहेबगाहे उस पर पति की तरह रोब भी झाड़ता था. लेकिन ऋतु सबकुछ चुपचाप बरदाश्त कर लेती थी. सार्थक की हर बात को वह शांति से सह लेती थी, लेकिन उस के व्यवहार को देख कर आज तो वह भी बिफर गई थी और उस पर सोने पर सुहागा यह कि काम वाली अभी तक नहीं आई थी. अब वह घर के सारे काम करे अथवा जैसेतैसे छोड़ कर औफिस चली जाए, समय कम था. सार्थक एकदम तैयार हो कर नाश्ते की टेबल पर आ गया था. ऋतु को अस्तव्यस्त दशा में देख कर उस का पारा चढ़ गया, ‘‘यह क्या ऋतु, तुम अभी तक तैयार नहीं हुई. क्या कर रही थी अब तक?’’


‘‘झक मार रही थी, तुम्हें देर हो रही है तो नाश्ता लगा है और टिफिन भी तैयार है, तुम जा सकते हो, मैं थोड़ी देर से आ जाऊंगी, मेड भी अभी तक नहीं आई है,’’ वह बौखला उठी. सार्थक झल्ला कर नाश्ता करने लगा. ऋतु बड़बड़ाती हुई अपने कपड़े ले कर बाथरूम में घुस गई. इन बाइयों का क्या, तुम्हें गरज है तो रखो नहीं काम तो इन्हें बहुत से मिल जाएंगे. आते ही वह बड़बड़ाने लगती थी, ‘कितनी देर हो गई आप के घर का ही काम करतेकरते, अभी चार घरों में और जाना है, कैसे होगा रे बाबा.‘


‘तो थोड़ा जल्दी आ जाया करो,’ ऋतु कहती.


‘हांहां, क्यों नहीं, कहो तो यहीं बस जाऊं, मेरा भी घरवाला है, बच्चे हैं, उन का भी तो काम रहता है. यह तो समय की मार है नहीं तो काम करने जाती मेरी जूती, वैसे मेमसाहबजी, आप लोगों के नखरे भी बहुत हैं. ऐसे काम करो, वैसे काम करो,’ और वह कमर पर हाथ रख कर खड़ी हो जाती. ऋतु के पास चुप रहने के अलावा और कोई रास्ता भी न बचता. आधे घंटे बाद वह बाथरूम से बाहर आई. अब वह जानबूझ कर सार्थक को खिझा रही थी. पिछले 3 वर्ष से दोनों दिल्ली में एकसाथ रह रहे थे. दोनों ही विवाह नहीं करना चाहते थे तथा एक ही कंपनी में कार्यरत थे. सार्थक में आई तबदीली को वह भलीभांति समझ रही थी. शायद वह अब उस से ऊब गया था और कुछ चेंज चाहता था या शायद ऋतु की कामना करने लगा था, शायद यही सच था. लेकिन ऋतु का तटस्थ व्यवहार उसे निराश कर देता था. ऋतु ने शुरू में ही इस आशंका को व्यक्त किया था, तब सार्थक ने कहा था, ‘‘क्या ऋतु, तुम मुझे या स्वयं को इतना कमजोर समझती हो. आखिर संयम भी कोई चीज है,’’ और तब ऋतु आश्वस्त हो चली थी. लेकिन क्या संयम रह पाया?


ऋतु आज भी उस बरसात की रात को नहीं भूलती. रविवार का दिन था, सार्थक ने कहीं बाहर चलने का कार्यक्रम बनाया, लेकिन ऋतु ने कहा कि आज घर को थोड़ा साफ कर लेते हैं, सार्थक नहीं माना और अकेला ही अपने मित्रों के साथ घूमनेफिरने चला गया. रात के 10 बजे थे, उसे नींद भी आ रही थी. उस ने सार्थक का खाना टेबल पर लगा दिया और स्वयं खापी कर अपने बैड पर लेट गई. जल्द ही उसे नींद आ गई. वह गहरी नींद में सो रही थी, तभी उसे लगा कि उस के बैड पर कोई है, नाइट बल्ब की धीमी रोशनी में उस ने देखा सार्थक उस की बगल में लेटा है.


‘‘तुम यहां,’’ वह चौंक उठी.


तभी सार्थक ने उसे बांहों में भर लिया और फुसफुसाते हुए बोला, ‘‘कब तक दूरी रहेगी, जबकि हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं तो फिर एक रिश्ता बना लेने में क्या हर्ज है, मैं बहुत दिनों से तुम्हें पाना चाहता था लेकिन पहल करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. आखिर कब तक मन को मारता. आज की बरसात ने मन की इन कामनाओं को जगा दिया और मैं खुद पर नियंत्रण न रख सका,’’ कहते हुए सार्थक ने उसे अपनी बांहों के बंधन में कस कर जकड़ लिया और ऋतु कुछ न कह सकी. शायद इस रूमानी रात में उस की भी कामनाएं जाग उठी थीं और उस ने सार्थक के सामने अपने को समर्पित कर दिया. फिर तो दोनों का यह नियम बन गया था, जब भी सार्थक चाहता वह उस की बांहों में होती, एक दिन उस ने कहा भी, ‘‘यदि कुछ गड़बड़ हो गई तो मैं कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहूंगी,’’ लेकिन सार्थक ने यह कह कर उस का मुंह बंद कर दिया कि तब की तब देखी जाएगी. हम लोग यदि सावधानी बरतेंगे तो कुछ भी खतरा नहीं होगा, लेकिन जिस का डर था वही हुआ.


अकस्मात ऋतु को अपने शरीर में एक और जीव के आने की सुगबुगाहट महसूस होने लगी. वह परेशान हो गई. उस ने सार्थक को बताया तो वह बौखला उठा, ‘‘यह क्या मूर्खता कर बैठी. तुम्हें पता है न कि हमारा रिश्ता क्या है, और क्या हम ने यह फैसला नहीं लिया था कि हम इन झंझटों से दूर रहेंगे. शादीवादी के बंधन में इसीलिए तो नहीं बंधे कि इन सब जिम्मेदारियों से हम दूर ही रहना चाहते थे फिर यह कैसे हो गया?’’ ऋतु का चेहरा तमतमा उठा, ‘‘क्या सब मेरी ही गलती है? क्या इस में तुम्हारा कोई हाथ नहीं है और फिर पिछले 3 वर्ष से हम एकसाथ रह रहे हैं. हर दिन तुम मुझे भोगते रहे तो कभी न कभी तो यह होना ही था?’’ वह अपने स्वर को संयत करते हुए बोली.


‘‘मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है. तुम अपने कर्मों का फल खुद ही भुगतो,’’ सार्थक बोला.


वह अवाक् रह गई. कितना पत्थरदिल इंसान है सार्थक. आखिर इस बच्चे में उस का ही तो अंश है, फिर वह ऐसे कैसे मना कर सकता है. फिर भी उस ने समझौता करने वाले अंदाज में कहा, ‘‘चलो, शादी कर लें. आखिर हम पतिपत्नी की तरह ही तो इतने वर्षों से रह रहे हैं. एकदूसरे को अच्छी तरह जानते हैं, समझते हैं, अब यदि हम गृहस्थी बसा कर रहें तो ज्यादा ठीक होगा न. वैसे भी मम्मीपापा शादी के लिए जोर दे रहे हैं, उन्हें तो इस बात का अनुमान तक नहीं है कि हम इस तरह रह रहे हैं. यदि मेरी इस दशा की उन्हें भनक भी लग गई तो सोचो, मेरा क्या होगा?’’


शाम को दोनों ने एकसाथ औफिस छोड़ा तो सार्थक ने थोड़ा शांत लहजे में कहा, ‘‘देखो ऋतु, अब भी समय है, मेरी बात मान लो, मैं डाक्टर से बात कर लूंगा.

‘‘तुम जानो, तुम्हारा काम जाने, मैं तो चला. हां, यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हारे साथ डाक्टर रमेश के नर्सिंगहोम तक चल सकता हूं. ज्यादा समय नहीं लगेगा शाम तक फारिग हो कर घर आ जाओगी, और फिर अब तो गर्भपात वैध भी हो गया है,’’ सार्थक ने दुष्टता से मुसकराते हुए कहा और चला गया.


वह सोच में डूब गई, क्या करे क्या न करे, जो कुछ भी हुआ उस में इस बच्चे का क्या दोष. क्या वह भ्रूण हत्या का पाप भी अपने सिर पर ले. सार्थक तो पल्ला झाड़ कर किनारे हो गया. फंसी तो वह थी. यदि मातापिता की बात मान कर शादी कर ली होती, तो आज गर्व से सिर ऊंचा कर के रहती. वैसे भी सोसायटी में सब उसे अजीब नजरों से देखते थे. यों तो दिल्ली में यह कोई नई बात नहीं थी, लेकिन फिर भी अड़ोसपड़ोस में किसी से उस की बात शुरू से नहीं होती थी. फिर भी उस ने सामने वाले फ्लैट में रहने वाली मिसेज सुनीता से बातचीत करनी चाही, लेकिन उन्होंने एक अव्यक्त रुखाई का ही परिचय दिया और उसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी. वह दिल्ली के मुकाबले कानपुर जैसे छोटे शहर से आई थी. वह भी सब से घुलमिल कर रहना चाहती थी, लेकिन निराशा ही हाथ लगी और वह धीरेधीरे हीनता का शिकार होती गई, अब यदि उस की इस अवस्था की भनक किसी को लग गई तो क्या होगा? वह गहन सोच में डूब गई थी.


शाम को दोनों ने एकसाथ औफिस छोड़ा तो सार्थक ने थोड़ा शांत लहजे में कहा, ‘‘देखो ऋतु, अब भी समय है, मेरी बात मान लो, मैं डाक्टर से बात कर लूंगा. किसी को कानोंकान खबर तक न होगी और फिर सबकुछ यथावत हो जाएगा,’’ बहुत सोचविचार कर उस ने हामी भर दी. दूसरे दिन दोनों ने छुट्टी ले ली. सार्थक उसे नर्सिंगहोम ले गया. 3-4 घंटे की प्रक्रिया के बाद वह उसे ले कर घर आ गया. ऋतु का चेहरा एकदम पीला पड़ गया था, ग्लानि से उस का हृदय भरा हुआ था, सार्थक ने उसे गरम कौफी पिलाई, जब वह उठने लगी तो बोला, ‘लेटी रहो, खाना बाहर से ले आता हूं,’ और वह चला गया.


ऋतु को अचानक रोना आ गया. वह तकिए में मुंह छिपा कर खूब रोई. आज उसे मातापिता, दीदी, सभी की बहुत याद आ रही थी. उसे लग रहा था कि उन की बात न मान कर उस ने कितनी बड़ी गलती की थी. काश, उस ने शादी कर ली होती तो आज वह अपने अजन्मे शिशु की हत्या के पाप की भागीदार तो न होती. उसे सार्थक के आने की आहट सुनाई दी तो वह चुपचाप शांत हो कर लेट गई. किसी प्रकार एकदो निवाले खा लिए और करवट बदल कर सोने की चेष्टा करने लगी. जब भी छुट्टियों में घर जाती, सभी पूछते, ‘‘कैसे मैनेज करती हो अकेले? कहां रहती हो?’’


‘‘गर्ल्स होस्टल में,’’ वह उत्तर देती, ‘‘बड़ा अच्छा है. आंटी बड़ा ध्यान रखती हैं, बस किसी को वहां आने की इजाजत नहीं है. यहां तक कि यदि घर वाले भी आना चाहें तो उन की व्यवस्था किसी होटल में करनी पड़ती है और दिल्ली के होटल, बाप रे बाप बड़े महंगे हैं,’’ और इस प्रकार वह अपने घर वालों को समझा देती थी. इस वर्ष जब वह दीवाली पर घर गई तो मां ने उसे विराज का फोटो दिखाया जो बेंगलुरु में सौफ्टवेयर इंजीनियर था, उन लोगों को बचपन से ही ऋतु बहुत पसंद थी. वे लोग मिलने भी आए थे. विराज आकर्षक व्यक्तित्व का धनी था तथा पद की गरिमा उस के चेहरे पर झलक रही थी. एकांत में उस ने ऋतु से पूछा, ‘‘शादी के विषय में क्या सोचा?’’


वह सकपका गई इस आकस्मिक प्रश्न से, ‘‘शादी, नहीं करनी है,’’ उस ने लड़खड़ाते शब्दों में कहा.


‘‘जीवन का सफर बहुत लंबा है, उसे कैसे पूरा करोगी?’’ विराज ने मुसकराते हुए कहा. मानो उसे खिझा रहा हो, लेकिन ऋतु के चेहरे पर जो तटस्थता का भाव था उसे देख कर उस ने इतना ही कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं इंतजार कर लूंगा,’’ और ऋतु को अपना विजिटिंग कार्ड थमा कर चला गया. ऋतु भी दिल्ली लौट आई. समय फिर एक ढर्रे पर आ गया था. दोनों उसी प्रकार रहने लगे, हां, लेकिन अब ऋतु थोड़ी सतर्क रहने लगी, अब वह पिछली गलतियों को दोहराना नहीं चाहती थी.


आज जब वह औफिस से निकलने लगी तो सार्थक को उस के कैबिन में नहीं पाया. ‘कहां चला गया होगा?’ वह सोचने लगी, ‘कोई बात नहीं, किसी काम से चला गया होगा’ और वह औटो ले कर घर आ गई.


फ्लैट की एक चाबी उस के पास भी थी. उस ने दरवाजा खोला. सामने टेबल पर चाय के 2 जूठे कप रखे थे, ‘कौन आया होगा,’ वह सोचने लगी तभी उसे बैडरूम से हंसी की आवाज आई. सार्थक के साथ किसी स्त्री का भी स्वर था, ‘‘हम लोग यहां ऐसी दशा में पड़े हैं, तुम्हारी पत्नी आ गई तो?’’ स्त्री का स्वर सुनाई दिया.


‘‘पत्नी? मेरी कोई पत्नी नहीं है वह तो मैं ने ऋतु के साथ फ्लैट शेयर किया है और साथ में रह रहे हैं, हां, हम दोनों में संबंध भी बने हैं, लेकिन वह तो इन बातों को सहज भाव से लेती ही नहीं है. पिछली बार मुझ से बोली, चलो शादी कर लें, नहीं तो बड़ी बदनामी होगी.


’’अब बच्चा ठहर गया तो इस में मैं क्या करूं. मैं ने तो नहीं कहा था बवाल पालने को. इन्हीं सब झंझटों से बचने के लिए ही मैं ने विवाह नहीं किया. मैं जीवन का पूरा लुत्फ उठाना चाहता हूं रश्मि, अगर तुम मेरा साथ दो तो हम दोनों इसी प्रकार रह सकते हैं. मैं अब उस के साथ रहना नहीं चाहता हूं, अब वह बासी हो गई है. हर समय संस्कारों की दुहाई देती रहती है, इतनी रूढि़वादिता मुझे बरदाश्त नहीं है. अब धीरेधीरे मैं उस से ऊब गया हूं.’’ ऋतु ने सब सुन लिया. उस का सर्वांग सुलग उठा. उस ने गुस्से में भड़ाक से कमरे का दरवाजा खोल दिया, ‘‘तो यह बात है, तुम मुझे अपनी भोग्या समझते रहे और मैं तुम्हें अपना सच्चा हमदर्द.’’ उसे अचानक सामने देख कर दोनों चौंक गए, ‘‘ऋतु, तुम?’’


‘‘ हां, मैं. रश्मि मुझे तुम से यह उम्मीद नहीं थी,’’ ऋतु अब रश्मि से मुखातिब थी. वह भी ऋतु के ही औफिस में काम करती थी, ‘‘मैं नहीं जानती कि तुम यह सब क्यों कर रही हो, जबकि तुम्हारा पूरा परिवार यहां दिल्ली में है, और तुम्हें इस प्रकार रहना भी नहीं है. बस, एक बात गांठ बांध लो, इस व्यक्ति का पल भर का भी विश्वास न करना. यह नारी को भोग्या समझता है. जितनी जल्दी तुम यह बात समझ लो, तुम्हारे लिए उतना ही अच्छा होगा. ‘‘हां सार्थक, मैं तुम्हारे साथ रही जरूर, हमारातुम्हारा संबंध भी बना लेकिन अमर्यादित संबंध मुझे पसंद नहीं. इसलिए मैं अभी इसी समय तुम से सारे रिश्ते तोड़ कर जा रही हूं, अपना त्यागपत्र मैं औफिस में भेज दूंगी, मुझे दिल्ली में अब रहना ही नहीं है. तुम कितने निकृष्ट हो, यह अब मुझे समझ आ गया है.


‘‘तुम्हारी आजादी, उन्मुक्तता तुम्हें ही मुबारक हो. तुम्हारे ही कारण मैं अपने ही अंश की हत्यारिन बनी, नहीं, बस अब और नहीं,’’ कहते हुए उस ने बैग में अपना सामान ठूंस लिया और फ्लैट से बाहर आ गई.


अब वह कानपुर वापस जा रही थी. ट्रेन में आरक्षण तो इतनी जल्दी मिलता नहीं, सो उस ने बस से ही यात्रा करने की ठानी. पापा को फोन कर के बता दिया, ‘‘मैं सबकुछ छोड़छाड़ कर आ रही हूं आप सब के पास, मेरे भविष्य का जो भी फैसला आप करेंगे मुझे स्वीकार होगा.’’ जब वह कानपुर बसस्टैंड पर उतरी तो उस ने विराज को प्रतीक्षा करते पाया. वह मुसकरा रहा था.


‘‘तुम यहां?’’ वह चौंकते हुए बोली.


‘‘हां, मैं… मुझे अंकल ने फोन पर सब बता दिया था, बस अब घर चलो, परसों हमारी शादी है. अब तुम्हें बांधना जरूरी है. पता नहीं तुम कब फुर्र से उड़ जाओ,’’ विराज ने उस का सिर सहलाते हुए कहा.


‘‘लेकिन विराज, तुम मेरे विषय में क्या जानते हो? मेरा दिल्ली में अपने एक पुरुष सहकर्मी के साथ प्रेम संबंध था. लेकिन अब ब्रेकअप हो गया है. एक भटके हुए पक्षी की तरह जिसे एक नीड़ की तलाश है,’’ ऋतु का गला भर आया.


‘‘मैं जानता हूं कि तुम उस लड़के के साथ घूमतीफिरती रहती थी, बड़े मौडर्न खयालों की लड़की हो, लेकिन जिस प्रकार एक उफनती नदी को भी बांध कर एक ठहराव दिया जाता है, उसी प्रकार तुम्हें भी एक ठहराव की आवश्यकता है और अब तुम्हारी भटकन समाप्त हो गई है. वैसे भी सुबह का भूला यदि शाम को घर पर आ जाए तो वह भूला नहीं कहलाता. समझी मेरी भटकी गौरैया,’’ विराज ने शरारत से मुसकराते हुए उसे देख कर कहा और कार को तीव्र गति से घर की ओर बढ़ा दिया.

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