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कहानी: बुरके के पीछे का दर्द

अकरम के प्यार की गिरफ्त में आ कर नसीम मुंबई तक आ गई. वहां नसीम के साथ अकरम ने ऐसा क्या किया जिस से अकरम के प्रति उस का प्यार नफरत में बदल गया?

उस दिन अपने एक डाक्टर मित्र के यहां बैठा था. बीमारियों का मौसम चल रहा था, इसलिए मरीजों की भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. उन में कई बुरकानशीन खातून भी थीं जो ज्यादा उम्र की थीं, वे आपस में बातें कर रही थीं. कुछ बीच की उम्र वाली भी रही होंगी, जो ज्यादातर चुप ही थीं लेकिन उन में से किसी के साथ एक कमसिन जैसी भी थी, जिस के कमसिन होने का अंदाजा उस के चुलबुलेपन से लगता था, क्योंकि वह कभी एक जगह नहीं बैठती थी. साफ था कि उस को बुरका मजबूरी में पहनाया गया था.


आखिर आजिज आ कर उस ने अपना नकाब उलट ही दिया. उफ, वह तो बला की खूबसूरत निकली. काले बुरके से निकले उस के गोरेगुदाज हाथ तो पहले ही दिखाई दे चुके थे और अब उस का नजाकत से तराशा हुआ चेहरा भी सामने था. एकबारगी मेरे मन में यह खयाल कौंधा कि खूबसूरत नाजनीनों को बुरके में अपना हुस्न छिपाने का हक किस ने दिया? क्या यह हम मर्दों पर जुल्म नहीं है?


उस पर से निगाह हटती ही न थी, पर लगातार उधर देखते रहना, बेअदबी होती. इसलिए मैं रिसाले के पन्ने पलटने लगा, जो शायद कई साल पुराना था.


गए वक्त की एक अदाकारा की एक थोड़ी शोख अदा वाली तसवीर पर नजर गड़ाए था कि अचानक मेरे बगल वाली सीट पर एक बुरकानशीन आ कर बैठ गई. मैं ने उधर गरदन घुमाई तो उस ने अपना नकाब उठा दिया.


‘‘अरे, तुम?’’ मुंह से बेसाख्ता निकला.


यह नसीम थी, जो 4 साल पहले मेरी स्टूडैंट रह चुकी थी. वह इंस्टिट्यूट में भी दाखिल बुरके में ही होती थी, पर बिल्डिंग का गेट पार करतेकरते बुरका उतर जाता था और क्लास में पहुंचने तक वह तह कर के बैग के हवाले भी हो चुका होता था.


‘‘जी सर, आप कैसे हैं? डाक्टर के पास क्यों?’’


मु झे ध्यान आया कि यह वही थी जो इस दौरान मु झे अपने नकाब की ओट से लगातार घूरे जा रही थी. पर उस के लगातार मु झे देखे जाने पर मैं ने तवज्जुह नहीं दी थी. पर अब तो नसीम बगल में ही थी. मैं ने कहा, ‘‘मैं ठीक हूं. डाक्टर मेरे मित्र हैं. मिलने आया था. पर तुम तो लखनऊ चली गई थीं? मु झे याद है कि तुम ने बताया था कि यह कोर्स करने के बाद तुम्हारी वहां के एक अखबार में नौकरी पक्की है.’’


‘‘जी, बल्कि उन लोगों ने ही मु झे यह कोर्स करने के लिए मुंबई भेजा था.’’ ‘‘फिर क्या हुआ?’’ मैं जानना चाहता था.


‘‘कुछ नहीं. 2 साल मैं ने वहां ही काम किया.’’


तभी डाक्टर की रिसैप्शनिस्ट ने उस का नाम पुकारा. वह चैंबर में जाने के लिए उठ खड़ी हुई. वह जातेजाते बोली, ‘‘सर, आप जाइएगा नहीं. मु झे आप से जरूरी बात करनी है.’’


मैं ने ‘अच्छा’ कहा और मैं 4 साल पहले की नसीम को याद करने लगा. बड़ी जहीन लड़की थी वह, पूरी क्लास में. उस का स्टडीपेपर भी बहुत अच्छा बना था, खूब मेहनत से सारे डाटा इकट्ठे किए थे, उस के लिए. थोड़ी चुलबुली भी थी और दूसरे स्टूडैंट से खासी फ्री भी थी. पर इस बीच क्या घटा होगा, मैं कयास नहीं लगा पा रहा था. उस की इस बात से कि उसे मु झ से कोई जरूरी बात करनी है, मैं अजीब पसोपेश में था. दरअसल, मरीजों से फ्री होने के बाद मेरा डाक्टर मित्र अपने साथ मु झे कहीं ले जाना चाहता था, इसलिए इंतजार तो मु झे करना ही था. पर अब नसीम की जरूरी बात के बाद क्या करना होगा, तय नहीं कर पा रहा था.


नसीम को डाक्टर के पास कुछ समय लगा. वह लौटी तो मैं ने कहा, ‘‘तुम अपनी दवा बनवाओ, मैं डाक्टर से मिल कर आता हूं.’’


रिसेप्शनिस्ट से कहा कि मु झे 2 मिनट को अंदर जाने दे और मैं ने कल आने को कह कर डाक्टर से छुट्टी ले ली और तुरंत बाहर आ गया. तब तक नसीम अपनी दवा बनवा चुकी थी.


उस ने अपना नकाब फिर से ओढ़ लिया और हम साथ ही वहां से निकल पड़े.


उस को देख कर मन में सवालों का सैलाब घुमड़ रहा था. पर तमाम रास्ते हम में कोई बात न हुई. वह मुंबई वापस क्यों आ गई? लखनऊ में उस के साथ कोई हादसा तो नहीं हुआ? वह मु झ से कौन सी जरूरी बात करना चाहती है? आदि तमाम जिज्ञासाएं थीं.


संकरी गलियों से गुजरते हुए आखिर हम एक मकान के सामने जा कर रुके, जिस के दरवाजे पर ताला लगा हुआ था. नसीम ने बड़ी खुफिया निगाह से इधरउधर देखा फिर चाबी मु झे थमाती हुई बोली, ‘‘आप दरवाजा खोल कर अंदर चले जाइए. मैं बाद में आती हूं. पर दरवाजा अंदर से बंद न करिएगा,’’ और मैं ने देखा कि वह जल्दी से बगल वाली दूसरी गली के मोड़ पर छिप गई.


मैं ताला खोल कर अंदर तो आ गया पर उस के इस तरह से अपनी मौजूदगी को पोशीदा रखने और सहमे हुए बरताव से मैं हैरत में था और चौकन्ना भी.


बोर होने से कहीं ज्यादा मैं उत्सुकता के तूफान में घिरा हुआ था. पता नहीं वह कौन सी मजबूरी है जो वह इतने खुफिया तरीके से रह रही है.

चंद मिनटों में ही वह अंदर आ गई. मैं तब तक खड़ा ही था और उस छोटे से घर को देख रहा था. पुराने ढंग का मकान था जो करीबकरीब खंडहर सा हो चला था. सिर्फ एक छोटा सा कमरा, उस से जुड़ा टौयलेट और दूसरी तरफ रसोई जो इतनी छोटी थी कि पैंट्री ही ज्यादा लगती थी. कमरे में 1 बैड, 2 कुरसियां, 1 मेज,


1 छोटी सी अलमारी और दीवार पर टंगा आईना. बस, कुल जमा यही था उस घर का जुगराफिया.


वह कुछ बात शुरू करे या मेरी उत्सुकताओं का जवाब दे, मैं ने उस से पूछा, ‘‘यह घर तो डाक्टर के क्लीनिक के एकदम पीछे ही था, फिर गलियोंगलियों इतना घुमाफिरा कर तुम क्यों लाईं?’’


वह जवाब न दे कर सिर्फ मुसकराई, फिर बोली, ‘‘सर, आप खुद सब सम झ जाएंगे. फिलहाल मैं चाय बना कर लाती हूं. आप वहां बैठेबैठे बोर हो चुके होंगे और आगे भी जब मैं अपनी कहानी सुनाऊंगी तो और भी बोर होंगे.’’


बोर होने से कहीं ज्यादा मैं उत्सुकता के तूफान में घिरा हुआ था. पता नहीं वह कौन सी मजबूरी है जो वह इतने खुफिया तरीके से रह रही है.


चाय  बना कर लाने में उसे ज्यादा देर नहीं लगी. चाय की चुस्कियों के साथ हम आमनेसामने बैठ गए. मैं ने एक सवालिया निशान वाली नजर उस पर उछाली, जिसे उस ने भांप लिया.


नसीम ने अपनी दास्तान सुनानी शुरू की, ‘‘2 साल मेरे ठीकठाक बीते. अकरम भी उसी अखबार में था, डेस्क पर नहीं, रिपोर्टर था. मु झे सिटी न्यूज संभालना था. हम जल्दी ही एकदूसरे के करीब आ गए. वह सजीला बांका जवान था. कोई भी उस से प्यार कर बैठता. एक दिन वह मेरे पास औफर ले कर आया कि मुंबई के सब से बड़े अखबार ने उसे बुलाया है और उस का एडिटर उस की पहचान का है. अगर हम दोनों ही मुंबई चलें तो हमारी जिंदगी ही बदल जाएगी. अपना कैरियर तो मैं भी बनाना चाहती थी, इसलिए उस की बात मु झे जंच रही थी, पर मेरा कहना था कि पहले हम निकाह कर लें, फिर मुंबई जाएं.’’


‘‘हां, तुम्हारा सोचना वाजिब था. पर वह उस पर क्या बोला?’’ मु झे भी अब उस की कहानी में रस आने लगा था.


‘‘पर वह हर बार यही कहता कि पहले हम नया जौब जौइन कर लें और मुंबई में सैटल हो लें, फिर वहीं निकाह कर लेंगे. मैं पूरी तरह उस के प्यार की गिरफ्त में आ चुकी थी, उस की बात मान कर हम लोग मुंबई चले आए. उसे तो औफर था ही, मु झे भी उसी अखबार में नौकरी मिल गई. जिंदगी ने रफ्तार पकड़ ली. वरली में हम ने एक फ्लैट भी ले लिया.’’


‘‘कैसे? इतनी जल्दी इतना पैसा कैसे आया?’’


‘‘यह सवाल मेरे मन में भी उठा था. उस ने कहा कि फ्लैट किराए पर लिया है. जब पैसा हो जाएगा, खरीद लेंगे. मैं उसे शिद्दत से प्यार करती थी, इसलिए सवालजवाब की गुंजाइश ही न थी. जो वह कहता, मैं उस पर यकीन कर लेती थी. वहां वह क्राइम बीट पर था. देर रात तक उस की ड्यूटी रहती. देर से लौटता और सुबह देर तक सोता रहता. तब तक मैं तो औफिस जा चुकी होती, पता नहीं, वह न जाने कितने बजे उठता. इस तरह जिंदगी चल रही थी. मैं बारबार निकाह जल्दी करने पर जोर देती पर वह हर बार टाल देता. हम लोग करीब होते जा रहे थे. एक रात नाजुक लमहों में मैं पूरी तरह समर्पित हो गई. तमाम प्रीकौशंस धरी की धरी रह गईं.’’


‘‘तुम ने किसी पल उसे रोका नहीं.’’


‘‘नहीं. मैं उस के प्यार में इस कदर डूब गई थी कि मैं खुद अपने ऊपर काबू नहीं रख सकी. पर अगली सुबह मैं ने जिद पकड़ ली कि कल ही हम निकाह कर लेंगे. उस ने कहा कि मैं आज ही मौलवी से बात करता हूं, हम अगली जुमेरात को निकाह कर लेंगे पर वह अगली जुमेरात कभी नहीं आई.’’


‘‘लेकिन क्यों?’’ मैं ने पूछा.


‘‘वह कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाता कि मौलवी नहीं मिला, एक बड़ी स्टोरी कर रहा हूं, सो वक्त नहीं मिल पा रहा है. वक्त मिलते ही जरूर सब इंतजाम कर डालूंगा…वगैरहवगैरह.


‘‘एक रोज मेरा औफ था. अकरम उस रात बहुत देर से लौटा था और ड्राइंगरूम में ही सोफे पर सो गया था, इसलिए उसे पता न था कि आज मैं घर पर हूं. करीब 11 बजे कौलबैल बजी. उस वक्त मैं किचन में थी और आटा गूंध रही थी. दरवाजा उसी ने खोला. जो आया था, उसे उस ने ड्राइंगरूम में बैठा लिया और देर तक वे आपस में बातें करते रहे. जब मैं खाली हुई तो देखने आई कि कौन आया है. यह भी कि उस के लिए चायनाश्ते का इंतजाम करूं. मैं ने परदे की आड़ से ही देखा, आने वाला कोई शेख था और उस के सामने मेज पर नोटों की गड्डियां रखी थीं. मैं एकाएक सकते में आ गई, पर जब वह चला गया तो मैं सामने आई.


‘‘अकरम मु झे घर में पा कर कुछ चौंका, फिर पूछा कि मैं आज इस वक्त घर पर कैसे हूं. मैं ने बताया कि आज मेरा वीकली औफ है और मैं ने दरियाफ्त करनी चाही कि कौन आया था. उस ने बताया कि शेख शारजाह का एक बड़ा बिजनैसमैन है. मैं उस के कारोबार पर फीचर कर रहा हूं, उसी के सिलसिले में आया था. वहां एक अखबार निकालना चाहता है, जिस का एडिटर मु झे बनाएगा और तुम भी वहीं असिस्टेंट एडिटर बनोगी.


‘‘ ‘अच्छा,’ कह कर मेरी आंखें खुशी से चमक उठीं. पर मैं ने पूछा कि इतने सारे रुपए किसलिए? क्या वह फीचर करने का नजराना दे रहा है?


‘‘‘नहीं, शारजाह जाने के टिकट, वीजा वगैरह के खर्च के मद में हैं ये रुपए.’


‘‘अब किसी तरह के शक की गुंजाइश न थी.


‘‘मैं खुद भी बहुत खुश थी कि नई जगह जाने से और ज्यादा आजादी से काम करने का मौका मिलेगा. आननफानन अकरम ने सब तैयारी कर ली और एक दिन कोरियर वाला दरवाजे पर खड़ा था, टिकट और पासपोर्ट लिए. मैं खुशीखुशी दरवाजे पर पहुंची. पर यह क्या? डिलीवरी बौय ने सिर्फ मेरा टिकट और पासपोर्ट दिया. मैं सकते में आ गई, क्या सिर्फ अकेले मु झे जाना है? पूरा दिन मैं अकरम का मोबाइल मिलाती रही, पर वह हमेशा बंद मिला और रात को वह इतनी देर से आया कि मु झे अपने सवालों और जिज्ञासाओं के साथ ही सोना पड़ा. सुबह मु झे ड्यूटी पर जाना था और वह जैसे घोड़े बेच कर सो रहा था. आखिर, मु झ से रहा न गया तो उसे  झं झोड़ कर जगाना पड़ा. वह आंखें मलता हुआ उठा. जब मैं ने बताया कि सिर्फ मेरा टिकट आया है, तुम्हारा क्यों नहीं. क्या मैं अकेली जाऊंगी?


‘‘उस ने उनींदे स्वर में ही कहा कि अभी तुम जा कर सब ठीकठाक करोगी, मैं बाद में आऊंगा.’’


‘‘अरे, तुम ने कहा नहीं कि ठीकठाक करने तो पहले उसे जाना चाहिए, तुम्हें तो बाद में जाना चाहिए,’’ मैं बोला.


‘‘जी हां सर, मैं ने उस से यही सवाल किया था, जिस का जवाब दिया कि उसे अभी यहां कई काम निबटाने हैं और दफ्तर वाले उसे एकदम छोड़ने को तैयार नहीं हैं. उस ने आगे कहा कि मैं बेफिक्र हो कर जाऊं. वे लोग अच्छी तरह मेरा खयाल रखेंगे. और मैं निरुत्तर हो गई.’’


नसीम ने उसे बताया कि मैं उस का टीचर रहा हूं और मु झ से कहा कि उस लड़की का नाम रेशमा है. वह दो वक्त आती है और भरोसे की है. वह घर का ही नहीं.

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. मैं चौंका लेकिन उस ने बेफिक्री से कहा, ‘‘बाई होगी, सर. वह इसी तरह दस्तक देती है.’’


हां, बाई ही थी. पहले दरवाजे की दरार से उस ने देखा, फिर बड़ी एहतियात से इधरउधर देखते हुए दरवाजा खोला.


एक कमसिन लड़की थी, जो तुरंत अंदर दाखिल हुई और चोर निगाह से मु झे देखते हुए अपने काम में लग गई.


नसीम ने उसे बताया कि मैं उस का टीचर रहा हूं और मु झ से कहा कि उस लड़की का नाम रेशमा है. वह दो वक्त आती है और भरोसे की है. वह घर का ही नहीं, उस का भी बहुत खयाल रखती है.


‘‘सर, आप मेरी दास्तान सुनतेसुनते ऊब गए होंगे,’’ फिर रेशमा से मुखातिब हो कर बोली, ‘‘रेशमा, पहले चाय बना लो. तुम भी पी लेना.’’


लड़की स्मार्ट थी. आननफानन चाय बना लाई और एक तिपाई खिसका कर बड़ी नफासत से हम दोनों के बीच रख दी.


‘‘क्या फिर तुम शारजाह गईं?’’ चाय का?घूंट भरते हुए मैं ने नसीम से पूछा.


‘‘कहां, सर?’’ उस ने बातों का सिलसिला पकड़ते हुए शुरू किया, ‘‘अगले दिन मु झे पता लगा कि मैं प्रैग्नैंट हूं. डाक्टर से तसदीक करा लेने के बाद जब मैं ने उसे यह खबर दी तो सुनते ही उस ने माथा पीट लिया और  झुं झला कर बोला, ‘अरे, तुम ने तो सारा प्लान ही चौपट कर दिया.’


‘‘मैं सकते में आ गई, बोली, ‘कौन सा प्लान? तुम को तो खुश होना चाहिए कि तुम बाप बनने वाले हो.’ वह बोला, ‘पर हम अभी बच्चा अफोर्ड नहीं कर सकते. फिर तुम्हें तो अगले जुमे को शारजाह जाना है. वहां काफी काम होगा. ऐसी हालत में तुम सब कैसे कर सकोगी?’


‘‘ ‘क्यों नहीं कर पाऊंगी? फिर अभी तो शुरुआत है और हफ्ते दो हफ्ते में तो तुम भी आ ही जाओगे,’ नसीम ने कहा.


‘‘ ‘हां, पर तुम्हें कैसे बताऊं कि तुम्हारे लिए वहां कितना काम है,’ वह बोला.


‘‘मैं उस का मतलब नहीं सम झ पाई. उस ने जोर दे कर कहा कि ऐसे में अब यही रास्ता बचा है कि मैं अबौर्शन करा लूं. उस की इस बात से तो मैं थोड़ा घबरा गई. मेरे मना करने पर तो वह मु झे मारने को भी तैयार हो गया. मु झे उसी समय लगने लगा कि मैं ने उसे ले कर जो सपने बुने थे, वे सब जमींदोज होने को हैं.


‘‘मेरी एक न चली और मु झे अबौर्शन कराना ही पड़ा. उसी में कुछ कौंप्लिकेशंस हो गए, जिन की वजह से मु झे इलाज कराना पड़ रहा है. उसी सिलसिले में मु झे डाक्टर के पास जाना पड़ रहा है, जहां आप से मुलाकात हुई.’’


‘‘अब कैसी हो?’’ मैं ने दरियाफ्त करना जरूरी सम झा.


‘‘अब काफी कुछ ठीक हूं.’’


काम करने वाली लड़की आई और चाय के कप उठाती हुई नसीम से पूछा, ‘‘अब, मैं जाऊं?’’


नसीम ने इशारे से इजाजत दे दी. इस बार मैं ने रेशमा को नजदीक से देखा. सचमुच वह आम मेड जैसी नहीं लगती थी. काफी सलीकेदार थी और भरसक सूफियाना सजधज के साथ काम पर आई थी. उस ने एक भरपूर नजर मु झ पर डाली और बड़ी एहतियात से इधरउधर देखते हुए दरवाजा खोला और तेजी से निकल गई.


रेशमा के जाने के बाद नसीम ने अपनी बात फिर शुरू की. उस ने बताया कि अबौर्शन के बाद उसे बैडरैस्ट की सलाह दी गई है, इसलिए उसे मजबूरन काम से छुट्टी लेनी पड़ी.


उस ने आगे बताया, ‘‘एक दिन दोपहर को मु झे कुछ सुनाई पड़ा कि कोई आया हुआ है और अकरम उस से बात कर रहा है. थोड़ी देर बाद आने वाले की आवाज तेज हो गई कि जैसे वह अकरम को डांट रहा हो. उन की बातों के चंद लफ्ज मेरे कानों में पड़े, जिन से मु झे पता लगा कि उन की बातों के केंद्र में मैं हूं.


‘‘कोशिश कर के मैं दरवाजे तक खिसक आई और उन की बातें सुनने लगी. मैं जैसे आसमान से गिरी. जो सुना, उस पर एकाएक यकीन न हुआ. मैं ने अकरम को पूरी ईमानदारी से प्यार किया था और उस पर मैं अपने से भी ज्यादा भरोसा करने लगी थी. सोच भी नहीं सकती थी कि वह मेरे साथ ऐसा छल कर सकता है. वह मु झे उस शेख को बेच चुका था. नोटों का भारी बंडल और शारजाह मु झे अकेले भेजने की तैयारी…सब मेरी आंखों में घूम गया. मेरी आंखों के आगे अंधेरा घिर आया और मैं अपना सिर पकड़ कर बैठ गई. हाय, अब मैं क्या करूं, कैसे इन के चंगुल से बचूं, मैं कुछ सोच न पा रही थी. कमजोरी भी इतनी थी कि एकदम भाग भी नहीं सकती थी. और भाग कर जाऊंगी कहां? लखनऊ लौट नहीं सकती थी. वह वहां से मु झे फिर पकड़ लाएगा.’’


‘‘फिर कहां जाओगी? मुंबई में रहीं तो कब तक बच पाओगी,’’ मैं ने भी अपनी फिक्र जाहिर की.


‘‘जी सर, मुंबई में अब नहीं रह पाऊंगी. मर्ुिशदाबाद में मेरी एक फूफी हैं, दूर के रिश्ते की. उन का उसे पता नहीं है. वहां वे मु झे काम भी दिलवा रही हैं.’’


‘‘हां. यह ठीक रहेगा, पर तुम वहां से निकली कैसे?’’ मैं ने जानना चाहा.


‘‘कुछ दिन मैं ने ऐसा बरताव किया कि जैसे मु झे कुछ इल्म ही न हो. अनजान ही बनी रही. इन डाक्टर साहब का पता मु झे मालूम था. ये दूर के रिश्ते में मेरे मामू लगते हैं. इन का इलाज तो चल ही रहा था. मैं टैक्सी ले कर अकेले ही आती थी. एक दिन आई तो लौटी ही नहीं. यह जगह मैं ने चुपचाप तय कर ली थी. तब से यहीं छिप कर रहती हूं. मु झे पता है कि वह मु झे तलाश रहा है.


‘‘एक दिन डाक्टर साहब के क्लीनिक के पास भी दिखाई दिया था. मैं बहुत डर गई थी, पर न जाने कैसे बच गई. एक दिन मैं ने दरवाजे की दरार से उसे यहां भी देखा था. आसपास में पूछताछ कर रहा था. मैं किसी से मिलती नहीं हूं, इसलिए मु झे कोई जानता नहीं है. तब से ऐसे ही डरीछिपी रहती हूं और पूरी एहतियात बरतती हूं. अब थोड़ी ताकत आ गई है, अब आगे की सोच सकती हूं. पर पहले मैं उसे सबक सिखाना चाहती हूं. उसे रंगेहाथ पकड़वाना चाहती हूं. मैं ने जितनी शिद्दत से उसे प्यार किया था, अब उतनी ही ज्यादा उस से नफरत करती हूं. मु झे पता लगा है कि वह क्राइम बीट पर काम करतेकरते लड़कियां सप्लाई करने का धंधा करने लगा है. उस ने बहुत अच्छे कौंटैक्ट बना लिए हैं. खूब कमाया है. मु झे शक तो शुरू से ही था, अब कनफर्म हो गया कि वरली वाला फ्लैट उसे किसी ने गिफ्ट किया है.’’


‘‘हो सकता है, वैसे वरली में तो किराए पर रहना भी हर कोई अफोर्ड नहीं कर सकता,’’ मैं ने कहा.


‘‘ठीक कहा आप ने, सर इसीलिए तो मु झे पहले दिन ही शक हुआ था, लेकिन मैं उस से इस कदर प्यार करती थी कि यकीन न करने का सवाल ही नहीं उठता था. सर, मैं ने एक प्लान बनाया है. बस, उस में मु झे आप की मदद की जरूरत पड़ेगी. आप से इमदाद की गुजारिश तो कर ही सकती हूं न?’’


‘‘क्यों नहीं?’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे बिना बताए ही मैं सम झ गया कि तुम्हारा प्लान क्या है.’’


वह मुसकराई और बोली, ‘‘आप ने मेरी मेड रेशमा को तो अभी देखा न? वह पूरे तौर पर मेरे साथ है.’’


‘‘मैं ने कयास लगा लिया है कि तुम क्या करने वाली हो. पर तुम कोई बड़ा जोखिम उठाना चाहती हो. यह सब उतना आसान नहीं है जितना तुम सम झ रही हो. मैं तुम्हें डिसकरेज नहीं करना चाहता पर तुम्हें आगाह जरूर करना चाहता हूं कि इस में न सिर्फ तुम्हारे बल्कि रेशमा के लिए भी बड़ा खतरा है. अकरम कोई अकेला नहीं है, ऐसे अकरम एक नहीं कई हैं. पूरा का पूरा माफिया है. तुम किसकिस से लड़ोगी?’’


‘‘तो मैं क्या करूं, सर? क्या चुप बैठ कर उसे मनचाहा करने दूं? नहीं सर, उसे सबक सिखाना तो जरूरी है.’’


‘‘मैं तो फिर भी यही सोचता हूं कि तुम्हें जल्द से जल्द मुर्शिदाबाद चले जाना चाहिए. तुम्हारे प्लान में बड़ा खतरा है. मान लो, तुम इस में कामयाब भी हो गईं तो तुम्हें हासिल क्या होगा? और अगर नाकामयाब रहीं तो तुम्हारा जीना तक मुश्किल हो सकता है.’’


‘‘मैं सम झ रही हूं, सर, और यह भी कि आप को अपनी इज्जत का खयाल है. नहीं, मैं आप पर आंच नहीं आने दे सकती. आप बेफिक्र रहें. लेकिन क्या डर कर बैठना ठीक होगा? किसी न किसी को तो पहल करनी होगी. पत्रकारिता के सिद्धांत पढ़ाते वक्त आप ने भी तो यही सिखाया है, सर.’’


मु झे एकबारगी कोई जवाब नहीं सू झा, फिर भी बोला, ‘‘तुम अकेली जान क्या कर लोगी? फिर हमें प्रैक्टिकल होना चाहिए. सब अच्छी तरह सोच लो, तभी कोई कदम उठाना.’’


‘‘जी, मैं इस पर कुछ और सोचती हूं.’’


मैं ने उठते हुए कहा, ‘‘मेरा मोबाइल नंबर लिख लो. जब भी मेरी जरूरत पड़े, मैं आ जाऊंगा और जो हो सकेगा, करूंगा,’’ दरवाजे तक पहुंचतेपहुंचते फिर कहा, ‘‘बहुत एहतियात रखना.’’


‘‘जी, सर,’’ वह दरवाजे तक आई.


कई दिन तक उस का कोई फोन नहीं आया. मैं ने सम झ लिया कि शायद उस ने अपना खयाल बदल लिया होगा और मुर्शिदाबाद चली गई होगी. एक दिन उस घर तक भी गया, जहां वह मु झे ले गई थी, पर दरवाजे पर ताला लगा था. दरार से  झांका तो अंदर कुछ नजर नहीं आया.

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