कहानी: तुझ संग बैर लगाया ऐसा
मां नीति ने बेटी नेहा को हमारी भागीदारी के बारे में नसीहत दी, पर क्या बेटी नेहा अपने अधिकारों को जान पाई? क्या नेहा मां की बात मान बाजार जा कर दुकानदार से अपनी बात कह पाई?
सामान के बैगों से लदीफदी नेहा जब बाजार से घर लौटी तो पसीने से लथपथ हो रही थी. उसे पसीने से लथपथ देख कर उस की मां नीति दौड़ कर उस के पास गईं और उस के हाथ से बैग लेते हुए कहा,” एकसाथ इतना सारा सामान लाने की जरूरत क्या थी? देखो तो कैसी पसीनेपसीने हो रही हो.”
” अरे मां, बाजार में आज बहुत ही अच्छा सामान दिखाई दे रहा था और मेरे पास में पैसे भी थे, तो मैं ने सोचा कि क्यों ना एकसाथ पूरा सामान खरीद लिया जाए… बारबार बाजार जानाआना भी नहीं पड़ेगा.”
“बाजार में तो हमेशा ही अच्छाअच्छा सामान दिखता है. आज ऐसा नया क्या था?”
“आज कुछ नहीं था, पर 4 दिन बाद तो है ना,” नेहा ने मुसकराते हुए कहा.
“अच्छा, जरा बताओ तो 4 दिन बाद क्या है, जो मुझे नहीं पता. मुझे भी तो पता चले कि 4 दिन बाद है क्या?”
“4 दिन बाद दीवाली है मां, इसीलिए तो बाजार सामानों से भरा पड़ा है और दुकानों पर बहुत भीड़ लगी है.”
“तब तो तुम बिना देखेपरखे ही सामान उठा लाई होगी?” नीति ने नेहा से कहा.
“मां, आप भी ना कैसी बातें करती हैं? अब इतनी भीड़ में एकएक सामान देख कर लेना संभव है क्या? और फिर दुकानदार को भी अपनी साख की चिंता होती है. वह हमें खराब सामान क्यों देगा भला?”
“चलो ठीक है. बाथरूम में जा कर हाथपैर धो लो, फिर खाना लगाती हूं,” नीति ने बात खत्म करने के लिए विषय ही बदल दिया.
खाना खा कर नेहा तो अपने कमरे में जा कर गाना सुनने लगी और नीति सामान के पैकेट खोलखोल कर देखने लगी.
उन्होंने सब से पहले कपड़े के पैकेट खोलने शुरू किए. कपड़े के प्रिंट और रंग बड़े ही सुंदर लग रहे थे.
नीति ने सलवारसूट का कपड़ा खोल कर फर्श पर बिछा दिया और उसे किस डिजाइन का बनवाएगी, सोचने लगी. अचानक उस की निगाह एक जगह जा कर रुक गई. उसे लगा जैसे वहां का कपड़ा थोड़ा झीना सा है. कपड़ा हाथ में उठा कर देखा तो सही में कपड़ा झीना था और 1-2 धुलाई में ही फट जाता.
नीति नेहा के कमरे में जा कर बोली,” कैसा कपड़ा उठा कर ले आई हो? क्या वहां पूरा खोल कर नहीं देखा था?”
“मां, वहां इतनी भीड़ थी कि दुकानदार संभाल नहीं पा रहा था. सभी लोग अपनेअपने कपड़े खोलखोल कर देखने लगते, तो कितनी परेशानी होती. यही तो सोचना पड़ता है ना.”
“ठीक है. वहां नहीं देख पाई चलो कोई बात नहीं. अब जा कर उसे यह कपड़ा दिखा लाओ और बदल कर ले आओ. अगर यह कपड़ा ना हो, तो पैसे वापस ले आना.”
नीति की बात सुन कर नेहा झुंझला कर बोली, “आप भी न मां, पीछे ही पड़ जाती हैंं. अभी थोड़ी देर पहले ही तो लौटी हूं बाजार से, अब फिर से जाऊं? रख दीजिए कपड़ा, बाद में देख लेंगे.”
“तुम्हारा बाद में देख लेंगे कभी आता भी है? 3 महीने पहले तुम 12 कप खरीद कर लाई थींं, उन में से 2 कप टूटे हुए थे. अभी तक वैसे ही पड़े हैं. लाख बार कहा है तुम से कि या तो दुकान पर ही चीज को अच्छी तरह से देख लिया करो और या फिर जब घर में आ कर देखो और खराब चीज निकले तो दुकानदार से जा कर बोलना बहुत जरूरी होता है. जाओ और बोलो, उसे बताओ कि तुम ने अच्छी चीज नहीं दी है.”
“ठीक है मां, मैं बाद में जा कर बदल लाऊंगी,” कह कर नेहा मन ही मन बुदबुदाई,”अच्छी मुसीबत है. अब मैं कभी कुछ खरीदूंगी ही नहीं.”
नेहा के पीछेपीछे आ रही मां नीति ने जब उस की बात सुनी, तो उन्हें बहुत गुस्सा आया. उन्होंने गुस्से में नेहा से कहा, “एक तो ठीक से काम नहीं करना और समझाने पर भड़क कर कभी न काम करने की बात करना, यही सीखा है तुम ने.”
“मां, अब दो कपड़ों के लिए मैं बाजार जाऊंगी और फिर वहां से आऊंगी भी तो टैक्सी वाले को कपड़ों से ज्यादा पैसा देना पड़ेगा. यह भी समझ में आता है आप को?”
“नहीं आता समझ… और मुझे समझने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि मैं तो दुकान पर ही सारी चीजें ठीक से देख कर रुपएपैसे का मोलभाव कर तब खरीदती हूं.
“तुम्हारी तरह बिना देखे नहीं उठा लाती और अगर कभी ना भी देख पाऊं तो वापस जा कर दुकानदार को दिखाती हूं और खराब चीज बदलती हूं या पैसे वापस लेती हूं.”
“मां, क्या फर्क पड़ता है एक या दो चीजें खराब निकलने से. अब दुकानदार भी कितना चैक करेगा?”
“कितना चैक करेगा का क्या मतलब है? अरे, उस का काम है ग्राहकों को अच्छा सामान देना. सब तुम्हारी तरह नहीं होते हैं, जो ऐसे ही छोड़ दें. इस तरह तो उस की इतनी बदनामी हो जाएगी कि कोई उस की दुकान पर पैर भी नहीं रखेगा.”
“नहीं मां, ऐसा कुछ नहीं होगा. उस की दुकानदारी ऐसे ही चलती रहेगी, आप देखना.”
“क्यों नहीं चलेगी? जब तेरे जैसे ग्राहक होंगे, लेकिन इस का असर क्या पड़ेगा, यह सोचा है. धीरेधीरे सारे दुकानदार चोरी करना सीखेंगे, खराब सामान बेचेंगे और अपनी गलती भी नहीं मानेंगे.
“आज जो बेईमानी है, भ्रष्टाचार का माहौल बना है ना, इस के जिम्मेदार हम ही तो हैं,” नीति ने गुस्से में कहा.
” कैसे? हम कैसे हैं उस के जिम्मेदार? बताइए ना…”
“तो सुनो, हम गलत काम को प्रोत्साहित करते हैं जैसे तुम बाजार गई हो और कोई सामान खरीद कर ले आए. घर आ कर जब सामान को खोल कर देखा तो सामान खराब निकला. तुम ने उस को उठा कर एक ओर पटका. दूसरा सामान खरीद लिया. अब दुकानदार को कैसे पता चलेगा कि सामान खराब है?
“मान लो, उसे पता भी है, पर फिर भी वह जानबूझ कर खराब सामान बेच रहा हो तो… जब जिस का पैसा बरबाद हो गया, उसे चिंता नहीं है तो दुकानदार को क्या और कैसे दोष दे सकते हैं?”
“मां, सभी दुकानदार तो ऐसा नहीं करते हैं न.”
“अभी नहीं करते तो करने लगेंगे. यही तो चिंता की बात है. इस तरह तो उन का चरित्र ही खराब हो जाएगा. हम हमेशा दूसरों को दोष देते हैं, पर अपनी गलती नहीं मानते.”
“अच्छा मां, अगर दुकानदार न माने तो…?”
“हां, कभीकभी दुकानदार अड़ जाता है. बहुत सालों पहले एक बार मैं परदे का कपड़ा खरीदने गई. कपड़ा पसंद आने पर मैं ने 20 मीटर कपड़ा खरीद लिया. घर आ कर कपड़ा अलमारी में रख दिया. 2 दिन बाद मैं ने जब परदे काटने शुरू किए, तो बीच के कपड़े में चूहे के काटने से छेद बने हुए थे. मैं उसी समय कपड़ा ले कर बाजार गई और दुकानदार को कपड़ा दिखाया. उस ने कपड़ा देखा और कहा, “हमारी दुकान में चूहे नहीं हैं. आप के घर पर चूहे होंगे और उन्होंने कपड़ा काटा होगा… मैं कुछ नहीं कर सकता.”
“मैं ने कहा, “चूहे मेरे घर में भी नहीं हैं. कोई बात नहीं, अभी पता चल जाएगा. आप पूरा थान मंगवा दीजिए. अगर वह ठीक होगा, तो मैं मान जाऊंगी.”
नौकर थान ले कर आया. जब थान खोला गया, तो उस में भी जगहजगह चूहे के काटने से छेद बने थे.
“अब तो दुकानदार क्या कहता, उस ने चुपचाप हमारे पूरे पैसे लौटा दिए.
“अगर मैं कपड़ा वापस करने नहीं जाती, तो दुकानदार अच्छा कपड़ा दिखा कर खराब कपड़ा लोगों को देता जाता. अगर सभी लोग यह ध्यान रखें, तो वे खराब सामान लेंगे ही नहीं, तो दुकानदार भी खराब सामान नहीं बेच पाएगा.
“हम अफसरों और नेताओं को गाली देते हैं, पर यह नहीं सोचते कि जब तक हम बरदाश्त करते रहेंगे, तब तक सामने वाला हमें धोखा देता रहेगा. जिस दिन हम धोखा खाना बंद कर देंगे, धोखा देने वाले का विरोध करेंगे, गलत को गलत और सही को सही सिद्ध करेंगे, उसी दिन से लोग गलत करने से पहले सौ बार सोचेंगे अपनी साख बचाने के लिए. बेईमानी करना छोड़ देंगे और तब ईमानदारी की प्रथा चल पड़ेगी,” इतना कहतेकहते नीति हांफने लगी.
मां को हांफता देख कर नेहा दौड़ कर पानी लाई और बोली, “मां, आप बिलकुल सही कह रही हैं. हमें मतलब उपभोक्ताओं को जागरूक बनना बेहद जरूरी है. जब तक हम अपने अधिकारों के प्रति ध्यान नहीं देंगे, तब तक हमें धोखा मिलता रहेगा.”
“ठीक है बेटी, अब इस बात का खुद भी ध्यान रखना और दूसरों को भी समझाना.”
“जी… मैं अभी वापस दुकान पर जा कर दुकानदार से कपड़ा बदल कर लाती हूं,” इतना कह कर नेहा बाजार चली गई, तो नीति ने चैन की सांस ली.
अभी काव्या को बेकरी की दुकान संभाले कुछ ही दिन हुए थे कि सामने एक नवयुवक कबीर ने भी बेकरी की दुकान खोल ली। काव्या की मुश्किलें अब बढ़ने वाली थीं.
कबीर ने नई कौफी वैंडिंग मशीन पर एक नजर डाली और फिर मुसकराते हुए बोला,”गरमगरम डोनट, झाग वाली कौफी… वाह, और क्या चाहिए ठंड के मौसम में…”
“अब यह तेरी दुकान है, बेटा। जैसे मरजी चला इसे। बस, काम ईमानदारी से और ग्राहक खुश हों इस बात का खयाल हमेशा रखना,” कबीर के पिता ने उसे प्यारभरी हिदायत देते हुए कहा.
कबीर ने मुसकराते हुए सिर हिलाया. सुबह की मीठी धूप में वह खुद को और भी तरोताजा महसूस कर रहा था। अपने पुरखों की बेकरी में वह अपने मनमुताबिक बदलाव लाना चाहता था.
होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई और फिर कुछ साल देश के बड़े होटलों में काम करने के बाद अब उस ने वापस अपने शहर आ कर अपनी इस बेकरी को संवारने का मन बना लिया था।
पिता और बाकी लोगों ने खूब समझाया की बड़े शहरों की हवा में सांस लेने वाले छोटे शहरों की बयार पसंद नहीं करते पर कबीर का मन पहाड़ों में ही बसता था. यहां की मिट्टी की खुशबू ही अलग थी।
बाजार में छोटीछोटी दुकानों की रौनक, सुबहसुबह दुकानदारों का अपनी दुकानों के आगे पानी के छींटें मारना, दुकान खुलने के बाद अंदर से आती अगरबत्ती की महक…
कबीर कुछ देर दुकान के बाहर खड़ा जाड़ों की धूप का मजा लेने लगा, तभी उस का ध्यान सामने की बेकरी के शटर खुलने की आवाज ने तोड़ा. गणपत और राजू के साथ सामने काव्या खड़ी थी जो उस की तरफ ही देख रही थी.
कबीर ने सड़क के दूसरी तरफ से काव्या की बेकरी के अंदर झांका। बादामी दीवारें जैसे बरसों से सूनी पड़ी थीं, शैल्फ पर धूल दूर से भी देखी जा सकती थी. न जाने क्यों कबीर के चेहरे पर एक मुसकराहट तैरने लगी, जिसे देख कर काव्या ने मुंह मोड़ लिया और बेकरी के अंदर दाखिल हो गई.
“यह लड़का कौन है गणपत?” बेकरी के काउंटर पर अपना बैग रखते हुए काव्या ने सवाल दागा.
“कंपीटिटर है आप का दीदी… गिरधारी लाल मल्होत्रा, मल्होत्रा बेकर्स वाले… उन का पोता कबीर मल्होत्रा। सुना है, बड़े होटलों में काम कर के सबकुछ छोड़छाड़ कर अब यहीं बसना चाहता है,” गणपत ने झाड़ू उठाते हुए जवाब दिया.
“सब जगह छोड़ कर इस को यहीं आना था क्या?” काव्या ने बाहर घूरते हुए देखा तो उस वक्त कबीर अपने कारीगरों से बात करने में लगा हुआ था.
थोड़ी ही देर में कबीर ने अपनी बेकरी के बाहर कुछ टेबल और कुरसियां लगवा दीं और फिर अगले ही पल उस की बेकरी के अंदर से किसी गाने की तेज आवाजें बाजार के हर कोने में फैलने लगीं.
“यह क्या बात हुई? हम भी हैं यहां पर… ऐसे कोई शोर करता है क्या?” कुछ देर चुप रहने के बाद आखिर काव्या के सब्र ने जवाब दे ही दिया और वह तमतमाती हुई अपनी बेकरी से बाहर निकल आई.
अचानक आई मुसीबत से काव्या परेशान तो थी ही, तिस पर जब से कबीर आया था, दुकान पर ग्राहक कम आने लगे थे.
मन परेशान हो तो बहारों में भी खिजा सा महसूस होने लगता है. वही कुछ हाल काव्या का भी था. बाबूजी के जाने का सदमा, सपनों के बिखरने का गम, नई जिम्मेदारियों को उठाने का डर, बाबूजी को जान से भी अजीज उस बेकरी को चलाए रखने का खयाल…. कितना कुछ था उस के दिमाग में जो एकसाथ एक काफिले सा चला ही जा रहा था और अब धीरेधीरे जाने क्यों उन की बेकरी से ग्राहक भी कम होने लगे थे और सामने मल्होत्रा बेकर्स की उस नई बेकरी में रौनक बढ़ने लगी थी.
अपने मन के अंदर पड़ती इन्हीं सभी गांठों का एक सिरा पकड़े वह कब कबीर की बेकरी में जा धमकी उसे खुद खबर न हुई.
“कोई जगराता चल रहा है यहां? इतनी जोर से म्यूजिक चला रखा है…और लोग भी हैं यहां बाजार में… यहां कोई ऐसे शोर नहीं करता,” वह बेकरी में घुसते ही चिल्लाई.
कबीर उस वक्त हाथों में दस्ताने डाले अंदर बनी एक छोटी सी किचन से बाहर निकल ही रहा था.
डोनट्स और साथ में गरमगरम कौफी… “बैठिये,” कहते हुए कबीर एक बार फिर से मुसकराया और अपने हाथों से बनाए ताजे डोनट्स 1 प्लेट में डालते हुए काव्या की ओर चला आया।
“एक बार टेस्ट कर के देखिए… वहां की बेकरी दुकान को भूल जाएंगी,” कबीर ने जानबूझ कर काव्या की बेकरी की तरफ देखते हुए तंज मारा.
“यह शोर बंद करवाओ,” काव्या उसे इग्नोर करती हुई बोली.
उस का चेहरा गुस्से से लाल हुआ जा रहा था. काजल लगी उस की काली आंखें, माथे पर एक छोटी सी बिंदी और पोनी में बंधे उस के बाल… कबीर कुछ देर उसे निहारता रहा.
“बहरे हैं क्या? या ऊंचा सुनते हैं? यह शोर बंद कराइए,” काव्या इस बार जोर से चिल्लाई।
कबीर ने एक कारीगर को इशारा किया और अगले ही पल संगीत का शोर बंद हो गया.
काव्या वापस जाने को मुड़ी ही थी कि कबीर ने उसे रोका,”फिल्म ‘मोहब्बतें’ वाली अमिताभ बच्चन हैं क्या आप जो परिवर्तन पसंद नहीं आप को?”
“मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है आप की इन फुजूल बातों में। बस यह शोर बंद करिए और मुझे मेरा काम करने दीजिए,” वह कबीर को घूरते हुए बोली.
“हां जरूर कीजिए आप अपना काम… जाइएजाइए…आप की बेकरी में बहुत सारे और्डर्स आप का इंतजार कर रहे हैं। कितने लोग बैठे हैं वहां?” कबीर इशारा करता हुआ बोला और फिर ठहाका लगा कर हंसने लगा.
काव्या को कबीर अपना प्रतिद्वंद्वी तो लगता ही था, उस का बारबार काव्या पर तंज कसना उसे जरा भी नहीं सुहाता। एक दिन तो हद ही कर दी उस ने.
शहर का पुराना और ऐतिहासिक वार्षिक उत्सव अगले महीने आने को था और सभी ओर गहमागहमी फैली हुई थी.
कोविड के चलते पिछले साल से बेनूर पड़े बाजारों में इस साल वैक्सीन आने के बाद से रौनक वापस लौटने लगी थी.
नगरपालिका द्वारा आयोजित रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन इस साल होना ही था और इसी कार्यक्रम में हर साल एक बड़ा और्डर काव्या की बेकरी से जाता था.
यह बाबूजी के अच्छे व्यवहार और ताल्लुकात ही थे, जिस की वजह से उन की निगरानी में तैयार 1-1 सामान का जैसे नगरपालिका के अफसरों को भी इंतजार रहता था.
यही सोचसोच कर काव्या की नींद उड़ी हुई थी। घड़ी का पैंडुलम टनटन करते हुए दाएंबाएं झूल रहा था और काव्या अपने कमरे में बाबूजी की पुरानी कुरसी पर बैठी सोच में डूबी हुई थी.
‘क्या इस बार वे लोग और्डर हमें देंगे?’ ‘बाबूजी के जाने के बाद शायद अब वह बात नहीं रही हमारी बेकरी में।’ ‘मल्होत्रा बेकर्स की वजह से भी नुकसान हो ही रहा है।’ ‘अगर बाबूजी होते तो यह सब न होता। हम दोनों मिल कर इस बेकरी को अच्छे से चलाते…’
ऐसे न जाने कितने ही सवाल घड़ी के उस पैंडुलम की तरह उस के दिमाग के एक सिरे से दूसरे सिरे तक झूलते जा रहे थे.
अगली सुबह वह उठी तो सिर कुछ भारी सा था और आंखें लाल. कौफी के साथ एक पेनकिलर हलक से अंदर धकेलते हुए उस ने नगरपालिका जाने का मन बनाया और फिर जल्दी से नहाने चली गई।
“नमस्ते अंकल, पहचाना मुझे? काव्या… काव्या शर्मा… शर्मा बेकर्स वाले… उन की बेटी हूं मैं,” काव्या नगरपालिका के एक अफसर के सामने हाथ जोड़ती हुई बोली।
“अरे आओ बेटी, आओ बैठोबैठो… तुम्हारे पिता से तो हमारे पुराने संबंध रहे हैं। बहुत याद आती है उन की,” अफसर बाबू ने अपनी नाक से चश्मा नीचे करते हुए जवाब दिया.
काव्या ने बिना वक्त गंवाए वहां आने का कारण बताया तो अफसर बाबू ने चश्मा वापस अपनी नाक पर चढ़ा ली,”बेटी, मैं पूरी कोशिश करूंगा पर इस बार ऊपर से दबाव बहुत है… वह मल्होत्रा बेकर्स वाले का लड़का भी अभी साहब से…अरे वह देखो वह बाहर…”
काव्या ने पलट कर देखा तो बाहर कबीर बड़े साहब से हंसते हुए विदा ले रहा था. काव्या का दिल बैठने लगा.
“अंकल, मैं फिर आउंगी,” कहते हुए वह दौड़ती हुई बाहर निकल आई.
कबीर अभी कुछ आगे ही पहुंचा था कि काव्या ने उसे धरदबोचा.
“अब तुम यहां भी पहुंच गए?”
कबीर उसे वहां देख कर कुछ पल को चौंक सा गया फिर खुद को संभालता हुआ उसी मजाकिया अंदाज में बोला,”अब मेरे घूमनेफिरने में भी ऐतराज है आप को?”
“मैं अच्छे से जानती हूं तुम यहां क्यों आए हो… हर साल और्डर हमारी ही बेकरी को मिलता आया है और इस बार भी मिलेगा,” वह आंखें दिखाती हुई बोली.
“और्डर तो उस को ही मिलेगा जिसे मिलना है। वैसे अब शहर में परिवर्तन की हवाएं चलने लगी हैं, काव्याजी,” कबीर ने एक बार फिर मुसकराते हुए जवाब दिया.
एक शाम काव्या दुकान के अंदर थी कि तभी जोरदार बारिश से दुकान में पानी भरने लगा। मगर यह क्या? उस की नजरें अचानक उठीं तो सामने कबीर खङा था। आखिर क्या चाहता था वह.
आसमान में बादल यों फैलने लगे थे जैसे कोरी आंखों में काजल फैल जाता है. कबीर की बेकरी में इस बार फिल्म ‘मोहब्बतें’ की वायलिन वाली वही मशहूर धुन बज रही थी.
कुछ ही देर में हलकी बौछारें पड़ने लगीं जो देखते ही देखते तेज होने लगी थी. काव्या इस वक्त बेकरी में अकेली थी और बहीखातों में उलझी हुई थी, जहां कमाई कम और खर्चे ज्यादा दिखाई दे रहे थे।
मुड़ेतुड़े बहीखातों के पन्नों की परछाईं उस की पेशानी पर देखी जा सकती थी.
तभी अचानक बेकरी के ऊपर लगी प्लास्टिक की छत का एक हिस्सा नीचे आ गिरा जिस से बारिश का सारा पानी एकदम बेकरी के अंदर घुस आया.
“ओह…” काव्या बहीखाते तेजी से बंद करते हुए दरवाजे की ओर भागी. बाहर तिरछी पड़ती बारिश की बौछारों ने उसे पूरा भिगो दिया.
पानी तेजी से अंदर घुसने लगा था। काव्या परेशान सी कभी बाहर देखती तो कभी अंदर नजरें दौड़ाती. उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था.
राजू और गणपत बाजार गए हुए थे और सारा सामान यों ही बिखरा पड़ा था. कहीं ब्रैड के स्लाइस तो कहीं बिस्कुट के पैकेट्स, कहीं केक और पैटीज तो कहीं पैस्ट्री के डब्बे… सब पानी में मिल कर खराब होने को ही थे कि तभी अचानक से कबीर तेजी से दौड़ता हुआ अंदर दाखिल हुआ और काव्या के सामने आ खड़ा हुआ.
“”मुझे थैंक यू बाद में बोलिएगा पहले बिस्कुट के पैकेट्स संभालिए, तब तक मैं बाकी सामान देखता हूं,” कहते हुए वह बिना वक्त गंवाए काम पर लग गया।
काव्या भी बिना कुछ सोचे अपने काम में लग गई। बारिश बढ़ती जा रही थी और पानी अंदर घुसता जा रहा था। पर कबीर ने अकेले ही काफी हद तक सामान को बरबाद होने से बचा लिया था।
तभी अचानक एक जोरदार धमाके के साथ कुछ ही दूरी पर खड़ा ट्रांसफौर्मर भी जल गया और सारा बाजार अंधेरे में समा गया.
“सब से पहले इस का इलाज करना होगा,” कहते हुए कबीर जेब से लाइटर निकाल कर आगे बढ़ गया।
उस ने जमीन पर गिरी प्लास्टिक की उस छत को उठाया और साथ गिरे बांस के मोटे से डंडे पर दोबारा चढ़ाते हुए सीधा खड़ा कर दिया।
“अब और पानी अंदर नहीं आएगा,” कहते हुए कबीर अपनी गीली आस्तीन फोल्ड करने लगा और एक नजर बेकरी के अंदर डाली।
“आज पहली बार अंदर आया हूं, कुछ खातिरदारी नहीं करेंगी? सुना है, बिस्कुट बढ़िया बनाती हैं आप? वैसे इस बार बिस्कुट का और्डर मल्होत्रा बेकर्स को ही मिलेगा क्योंकि…”
कबीर ने जानबूझ कर बात अधूरी छोड़ दी और मुसकराने लगा।
“आप ने जो हैल्प की उस की लिए थैंक यू पर आप को नहीं लगता आप जरूरत से ज्यादा ऐरोगैंट हैं?” काव्या गीले बालों को माथे पर से हटाते हुए बोली.
“कंपीटिटर हूं आप का अब, कंपीटिशन तो दूंगा ही,” कहते हुए कबीर उस की भीगी लटों को निहारने लगा, जिस में काव्या बेहद खूबसूरत नजर आ रही थी.
“तुम मेरे और इस बेकरी के दुश्मन हो पर मैं तुम्हारे इरादे पूरे नहीं होने दूंगी,” कहते हुए काव्या ने उसे बाहर का रास्ता दिखाया और पांव पटकती हुई बाकी का सामान समेटने लगी.
आज पहली बार काव्या ने कबीर की असलियत जानी। जिस कबीर को वह गलत समझती आई थी, वह तो कुछ और ही निकला.
‘तुझ संग बैर लगाया ऐसा, रहा न मैं फिर अपने जैसा…’ यह गीत मल्होत्रा बेकर्स में आज जोर से बज रहा था.
काव्या के पास रखा मोबाइल फोन बजा तो उस ने खीजते हुए एक नजर सामने मल्होत्रा बेकर्स पर डाली और दूसरी फोन की तरफ.
“जी अंकल कहिए?” कहते हुए उस ने मोबाइल कानों से सटा लिया पर अगले ही पल उस के चेहरे से जैसे सारी रंगत उड़ने लगी.
“क्या हुआ दीदी ?” राजू ने काव्या की ओर देखते हुए पूछा.
“पवन अंकल का फोन था नगरपालिका से। हमें और्डर मिला है पर सिर्फ पैटीज का बाकी का सारा और्डर वह कबीर हड़प कर…” रुंधे गले से काव्या बात पूरी भी नहीं कर सकी.
वह अगले ही पल बेकरी से बाहर आई और तेज कदमों से कबीर की बेकरी की ओर बढ़ने लगी.
“लानत है तुम पर… एक अकेली लड़की से कंपीटिशन करते हो? जीत गए तुम… खुश हो न अब? बजाओ जोर से अब अपना यह संगीत,” कहते हुए काव्या ने सामने रखे म्यूजिक प्लेयर का साउंड और बढ़ा दिया.
‘तुझ संग बैर लगाया ऐसा, रहा न मैं फिर अपने जैसा…’ गीत हवाओं में फिर से तैरने लगा और उधर चुप खड़े कबीर के लबों पर मुसकान भी तैरने लगी.
नगरपालिका द्वारा आयोजित कार्यक्रम का दिन भी आखिर आ ही गया।
सारे बाजार में उस दिन एक अलग ही उन्माद था. हर चेहरे पर रौनक, खुशी, उत्साह। बस, एक काव्या थी जिस के चेहरे से नूर कोसों दूर था.
बुझे मन से वह पैटीज तैयार करने में लगी हुई थी. पैटीज पैक करते हुए उसे ऐसा लग रहा था जैसे यह बेकरी अब धीरेधीरे उस के हाथों से निकलती जा रही है.
“राजू मैं कुछ देर के लिए घर जा रही हूं। शाम 4 बजे तक डिलीवरी देनी है नगरपालिका में….मैं 3 बजे तक आ जाउंगी,” कहते हुए वह बेकरी से बाहर आ गई.
घर पहुंच कर कमर सीधी किए हुए उसे अभी आधा घंटा ही हुआ था कि अचानक उस के मोबाइल पर राजू का नंबर चमकने लगा.
“क्या…? कैसे…?” मोबाइल उस के हाथों से छूटतेछूटते बचा। दुपट्टा हाथ में लिए उस ने बिना वक्त गंवाए बेकरी की तरफ दौड़ लगा दी।
“दीदी, बेकरी में शौर्टसर्किट हुआ…” गणपत ने भागते हुए उसे बताया. आग ने अंदर काफी हद तक नुकसान पहुंचा दिया था। काफी सामान बरबाद हो चुका था और साथ ही नगरपालिका का वह पैटीज का और्डर भी.
शाम के 5 बज चुके थे और अब आग पर काबू पा लिया गया था. काव्या पवन अंकल से माफी मांगने नगरपालिका के दफ्तर पहुंची।
रुआंसी आवाज में वह पवन अंकल से कुछ बोलने को हुई ही थी कि वे पहले ही बोल पड़े,”बेटी वाह, बहुत अच्छी सर्विस है तुम्हारी। आज सुबह ही मल्होत्रा बेकर्स ने और्डर समय पर पूरा न कर सकने के लिए माफी मांगते हुए फोन किया और फिर कबीर मल्होत्रा ने खुद ही तुम्हारा नाम देते हुए तुम्हारी बेकरी से और्डर डिलीवर भी करवा दिया।”
“मेरी बेकरी से?” काव्या को अपने कानों पर जैसे विश्वास नहीं हुआ।
“हां बेटी, उस ने कहा कि उस की तुम से बात हो गई है। वह सिर्फ पैटीज ही नहीं, बल्कि सारा और्डर तुम्हारे यहां से बनवा कर खुद डिलीवरी दे जाएगा,” कहते हुए पवन अंकल ने चश्मा मेज पर रख दिया.
काव्या की आंखें फिर से भर आईं पर इस बार ये आंसू कुछ और ही बयां कर रहे थे. वह बेकरी वापस पहुंची ही थी कि सामने कबीर खड़ा मुसकरा रहा था.
“थैंक यू,” कबीर के करीब आते हुए काव्या के मुंह से बमुश्किल ये लफ्ज निकले. अनजाने में वह कबीर का हाथ थामे खड़ी थी.
“तुझ संग बैर लगाया ऐसा, रहा न मैं फिर अपने जैसा…” गुनगुनाते हुए कबीर अपने लबों पर मुसकराहट लिए अपनी बेकरी में दाखिल हो गया।