कहानी: दुलहन बनने से पहले
कल्पना के संसार में खोई थी रत्ना. आनंद के साथ विदेश में ऐशोआराम की जिंदगी जीने के सपने उसे गुदगुदाए जा रहे थे. लेकिन तभी मौसी ने आ कर ऐसा भंडाफोड़ किया कि उस के सारे सपने चूरचूर हो गए.
ढोलक की थाप पर बन्नाबन्नी गाती सहेलियों और पड़ोस की भाभियों का स्वर छोटे से घर को खूब गुलजार कर रहा था. रत्ना हलदी से रंगी पीली साड़ी में लिपटी बैठी अपनी सहेलियों के मधुर संगीत का आनंद ले रही थी. बन्नाबन्नी के संगीत का यह सिलसिला 2 घंटे से लगातार चल रहा था.
बीचबीच में सहेलियों और भाभियों के बीच रसिक कटाक्ष, हासपरिहास और चुहलबाजी के साथ स्वांग भी चलने लगता तो अम्मा आ कर टोक जातीं, ‘‘अरी लड़कियो, तुम लोग बन्नाबन्नी गातेगाते यह ‘सोहर’ के सासबहू के झगड़े क्यों अलापने लगीं?’’
थोड़ीबहुत सफाई दे कर वे फिर बन्नाबन्नी गाने लगतीं. अम्मा रत्ना को उन के बीच से उठा कर ‘कोहबर’ में ले गईं. बाहर बरामदे में उठते संगीत का स्वर कोहबर में बैठी रत्ना को अंदर तक गुदगुदा गया :
‘‘मेरी रुनकझुनक लाड़ो खेले गुडि़या
बाबा ऐसा वर खोजो
बीए पास किया हो,
बीए पास किया हो.
विलायत जाने वाला हो,
विलायत जाने वाला…’’
उस का वर भी तो विलायत में रहने वाला है. जी चाहा कि वह भी सहेलियों के बीच जा बैठे.
उस का भावी पति अमेरिका में इंजीनियर है. यह सोचसोच कर ही जबतब रत्ना का मन खुशी से भर उठता था. कोहबर में बैठेबठे वह कुछ देर के लिए विदेशी पति से मिलने वाली सुखसुविधाओं की कल्पना में खो गई. वह बारबार सोच रही थी कि वह कैसे अपने खूबसूरत पति के साथ अमेरिका घूमेगी, सुखसमृद्धि से सुसंपन्न बंगले में रहेगी और अपनी मोटरगाड़ी में घूमेगी. वहां हर प्रकार के सुख के साधन कदमकदम पर बिछे होंगे.
एकाएक उसे अपने मातापिता की उस प्रसन्नता की भी याद आई जो उसे सुखी देख कर उन्हें प्राप्त होगी. उस प्रसन्नता के आगे तो उसे अपने सुख के सपने बड़े सतही और ओछे नजर आने लगे.
वह सोचने लगी, ‘अम्मा और पिताजी बेटियों से उबर जाएंगे. दीदी की शादी से ही उन की आधी कमर टूट गई थी. घर के खर्चों में भारी कटौती करनी पड़ी थी. कई तरह के कर्जे भरतेभरते दोनों तनमन से रिक्त हो गए थे. रत्ना के नाम से जमा रकम भी बहुत कम थी. उस में वे हाथ भी नहीं लगाते कि कब देखते ही देखते रत्ना भी ब्याहयोग्य हो जाएगी और वे कहीं के नहीं रहेंगे.’
लेकिन रत्ना की शादी के लिए उन्हें कोई कर्ज नहीं लेना पड़ा. आनंद के परिवार वालों ने दहेज के लिए सख्त मना कर दिया था. अमेरिका में उसे किसी बात की कमी न थी.
रत्ना ने कोहबर की दीवारों पर नजर दौड़ा कर देखा, जगहजगह से प्लास्टर उखड़ा था. छत की सफेदी पपड़ी बनबन कर कई जगह से झड़ गई थी. दीदी की शादी के बाद घर में सफेदी तो दूर, मरम्मत जैसे जरूरी काम तक नहीं हो पाए थे. भंडारघर की चौखट दीवार छोड़ने लगी थी. रसोई के फर्श में जगहजगह गड्ढे बन गए थे. छत की मुंडेर कई जगह से टूट कर गिरने लगी थी.
कोहबर में बैठी रत्ना सोचने लगी, ‘अम्मापिताजी के दुख के दिन समाप्त होने वाले हैं. अब तो पिताजी के सिर्फ 40-50 हजार रुपए ही खर्च होंगे. बाकी जो 40-50 हजार रुपए और बचेंगे उन से वे पूरे घर की मरम्मत करा सकेंगे. अब पैसा जोड़ना ही किस के लिए है? मुन्ना की पढ़ाई का खर्च तो वे अपने वेतन से ही चला लेंगे.
‘जब सारी दीवार के उधड़े प्लास्टर की मरम्मत हो जाएगी और ऊपर से पुताई भी, तो दीवार कितनी सुंदर लगेगी. फर्श के भी सारे गड्ढे भर कर चिकने हो जाएंगे. मां को घर में पोंछा लगाने में आसानी होगी. फर्श की दरारों में फंसे गेहूं के दाने, बाल के गुच्छे, आलपीन वगैरह चाकू से कुरेदकुरेद कर नहीं निकालने पड़ेंगे…’
यही सब सोचसोच कर रत्ना पुलकित हो रही थी.
रत्ना के भावी पति का नाम आनंद था. आनंद के प्रति कृतज्ञता ने रत्ना के रोमरोम में प्यार और समर्पण भर दिया. बिना भांवर फिरे ही रत्ना आनंद की हो गई.
तभी बाहर के शोरगुल से उस के विचारों को झटका लगा और वह खयालों के आसमान से उतर कर वास्तविकता के धरातल पर आ गई.
‘‘कोई आया है.’’
‘‘बड़ी मौसी आई हैं.’’
‘‘दीदी आई हैं.’’
इन सम्मिलित शोरशराबे से रत्ना समझ गई कि पटना वाली मौसी आई हैं.
बहुत हंसोड़, खूब गप्पी और एकदम मुंहफट, घर अब शादी के घर जैसा लगेगा. कभी हलवाइयों के पास जा कर वे जल्दी करने का शोर मचाएंगी, घीतेल बरबाद नहीं करने की चेतावनी देंगी, तो कभी भंडार से सामान भिजवाने की गुहार लगाएंगी. इसी बीच ढोलक के पास बैठ कर बूआ लोगों को दोचार गाली भी गाती जाएंगी.
मां को धीरे से कभी किसी से सचेत कर जाएंगी तो कभी कुछ सलाह दे जाएंगी. दहेज का सामान देखने बैठेंगी तो छूटाबढ़ा कुछ याद भी दिला देंगी. बुलंद आवाज से खूब रौनक लगाएंगी. यह सब सोचतेसोचते रत्ना का धैर्य जाता रहा. वह जल्दीजल्दी कोहबर की लोकरीति खत्म कर बाहर आ गई.
रत्ना ने देखा कि मौसी का सामान अंदर रखा जा चुका था. मौसी भी अंदर आ तो गई थीं पर यह क्या? कैसा सपाट चेहरा लिए खड़ी हैं? शादी के घर में आने की जैसे कोई ललक ही न हो. कहां तो बिना वजह इस उम्र में भी चहकती रहती हैं और कहां चहकने के माहौल में जैसे उन्हें सांप सूंघ गया हो.
मां ने बेचैनी भरे स्वर में पूछा, ‘‘क्या बात है दीदी, क्या बहुत थक गई हो?’’
‘‘हूं, पहले पानी पिलाओ. फिर इन गानेबजाने वालियों को विदा करो तो बताऊं क्या बात है?’’ मौसी ने समय नष्ट किए बिना ही इतना कुछ कह दिया.
सुमित्रा, शांत हो जाओ और धीरज धरो, या तो उस ने बात छिपाई होगी या लड़के वालों ने उस से बात छिपाई होगी. मैं तो कल ही आ जाती.
मां ने जैसे अनिष्ट को भांप लिया हो, फिर भी साहस कर आशंकित हो कर पूछा, ‘‘क्या हुआ, दीदी? गानाबजाना क्यों बंद करा दूं? यह तो गलत होगा. जल्दी कहो, दीदी, क्या बात है?’’
‘‘बैठो सुमित्रा, बताती हूं. अब समय बहुत कम है, इसलिए तुरंत निर्णय ले लो. हिम्मत से काम लो और अपनी रत्ना को बचा लो,’’ मौसी ने बैठेबैठे ही मां की दोनों हथेलियां अपनी मुट्ठी में दबा लीं.
‘‘जल्दी बताओ दीदी, कहना क्या चाहती हो?’’ घबराहट में जैसे मां के शब्द ही सूख गए. चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे दिल का दौरा पड़ गया हो. मौसी भी घबरा गईं लेकिन समय की कमी देखते हुए उन्हें बात जल्दी से जल्दी कहनी थी वरना कोई और बुरा हादसा हो जाता. अभी तो ये अपनी बात कह कर सुमित्रा को संभाल भी लेंगी और जो सदमा देने जा रही थीं, उसे साथ रह कर बांट भी लेंगी.
‘‘सुनो सुमित्रा, जिस आनंद को तुम रत्ना का पल्लू से बांध रही हो वह पहले से ही शादीशुदा है.’’
सुमित्रा की भौंहें तन गईं, ‘‘क्या कह रही हो, दीदी? जिस ने यह शादी तय कराई है वह क्या इस बात को छिपा कर रखेगा?’’
‘‘हां सुमित्रा, शांत हो जाओ और धीरज धरो, या तो उस ने बात छिपाई होगी या लड़के वालों ने उस से बात छिपाई होगी. मैं तो कल ही आ जाती, लेकिन इस बात की सचाई का पता लगाने के लिए कल आरा चली गई थी. वहां मुझे दिनभर रुकना पड़ा, नहीं तो कल पहुंच जाती तो बात संभालने के लिए तुम लोगों को भी समय मिल जाता. खैर, अभी भी बिगड़ा कुछ नहीं है. किसी तरह समय रहते सबकुछ तय कर ही लेना है.’’
रत्ना के पैर थरथराने लगे. लगा कि वह गिर पड़ेगी. मौसी ने इशारे से रत्ना को पास बुलाया और हाथ पकड़ कर बगल में बिठा लिया.
‘‘दुखी मत हो बेटी, संयोग अच्छा है. समय रहते सचाई का पता चल गया और तुम्हारी जिंदगी बरबाद होने से बच गई.’’
मौसी के दिलासा दिलाने के बावजूद रत्ना को आंसू रोकना मुिश्कल हो रहा था.
रत्ना के पिता ने अधीर हो कर पूछा, ‘‘आप को कैसे पता चला कि आनंद शादीशुदा है?’’
समय की कमी देखते हुए मौसी ने जल्दीजल्दी बताया, ‘‘पटना में रत्ना के मौसा के दफ्तर में विष्णुदेवजी काम करते हैं. मैं यहां आने से ठीक एक दिन पहले उन के घर गई थी. उन्हें मैं ने बताया कि मैं अपनी बहन की लड़की की शादी में गया जा रही हूं. फिर उन्हें मैं ने बातोंबातों में आनंद के परिवार के बारे में भी बताया. बीच में ही उन की पत्नी उठ कर अंदर चली गईं. आईं तो एक एलबम लेती आईं. उस में एक जोड़े का फोटो लगा था, दिखा कर बोलीं, ‘यही आनंद तो नहीं है?’ फोटो देख कर मैं तो जैसे आकाश से गिर पड़ी. वह उसी आनंद का फोटो था. तुम ने मुझे देखने के लिए जो भेजी थी, वैसी आनंद की एक और फोटो उस एलबम में लगी थी. फिर जब सारे परिवार की बात चली तो शक की बिलकुल गुंजाइश ही नहीं रह गई, क्योंकि तुम ने तो सब विस्तार से लिख ही भेजा था.’’
रत्ना की मां आगे सुनने का धैर्य नहीं जुटा पाईं. वे अपनी बहन की हथेली पकड़ेपकड़े ही रोने लगीं, ‘‘हाय, अब क्या होगा? बरात लौटाने से तो पूरी बिरादरी में ही नाक कट जाएगी.’’
अब तक रत्ना भी जी कड़ा कर संयत हो गई थी. दुख और क्षोभ की जगह क्रोध और आवेश ने ले ली थी, ‘‘नाक क्यों कटेगी मां? नाक कटाने वाला काम हम लोगों ने किया है या उन्होंने?’’ रत्ना के पिता ने सांस भर कर कहा, ‘‘ये सारे इंतजाम व्यर्थ हो गए. अब तक का सारा खर्च पानी में…’’ बीच में ही उन का भी गला भरभराने लगा तो वे भी चुप हो गए.
इस समय पूरे घर का संबल जैसे रत्ना की बड़ी मौसी ही हो गईं, ‘‘क्यों दिल छोटा कर रहे हो तुम लोग? समय रहते बच्ची की जिंदगी बरबाद होने से बच गई. क्या इस से बढ़ कर खर्च का अफसोस है? यह सोचो कि अगर शादी हो जाती तो रत्ना कहीं की न रहती. तुम लोग धीरज से काम लो, मैं सब संभाल लूंगी. अभी कुछ बिगड़ा भी नहीं है, और समय भी है. मैं जा कर सब से पहले शामियाने वाले और सजावट वालों को विदा करती हूं. फिर इन लड़कियों और पड़ोसिनों को संभाल लूंगी. जो सामान बना नहीं है वह सब वापस हो जाएगा और जो पक गया है उसे हलवाइयों से कह कर होटलों में खपाने का इंतजाम करवाती हूं.’’
फिर तो मौसी ने सबकुछ बड़ी तत्परता से संभाल लिया. मांपिताजी और रत्ना तीनों को तो जैसे काठ मार गया हो. हमेशा चहकने वाला मुन्ना भी वहीं चुपचाप मां के पास बैठ गया. बाकी सगेसंबंधी समय की नाजुकता समझते हुए चुपचाप इधरउधर कमरों में खिसक लिए. सब तरफ धीमेधीमे खुसुरफुसुर में बात जानने की उत्सुकता थी पर स्थिति की नाजुकता को देखते हुए मुंह खोल कर कोई कुछ पूछ नहीं रहा था. सभी शांति से मौसी के आने के इंतजार में थे.
एकडेढ़ घंटे में सब मामला सुलझा कर, एकदो नजदीकी रिश्तेदारों को हर अलगअलग विभाग को निबटाने की जिम्मेदारी दे कर, मौसी अंदर आईं. अब इस थकान में उन्हें एक कप चाय की जरूरत महसूस हुई. महाराजिन से सब के लिए चाय भिजवाने का आदेश जारी करते हुए मां से बोलीं, ‘‘सुमित्रा, तुम जरा भी निराश मत हो. मैं रत्ना के लिए बढि़या से बढि़या लड़का ला कर खड़ा कर दूंगी. और वह भी जल्दी ही. जिस आनंद की तुम ने इतनी तारीफ लिख कर भेजी थी, वह दोदो शादियां रचाए बैठा है. विष्णुदेव के बड़े भैया की आरा में फोटोग्राफी की बहुत बड़ी दुकान है. उन्हीं की लड़की से शादी हुई थी उस धोखेबाज आनंद की. विष्णुजी के भैया ने खूब धूमधाम से अपनी बेटी की शादी की थी. लड़की भी बेहद खुश थी. एक हफ्ते ससुराल रह कर आई तो आनंद की खूब तारीफ की. आनंद 15 दिन रह कर अमेरिका चला गया. बहुत दिन तक आनंद के मातापिता कहते रहे कि बहू का वीजा बना नहीं है, बन जाएगा तो चली जाएगी. वैसे बहू को वे लोग भी प्यार से ही रखते थे.
विष्णुजी के भैयाभाभी बेटी को हमेशा के लिए ससुराल से लिवा लाए. तलाक का नोटिस भिजवा दिया. हालांकि आनंद के मातापिता ने बहुत दबाव डाला कि बहू को छोड़ दें.
‘‘लेकिन 3-4 माह बाद ही आनंद ने अपनी बीवी को पत्र लिखा कि ‘मुझे बारबार बुलवाने के लिए पत्र लिख कर तंग मत करो. मैं तुम्हें अंधेरे में रख कर परेशान नहीं करूंगा. मैं तुम्हें अमेरिका नहीं बुला सकता क्योंकि यहां मेरी पत्नी है जो 3 साल से मेरा साथ अच्छी तरह निभा रही है.
‘‘‘मेरे मांबाप को एक हिंदुस्तानी बहू की जरूरत थी, सो तुम से शादी कर मैं ने उन्हें बहू दे दी. मेरा काम खत्म हुआ. अब तुम उन की बहू बन कर उन्हें खुश रखो. वे भी तुम्हें प्यार से रखेंगे. मैं भी हिंदुस्तान आने पर जहां तक संभव होगा, तुम्हें प्यार और सम्मान दूंगा लेकिन अमेरिका आने की जिद मत करना. वह मेरे लिए संभव नहीं होगा.’
‘‘इस के बाद विष्णुजी के भैयाभाभी बेटी को हमेशा के लिए ससुराल से लिवा लाए. तलाक का नोटिस भिजवा दिया. हालांकि आनंद के मातापिता ने बहुत दबाव डाला कि बहू को छोड़ दें. वे कह रहे थे, ‘इसी की सहायता से हम लोग आनंद को हिंदुस्तान लाने में सफल होंगे. आनंद हम लोगों को बहुत प्यार करता है. देरसवेर उसे अमेरिकी बीवी को ही छोड़ना पड़ेगा.’ लेकिन विष्णुदेव के भैयाभाभी नहीं माने और समधी को इस धोखे के लिए खरीखोटी सुनाईं. तलाक भी जल्दी ही मिल गया. लेकिन जरा उन लोगों की धृष्टता तो देखो, इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी हिंदुस्तानी बहू लाने का चाव गया नहीं है. फिर लड़के को देखो, वह कैसे दोबारा फिर सेहरा बांधने को तैयार हो गया.’’
किसी दूसरे के घर की यह घटना होती तो मौसी बड़ी रसिकता से आनंद के परिवार के साथसाथ उस से जुड़ने वाले बेबस परिवार को भी अपने परिहास की परिधि में लपेटने से नहीं चूकतीं. पर यहां मामला अपनी सगी बहन का था और इस संकट में उन का अवलंबन भी वही थीं. इसलिए वे पूरी संजीदगी के साथ स्थिति को विस्फोटक होने से बचाए हुए थीं.
‘‘मौसी, लड़के की अक्ल पर क्या परदा पड़ा है जो वह मांबाप के इस बेहूदा खेल में दोबारा शामिल हो रहा है?’’ अभी तक रत्ना जिसे मन ही मन महान समझ रही थी, उस के प्रति उस का तनमन वितृष्णा और घृणा से भर उठा.
‘‘अरी बेटी, अनदेखे लड़की वालों के घर से उसे क्या सहानुभूति होगी? हिंदुस्तान आने पर मांबाप फिर हिंदुस्तानी बहू की रट लगा देते होंगे, अपने अकेलेपन की दुहाई देते होंगे. रातदिन के अनुरोध को टालना उस के बस की बात नहीं रहती होगी.’’
‘‘सुना है, अभी भी वह मांबाप का बड़ा आदर करता है और उन से डरता भी है. अमेरिका जा कर वह जरा भी नहीं बदला है. बस, अमेरिका वाली ही उस के दिल का रोग हो गई है, जो सुना है कि हिंदुस्तान नहीं आना चाहती. हिंदुस्तान में मांबाप के साथ शांति से एकदो महीने गुजर जाएं और मौजमस्ती के लिए एक पत्नी भी मिल जाए, इस से बढि़या क्या होगा. शायद इसीलिए वह दोबारा शादी करने के लिए राजी हो गया होगा.’’
सबकुछ सुन कर रत्ना के मातापिता मोहन व सुमित्रा तो वहीं तख्त पर निढाल से पड़ गए. सुमित्रा की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. रत्ना के पास भी अब उपयुक्त शब्द नहीं थे जो वह मां को चुप कराती. उस के तो हृदय में स्वयं एक मर्मांतक शूल सा उठ रहा था. सारे रिश्तेदार चुपचाप अपनेअपने कमरों में जा कर तय करने लगे कि जल्द से जल्द किस गाड़ी से वापस लौटा जाए? किसी ने भी मोहन और सुमित्रा पर आर्थिक और मानसिक बोझ बढ़ाना उचित नहीं समझा.
रत्ना के ताऊजी ने पुलिस कार्यवाही करने की सलाह दी. लेकिन मोहनजी ने भीगे और टूटे स्वर में कहा, ‘‘अब यह सब करने से हमें क्या फायदा होगा? उलटे मुझे ही शारीरिक, मानसिक और आर्थिक कष्ट होगा. उत्साह का काम होता तो शरीर भी सहर्ष साथ देता और पैसे की भी चिंता नहीं होती.’’
अपने मनोभावों को पूरी तरह व्यक्त करने की शक्ति भी मोहनजी में नहीं रह गई थी. इसलिए यही तय किया गया कि बरातियों को अपमानित कर के ही उसे दंडित किया जाए.
किया भी यही गया. बराती संख्या में बहुत कम थे. स्वागत तो दूर, उन्हें बैठने तक को नहीं कहा गया. चारों तरफ से व्यंग्यबाण बरसाए जा रहे थे. आनंद के पिता हर तरह से सफाई देने की कोशिश में थे, किंतु कोई कुछ सुनने को तैयार नहीं था. बरात में आए एकदो बुजुर्गों ने भी सुलह करने का परामर्श देना चाहा तो कन्या पक्ष वालों ने उन्हें भी बुरी तरह से लताड़ा.
रिश्तेदारों की निगाहों से बच कर रत्ना चुपचाप अकेली कोहबर में आ गई. बाहर उठता शोर रत्ना के कानों में सांपबिच्छू के दंश सा कष्ट दे रहा था. हालात ने उसे आशक्त, असमर्थ और जड़ बना दिया था. कांपते हाथों से धीरेधीरे वह विवाह के लिए पहनी जाने वाली पीली साड़ी उतारने लगी. दो चुन्नट खोलतेखोलते जैसे शक्ति क्षीण होने लगी. पास पड़ी पीढ़ी पर निढाल सी बैठ गई. रत्ना की सूनी निगाहें दीवार ताकने लगीं, ‘अब इन दीवारों पर प्लास्टर नहीं होगा, पुताई…’ आगे सोचने की भी सामर्थ्य जवाब दे गई और वह जोरजोर से हिचकियां भरने लगी.