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कहानी: अंधेरी आंखों के उजाले

रणकपुर के जैन मंदिर में वे दोनों एक स्तंभ से टिक कर बैठे थे. उन की खिलखिलाहट जलतरंग जैसी मधुर थी. सिर जोड़े धीरेधीरे बतियाते वे दोनों कबूतर के जोड़े की तरह लग रहे थे.

खंभे की पच्चीकारी को जहां तक हाथ पहुंचता, छू कर देखते, एकदूसरे को बताते, फिर कहीं बातों मैं दूर बैठा उन्हें देख रहा था. जान गया कि वे दोनों अंधे हैं. एक तीव्र इच्छा यह जानने को जागी कि नेत्रहीन होते हुए भी इस दर्शनीय स्थल पर वे क्यों आए थे. सोच में डूबा मैं उन्हें देख रहा था.


घड़ी भर भी न बीता होगा कि बच्चों की चहक पर ध्यान चला गया. तीनों बच्चे उन दोनों के पास दौड़ कर आए थे. इसलिए थोड़ा हांफ रहे थे.


‘‘मां, चल कर देखो न, वहां पूरे मंदिर का छोटा सा एक मौडल रखा है. बिलकुल मेरी गुडि़या के घर जैसा है.’’


‘‘हांहां, बहुत अच्छा है,’’ मां ने हामी भरी.


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‘‘अच्छा है? पर आप ने देखा कहां? चल कर देखो न,’’ बच्चे मचल रहे थे.


वे दोनों अपने तीनों बच्चों को समेटे मंदिर के छोटे पर अत्यंत सुघड़ मौडल को देखने चल दिए.


पास बैठ कर दोनों ने मौडल को हर कोने से छू कर देखा. मैं ने देखा, उन दोनों के हाथों में उलझी थीं उन के बच्चों की उंगलियां.


देखने के इस क्रम में आंखों की जरूरत कहां थी. मन था, मन का विश्वास था, एकदूसरे को समझनेसमझाने की चाहत थी, उल्लास था, उत्साह था. कौन कहता है कि आंखें भी चाहिए. बिना आंखों के भी दुनिया का कितना सौंदर्य देखा जा सकता है. आंखों वाले मांबाप क्या अपने बच्चों को सामीप्य का इतना सुख दे पाते होंगे? इस तरह के विचार मेरे मन में आए जा रहे थे.


हंसतेबतियाते वे पांचों फिर मंदिर में इधरउधर टहलते रहे. 3 जोड़ी आंखों से पांचों निहारते रहे, फिर वहीं बैठ कर उन्होंने अपने नन्हेमुन्नों को गोद में समेट लिया.


उन की अंधेरी आंखों में कितने उजाले थे. मेरा मन उन से मिलने को कर रहा था. मुझ से रहा नहीं गया तो उठ कर उन के पास चला आया.


‘‘जी, नमस्ते,’’ और इस संबोधन को सुन कर अपने में डूबे वे दोनों चौंक गए.


‘‘पापा, कोई अंकल हैं, आप को नमस्ते कर रहे हैं,’’ एक बच्चे ने कहा.


‘‘हांहां समझा, कोई काम है क्या?’’


‘‘नहीं, बस यों ही आप से बात करने का मन कर आया.’’


‘‘हम से क्यों? हम…मतलब कोई खास बात है क्या?’’


‘‘खास बात तो नहीं है, बस, थोड़ी देर आप से बात करना चाहता हूं.’’


एक तरफ को सरक कर उन्होंने मेरे लिए जगह बना दी.


‘‘रणकपुर देखने आए हैं?’’ अच्छी जगह है…मतलब बहुत सुंदर है… आप ने तो देखा?’’


अटपटा सा वार्त्तालाप. समझ नहीं पा रहा था कि सूत्र किधर से पकड़ूं. उन के बारे में जानने की उत्सुकता अधिक थी पर शब्द नदारद थे.


‘‘हम दोनों जन्मजात अंधे हैं.’’


क्या प्रश्न था और क्या उत्तर आया. एकदम अचकचा गया. यही तो पूछना चाहता था. कैसे एकदम ठीक जान लिया इन लोगों ने.


‘‘पर यह तो कुदरत की मेहरबानी है कि हमारे तीनों बच्चे स्वस्थ व संपूर्ण हैं. छोटे हैं पर सबकुछ समझते हैं. इन्हें शिकायत नहीं कि हम देख नहीं सकते. हमें दिखा देने की भरपूर कोशिश करते हैं. इसलिए कहा कि संपूर्ण हैं.’’


‘‘आप की समझ बहुत अच्छी है वरना संपूर्ण का मतलब तो अच्छेअच्छे भी नहीं जानते.’’


‘‘ठीक कहा आप ने. पढ़ालिखा हूं, फैक्टरी में वरिष्ठ लिपिक हूं पर सच कहूं तो संपूर्ण होने का दावा करने वाली यह दुनिया… सच में बड़ी खोखली है. उस का बस चले तो मेरा यह आधार भी छीन ले.’’


कितना तल्ख स्वर हो आया उन का. चोट खाना और निरंतर खाते रहना हर किसी के बस का नहीं होता.


इतना स्नेहिल व्यक्तित्व अपनी दुनिया का सबकुछ था पर बाहर की दुनिया उसे कुछ न होने का एहसास हर पल कराती.


पत्नी का हाथ पति के कंधे तक आ गया. बच्चे उन के और करीब सिमट गए. एक अनकही सांत्वना के घेरे में वह सुरक्षित हो गए. मैं बाहर था, बाहर ही रह गया. बातचीत का सिल- सिला टूट गया. मैं फिर भी न जाने किस आशा में बैठा रहा. वे भी अपने में सिमटे गुम थे.


‘‘आप…’’ मैं ने पूछना चाहा.


‘‘महाशय, आज नहीं, फिर कभी… आज का दिन इन बच्चों का है.’’


प्रश्न अनुत्तरित रह गया. वे उठ गए. मंदिर में प्रसाद का प्रबंध हो रहा था. प्रसाद में पूरा खाना. पंगत में बैठे, खाना खाते वे परिवारजन अपने भीतर एक खुशी समाए हुए थे. सच में वे संपूर्ण थे. दुनिया उन्हें कुछ दे पाती उस की क्या बिसात थी. वे ही दुनिया को देने के काबिल थे. एक आदर्श पतिपत्नी, एक आदर्श मातापिता.


फिर भी मैं सोच रहा था कि यह तो उन का आज था. यहां तक आतेआते जीवन के कितने पड़ावों पर समय ने उन्हें कितना तोड़ा होगा? ये बच्चे ही जब छोटे होंगे तो क्याक्या कठिनाइयां न आई होंगी उन के सामने. निश्चय ही कितने दुख, दुविधाएं और असहजताएं पहाड़ बन कर टूट पड़ी होंगी.


मैं मंदिर से बाहर आ गया. घर आ कर भी कितने ही दिन तक उन को ले कर मन में विचार खुदबुदाते रहे थे.


फिर धीरेधीरे दिन बीतने लगे. वे कभीकभार याद आते थे, पर वक्त ने धीरेधीरे सबकुछ धूमिल कर दिया और मैं अपनी दुनिया में खो गया.


उन दिनों आफिस के काम से मुझे गुजरात के सांबल गांव जाना पड़ा. सांबल गांव क्या था, अच्छा शहरनुमा कसबा था. दिन तो कार्यालय में अपना काम पूरा करतेकरते बीत गया. शाम हो गई पर काम पूरा न हो पाया. लगता था कि कम से कम 2-3 दिन तो खा ही जाएगा यह काम. रुकने का मन बना लिया. स्टाफ में मदन भाई को थोड़ाबहुत जानता था क्योंकि वह भी इसी तरह टूर में 1-2 बार हमारे कार्यालय आए थे. बाकी 1-2 से काम के साथ ही जान- पहचान हुई.


मदन बाबू का घर पास ही था सो उन के आग्रह पर चाय उन के घर ही पीनी थी. दिन भर की थकान के बाद अदरक की चाय ने बदन में जान डाल दी. चुस्ती महसूस करता मैं ड्राइंगरूम का निरीक्षण करता रहा. मदन बाबू भीतर थे. 15-20 मिनट बाद की वापसी के बाद ही वे एकदम तरोताजा बदलेबदले लगे. तय हुआ कि वे मुझे डाक बंगले छोड़ देंगे.


मैं वहां जल्दी पहुंचना चाहता था. थकान व चिपचिपाहट से नहाने का मन कर रहा था.


डाक बंगले में पहुंच कर मदन बाबू ने विदा लेनी चाही. मैं ने भी यों ही पूछ लिया, ‘‘अब सवारी किधर को निकलेगी?’’


मदन बाबू हंस दिए, ‘‘जरा ब्लाइंड स्कूल तक जाऊंगा.’’


‘‘ब्लाइंड स्कूल? वहां क्यों?’’ मन में रणकपुर वाली घटना अनायास कौंध गई.


‘‘महीने में एक बार जाता हूं. इसी बहाने थोड़ा मन बहल जाता है कि कुछ तो किया.’’


उत्सुकता से सिर उठा लिया था, ‘‘यार, मैं भी चलूंगा तुम्हारे साथ.’’


‘‘क्या करोगे, राव? यहीं आराम कर लो. दिन भर में थके नहीं क्या? मुझे तो वहां समय लग जाता है. तुम बेकार बोर होगे.’’


‘‘नहीं…नहीं. बस, 10 मिनट,’’ मैं हड़बड़ा कर बोला, ‘‘किसी खास मकसद से जा रहे हो?’’


‘‘मकसद तो कोई नहीं…मातापिता की याद में जाना शुरू किया था. उन के नाम से खानाकपड़ा बांट आता था. फिर मुझे लगा कि उन्हें इन चीजों से भी अधिक प्यार की जरूरत है.’’


‘‘ओह, अब तो मैं जरूर ही चलूंगा, मिनटों में हाजिर हुआ.’’


मेरे दिल में रणकपुर में मिले उन लोगों ने दस्तक दी. वे न सही, वैसे ही कुछ और लोग मिलेंगे.


मैं मदन बाबू के साथ निकल पड़ा. रास्ते मेरे पहचाने न थे. कई सड़कें, मोड़, चौराहे पार कर के हम एक इमारत के सामने रुक गए. अंध स्कूल एवं बोर्डिंग आ गया था.


भीतर प्रवेश करने पर सीधे हाथ को कुछ आफिस जैसे कमरे थे. बाएं हाथ को सामने काफी बड़ा मैदान था. कुछ बच्चे वहां खेल रहे थे. कुछ पौधों में पानी दे रहे थे. कुछ आजा रहे थे. एक जगह कुछ खेल भी चल रहा था.


मदन बाबू ने किसी को आवाज दी तो सारे बच्चे मुड़ कर उन की तरफ आ गए और उन को चारों ओर से घेर लिया. किसी ने हाथ पकड़ा, किसी ने उंगली तो किसी ने बुशर्र्ट का कोना ही पकड़ लिया. एकलौते बटन की कमीज पहने एक छोटा लड़का पैरों से चिपट गया. देख कर लगा सब के सब उन के बहुत नजदीक होना चाहते थे. उन्होंने भी किसी  का गाल थप- थपाया तो किसी की पीठ पर हाथ फेर कर प्यार किया. कुछ बच्चे उन से पटाखे लाने के लिए भी कह रहे थे.


मदन बाबू ने बच्चों से उन का सामान लाने का वादा किया और हम भीतर के हिस्से में चल पड़े. अगलबगल के कमरों से गुजरते हुए मैं ने बच्चों को कुरसियां बुनते, बढ़ईगीरी का काम करते, बेंत के खिलौने बनाते देखा था. एक छोटी सी लाइब्रेरी भी देखी, जहां बच्चे ब्रेल लिपि का साहित्य पढ़ रहे थे. 5-6 बिस्तरों वाला छोटा सा अस्पताल भी देखा.


यों ही घूमते हुए हम थोड़ी खुली जगह में आ गए.


‘‘चलिए, राव साहब, अब आप को एक हीरे से मिलवाते हैं,’’ मदन बाबू मुझ से बोले.


अब हम कुछ गलियारे पार कर एक बडे़ से कमरे तक आ गए. रोशनी में डूबे इस कमरे की धड़कन कुछ अलग सी लगी, तनिक खामोश सी.


‘‘विनोद बाबू, देखिए तो कौन आया है?’’


‘‘अरे, मदनजी… किसे लाए हैं?’’ चेहरा हमारी तरफ घूम गया. मेरा दिल तेजी से धड़क उठा. आंखें पहचानने में भूल नहीं कर सकती थीं. यह वही सज्जन थे, वही रणकपुर वाले. आंखें एक बार फिर खुशी से नाच उठीं.


‘‘अपने राव साहब हैं,’’ मदन बाबू बोले, ‘‘राजस्थान से टूर पर आए हैं. आप तक ले आया इन्हें.’’


‘‘अच्छा किया,’’ और मेरी तरफ हाथ बढ़ा कर विनोद बाबू बोले, ‘‘आइए, प्रशांतजी…’’


मैं ने बढ़ कर उन का हाथ थाम लिया. दूसरे हाथ का सहारा लगाते हुए उन्होंने हाथ मिलाया.


‘‘पहली बार आए हैं गुजरात…’’ विनोद बाबू बोले.


‘‘जी…’’ बहुत इच्छा हो रही थी कि रणकपुर की याद दिलाऊं, पर इस वक्त अनजान बने रहना ठीक लगा. मैं उन्हें सचमुच जानना चाहता था. उन के हर अनछुए पहलू को, उन के व्यक्तित्व को, जीवन को, उन के संपूर्ण बच्चों को…और मेरे होंठों पर यह सोच कर हंसी तिर आई. आखिर वे मिल ही गए.


मदन बाबू उन से बातें करने लगे. बातें सामान्य थीं, अधिकतर संस्था से संबंधित.


मदन बाबू ने बताया कि वह कितना यत्न कर के इस संस्था को संभाल रहे थे और यह भी बताया कि वह अपने काम के प्रति कितने निष्ठावान, सच्चरित्र, महत्त्वाकांक्षी और मेहनती हैं.


तो मैं ने उन्हें ठीक ही भांपा था. शायद यही सब था जो मैं जानना चाहता था. उन के चेहरे पर सलज्ज आभा थी. अपनी इतनी तारीफ सुनने में उन के चेहरे पर किस कदर सकुचाहट थी. आंखें होतीं तो वे भी सपनों को पूरा होते देख भूरिभूरि सी चमक उठतीं.


अपनी शारीरिक क्षमता की सीमा के बावजूद उन के हौसलों के परिंदे कितनी ऊंची उड़ान भरना चाहते थे, वह भी सरकारी महकमे में, जहां आंख वाले तक अंधे हो जाते हैं. काम से दूर भागते, काहिल से, पीक थूकते, चाय गटकते, टिन के जंग लगे पुतलों की तरह बेवजह बजते. विनोद बाबू इन सब का अपवाद बने सामने खड़े थे.


‘‘प्रशांतजी, कैसी लगी आप को हमारी संस्था?’’


‘‘काफी व्यवस्थित सी.’’


‘‘आप तो बहुत ही कम बोलते हैं पर आप ने सही शब्द कहा है. इस व्यवस्था को बनाने में कई साल लग गए हैं. सरकारी छल तो आप जानते ही हैं. पैसों की तंगी झेलनी ही पड़ती है.’’


‘‘जानता हूं, फिर भी आप ने…’’


‘‘मैं ने नहीं, सब ने, यहां बड़ा स्टाफ है. हाथपैरों से सब करते हैं पर सुविधाएं जुटाना… पूरा दम लग जाता है.’’


‘‘कुछ ठीक से बताएंगे… आज तो मैं तल्लीन श्रोता ही हो जाता हूं.’’


खनकती हंसी हंस दिए विनोद बाबू. मदन बाबू भी बहुत उत्कंठित लगे.


‘‘प्रशांतजी, जब आया था तो सचमुच निराश था. मेरी योग्यता को ओछा बना दिया गया था. कैसे भी, कहीं भी, कोई भी काबिल, नाकाबिल सब आगे बढ़ते जाते थे. मेरी सारी शिक्षा, मेरी सारी मेहनत, मेरी इन आंखों से माप दी जाती थी. मैं ने मन मसोस कर, अंतहीन दुख पा कर बहुत समय बिताया, जगहजगह काम किया पर सब बेकार ही रहा. सब के पास आंखें थीं पर कान न थे, दिमाग न था, दिल न था. मुझे अनसुना, अनबूझा, अनजाना रहना था सो रह गया. उस कठिन घड़ी में मेरे बच्चे और मेरी पत्नी ही मेरा अंतिम सहारा थे.’’


मदन बाबू और मैं चुप थे. सन्नाटे ख्ंिचे उस प्रकाश में उन का दुख शायद अरसे बाद बाहर रिस आया था.


‘‘7-8 साल की मायूसी में डूबताउतराता मैं अंधेरे में डूब ही जाता कि रोशनी की सूरत में यह संस्थान मिल गया. प्रशांतजी, रोशनी की दुनिया का ठुकराया मेरा अस्तित्व जैसे अपनों के बीच आ मिला. जो कुछ मैं ने झेला वह ये बच्चे न झेलें, यही सोचता हूं हर दम. हौसला बांधे हुए तभी से जुटा हूं. मदनजी से बड़ी मदद है.’’


‘‘मैं नहीं विनोद बाबू, यह तो आप की यात्रा है.’’


‘‘मदन बाबू, तिनके का सहारा भी डूबते के लिए बहुत होता है. आप ने तो सब देखा ही है. कितनी बदइंतजामी थी. न खाना, न पीना, न पहनना, न जानना, न समझना. सब बेढंगा… बड़ी पीड़ा हुई थी. यहां इतना बिखराव था कि समझ में नहीं आता था कि कहां से समेटूं. बच्चों को छोड़ कर मातापिता भी जैसे भूल चुके थे.’’


‘‘क्या मतलब? इन के मातापिता हैं क्या?’’


‘‘हां, हैं न, 10-15 बच्चे अनाथ हैं यहां, पर बाकी को मांबाप की लापरवाही ने अनाथ बना दिया है. मैं ने सब से पहले यही किया. सभी बच्चों का ब्योरा बनाया. मैं भी समझ रहा था कि ये अनाथ हैं, पर राव साहब, यह अंध स्कूल है, अंध अनाथाश्रम नहीं. बच्चे दिन भर यहीं रहते हैं. खानापीना, पढ़नालिखना, रोजमर्रा के कामों की ट्रेनिंग और जो कोई कारीगरी सीख पाए तो वह भी. शाम को इन्हें घर जाना चाहिए, पर इस में नियमितता नहीं है. रात गए तक मांबाप की प्रतीक्षा करता बच्चा…क्या कहूं…कलेजा मुंह को आता है.


‘‘मांबाप को टोको तो सौ बहाने बना देते हैं. उन के लिए दुनिया के सारे काम जरूरी हैं और उन का सहारा खोजता उन का अपना बच्चा कुछ भी नहीं.


‘‘प्यार के भूखे ये बच्चे. सच इन्हें थोड़ी सी देखभाल, पर ढेर सारा प्यार चाहिए और कुछ नहीं चाहिए. ये अपनी दुनिया में संपूर्ण हैं.’’


सच में वे संपूर्ण थे. न केवल अपने परिवार के लिए वरन सामाजिक सरोकार में भी. शतरंज और लूडो खेलते, कुरसी बुनते, टाइपिंग करते, कंप्यूटर पर काम करते, एकदूसरे का कंधा थामे गणतंत्र दिवस पर परेड करते, बागबानी करते इन बालकों के जीवन में कला के कितने ही रंग, स्वर और गंध समा गई थी.

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