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कहानी: मोह का जाल

तनु की झोली में खुशी जिस तरह अचानक भर गई थी उसी तरह एक झटके में छिन भी गई. पर अपने हौसले से अपनी जिंदगी का सहारा वह खुद बन गई. फिर आज ऐसा क्या हुआ था कि अपने अंतहीन पथ पर चलते हुए उस के कदम लड़खड़ाने लगे थे?

‘‘तनु बेटा, जा कर तैयार हो जा. वे लोग आते ही होंगे,’’ मां ने प्यारभरी आवाज में मनुहार करते हुए कहा. ‘‘मां, मैं कितनी बार कह चुकी हूं कि मैं विवाह नहीं करूंगी. मुझे पसंद नहीं है यह देखने व दिखाने की औपचारिकता. मां, मान भी लो कि यह रिश्ता हो गया, तो क्या मैं सुखी वैवाहिक जीवन बिता पाऊंगी? जब भी उन्हें पता चलेगा कि मैं एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त हूं तो क्या वे मुझे…’’ मैं आवेश में कांपती आवाज में बोली.


‘‘बेटा, तू ने मन में भ्रम पाल लिया है कि तुझे गंभीर बीमारी है. प्रदूषण के कारण आज हर 10 में से एक व्यक्ति इस बीमारी से पीडि़त है. दमा रोग आज असाध्य नहीं है. उचित खानपान, रहनसहन व उचित दवाइयों के प्रयोग से रोग पर काबू पाया जा सकता है. अनेक कुशल व सफल व्यक्ति भी इस रोग से ग्रस्त पाए गए हैं. ज्यादा तनाव, क्रोध इस रोग की तीव्रता को बढ़ा देते हैं. हमारे खानदान में तो यह रोग किसी को नहीं है, फिर तू क्यों हीनभावना से ग्रस्त है?’’ मां ने समझाते हुए कहा.


‘‘तुम इस बीमारी के विषय में उन लोगों को बता क्यों नहीं देतीं,’’ मैं ने सहज होने का प्रयत्न करते हुए कहा.


‘‘तू नहीं जानती है, बेटी, तेरे डैडी ने 1-2 जगह इस बात का जिक्र किया था, किंतु बीमारी का सुन कर लड़के वालों ने कोई न कोई बहाना बना कर चलती बात को बीच में ही रोक दिया,’’ असहाय मुद्रा में मां बोलीं.


‘‘लेकिन मां, यह तो धोखा होगा उन के साथ.’’


‘‘बेटा, जीवन में कभीकभी कुछ समझौते करने पड़ते हैं, जिन्हें करने का हम प्रयास कर रहे हैं.’’ लंबी सांस से ले कर मां फिर बोलीं, ‘‘इतनी बड़ी जिंदगी किस के सहारे काटेगी? जब तक हम लोग हैं तब तक तो ठीक है, भाई कब तक सहारा देेंगे? अपने लिए नहीं तो मेरे और अपने डैडी की खातिर हमारे साथ सहयोग कर बेटा. जा, जा कर तैयार हो जा,’’ मां ने डबडबाई आंखों से कहा.


कुछ कहने के लिए मैं ने मुंह खोला किंतु मां की आंखों में आंसू देख कर होंठों से निकलते शब्द होंठों पर ही चिपक गए. अनिच्छा से मैं तैयार हुई. मन कह रहा था कि किसी को धोखा देना अपराध है. मन की बात मन में ही रह गई. भाई रंजन ने आ कर बताया कि वे लोग आ गए हैं. मां और डैडी स्वागत के लिए दौड़े. 2 घंटे कैसे बीते, पता ही नहीं चला. मनुज अत्यंत आकर्षक, हंसमुख व मिलनसार लगा. लग ही नहीं रहा था कि हम पहली बार मिल रहे हैं. पहली बार मन में किसी को जीवनसाथी के रूप में प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत हुई.


वे लोग चले गए, किंतु मेरे मन में उथलपुथल मच गई. क्या वे मुझे स्वीकार करेंगे? यदि स्वीकार कर भी लिया तो कच्ची डोर से बंधा बंधन कब तक ठहर पाएगा?


2 दिनों बाद फोन पर रिश्ते को स्वीकार करने की सूचना मिली तो बिना त्योहार के ही घर में त्योहार जैसी खुशियां छा गईं. डैडी बोले, ‘‘मैं जानता था रिश्ता यहीं तय होगा. कितना भला व सुशील लड़का है मनुज.’’


किंतु मैं खुश नहीं थी. जनमजनम के इस रिश्ते में पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक है, सो, पता प्राप्त कर चुपके से एक पत्र मनुज के नाम लिख कर डाल दिया. धड़कते दिल से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी.


एक हफ्ता बीता, 2 हफ्ते बीते, यहां तक तीसरा भी बीत गया. उस के पत्र का कोई उत्तर नहीं आया. मनुज का विशाल व्यक्तित्व खोखला लगने लगा था. स्वप्न धराशायी होने लगे थे कि एक दिन कालेज से लौटी तो दरवाजे की कुंडी में 3-4 पत्रों के साथ एक गुलाबी लिफाफा था. उस का भविष्य इसी लिफाफे में कैद था. जीवन में खुशियां आने वाली हैं या अंधेरा, एक छोटा सा कागज का टुकड़ा निर्णय कर देगा. पत्र खोल कर पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी.


‘प्यारी तनु,मां आज किटी पार्टी में गई थीं. सो, बैग से चाबी निकाल कर ताला खोला. कड़कड़ाती ठंड में भी माथे पर पसीने  कीबूंदें झलक आई थीं. स्वयं को संयत करते हुए पत्र खोला. लिखा था :


तुम्हें जीवनसाथी के रूप में प्राप्त  कर मेरा जीवन धन्य हो जाएगा. तुम बिलकुल वैसी ही हो जैसी मैं ने कल्पना की थी.’


मन में अचानक अनेक प्रकार के फूल खिल उठे, सावन के बिना ही जीवन में बहार आ गई. चारों ओर सतरंगी रंग छितर कर तनमन को रंगीन बनाने लगे. मैं ने भी उन के पत्र का उत्तर दे दिया था.


2 महीने के अंदर ही वैदिक मंत्रों के मध्य अग्नि को साक्षी मान कर मेरा मनुज से विवाह हो गया. दुखसुख में जीवनभर साथ निभाने के कसमेवादों के साथ जीवन के अंतहीन पथ पर चल पड़ी. विदाई के समय मां का रोरो कर बुरा हाल था. चलते समय मनुज से बोली थीं, ‘‘बेटा, नाजुक सी छुईमुई कली है मेरी बेटी, कोई गलती हो जाए तो छोटा समझ कर माफ कर देना.’’


मेरी आंखें रो रही थीं किंतु मन नवीन आकांक्षाओं के साथ नए पथ पर छलांग मारने को आतुर था. कानपुर से फैजाबाद आते समय मनुज ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया था तथा धीरेधीरे सहला रहे थे, और मैं चाह कर भी नजरों से नजरें मिलाने में असमर्थ थी. कैसा है यह बंधन… अनजान सफर में अनजान राही के साथ अचानक तनमन का एकाकार हो जाना, प्रेम और अपनत्व नहीं, तो और क्या है.


ससुराल में खूब स्वागत हुआ. सास सौतेली थीं, किंतु उन का स्वभाव अत्यंत मोहक व मृदु लगा. कुछ ने कहा कि कमाऊ बेटा है इसीलिए उस की बहू का इतना सत्कार कर रही हैं. यह सुन कर सौम्य स्वभाव, मृदुभाषिणी सास के चेहरे पर दुख की लकीरें अवश्य आईं, किंतु क्षण भर पश्चात ही निर्विकार मूर्ति के सदृश प्रत्येक आएगए व्यक्ति की देखभाल में जुट जातीं.


ननद स्नेहा भी दिनभर भाभीभाभी कहते हुए आगेपीछे ही घूमती. कभी नाश्ते के लिए आग्रह करती तो कभी खाने के लिए. प्रत्येक आनेजाने वाले से भी परिचय करवाती. मनुज भी किसी न किसी काम के बहाने कमरे में ही ज्यादा वक्त गुजारते. मित्र कहते, ‘‘वह तो गया काम से. अभी से यह हाल है तो आगे क्या होगा?’’ मन चाहने लगा था, काश, वक्त ठहर जाए, और इसी तरह हंसीखुशी से सदा मेरा आंचल भरा रहे.


पूरे हफ्ते घूमनाफिरना लगा रहा. 2 दिनों बाद ऊटी जाने का कार्यक्रम था. देर रात्रि मनुज के अभिन्न मित्र के घर से हम खाना खा कर आए. पता नहीं ठंड लग गई या खानेपीने की अनियमितता के कारण सुबह उठी तो सांस बेहद फूलने लगी.


‘‘क्या बात है? तुम्हारी सांस कैसे फूलने लगी? क्या पहले भी ऐसा होता था?’’ मुझे तकलीफ में देख कर हैरानपरेशान मनुज ने पूछा.


‘‘मैं ने अपनी बीमारी के बारे में आप को पत्र लिखा था,’’ प्रश्न का समाधान करते हुए मैं ने कहा.


‘‘पत्र, कौन सा पत्र? तुम्हारे पत्र में बीमारी के बारे में तो जिक्र ही नहीं था.’’


लगा, पृथ्वी घूम रही है. क्या इन को मेरा पत्र नहीं मिला? मैं तो इन का पत्र प्राप्त कर यही समझती रही कि मेरी कमी के साथ ही इन्होंने मुझे स्वीकारा है. तनाव व चिंता के कारण घबराहट होने लगी थी. पर्स खोल कर दवा ली, लेकिन जानती थी रोग की तीव्रता 2-3 दिन के बाद ही कम होगी. दवा के रूप में प्रयुक्त होने वाला इनहेलर शरम व झिझक के कारण नहीं लाई थी. यदि किसी ने देख लिया और पूछ बैठा तो क्या उत्तर दूंगी.


बीमारी को ले कर इन्होंने घर सिर पर उठा लिया. इन का रौद्ररूप देख कर मैं दहल गई थी. आखिर गलती हमारी ओर से हुई थी. बीमारी को छिपाना ही भयंकर सिद्ध हुआ था. मेरा लिखा पत्र डाक एवं तार विभाग की गड़बड़ी के कारण इन तक नहीं पहुंच पाया था.


‘‘बेटा, आजकल के समय में कोई भी रोग असाध्य नहीं है. हम बहू का इलाज करवाएंगे. तुम क्यों चिंता करते हो?’’ मनुज को समझाते हुए सासससुर बोले.


‘‘पिताजी, मैं इस के साथ नहीं रह सकता. मैं ने एक सर्वगुणसंपन्न व स्वस्थ जीवनसाथी की तलाश की थी न कि रोगी की. क्या मैं इस की लाश को जीवनभर ढोता रहूंगा? अभी यह हाल है तो आगे क्या होगा?’’ कड़कती मुद्रा में ये बोले.


‘‘पापा, भैया ठीक ही तो कह रहे हैं,’’ स्नेहा, मेरी ननद ने भाई का समर्थन करते हुए कहा.


‘‘तुम चुप रहो. अभी छोटी हो, शादीविवाह कोई बच्चों का खेल नहीं है जो तोड़ दिया जाए,’’ पितासमान ससुरजी ने स्नेहा को डांटते हुए कहा.


‘‘मैं कल ही अपने काम पर लौट रहा हूं.’’ कुछ कहने को आतुर अपने पिता को चुप कराते हुए, मनुज घर से चले गए.


मनुज की बातों से व्याकुल सास मेरे पास आईं. मेरी आंखों से बहते आंसुओं को अपने आंचल से पोंछते हुए बोलीं, ‘‘बेटी घबरा मत, सब ठीक हो जाएगा. बेवकूफ लड़का है, इतना भी नहीं समझता कि बीमारी कभी भी किसी को भी हो सकती है. इस की वजह से विवाह जैसे पवित्र संबंध को तोड़ा नहीं जा सकता. हां, इतना अवश्य है कि राजेंद्र भाईसाहब को बीमारी के संबंध में छिपाना नहीं चाहिए था.’’


‘‘मांजी, मम्मीपापा ने छिपाया अवश्य था, किंतु मैं ने इन्हें सबकुछ सचसच लिख दिया था. इन का पत्र प्राप्त कर मैं समझी थी कि इन्होंने मेरी बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया है, वरना मैं विवाह ही नहीं करती,’’ कहतेकहते आंचल में मुंह छिपा कर मैं रो पड़ी थी.


डाक्टर भी आ गए थे. रोग की तीव्रता को देख कर इंजैक्शन दिया तथा दवा भी लिखी. रोग की तीव्रता कम होने लगी थी, किंतु इन के जाने की बात सुन कर मन अजीब सा हो गया था. सारी शरम छोड़ कर सासूजी से कहा, ‘‘मम्मी, क्या ये एक बार, सिर्फ एक बार मुझ से बात नहीं कर सकते?’’


सासुमां ने मनुज से आग्रह भी किया, किंतु कोई भी परिणाम न निकला. जाते समय मैं भी सब के साथ बाहर आई. इन्होंने मां और पिताजी के पैर छुए, बहन को प्यार किया और मेरी ओर उपेक्षित दृष्टि डाल कर चले गए. सासुमां ने दिलासा देते हुए मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मैं विह्वल स्वर में बोल उठी, ‘‘मां, मेरा क्या होगा?’’


जीवन में अब न कोई उमंग थी और न ही तरंग. किसी पर भार बन कर रहना नहीं चाहती थी. सो, प्रीमैडिकल में सफल होना प्रथम और अंतिम ध्येय बन गया था. समय कम था. मन को पढ़ाई में एकाग्र किया.

आदमी इतना तटस्थ हो सकता है, मैं ने स्वप्न में भी कभी नहीं सोचा था. विगत एक हफ्ते में हम ने कुछ अंतरंग क्षण व्यतीत किए थे, कुछ सपने बुने थे, सुखदुख में साथ रहने की कसमें खाई थीं, क्या वह सब झूठ था?


डैडी को पता चला तो वे भी आए. उन के उदास चेहरे पर मैं नजर भी न डाल सकी. कितने प्रयत्न, कितनी खुशी से संबंध तय किया था, क्या सिर्फ एक हफ्ते के लिए?


‘‘दिवाकरजी, आप मनुज को समझा कर देखिए. यह रोग भयंकर रोग तो है नहीं, मैं सच कहता हूं, हमारे यहां न मेरी तरफ और न ही इस की मां की तरफ किसी को यह रोग है. सो, यदि प्रयास किया जाए तो ठीक हो सकता है,’’ गिड़गिड़ाते हुए डैडी बोले.


‘‘भाईसाहब, अपनी तरफ से तो मैं पूर्ण प्रयास करूंगा पर नई पीढ़ी को तो आप जानते ही हैं, यह सदा अपने मन की ही करती है,’’ मेरे ससुरजी डैडी को दिलासा देते हुए बोले.


मैं डैडी के साथ अपने घर वापस लौट आई. इस तरह एक हफ्ते में सारे सुख और दुख मेरे आंचल में आ गिरे थे. इस जीवन का क्या होगा? यह प्रश्न बारबार जेहन में उभर रहा था. मां मेरे लौट आने के बाद गुमसुम हो गई थीं. डैडी अब देर से घर लौटते थे. शायद कोई भी एकदूसरे से नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था.


मैं विश्वविद्यालय की पढ़ाई करना नहीं चाहती थी. 2 बार प्रीमैडिकल परीक्षा में असफल होने के पश्चात एक बार फिर प्रीमैडिकल परीक्षा में सम्मिलित होने का निर्णय सुनाया तो सभी ने स्वागत किया. परीक्षा का फौर्म भरते समय नाम के आगे कुमारी शब्द देख कर मम्मी व डैडी बिगड़ उठे, किंतु, भाई रंजन ने मेरे समर्थन में आवाज उठाई, बोले, ‘‘ठीक ही तो है. उस संबंध को लाश की तरह उठाए कब तक फिरेगी?’’


एक महीने पश्चात मनुज ने अपने वकील के माध्यम से तलाक के लिए नोटिस भिजवाया. मांपिताजी ने हस्ताक्षर करने से मना किया, किंतु मैं ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘पतिपत्नी का संबंध मन व आत्मा से होता है. यदि मन ही एकाकार नहीं हुए तो टूटी डोर में गांठ बांधने से क्या फायदा,’’ और कागज पर हस्ताक्षर कर दिए.


जीवन में अब न कोई उमंग थी और न ही तरंग. किसी पर भार बन कर रहना नहीं चाहती थी. सो, प्रीमैडिकल में सफल होना प्रथम और अंतिम ध्येय बन गया था. समय कम था. मन को पढ़ाई में एकाग्र किया. परीक्षा हुई और परिणाम निकला. सफल प्रतियोगियों में मैं अपना नाम देख कर खुशी से झूम उठी.


मम्मीडैडी के उदास चेहरों पर एक बार फिर खुशी झलकने लगी थी और मुझे मेरी मंजिल मिल गई थी.


5 वर्ष की पढ़ाई पूरी हुई. मैं लड़कियों में प्रथम रही थी. योग्यता के कारण सरकारी सेवा में नियुक्ति हो गई. पूरे दिन रोगियों की सेवा करती तो अलग तरह के आनंद की प्राप्ति होती. कभीकभी लगता वह जीवन क्षणमात्र के लिए था. मेरा जन्म तो इसी के लिए हुआ है. कभी फ्लोरेंस नाइटिंगेल से अपनी तुलना करती तो कभी जौन औफ आर्क से, मन में छाया कुहासा पलभर में दूर हो जाता और कर्तव्यपथ पर कदम स्वयं बढ़ने लगते.


एक दिन अस्पताल में बैठी रोगियों को देख रही थी कि एक युगल ने कमरे में प्रवेश किया. मैं उस जोड़े को देख कर चौंक गई, किंतु चेहरे पर आए परिवर्तन पर यथासंभव अंकुश लगा लिया.


‘‘कहिए, क्या तकलीफ है आप को?’’ मैं ने सामान्य होते हुए पूछा.


‘‘आप इन का चैकअप कर लीजिए. चलनेफिरने में तकलीफ होती है, पैरों में सूजन भी है,’’ युवक ने कहा.


‘‘चलिए,’’ उठते हुए मैं ने कहा व बगल के कमरे में ले जा कर युवती का पूरा चैकअप किया और फिर बताया, ‘‘कोई परेशानी की बात नहीं है, इन्हें उच्च रक्तचाप है. इसी कारण पैरों में सूजन है. दवा लिख रही हूं, समय पर देते रहिएगा. बच्चा होने तक लगातार हर 15 दिन बाद चैकअप करवाते रहिएगा.’’


‘‘जी, डाक्टर.’’


‘‘नाम?’’ दवाई का परचा लिखते हुए मैं ने पूछा.


‘‘ऋचा शर्मा,’’ उत्तर युवती ने दिया.


परचे पर नाम लिखते समय न जाने क्यों हाथ कांप गया था. कुछ दवाएं व टौनिक लिख कर दिए. साथ में कुछ हिदायतें भी. वे दोनों उठ कर चले गए, किंतु दिल में हलचल मचा गए. उस दिन, दिनभर व्यग्र रही. बारबार अतीत आ कर कुरेदने लगा. जो चीज मैं पीछे छोड़ आई थी, वह क्यों फिर से मुझे बेचैन करने लगी थी. मैं ने अलमारी से वह फोटो निकाली जो विवाह के दूसरे दिन जा कर खिंचवाई थी. देख कर मैं बुदबुदा उठी थी, ‘तुम क्यों मेरे शांत जीवन में हलचल मचाने आ गए. मैं ने तुम से कुछ नहीं मांगा. तुम ने साथ चलने से इनकार कर दिया तो मैं ने अपनी राह स्वयं बना ली. तुम इस राह में फिर क्यों आ गए. कितना त्याग और बलिदान चाहते हो?’ रात अशांति में, बेचैनी में गुजरी. सुबह उठी तो रातभर जागने के कारण आंखें बोछिल थीं. अस्पताल जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, किंतु फिर भी यह सोच कर तैयार हुई कि कार्य में व्यस्त रहने पर मन शांत रहता है.


अस्पताल में कमरे के बाहर मनुज को प्रतीक्षारत पाया तो कदम लड़खड़ा गए. किंतु सहज बनने का अभिनय करते हुए उन्हें अनदेखा कर अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गई. मनुज भी मेरे पीछेपीछे आए थे.


‘‘माफ कीजिएगा, आप तनुजा हैं न?’’ लड़खड़ाते शब्दों में उन्होंने पूछा.


‘‘क्यों, आप को कुछ शक है क्या?’’ तेज निगाहों से देखते हुए मैं ने पूछा.


‘‘मैं ने तुम्हारे साथ कठोर व्यवहार व अन्याय किया है, जिसे मैं कभी भूल नहीं पाया. कल तुम्हें देखने के बाद से ही मैं पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा हूं. मुझे माफ कर दो, तनु.’’


‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा कहिए और बाहर आप मेरे नाम की तख्ती देख लीजिए,’’ निर्विकार मुद्रा में बोली थी मैं. ‘‘आप की पत्नी की तबीयत अब कैसी है? उन का खयाल रखिएगा और हो सके तो प्रत्येक 15 दिन बाद परीक्षण करवाते रहिएगा,’’ कह कर मैं ने घंटी बजा दी, ‘‘मरीजों को अंदर भेज दो,’’ चपरासी को निर्देश देती हुई बोली.


‘‘अच्छा, मैं चलता हूं, तनु,’’ मनुज ने मेरी ओर आग्रहपूर्वक देखते हुए कहा.


‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा,’’ मैं ने कुमारी शब्द पर थोड़ा जोर देते हुए तीव्र स्वर में कहा. और लड़खड़ाते कदमों से मनुज चले गए.


मैं देखती रह गई. क्या यह वही व्यक्ति है जिस ने मुझे मझधार में डूबने के लिए छोड़ दिया था. किंतु यह इस समय इतना निरीह क्यों? इतना दयनीय क्यों? क्या यह सिर्फ मेरे पद के कारण है या इस के जीवन में कोई अभाव है? मुझे स्वयं पर हंसी आने लगी थी. इसे क्या अभाव होगा, जिस की इतनी प्यारी पत्नी है, पद है, मानसम्मान है.


तब तक मरीजों ने आ कर मेरी विचार शृंखला को भंग कर दिया और मैं कार्य में व्यस्त हो गई.


अतीत ने मुझे कुरेदा जरूर था किंतु अनजाने सुख भी दे गया था, क्योंकि वह व्यक्ति जिस ने मुझे अपमानित किया था, मानसिक पीड़ा दी थी, वह मेरे सामने निरीह व दयनीय बन कर खड़ा था. इस से अधिक सुख क्या हो सकता था? मेरे जीवन में एक और परिवर्तन आ गया था, वह तसवीर जिसे शादी के दूसरे दिन दोनों ने बड़े प्रेम से खिंचवाया था उसे देखे बिना मुझे नींद नहीं आती थी. उस तसवीर में उस का निरीह चेहरा मेरे आत्मसम्मान को सुख पहुंचाता था. इसलिए, अब वह तसवीर मेरे बेडरूम में लग गई थी.


ऋचा हर 15 दिन पश्चात आती रही, किंतु उस के साथ वह चेहरा देखने को नहीं मिला. 2 माह पश्चात लड़का हुआ. उस ने आ कर आभार प्रदर्शन करते हुए कहा था, ‘‘तनुजाजी, मैं आप का गुनाहगार हूं. किंतु, आप ने बेटे के रूप में उपहार दे कर अनिर्वचनीय आनंद प्रदान किया है. शायद, आप नहीं जानती कि यह मेरी और ऋचा की तीसरी संतान है. अन्य 2 जन्म से पूर्व ही काल के गाल में समा गईं.’’


मनुज चला गया, किंतु हृदय में सुलगते दावानल को मेरे सामने प्रकट कर गया. शायद वह अपनी पूर्व 2 संतानों की असमय ही मौत का कारण तनु के साथ पूर्व में किए गए अपने गलत व्यवहार को ही समझ बैठा था, तभी इतना निरीह व कातर लगने लगा है.


कुछ दिन पश्चात ही मेरा वहां से स्थानांतरण हो गया. अतीत से संबंध कट गया. किंतु कभीकभी मेरा दिल अपने ही हाथों से मात खा जाता था. तब तड़प उठती थी, क्या मेरे जीवन में यही एकाकीपन लिखा है? मम्मीपापा का देहांत हो गया था. भाई अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त था.


कितने वर्ष यों ही बीत गए. अपने को बेसहारा पा कर मैं ने एक अनाथ बेसहारा लड़की को गोद ले लिया ताकि जीवन की शून्यता को भर सकूं. लड़की पढ़ने में तेज थी. डाक्टरी पढ़ कर अनाथ बेसहाराजनों की सेवा करना चाहती थी.


करीब 5 वर्ष पूर्व न्यूमोनिया बीमारी से पीडि़त हो कर अस्पताल में भरती हुई थी. उस की मासूम नीली आंखों में न जाने क्या था कि मन उसे अपनाने को मचल उठा था. अनाथाश्रम से उठा कर घर लाई तो सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था. पिछले वर्ष ही मैडिकल की प्रतियोगी परीक्षा में उस का चयन हुआ और पढ़ाई के लिए उसे इलाहाबाद जाना पड़ा और मैं फिर एक बार अकेली हो गई थी.


जीवन मेरे साथ आंखमिचौली खेल रहा था. सुखदुख एक ही सिक्के के 2 पहलू हो चले थे. एक दिन अपने कमरे में बैठी अपने संस्मरण लिख रही थी कि नौकर ने आ कर बताया कि एक आदमी आप से मिलना चाहता है. मैं बाहर निकल कर आई तो वह बोला, ‘‘डाक्टर साहब, शर्मा साहब का लड़का बेहद बीमार है. आप शीघ्र चलिए.’’


अपना बैग उठाया तथा कार में उस अनजान आदमी को बैठा कर चल पड़ी. ऐसे अवसरों पर अनजान व्यक्ति के साथ जाते समय मन में बेहद उथलपुथल होती थी, किंतु यह सोच कर चल पड़ती कि हर आदमी बुरा नहीं होता, फिर किसी पर अविश्वास क्यों और किसलिए, इंसान को अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए. हमारा कर्तव्य हमारे साथ, उस का कर्तव्य उस के साथ. यही तो मेरी विचारधारा थी, जीवनदर्शन था.


कार के पहुंचते ही एक आदमी तेजी से उधर से बाहर आया और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, आप को तकलीफ हुई होगी, लेकिन मजबूर था. प्रतीक्षित को 104 डिगरी बुखार है.’’


‘‘चलिए,’’ तब तक हम रोशनी में पहुंच चुके थे.


‘‘अरे तनु, तुम. ओह, माफ कीजिएगा तनुजाजी, मुझ से गलती हो गई,’’ मनुज एकदम हड़बड़ा कर बोले.


मैं भी एकदम चौंक उठी थी. इस जिंदगी में यह दोबारा अप्रत्याशित मिलन किसलिए? सोच ही नहीं पा रही थी. मैं ने पूछा, ‘‘प्रतीक्षित कहां है?’’


अंदर गए तो देखा वह बुखार में तप रहा था. आंखें बंद थीं, किंतु मुंह से कुछ अस्फुट स्वर निकल रहे थे. नब्ज देखी तो टायफायड के लक्षण नजर आए. ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए दवा बैग से निकाल कर खिला दी. अन्य दवाइयां परचे पर लिख कर देते हुए बोली, ‘‘ये दवाएं बाजार से मंगवा लीजिए तथा ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए ठंडे पानी की पट्टी माथे पर रखिए और हाथ, पैर व तलवे की भी मालिश कीजिए.’’


मनुज उस के हाथों को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगे तथा चिंतित व घबराए स्वर में बोले, ‘‘डाक्टर साहब, मेरा प्रतीक्षित बच जाएगा न? यही मेरा जीवन है. मेरे जीवन की एकमात्र पूंजी.’’


लगभग एक घंटे पश्चात बंद पलकों में हलचल हुई तथा होंठ बुदबुदा उठे, ‘‘प…पानी… पानी…’’


मनुज ने तत्काल उठ कर उस के मुंह में चम्मच से पानी डाला. दवा के असर के कारण वह पानी पी कर फिर सो गया.


‘‘अच्छा, अब मुझे इजाजत दीजिए. आवश्यकता पड़ने पर बुला लीजिएगा,’’ घड़ी पर निगाह डालते हुए मैं ने कहा.


‘‘चलिए, मैं आप को छोड़ आता हूं,’’ मनुज ने मेरा बैग उठाते हुए कहा.


रातभर बेचैन रही. प्रतीक्षित के लिए न जाने क्यों अनजाने ही लगाव हो गया था. मैं जितना ही उस की भोली व मासूम सूरत से भागने का प्रयास करती वह उतनी ही और करीब आती जाती. ऋचा नजर नहीं आ रही थी, लेकिन पूछने का साहस भी नहीं कर पाई.


सुबह अस्पताल जाने के लिए गाड़ी स्टार्ट की तो न जाने कैसे स्टियरिंग मनुज के घर की ओर मुड़ गया. जब वहां जा कर कार खड़ी हुई तब होश आया कि अनजाने में कहां से कहां आ गई. वह कैसी स्थिति थी, मैं नहीं जानती. दिल पर अंकुश रख कर गाड़ी बैक करने ही वाली थी कि नौकर दौड़ादौड़ा आया, ‘‘डाक्टर साहब, आप की कृपा से प्रतीक्षित भैया होश में आ गए हैं. साहब आप को ही याद कर रहे हैं.’’


न चाहते हुए भी उतरना पड़ा. मुझे वहां उपस्थित देख कर मनुज आश्चर्यचकित रह गए. उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं बिना बुलाए उन के बेटे का हालचाल पूछने आऊंगी.


‘‘प्रतीक्षित कैसा है? कल उस के ज्वर की तीव्रता देख कर मैं भी घबरा गई थी. सो, उसे देखने चली आई,’’ मनुज के चेहरे पर अंकित प्रश्नों को नजरअंदाज करते हुए मैं बोली.


मनुज ने प्रतीक्षित से मेरा परिचय करवाया तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मैं ठीक हो जाऊंगा न, तो खूब पढ़ूंगा और आप की तरह ही डाक्टर बनूंगा. फिर आप की तरह ही सफेद कोट पहन कर, स्टेथोस्कोप लगा कर बीमार व्यक्तियों को देखूंगा.’’


‘‘अच्छा बेटा, पहले ठीक हो जा, ज्यादा बातें मत करना, आराम करना. समय पर दवा खाना. मुझ से पूछे बिना कुछ खानापीना मत. अच्छा, मैं चलती हूं.’’


‘‘आंटी, आप फिर आइएगा, आप को देखे बिना मुझे नींद ही नहीं आती है.’’


‘‘बड़ा शैतान हो गया है, बारबार आप को तंग करता रहता है,’’ मनुज खिसियानी आवाज में बोले.


‘‘कोई बात नहीं, बच्चा है,’’ मैं कहती, पर अप्रत्यक्ष में मन कह उठता, ‘तुम से तो कम है. तुम ने तो जीवनभर का दंश दे दिया है.’


मैं जानती थी कि मेरा वहां बारबार जाना उचित नहीं है. कहीं मनुज कोई गलत अर्थ न लगा लें. मनुज की आंखों में मेरे लिए चाह उभरती नजर आई थी. किंतु मेरी अत्यधिक तटस्थता उन्हें सदैव अपराधबोध से दंशित करती रहती. प्रतीक्षित के ठीक होने पर मैं ने जाना बंद कर दिया. वैसे भी प्रतीक्षित के साथ मेरा रिश्ता ही क्या था? सिर्फ एक डाक्टर व मरीज का. जब बीमारी ही नहीं रही तो डाक्टर का क्या औचित्य.


एक दिन शाम को टीवी पर अपनी मनपसंद पिक्चर ‘बंदिनी’ देख रही थी. नायिका की पीड़ा मानो मेरी अपनी पीड़ा हो, पुरानी भावुक पिक्चरों से मुझे लगाव था. जब फुरसत मिलती, देख लेती थी. तभी नौकर ने आ कर सूचना दी कि कोई आया है. मरीजों का चैकअप करने वाले कमरे में बैठने का निर्देश दे कर मैं गई, सामने मनुज और प्रतीक्षित को बैठा देख कर चौंक गई.


‘‘कैसे हो, बेटा? अब तो स्कूल जाना शुरू कर दिया होगा?’’ मैं स्वर को यथासंभव मुलायम बनाते हुए बोली.


‘‘हां, स्कूल तो जाना प्रारंभ कर दिया है किंतु आप से मिलने की बहुत इच्छा कर रही थी. इसलिए जिद कर के डैडी के साथ आ गया. आप क्यों नहीं आतीं डाक्टर आंटी अब हमारे घर?’’


‘‘बेटा, तुम्हारे जैसे और भी कई बीमार बच्चों की देखभाल में समय ही नहीं मिल पाता.’’


‘‘यदि आप नहीं आ सकतीं तो क्या मैं शाम को या छुट्टी के दिन आप के घर मिलने आ सकता हूं?’’


‘‘हां, क्यों नहीं,’’ उत्तर तो दे दिया था, किंतु क्या मनुज पसंद करेंगे.


‘‘घर में भी सदैव आप की बात करता है, डाक्टर आंटी ऐसी हैं, डाक्टर आंटी वैसी हैं,’’ फिर थोड़ा रुक कर मनुज बोले, ‘‘आप ने मेरे पुत्र को जीवनदान दे कर मुझे ऋणी बना दिया है. मैं आप का एहसान जिंदगीभर नहीं भूलूंगा.’’


‘‘वह तो मेरा कर्तव्य था,’’ मेरे मुख से संक्षिप्त उत्तर सुन कर मनुज कुछ और कहने का साहस न जुटा सके, जबकि लग रहा था कि वे कुछ कहने आए हैं. और मैं चाह कर भी ऋचा के बारे में न पूछ सकी. प्रतीक्षित इतने दिन बीमार रहा. वह क्यों नहीं आई, क्यों उस की खबर नहीं ली.


उस दिन के पश्चात प्रतीक्षित लगभग रोज ही मेरे पास आने लगा. मेरा काफी समय उस के साथ बीतने लगा. एक दिन बातोंबातों में मैं ने उस से उस की मां के बारे में पूछा, तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मां याद तो नहीं हैं, सिर्फ तसवीर देखी है, लेकिन डैडी कहते हैं कि जब मैं 3 साल का था, तभी मां की मौत हो गई थी.’’


मन हाहाकार कर उठा था. एक को तो उस ने स्वयं ठुकरा दिया और दूसरी स्वयं उसे छोड़ कर चली गई. प्रकृति ने उसे उस के अमानवीय व अमानुषिक कृत्य के लिए दंड दे दिया था. अब मुझे भी प्रतीक्षित के आने की प्रतीक्षा रहती. उस की स्मरणशक्ति व बुद्धि काफी तीव्र थी. जो एक बार बता देती, भूलता नहीं था. किसी भी नई चीज, नई वस्तु को देख कर उस के उपयोग के बारे में बालसुलभ जिज्ञासा से पूछता तथा मैं भी यभासंभव उस के प्रश्नों का समाधान करती.


स्कूल में विज्ञान प्रदर्शनी थी. मेरी सहायता से प्रतीक्षित ने मौडल बनाया. मौडल देख कर वह अत्यंत प्रसन्न था.


प्रदर्शनी के पश्चात वह सीधा मेरे घर आया. मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मैं अपने शयनकक्ष में लेटी आराम कर रही थी. दौड़ता हुआ आया व खुशी से चिल्लाता हुआ बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, आप कहां हो? देखो, मुझे प्रथम पुरस्कार मिला है. और आंटी, गवर्नर ने हमारी प्रदर्शनी का उद्घाटन किया था और उन्होंने ही पुरस्कार दिया. आप को मालूम है, उन के साथ मेरी फोटो भी खिंची है. उन्होंने मेरी बहुत प्रशंसा की,’’ पलंग पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘आप की तबीयत खराब है क्या?’’


‘‘लगता है थोड़ा बुखार हो गया है. ठीक हो जाएगा.’’


‘‘आप सब की देखभाल करती हैं किंतु अपनी नहीं,’’ तभी उस की नजर स्टूल पर रखे फोटो पर गई. हाथ में उठा कर बोला, ‘‘आंटी, यह तसवीर तो पापा की है, साथ में आप भी हैं. इस में आप दोनों जवान लग रहे हैं. यह तसवीर आप ने कब और क्यों खिंचवाई?’’


जिस का मुझे डर था वही हुआ, इसीलिए कभी उसे शयनकक्ष में नहीं लाती थी. वह फोटो मेरी अहम संतुष्टि का साधन बनी थी, सो, चाह कर भी अंदर नहीं रख पाई थी. मेरा अब कोई संबंध भी नहीं था मनुज से, लेकिन यदि तथ्य को छिपाने का प्रयत्न करती तो वह कभी संतुष्ट न हो पाता तथा कालांतर में मेरी उजली छवि में दाग लग सकता था. सो, सबकुछ सचसच बताना पड़ा.


वस्तुस्थिति जान कर वह उबल पड़ा था कि यह डैडी ने अच्छा नहीं किया. मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि डैडी ऐसा भी कर सकते हैं. मैं अभी डैडी से जा कर इस का उत्तर मांगता हूं कि उन्होंने आप के साथ ऐसा क्यों किया? मैं बीमार हो जाऊं तो क्या वे मुझे भी छोड़ देंगे? वह जाने को उद्यत हुआ. मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘बेटा, मैं ने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा. जीवनपथ पर जैसे भी चली जा रही हूं, चलने दो, अब आखिरी पड़ाव पर मेरी भावनाओं, मेरे विश्वास, मेरे झूठे आत्मसम्मान को ठेस मत पहुंचाना तथा किसी से कुछ न कहना,’’ कहतेकहते एक बार फिर उस के सम्मुख आंसू टपक पड़े.


‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा, मां, किंतु आप को न्याय दिलाने का प्रयत्न अवश्य करूंगा,’’ दृढ़ निश्चय व दृढ़ कदमों से वह कमरे से बाहर चला गया था.


किंतु उस के मुखमंडल से निकला, ‘मां’ शब्द उस के जाने के पश्चात भी वातावरण में गूंज कर उस की उपस्थिति का एहसास करा रहा था, कैसा था वह संबोधन… वह आवाज, उस की सारी चेतना…संपूर्ण अस्तित्व सिर्फ एक शब्द में खो गया था. जिस मोह के जाल को वर्षों पूर्व तोड़ आई थी, अनायास ही उस में फंसती जा रही थी…कैसा है यह बंधन? कैसे हैं ये रिश्ते? अनुत्तरित प्रश्न बारबार अंत:स्थल में प्रहार करने लगे थे.

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