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कहानी: बदला

पिछले साल गोपाल ने भंवर की बहन मंजूषा को रंग दिया था पर बदले की भावना से भंवर गोपाल की बहन सुरसी को बीच चौराहे जबरदस्ती रंगना चाहता था.

चमन, दौड़ता हुआ मंजूषा के पास पहुंचा. चमन को हांफते देख मंजूषा एकदम सकते में आ गई.


‘‘अरे…अरे, क्या हुआ चमन? किसी से झगड़ा हो गया क्या? भंवर भैया कहां हैं? जल्दी बताओ. तुम दौड़ते हुए क्यों आए हो?’’ मंजूषा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.


‘‘ब…बतलाता… हूं दीदी. पहले सांस तो ले लेने दो,’’ चमन एक पल को रुका. फिर गहरी सांस लेता हुआ बोला, ‘‘मंजूषा दी, मेरी बात ध्यान से सुनो…’’ चमन फुसफुसा कर मंजूषा के कान में कुछ कहने लगा.


 पूरी बात सुन कर मंजूषा होंठों ही होंठों में बुदबुदाई, ‘‘उस की यह मजाल…?’’


‘‘आप कुछ करें दीदी वरना बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा.’’


मंजूषा ने कुछ सोचते हुए चमन से कहा, ‘‘तुम जाओ, मैं सब संभाल लूंगी.’’


‘‘हां दीदी, कुछ करो, वरना गोपाल और भंवर आपस में जरूर टकरा जाएंगे,’’ इतना कह कर चमन चला गया.


मंजूषा ने अपनी किताबें लीं और झटपट कालेज जाने के लिए घर से निकल पड़ी. मंजूषा जल्दीजल्दी कदम बढ़ाती हुई सुरसी के घर की ओर चली जा रही थी. ‘कहीं सुरसी कालेज के लिए घर से निकल न पड़ी हो,’ सोच कर मंजूषा ऊपर से नीचे तक कांप जाती थी. उस के कदम पहले से और तेज हो गए. सुरसी के घर पर पहुंचते ही उस ने घंटी बजाई.


‘‘आती हूं, आती हूं,’’ और उसी समय दरवाजा खुल गया. सामने सुरसी की मां को खड़ी देख कर मंजूषा का दिल एकदम ‘धक्क’ रह गया. फिर संयत हो कर बोली, ‘‘नमस्ते आंटी, सुरसी कालेज चली गई क्या?’’


‘‘अभी नहीं गई. जाने ही वाली है बस, नाश्ता कर रही है. आओ, अंदर आओ,’’ सुरसी की मां ने कहा. यह सुन कर मंजूषा को बड़ी राहत महसूस हुई.


‘‘कौन है मां?’’ पूछती हुई सुरसी की निगाह मंजूषा पर पड़ी तो वह खुशी से चहक पड़ी, ‘‘अरे, तुम?’’


‘‘हां सुरसी… मैं ने सोचा आज तुम्हारे साथ चलूं. रजनी  आज मुझ से पहले ही कालेज निकल गई.’’


‘‘अच्छा, बस थोड़ी देर रुको, अभी चलती हूं. मुझे भी आज जल्दी पहुंचना है. आज भौतिकी का प्रैक्टिकल है,’’ सुरसी ने कहा और अपनी जरूरी चीजें उठाने में लग गई.


उधर, बाजार के चौैराहे के पास ही भंवर अपने दोस्तों के साथ बड़ी बेसब्री से सुरसी का इंतजार कर रहा था. उस ने चंदन से कहा, ‘‘मैं गोपाल की बहन को आज रंग व गुलाल से रंग कर ही रहूंगा, चाहे जो भी हो जाए. मैं उसे बताना चाहता हूं कि भंवर से दुश्मनी लेना कितना महंगा पड़ता है. बदला लेना है मुझे उस से.’’


‘‘हां भंवर,’’ चंदन बोला, ‘‘वह अपनेआप को बहुत होशियार समझता है. उसे सबक सिखाना ही चाहिए.’’


‘‘उस ने मेरी बहन को स्कूल में रंगा था तो मैं उस की बहन को बीच चौराहे पर रंग दूंगा,’’ भंवर ने उत्तेजित होते हुए कहा.


‘‘भंवर,’’ दीपक बोला, ‘‘अभी तक चमन का पता नहीं है. उसे गुलाबी रंग लेने को भेजा था. अभी तक नहीं आया.’’


‘‘अरे, वह तो एकदम मूर्ख है. तू खुद ही क्यों नहीं चला गया रंग लेने?’’ चंदन ने कहा.


‘‘मैं कैसे जाता? वह खुद जाने के लिए जिद कर रहा था.’’


‘‘ठीक है, ठीक है,’’ भंवर झल्ला कर बोला, ‘‘मैं उसे बाद में देख लूंगा. अब तुम सब तैयार हो जाओ. हमारे पास जितना गुलाल है, उसी से होली खेल लेंगे.’’


‘‘अरे, कैसे खेल लोगे दोस्तो?’’ चमन ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘लो… ले आया मैं गुलाबी रंग और गुलाल,’’ कहते हुए चमन ने पु़िड़या भंवर की ओर बढ़ा दी.


‘‘अब मजा आएगा, जब सुरसी के मुंह पर, दांतों पर, बालों में, गुलाबी रंग चमकेगा… हा…हा…’’ खुशी से झूमता हुआ भंवर बोला.


उसी समय दीपक उछलता हुआ बोला, ‘‘भंवर, वह देख सुरसी आ रही है. उस के साथ मंजूषा दीदी भी हैं…’’


भंवर एकदम सकपका गया. फिर संभलता हुआ बुदबुदाया, ‘‘मंजूषा दीदी, सुरसी के साथ?’’


‘‘अब क्या होगा?’’ चंदन फुसफुसा कर बोला.


भंवर कुछ कहता, तब तक सुरसी और मंजूषा बिलकुल उस के पास पहुंच गई थीं. भंवर तिलमिला उठा. उस ने रंग से सने अपने हाथ चुपचाप पीछे कर लिए. दीपक, चंदन और लखन पहले ही मंजूषा को सुरसी के साथ देख कर भंवर से कुछ दूर हट गए थे. चमन मन ही मन बेहद खुश हो रहा था. उस ने भंवर के कान में फुसफुसा कर कहा, ‘‘यार, मंजूषा दीदी ने बचा लिया सुरसी को, लेकिन जो भी होता है, अच्छा ही होता है.’’ भंवर ने चमन को खा जाने वाली नजरों से देखा.


दोनों सहेलियां आगे निकल गईं. उन के काफी दूर निकल जाने के बाद भंवर ने तमतमा कर गुस्से में दोनों मुट्ठियों में लिया हुआ रंग जमीन पर बिखेर दिया और खीज कर रह गया. शाम को भंवर भन्नाया हुआ घर पहुंचा. मंजूषा पहले ही घर पहुंच चुकी थी. भंवर ने दरवाजे की घंटी बजाई तो दरवाजा मंजूषा ने ही खोला. सामने मंजूषा को देख वह चीख कर बोला, ‘‘आज बचा लिया अपनी सहेली को? आखिर इस तरह वह कब तक बच पाएगी?’’


‘‘क्या मतलब?’’ मंजूषा बोली.


 ‘‘मतलब साफ है. आज मैं सुरसी को बीच चौराहे पर रंगना चाहता था.’’


‘‘क्यों, आखिर क्यों रंगना चाहते थे?’’ मंजूषा ने पूछा.


‘‘इसलिए कि उस के भाई गोपाल ने पिछले साल तुम्हें रंगा था,’’ भंवर चिल्ला कर बोला.


‘‘वाह भंवर, खूब बदला लेने की ठानी थी.’’


‘‘ठानी थी नहीं, ठानी है. आज नहीं तो कल, मैं सुरसी को रंग कर ही रहूंगा.’’


‘‘लेकिन यह मत भूलो कि जब गोपाल ने मुझे रंगा था तब वह होली स्कूल में बच्चों की स्नेह भरी होली थी. हम सभी ने खुशी से एकदूसरे को रंगा था न कि जबदरस्ती, लेकिन तुम और तुम्हारी सड़कछाप टोली…’’


‘‘मंजूषा…’’ भंवर जोर से चीखा.


उसी समय बगल वाले कमरे से परदे की आड़ में खड़ी सुरसी सामने आ गई. उसे देख भंवर हक्काबक्का रह गया. दोनों एकदूसरे को देखते ही रह गए. सुरसी बोली, ‘‘तो यह बात थी. मंजूषा इसीलिए मेरे साथ कालेज गई थी?’’ फिर सुरसी भंवर की ओर मुखातिब हो कर बोली, ‘‘लो… मैं खड़ी हूं. जितना चाहो, उतना रंग लो. ले लो अपना बदला.’’ भंवर से कुछ बोलते नहीं बना. उस की जबान में मानो ताला पड़ गया. उस ने मंजूषा की ओर देखा. मंजूषा ने कहा, ‘‘हां, रंग डालोे. होली चौराहे की नहीं, चौखट के अंदर वाली अच्छी होती है.’’


भंवर ने एक नजर सुरसी पर डाली. फिर जेब में रखी गुलाल की थैली से एक चुटकी गुलाल निकाल कर सुरसी के माथे पर तिलक लगा दिया और झटके से मुड़ कर बाहर जाने लगा. सुरसी ने आवाज दी, ‘‘रुको भैया,’’ और वह भंवर के सामने जा पहुंची, बोली, ‘‘इस तरह नहीं, आप ने तो तिलक लगा दिया अब मैं भी तो लगाऊंगी,’’ कहते हुए सुरसी ने भंवर के हाथ से गुलाल की थैली ले कर भरपूर गुलाल से भंवर के गालों व बालों को रंग दिया.

 
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