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कहानी: मोको कहां ढूंढे रे बंदे

मैंने मन ही मन  मुंह बनाया. अरे, घर चलाना कोई खेल नहीं है. बहुत सारी बातें सोचनी पड़ती है. ये मर्दों के बस की बात नहीं है. अपने और उनके दोनों के ही हिस्से की बातें मैं मन ही मन सोच रही थी.

आज फिर कांता ने छुट्टी कर ली थी और वो भी बिना बताए. रसोई से ज़ोर – ज़ोर से बर्तनों का शोर आ रहा था. बेचारे गुस्से के कारण बहुत पिटाई खा रहे थे. पर इस गुस्से के कारण कुछ बर्तनों पर इतनी जम के हाथ पड़ रहा था कि मानो उनका भी  रंग रूप निखर आया हो. वही जैसे फेशियल के बाद चेहरे पर आता है. अरे, “आज मुझे पार्लर भी तो जाना है.” अचानक याद आया. सारा काम जल्दी – जल्दी निपटा  दिया. थकान भी लग रही थी. पर सोचा चलो, वही रिलैक्स हो जाऊंगी. घर का सारा काम निपटा कर मैं पार्लर पहुंच गई.


जब फेशियल हो गया तो पार्लर वाली बोली…….

“दीदी कल देखना, क्या ग्लो आता है.” उफ़….एक तो उसका “दीदी” बोलना और दूसरा अंग्रेजी का “ग्लो” ग्लो~~ वाह!! सच, मन कितना आनंद से भर जाता है. खुश होकर मैंने कुछ टिप उसके हाथ में रख दी, “थैंक यू दीदी” उसने कहा.सच में अपने आप पर बड़ा गर्व महसूस होने लगा, जैसे न जाने कितना महान काम कर दिया हो.घर वापसी के लिए पार्लर का दरवाज़ा खोलते समय सचमुच में एक सेलेब्रिटी वाली फीलिंग आने लगती है. लगता है जैसे बाहर कई सारे फोटोग्राफर और ऑटोग्राफ लेने वाले इंतजार में खड़े होंगे… मैडम, मैडम!हेल्लो.. हेल्लो.. प्लीज़ प्लीज़ एक फोटो. इधर,  इधर, मैडम. ऐसा सोचते ही एक गर्वीली मुस्कुराहट अनायास ही चेहरे पर आ गई.


पर ये क्या? पार्लर से निकलते ही सब्ज़ी वाला भईया दिख गया। उफ़…मेरे ख्यालों की

दुनिया जैसे पल भर में गायब हो गई. मुझे देखते ही वो अपने चिरपरिचित अंदाज़ में बोला “हां,…. चाहिए कुछ?” मैं जैसे सपने से जागी.अरे हां,आलू तो खत्म हो ही गए है. परांठे कैसे बनेंगे कल.सन्डे को कुछ स्पेशल तो सबको चाहिए ही. फिर चाहे लंच में छोले चावल बन जाएंगे. टमाटर भी लेे ही लेती हूं. रखे रहेंगे, बिगड़ते थोड़े ही है. कुछ और सब्जियां भी ‘सेफर साइड योजना’ के तहत लेे ली जाती है.अब आती है असली जिम्मेदारी निभाने की बारी..यानी हिसाब लगवाने की बारी “क्या भईया, क्यूं इतनी मंहगी  लगा रहे हो?”

“हमेशा तो आपसे ही लेती हूं.”


“आज क्या कोई पहली बार सब्ज़ी थोड़े खरीद रही हूं आपसे?”

“उधर, बाहर मार्केट में बैठते हो तो कम भाव लगाते हो”

“हमारी कॉलोनी में आते ही सबके भाव बढ़ जाते है”

अन्तिम डायलॉग बोलते समय थोड़ा फक्र महसूस होता है. देखा हम कितनी पॉश कॉलोनी के वासी है. परन्तु फ्री का धनिया और हरी मिर्च मांगते वक्त मैं अपने वास्तविक रूप में लौट आती.बनावट तो अस्थाई होती है, वास्तविकता ही हमारे साथ स्थाई रूप से रहती है.पर ये हमें शायद बहुत कम या कहिए देर से समझ आता है.


खैर….सब्जी वाले के साथ मोल भाव करने और कुछ एक्स्ट्रा लेने में अपनी कला पर खुद को ही शाबाशी दे डाली, हमेशा की तरह। वरना, घर पर ये सब बताओ तो इन समझदारी की बातों को भला कौन समझता है? उल्टा प्रवचन अलग मिल जाता है पतिदेव से …”क्या तुम भी, यूं दो – चार रुपयों के लिए इन मेहनतकश लोगो से इतना तोल मोल करती हो” इतनी सुबह- सुबह दूर मंडी से तुम्हें ये सब घर बैठे ही मिल जाता है. ये भी तो फ्री होम डिलीवर ही है. हमें तो इनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए.


उहं मैंने मन ही मन  मुंह बनाया. अरे, घर चलाना कोई खेल नहीं है. बहुत सारी बातें सोचनी पड़ती है. ये मर्दों के बस की बात नहीं है. अपने और उनके दोनों के ही हिस्से की बातें मैं मन ही मन सोच रही थी.

जब सब्ज़ियां खरीद ली तो याद आया. ओह, हां.. .’ब्रेड और मख्खन भी तो नहीं है और छोटे बेटे ने अपना शैंपू लाने के लिए भी तो कहा था।’ कुछ चिप्स और चॉकलेट भी लेे लूंगी उसके लिए. घर पहुंचते ही  बोलता है “मेरे लिए क्या लाई हो मम्मी?” दुकान पर पहुंची तो कुछ अन्य वस्तुओं पर भी नज़र गई । उन्हें देख कर सोचा..”अच्छा हुआ जो नजर पड़ गई, ये सामान भी तो लगभग खत्म ही होने लगा है.” ये तो बहुत अच्छा हुआ, जो देखकर याद आ गया। वरना फिर से आना पड़ता.

सारा सामान लेे कर  थकी – हारी घर पहुंची। रिक्शे वाले से भी थोड़ी बहस हो गई किराए को लेकर. आज तो सारा मूड ही खराब हो गया.


डोरबेल बजाई तो चीकू ने दरवाज़ा खोला और चिल्ला कर बोला… पापा,  “मम्मी आ गई हैं.” “पता नहीं क्यूं ये हमेशा अपने पापा को सावधान होने का संकेत देता है.” जैसे, “मैं नहीं, कोई खतरे की घड़ी आ गई हो.”

हमेशा की तरह मैंने इस बात को नजर अंदाज़ किया.

चीकू बोला ,”मेरे लिए क्या लाई हो मम्मी?” हर बार उसकी यही जिज्ञासा होती.

अरे। “हर बार क्यूं पूछते हो?” “मैं कोई विदेश यात्रा से आती हूं.” थकान अब तल्खी में बदल रही थी.

पतिदेव ने शायद इसे महसूस कर लिया था. वे कमरे से बाहर आये और माहौल की नज़ाकत को समझते हुए चिंटू को अंदर जाने का इशारा किया और सामान भीतर लेे जाने के लिए उठाने लगे. फिर अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया. वे  सहानुभूति जताते हुए बोले…अरे,,”तुम तो पार्लर गई थी ना?”

“क्या पार्लर बंद था?” ओह! “लगता है सारा समय घर की खरीदी में ही निकल गया.”


क्या इन्हें मेरा “ग्लो” नजर नहीं आ रहा? बाल भी तो ठीक कराए थे, क्या वो भी दिखाई नहीं पड़  रहे?

एक वो पार्लर वाली है जो बोल रही थी….”दीदी”, “आप अपने पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही हो” “देखो तो कितनी ड्रायनेस आ गई है हाथों पर और बाल भी कितने हल्के होते जा रहे है”

“आप थोड़ा जल्दी जल्दी विजिट किया करे” सच में मेरा कितना ख्याल करती है, और इन्हें देखो, इतना कुछ करवा कर आने के बाद भी पूछ रहे है…”क्या पार्लर नहीं गई?”

हद है. दिनभर की थकान,  सबसे हुई बहस और पति की नज़र का दोष.एक धमाके का रूप ले चुका था. मैंने जोर से पांव पटके और धड़ाम से दरवाज़ा बंद किया और कहा..


“कभी तो मुझ पर ध्यान दीजिए, कभी तो फुरसत निकालिए” “क्या आपको कहीं भी?… कुछ?.. सुंदरता नजर आती है?” मैंने एक – एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा “हर समय बस, ये अख़बार और टीवी”

“क्या बार बार वही न्यूज सुनते रहते हो””घर -बाहर का सारा काम कर करके मेरे चेहरे का ग्लो ही खत्म हो गया” ये देखो, बर्तन मांज – मांज कर मेरे हाथ कितने ड्राई हो गए है”


“ये नाखून तो जैसे सारे ही टूट गए है.” मैं  गुस्से में बोल रही थी.

आवाज़ से लग रहा था, बस रो ही पडूंगी, पर उनके सामने रोना अपनी बात को कमज़ोर बनाना था। मैं सीधे अपने कमरे में चली गई. अचानक एक छोटे से प्रश्न पर इतना भड़क जाना? उनकी कुछ समझ नहीं आ रहा था. पतिदेव ज्यादा बहस के मूड में नहीं  थे. चुपचाप सारा सामान रसोई में रख अख़बार उठा कर पढ़ने लगे.


कुछ देर बाद मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा खोला। देखा रसोई में कुछ खुसुर – पुसुर हो रही थी.

चीकू की आवाज़ आ रही थी….”पापा आज बाहर से कुछ मंगवा  ले?”और पतिदेव बोल रहे थे..”यार चीकू मैगी ही बना लेते है।” “अब, मम्मी से कौन पता करे कि उन्हें क्या खाना है?”


अब मुझे अपने आप पर भी गुस्सा आने। आखिर इतना बवाल करने की क्या जरूरत थी.

मैंने रसोई में जाकर बिना प्यास के पानी पिया। बस टोह लेने के लिए कि क्या चल रहा है. फिर सपाट और संयमित स्वर में पूछा..”क्या खाओगे?” दोनों एक साथ बोल उठे…”खिचड़ी”

“ये तो कमाल हो गया, यार चीकू ” पापा ने बड़ी प्रशंसा भरी नज़रों से चीकू को शाबाशी दी और चीकू ने भी अपनी आंखे झपकाकर पापा को “टू गुड” कहा।  “वाह!”

“इतनी अंडरस्टैंडिंग” सच में कमाल ही है. जो खिचड़ी के नाम से ही बिदकते हो आज खुद खिचड़ी खाने के लिए कह रहे हैं. जो मैं अपनी थकान की स्थिति के विकल्प रूप में बनाती हूं. मैं मन ही मन मुस्कुराई पर स्वयं की प्रतिष्ठा के मद्देनजर चेहरा संजीदा ही बनाए रखा.


अब वे दोनों चुपचाप रसोई से बाहर निकल कर टेबल लगाने लगे. खाने के बाद के सारे काम निपटा कर जब मैं चीकू के कमरे में गई तो वो सो चुका था. आज इसे अकारण ही डांट दिया. बहुत बुरा लग रहा था. कॉमिक्स उसके हाथ से निकाल कर हौले से उसके बालों को सहलाया. बत्ती बंद कर  मैंने अपने कमरे की ओर रुख किया.


आश्चर्य है आज उनके हाथ में न अख़बार था न मोबाइल मुझे देख कर वे थोड़ा मुस्कराए मुझे थोड़ा अटपटा लगा. पता नहीं क्या बात है? मैं उनकी ओर पीठ घुमाकर  अपने ड्राई हाथों पर क्रीम मलने लगी. आज थोड़ी ज्यादा देर तक हाथों को क्रीम मलती रही. शायद उनके बुलाने का इंतजार कर रही थी. सोचे जा रही थी…”इतना धैर्य भी भला किस काम का? जो बोलने में भी इतना समय लगे।” मन में बोले गए वाक्य के पूरा होने की देर थी कि आवाज़ आई…”आओ!” “तुम्हें कुछ दिखाना है” ये हो क्या रहा है? शाम के खाने से लेकर अभी तक आश्चर्य ही आश्चर्य इतने आश्चर्य वाली धाराएं तो पहले कभी नहीं देखी.


मैं बिना कुछ कहे बैठ गई..वे अलमारी से एक बड़ा सा लिफाफा निकाल रहे थे. मैं सोच रहीं थीं, अभी न तो मेरा जन्मदिन है, न शादी की सालगिरह. फिर तोहफे लेने देने वाली परंपरा भी तो ज़रा कम ही है हमारे बीच.उन्होंने वो बड़ा सा लिफाफा मेरे सामने रख दिया. “ये क्या?”  “लिफाफा तो पुराना सा दिख रहा है” मुझे कुछ अजीब लगा.

मैंने धीरे से पूछा… ..

…..”क्या है इसमें ?”

“आज तुम पार्लर से आकर पूछ रही थी ना…. कि क्या मुझे  कहीं भी, किसी भी रूप में कुछ सुंदरता दिखाई देती है?”

“ये वही सुंदरता वाला लिफाफा है.”

वे एकदम शांत और संयत आवाज़ में बोले।


अब तो सच में, मैं आश्चर्य के समुद्र में गोते लगाने लगी।

देखो, अनु, “सुंदरता की सबकी अपनी परिभाषा होती है।” “सुंदरता देखने का सबका अपना अलग – अलग नज़रिया होता है।”

“किसी को तन की सुंदरता मोहित करती है, तो किसी को मन की, कोई स्वभाव की सुंदरता देखता है तो कोई भाषा की।”

“कोई  प्रकृति की सुंदरता में खो जाता है, तो किसी को खेत – खलिहान में काम करने वाले उन मेहनतकश मजदूर और उन पर लगी उस माटी की सुंदरता मोहित करती है।” “कोई रसोई में खाना बनाती उस गृहिणी और उसके माथे पर आने वालेे पसीने की बूंदों में सुंदरता देखता है, जिसमें परिवार के लिए स्नेह झलकता है, जो मैं तुममें भी अक्सर देखता हूं।” “मुझे तुम्हारा वो ग्लो ज्यादा अच्छा लगता है, तो इसमें मेरा क्या कसूर है?” वे बोलते जा रहे थे। मैं अपना सिर नीचे किए बस उन्हें सुन रही थी। आंखों में आंसू डबडबाने लगे थे।

तभी लिफाफे के खुलने की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी।

“ये देखो।” मैंने पनीली आंखों से देखा….”ये मां की बरसों पुरानी तस्वीर है।” मैंने देखा सासू मां की उस ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर को … एक सादी सी सुती साड़ी पहने, माथे पर बड़ी सी बिंदी, बालों की एक लंबी ढीली सी चोटी।इतनी सादगी और कितनी सुंदर। मैं मोहित हो कर देखने लगी। सचमुच सुंदर।

फिर निकली एक बड़ी सी राखी जो बचपन में बहन ने बांधी थी। उस समय वो कलाई से भी काफी बड़ी रही होगी। मुझे अपने भाई की याद गई वो भी तो ऐसी ही बड़ी सी राखी बंधवाता था और फिर सारे मोहल्ले को दिखता था। उसे याद कर मैं धीरे से हंस पड़ी।

फिर निकली एक पुरानी सी कैसेट जिसमें मेरी नानी के गाए भजन और उनके साथ की गई बातचीत की पर्ची लगी हुई थी।

पिताजी जी के साथ देखी गई फिल्म का पोस्टर। सचमुच कमाल।

हमारी पहली यात्रा के टिकिट, चीकू की पहली पेंटिंग वाला कागज़। सारी चीजे इतने जतन से संभाली हुई।

अब तो मेरी बहुत कोशिश से रोकी हुई रुलाई फूट पड़ी।

“देखो अनु,” “मैं तुम्हारा दिल दुखना हरगिज़ नहीं चाहता।” “पार्लर जाना कोई बुरी बात नहीं है।” “न ही मैंने तुम्हें कभी रोका है।”

“अपने आप को अच्छा रखना और लगना कोई गुनाह नहीं है।”

“दरसअल, हमें जो अच्छा लगता है, हम चाहते है सामने वाले को भी वो, उसी रूप में अच्छा लगे और वो उसकी तारीफ करे,पर ऐसा हर बार जरूरी तो नहीं।”

“उसकी अपनी सोच हमसे अलग भी तो हो सकती है।”

“मुझे लगता है, जब हम सुंदरता का कोई रूप देख कर खुश होते है,तो आपकी आंतरिक खुशी  चेहरे पर अपने आप आ जाती है।”

उस खुशी से चेहरा दमकने लगता है। शायद तभी चेहरे को दर्पण कहा   जाता है। बिना बोले ही कितनी बातें कह जाता है।

“मेरा अपना सुंदरता का क्या नज़रिया है, वो मैंने तुम्हें बता दिया।”

“मेरा तुम्हारा मन दुखाने का कभी भी कोई मकसद नहीं होता।”  एक गहरे निःश्वास के साथ वे चुप हो गए।


उस दिन मैं एक नए संवेदनशील इंसान से मिली।अब मेरी आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला रहे थे। सुंदरता की ऐसी परिभाषा तो शायद मैंने पहले कभी सोची ही नहीं।आज कुछ अलग सा महसूस किया था। सच,एक नया अर्थ समझ आया था.

मुझे लगा जैसे आज संवेदनाओं की कितनी उलझने सुलझ गई थी।

दूर बादलों की ओट से चांद बाहर निकल रहा था। ठीक मेरे मन की तरह। शिकवे- शिकायतों के सारे काले बादल शांत, श्वेत चांदनी में बदल गए थे। खिड़की से झांकती चांदनी मुस्कुरा रही थी।

हम दोनों खामोश थे।बस आंखें बोल रही थी।

मैंने उनकी ओर देखा और  झूठ – मूठ का गुस्सा दिखाते हुए कहा… चलिए, “अब सो जाइए। कल सुबह मुझे आलू के परांठे भी बनाने है।”

“वाकई। तुम्हारे आलू परांठे होते बहुत सुंदर है।” पतिदेव एक शरारती मुस्कान लिए बोले।

देखा नहीं? “उन्हें देखते ही मेरे और चीकू के चेहरे पर कितना “ग्लो”~~ आ जाता है।”

हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े।

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