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कहानी: शिकस्त

शफिया मोहब्बत व यकीन के सहर में डूबी हुई थी, इसलिए शायद सचाई देख नहीं पाई. लेकिन, अपनी इज्जत और अहं को उस ने मोहब्बत के पैरों तले कुचलने नहीं दिया.

अपनों के हाथों छले जाने का गम व्यक्ति को ताउम्र दर्द देता है. शफिया मोहब्बत व यकीन के सहर में डूबी हुई थी, इसलिए शायद सचाई देख नहीं पाई. लेकिन, अपनी इज्जत और अहं को उस ने मोहब्बत के पैरों तले कुचलने नहीं दिया.


ट्रेन के एयरकंडीशंड कोच में मैं ने मुंह धो कर सिर उठाया. बेसिन पर  लगे आईने में एक चेहरा और नजर आया जो कभी मेरा बहुत अपना था. बहुत प्यारा था. आज वक्त की दूरी बीच में बाधक थी. एक पल में मैं ने सोच लिया था कि मुझे क्या करना है. ब्रश उठा टौवल से मुंह पोंछते हुए अजनबियों की तरह उस के करीब से गुजरते हुए अपनी सीट पर आ कर बैठ गई. नाश्ता आ चुका था.


मैं ने ट्रे सामने रख कर नाश्ता करना शुरू कर दिया. कान उस की तरफ लगे हुए थे पर मिलने की या देखने की ख्वाहिश न थी.


कुछ देर बाद मुझे महसूस हुआ कि वह मेरी सीट के करीब रुकी है, मुझे देख रही है. मैं ने उचटती सी नजर उस पर डाली. उस के चेहरे पर उम्र की लकीरें, एक अजब सी थकन, सबकुछ हार जाने का गम साफ नजर आ रहा था. मैं नाश्ता करती रही. कुछ लमहे वह खड़ी रही, फिर अपनी सीट की तरफ बढ़ गई.


मैं ने चाय पी कर अधूरा नौवेल निकाला और खिड़की से टेक लगा कर पढ़ना शुरू कर दिया. पर किताब के शब्द गायब हो रहे थे. उन की जगह यादों की परछाइयां हाथ थामे खड़ी थीं. मेरा अतीत किसी जिद्दी बच्चे की तरह मेरी उंगली खींच रहा था, ‘चलो एक बार फिर वही हसीन लमहे जी लें,’ और न चाहते हुए भी मेरे कदम जानीपहचानी डगर पर चल पड़े…


हम 2 ही बहनें थीं. मैं बड़ी और मुझ से 12 साल छोटी आबिया. मम्मीपापा ने बड़े प्यार से हमारी परवरिश की थी. बेटा न होने का उन्हें कोई गम न था. मेरी पढ़ाई की हर जरूरत पूरी करना उन दोनों की खुशी थी. पढ़ने में मैं काफी अच्छी थी. शहर के मशहूर कौन्वैंट में पढ़ रही थी. जब मैं 8वीं में थी तो आबिया का जन्म हुआ था. उस की पैदाइश के बाद से मम्मी की कमर और घुटने में दर्द रहने लगा. धीरेधीरे आबी की सारी जिम्मेदारियां मुझ पर आती गईं.


वक्त हंसीखुशी गुजर रहा था. सोहा, जो पड़ोस में रहती थी, से मेरी खूब बनती थी. वह मेरी दोस्त थी. कभी मैं उस के घर पढ़ने चली जाती, कभी वह मेरे घर आ जाती. हम दोनों साथ पढ़ते और आबी को भी साथ रखते. वह सोहा से भी खूब घुलीमिली हुई थी.


दिन गुजरते रहे. मैं ने और सोहा ने फर्स्ट क्लास से बीएससी पास कर लिया. मम्मी का इरादा पोस्टग्रेजुएशन कराने का नहीं था क्योंकि उस की पढ़ाई के लिए बहुत दूर जाना पड़ता. सोहा के कहने पर मैं ने उस के साथ बीएड कोर्स जौइन कर लिया.


बीएड का रिजल्ट अभी आया भी नहीं था कि मेरे लिए एक बहुत अच्छा रिश्ता आ गया. लड़का एक अच्छी मल्टीनैशनल कंपनी में काम करता था. पापा के दोस्त का लड़का था. खानदान अच्छा था, देखेभाले लोग थे. रेहान ने किसी शादी में मुझे देख कर वहीं पर पसंद कर लिया था. इकलौता बेटा, पढ़ालिखा खानदान, इसलिए ज्यादा पूछपरख की जरूरत न थी.


पहला रिश्ता ही अच्छा आ जाए तो इनकार करना अच्छा नहीं माना जाता. सो, शादी की तैयारी शुरू हो गई. एमएससी करने की ख्वाहिश शादी की चमकदमक में कहीं नीचे दब गई.


मेरी विदाई के वक्त 7 वर्षीया आबिया का रोना मुझ से देखा नहीं जा रहा था क्योंकि वह मुझ से इतनी घुलीमिली थी कि उस की जुदाई के खयाल से मैं खुद रो पड़ती थी. सोहा ने उस का खूब खयाल रखने का वादा किया.


भीगी आंखों के साथ विदा हो कर मैं ससुराल आ गई. मेरी सास थीं, ससुर का देहांत कुछ महीने पहले ही हुआ था. रेहान का घर बहुत शानदार था. सास का मिजाज भी बहुत अच्छा था. वे खानेपीने की खूब शौकीन थीं. अच्छे खाने का शौक रेहान को भी था.


मम्मी की बीमारी की वजह से काफी छोटी उम्र में ही मैं किचन के काम करने में लग गई थी, इसलिए खाना बनाने में ऐक्सपर्ट हो चुकी थी. मेरी शादी के बाद मम्मी ने फुलटाइम कामवाली रख ली थी, जो खाना भी पकाती थी और आबिया के काम भी करती थी.


शादी के बाद 3-4 महीने तो जैसे पंख लगा कर उड़ गए, घूमनाफिरना, दावतें आदि. फिर जिंदगी अपने रूटीन पर आ गई. मेरी सास यों तो बहुत अच्छी थीं पर घर के कामों में उन की कोई दिलचस्पी न थी. कभीकभार कुछ मदद कर देतीं वरना उन का ज्यादा वक्त टीवी देखने और किताबें पढ़ने में गुजरता. मुझे कोई मलाल न था, मुझे काम करने की आदत थी. ऊपर का काम करने के लिए एक कामवाली भी थी.


शादी के 2 वर्षों बाद बेटा हो गया. घर में खुशी के संगीत बज उठे. मेरा भी खूब खयाल किया जाता. बेटे का नाम असद रखा गया. असद के आने के बाद मेरा मायके जाना काफी कम हो गया. छोटे बच्चे के साथसाथ घर का काम और मसरूफियत बढ़ती जा रही थी. वैसे, असद को तैयार कर के मैं सासुमां को थमा देती और सारे काम संभाल लेती थी.


असद 3 साल का था कि शीरी पैदा हो गई. अब तो जैसे मैं घनचक्कर बन गई. 2 बच्चे संभालना, घर का काम करना मुश्किल होने लगा. रेहान ने मेरी परेशानी देख कर एक कुक का इंतजाम कर दिया. जैसेतैसे 3-4 महीने सब ने


उस के हाथ का खाना बरदाश्त किया. फिर उसे हटा दिया. सास ने बच्चों की जिम्मेदारी ले ली, मैं ने किचन संभाल लिया.


रेहान मेरा बहुत खयाल रखते थे. जन्मदिन, एनिवर्सिरी सब याद रखते, बाकायदा तोहफे लाते, बाहर ले जाते. बस, घर के काम से बेहद जी चुराते. उन के औफिस जाने के बाद कमरे का हाल यों होता जैसे वहां घमासान हुआ हो. बिखरे कपड़े, जूते, टाइयां. जब कोई चीज नहीं मिलती तो अलमारी का सारा सामान बाहर आ जाता और मैं समेटतेसमेटते परेशान हो जाती. पर धीरेधीरे मैं इस की आदी हो गई. मगर इन सब के बीच मेरा वजूद, मेरे शौक, मेरी ख्वाहिशें सब पीछे छूट गईं. महीनों ब्यूटीपार्लर जाना न होता. कपड़े जो हाथ लग गए, पहन लिए. कुछ इंतजाम करने की मुझे फुरसत ही नहीं मिलती थी.


शाफी, तुम पढ़ीलिखी हो, हिम्मत करो, बाहर निकलो और मामले की तहकीकात करो. अभी तक तुम भी मोहब्बत व यकीन के सहर में डूबी हुई थीं.

जिंदगी ठीक गुजर रही थी. मैं ने खुद को रेहान के हिसाब से ढाल लिया था. एक दिन सासुमां को घबराहट होने लगी, बेचैनी भी थी. उन्हें अस्पताल ले गई. दिल का दौरा पड़ा था. 2 दिनों तक ही इलाज चला, तीसरे दिन वे दुनिया छोड़ गईं.


सासुमां ने हमेशा मेरा बेटी की तरह खयाल रखा. मेरे बच्चों को वे बेहद प्यार करती थीं.


रेहान को भी मां की मौत का बड़ा शौक लगा. काफी चुप से हो गए. हर गम वक्त के साथ भरने लगता है. हम लोग भी धीरेधीरे संभलने लगे. हालात बेहतर होने लगे कि मेरे पापामम्मी का अचानक एक कार ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया. मैं रोतीबिलखती घर पहुंची. सारे रिश्तेदार जमा हुए. 10 दिन रह कर सब चले गए. रेहान की भी जौब थी, वे भी चले गए.


अब घर में मैं, बूआ और 15 साल की आबिया रह गए. कुछ समझ में नहीं आता था क्या करूं. रिश्ते के मेरे एक चाचा, जो पड़ोस में रहते थे, ने मुझे समझाया, ‘देखो बेटी, तुम जवान बहन को किसी के सहारे नहीं छोड़ सकतीं. तुम्हारी बूआ या मामा, किसी की भी आबिया की जिम्मेदारी लेने की मंशा नहीं है. उसे अकेले छोड़ा नहीं जा सकता, सो, तुम आबिया को अपने साथ ले जाओ. मैं तुम्हारा घर बेचने की कोशिश करता हूं. पैसे आधेआधे तुम दोनों के नाम पर जमा करा देंगे.’ मुझे उन की बात ठीक लगी. मैं ने रेहान को बताया और आबिया को ले कर घर आ गई. बूआ को एक अच्छा अमाउंट दिया, उन्होंने बहुत साथ दिया था.


वक्त बड़े से बड़े गम का मरहम है. मैं ने आबी का ऐडमिशन अच्छे स्कूल में करवा दिया. वैसे, पढ़ाई में उस का ज्यादा ध्यान नहीं लगता था. टीवी, फिल्म और फैशन उस के खास शौक थे. बचपन में मैं ने लाड़प्यार में बिगाड़ा था. फिर मम्मी भी उस की नजाकत व हुस्न देख कर उसे कुछ काम न करने देती थीं.


आबी के मेरे घर आने के बाद उस की जिम्मेदारी भी मेरे सिर पड़ गई. कहां तो मैं सोच रही थी कि आबी के आने से मेरा काम कुछ हलका हो जाएगा, यहां तो उलटा हुआ. उस के काम भी मुझे करने पड़ते. असद और शीरी के साथसाथ आबी की पढ़ाई, स्कूल की तैयारी में मैं बेहद थक जाती. कभी आबी को कुछ काम करने के लिए डांटती तो रेहान उस का पक्ष लेने लगते, ‘इतनी नाजुक सी गुडि़या है, थक जाएगी. उस के हाथ खराब हो जाएंगे.’ मैं हमेशा की तरह खामोश हो जाती और अपने काम में लग जाती.


वक्त इसी तरह गुजरता रहा. आबिया अब कालेज में आ गई, बेइंतहा हसीन, स्मार्ट और फैशनेबल.


एक सुबह मेरे लिए बड़ी खूबसूरत साबित हुई, अचानक मेरी दोस्त सोहा आ गई. वह कालेज में लैक्चरार थी. एक सैमिनार में शिरकत करने यहां आई थी. वह पूरा एक हफ्ता यहां रुकने वाली थी. उस दिन इतवार था, सोहा ने आते ही ऐलान कर दिया, ‘आज मैं और शाफिया सिर्फ बातें करेंगे, घर का सारा काम आबिया, रेहान और असद करेंगे.’ सब ने बात मान ली.


हम दोनों ऊपर के कमरे में आ गए और बातों में मगन हो गए. सोहा एक हफ्ता रही. वह रोज सुबह किचन में मेरी मदद करवाती. जाते वक्त बड़ी उदास थी, तनहाई में मुझे गले लगा कर बोली, ‘शाफिया, तुम बहुत सीधी और मासूम हो. हर कोई तुम्हारे जैसा फेयर नहीं होता.’


मैं नासमझी से उसे देखने लगी. उस ने धीरे से कहा, ‘पता नहीं क्यों तुम्हें महसूस नहीं हुआ वरना एक औरत की छठी इंद्रिय इन सब बातों से बड़ी जल्दी आगाह हो जाती है. शायद आबिया तुम्हारी बहन है, इसलिए तुम सोच नहीं सकीं. मुझे आबिया और रेहान के बीच कुछ गलत लगता है. घर में शाम से ले कर रात तक का वक्त दोनों साथ बिताते हैं. वे हंसते हैं, बतियाते हैं, शरारतें करते हैं और तुम किचन में घुसी, मसाले और पसीने में गंधाती, अच्छाअच्छा पका कर उन की खातिर करती रहती हो. वह एक बार भी उठ कर किचन में नहीं झांकती. पूरे वक्त रेहान के साथ, कभी उस के गले में झूल जाती है, कभी कंधे पर सिर रख कर बैठ जाती है. वह कोई बच्ची नहीं है, 18-19 साल की जवान लड़की है.


‘शाफिया, मैं ने उन दोनों की आंखों में मोहब्बत के शोले चमकते देखे हैं. रेहान घर में घुसते ही आबिया को आवाज देता है. तुम्हें खाना पकाने में मसरूफ कर वे दोनों बच्चों को ले कर कभी गार्डन चल देते हैं, कभी पिक्चर चले जाते हैं. तुम जरा याद करो, तुम कब रेहान के साथ घूमने गईर् थीं?’


सोहा की बातें सुन कर मेरे हाथपांव ठंडे पड़ गए. ऐसा लगा जैसे दिल गम की गहराइयों में उतर रहा है. मैं ने ध्यान से सोचा तो मुझे सोहा की बातों में सचाई नजर आने लगी. अब मुझे याद आ रहा था कैसे दोनों मुझे नजअंदाज करते थे. खानों की तारीफें कर के मुझे किचन में बिजी रखते और आबी और रेहान खूब मस्ती करते. दिखाने को बच्चों को शामिल कर लेते. बच्चों को भी अपने मजे व स्वार्थ की खातिर जिद्दी और मूडी बना दिया था. जब देखो तब टीवी, घूमनाफिरना और नएनए खानों की फरमाइशें. और मैं बेवकूफों की तरह उन की फरमाइशें पूरी करती रहती. मेरी आंखों से आबी के लिए अंधी मोहब्बत की पट्टी उतर रही थी. दिल में अजब सी तकलीफ होने लगी, समझ में नहीं आया किस से गिला करूं.


सोहा ने मुझे रोने दिया. जब जरा संभली तो उस ने पीठ सहलाते हुए कहा, ‘शाफी, इस के लिए तुम भी जिम्मेदार हो. तुम्हें आबी को इतनी छूट देनी ही नहीं चाहिए थी. तुम ने अपना हाल क्या बना रखा है. तुम्हारे खूबसूरत व चमकीले बाल कितने बेरंग और रूखे हो रहे हैं. स्किन देखो कैसी रफ हो रही है. तुम ने अपनेआप को काम और किचन में झोंक दिया. तुम्हारे पास अपने लिए एक घंटा भी नहीं है जो कभी ब्यूटीपार्लर जाओ या खुद को संवारो.’


मुझे अपनी लापरवाही और नादानी पर गुस्सा आ रहा था पर मैं कैसे अपनी बेटी जैसी बहन पर शक कर सकती थी? पर अब आंखें नहीं बंद की जा सकती थीं.


सोहा ने कहा, ‘शाफी, तुम पढ़ीलिखी हो, हिम्मत करो, बाहर निकलो और मामले की तहकीकात करो. अभी तक तुम भी मोहब्बत व यकीन के सहर में डूबी हुई थीं. उस से बाहर निकलो और देखो, दुनिया कितनी जालिम है. एक छोटी बहन अपनी मां जैसी बहन का घर उजाड़ सकती है. और रोने की जरूरत नहीं है ऐसे बेहिस लोगों पर. कीमती आंसू बहाने से कुछ हासिल न होगा. सचाई अगर वही है जो मैं कह रही हूं तो पूरे साहस और मजबूती से फैसला करो. अपनी इज्जत और अहं को मोहब्बत के पैरों तले कुचलने मत देना.’


न गुजर रहे थे. मैं ने खामोशी ओढ़ ली. फिर एक दिन रात के खाने के बाद जब सब टीवी देख रहे थे, मैं ने टीवी बंद कर दिया और रेहान से कहा, ‘रेहान, तुम ने रिश्तों को शर्मसार किया है.

सोहा चली गई और मुझे जैसे जलते अंगारों पर छोड़ गई. न मैं रो रही थी न बहुत गमजदा थी. बस, एक गुस्सा था, यकीन टूटने की तकलीफ थी. 2-3 दिन मैं बड़ी खामोशी व होशियारी से सारा खेल देखती रही. मुझे सोहा की बात पर यकीन आने लगा. चौथे दिन रेहान ने बताया कि वे 2 दिनों के लिए औफिस के काम से बाहर जा रहे हैं. उन के जाने के बाद आबी खामोश सी थी. वह ज्यादातर अपने ही कमरे में बंद रही. दूसरे दिन आबी कालेज, बच्चे स्कूल चले गए. मैं ने रेहान के औफिस के सीनियर कलीग रहीम साहब को फोन किया. वे मेरे ससुर के रिश्ते के भाई थे. शादी के बाद 2-3 बार मिलने आए थे. बहुत ही नेक इंसान हैं. मैं ने कहा, ‘आप से कुछ काम है, जरा घर आ जाइए.’ एक घंटे बाद वे मेरे सामने बैठे थे.


मैं ने सारे लिहाज छोड़ कर कहा, ‘चाचा, मैं रेहान को ले कर परेशान हूं. मुझे लगता है रेहान की कहीं और इन्वौल्वमैंट है. आप साथ रहते हैं, आप को कुछ पता होगा?’ रहीम साहब कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले, ‘बेटी, मैं खुद असमंजस में था कि तुम्हें बताऊं या नहीं. अच्छा हुआ, तुम ने ही पूछ लिया. एक बड़ी खूबसूरत, नाजुक सी लड़की रेहान से मिलने औफिस आती है. फिर दोनों साथ चले जाते हैं. कई बार उन दोनों को रैस्टोरैंट और सिनेमाहौल में देखा है. मैं ने बहुत सोचा रेहान को टोक दूं पर अब वह मुझ से पहले जैसे संबंध नहीं रखता, इसलिए मैं खामोश रहा.’ मैं ने रहीम साहब से कहा, ‘आप मुझ से मिले हैं, यह बात रेहान को न बताना.’ वे लौट गए. अब शक यकीन में बदल गया.


रेहान के लौटने पर मैं ने उन से कुछ नहीं कहा. मैं बहुत सोचसमझ कर कोई कदम उठाना चाहती थी. एक तरफ खाई थी तो दूसरी तरफ कुआं. मैं ने अपने व्यवहार में कोई फर्क नहीं आने दिया बल्कि पहले से ज्यादा अच्छे खाने बना कर खिलाती, खूब खयाल रखती. उस दिन छुट्टी थी, सभी घर पर थे.


शाम को मैं अपनी दोस्त की शादी की एनिवर्सरी का कह कर घर से निकल गई और कह दिया खाना खा कर लेट आऊंगी. वह मुझे छुड़वा देगी. वह हमारी कालोनी में ही रहती है.


मैं कुछ देर अपनी सहेली के पास बैठ कर वापसी के लिए निकल गई. अंधेरा फैल रहा था. निकलने से पहले मैं ड्राइंगरूम व बैडरूम की खिड़कियां थोड़ी खुली छोड़ आई थी. दबेपांव मैं गार्डन में दाखिल हुई. धीमेधीमे चल कर ड्राइंगरूम की खिड़की के पास गई. दोनों बच्चे जोरशोर से गेम खेल रहे थे. बैडरूम की तरफ गई, अंदर झांका, आबी बैड से टेक लगाए बैठी थी, रेहान उस की गोद में सिर रखे लेटे थे. वह उन के बालों से खेल रही थी और मीठी आवाज में कह रही थी, ‘रेहान, अब इस तरह रहना मुश्किल है. हम कब तक छिपछिप कर मिलते रहेंगे. अब तुम्हें फाइनल डिसीजन लेना होगा.’


रेहान ने उसे दिलासा दिया, ‘मैं खुद यही सोच रहा हूं. मैं तुम से दूर नहीं रह सकता. एकएक पल भारी है. मैं जल्द ही कुछ करता हूं.’


मुझे लगा जैसे पिघला हुआ सीसा किसी ने मेरे कानों में उड़ेल दिया है. इतने सालों की मोहब्बत, खिदमत, वफादारी सब बेकार गई. मैं रेहान के 2 बच्चों की मां थी. आबी मेरी जान से प्यारी बहन थी. रिश्तों ने यह कैसा फरेब किया था? सब पर हवस ने कालिख मल दी थी. कुछ देर मैं बाहर ही टहलती रही, खुद को समझाती रही. सबकुछ खो देने का एहसास जानलेवा था.


मैं ने घंटी बजाई. रेहान ने दरवाजा खोला. मुझे देख कर हड़बड़ा गए, ‘अरे, तुम तो देर से आने वाली थीं न.’ मैं ने उन की आंखों में देखते हुए कहा, ‘सिर में तेज दर्द हो रहा था, इसलिए जल्दी आ गई.’ आबी भी परेशान हो गई. मैं ने कुछ जाहिर नहीं किया. एक कप दूध पी कर लेट गई.


दिन गुजर रहे थे. मैं ने खामोशी ओढ़ ली. फिर एक दिन रात के खाने के बाद जब सब टीवी देख रहे थे, मैं ने टीवी बंद कर दिया और रेहान से कहा, ‘रेहान, तुम ने रिश्तों को शर्मसार किया है. मैं ने कभी सोचा भी न था आप मेरी बेटी जैसी बहन के इश्क में पागल हो जाएंगे. एक पल को आप को अपने बच्चे, अपने खानदान का खयाल नहीं आया. आप को यह तो मालूम होगा कि बीवी के जिंदा रहते हुए उस की बहन से निकाह हराम है. आप आबिया से शादी कैसे कर सकते हैं?’


दोनों बदहवास से मुंह खोले मुझे देख रहे थे. उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मैं इस तरह एकदम सीधा वार करूंगी.


‘बोलिए, आप का निकाह आबिया से कैसे जायज होगा?’


आबिया ने जवाब दिया, ‘जब रेहान आप को तलाक दे देंगे तो निकाह जायज होगा?’


मेरी मांजाई कितने आराम से मुझे मेरी बरबादी की खबर दे रही थी. मैं ने उसे कोई जवाब नहीं दिया. रेहान से मैं ने कहा, ‘आप मुझे तलाक नहीं देंगे.’ रेहान परेशान से लहजे में बोले, ‘शाफी, मैं तुम्हें तलाक नहीं देना चाहता पर तलाक के बिना शादी हो ही नहीं सकती. मैं मजबूर हूं. तलाक के बाद भी मैं तुम्हारा पूरा खयाल रखूंगा. तुम अलग ऊपर गेस्टरूम में रहना, खर्चा पूरा मिलेगा. तुम फिक्र न करो.’


मैं ने तीखे लहजे में कहा, ‘रेहान, मुझे तुम्हारी हमदर्दी की जरूरत नहीं है. तुम को तलाक देने की भी जरूरत नहीं है. मैं कोर्ट में खुला (जब औरत खुद शौहर से अलग होना चाहती है और खर्चा व मेहर मांगने का हक नहीं रहता) की अर्जी दे चुकी हूं. आप के औफिस लैटर आ चुका होगा. 2 दिनों बाद पहली पेशी है. आप को कोर्ट चलना होगा.’


आबी और रेहान के चेहरे सफेद पड़ गए. उन लोगों ने सोचा भी नहीं होगा कि मैं इतना बड़ा कदम इतनी जल्दी उठा लूंगी. मैं ने बच्चों की तरफ देखा. दोनों कुछ परेशान से थे. मैं वहां से उठ कर ऊपर आ गई. घर में सन्नाटा पसर गया.


‘शाफी, जब तुम बेहतरीन खाने खिलाती थीं, घर संभालती थीं, सब की खिदमत करती थीं, इश्क एक शगल की तरह लगता. सारी जरूरतें पूरी होते हुए एक नखरीली महबूबा किसे बुरी लगती है?

2 दिनों बाद मैं वक्त पर तैयार हो कर बाहर निकली. रेहान को लैटर मिल चुका था. उन्होंने कार का दरवाजा खोला. मैं ने कहा, ‘रेहान, जब रास्ते अलग हो रहे हैं तो फिर साथ जाने का कोई मतलब नहीं है. आप जाइए, मेरी टैक्सी आ रही है, मैं कोर्ट पहुंच जाऊंगी.’


कोर्ट में जज ने हम दोनों की बात ध्यान से सुनी. ‘खुला’ की वजह मेरे मुंह से जान कर जज ने हिकारतभरी नजर रेहान पर डाली और कहा, ‘रेहान साहब, जो कुछ आप कह रहे हैं वह ठीक नहीं है. 11-12 साल की खुशगवार जिंदगी को एक गलत ख्वाहिश के पीछे बरबाद कर रहे हैं. मैं आप दोनों को सोचने के लिए एक हफ्ते का टाइम देता हूं. दूसरी पेशी पर फैसला हो जाएगा.’ रेहान ने सिर झुका लिया.


कोर्ट से आ कर मैं ने टेबल पर बेहतरीन खाना लगाया जो मैं पका कर गई थी. मैं बच्चों से बातें करती रही, फिर गेस्टरूम में आई. पूरे वक्त हमारे बीच खामोशी रही. आबी कुछ कहना चाहती, तो मैं वहां से हट जाती. हफ्ताभर मैं एक से बढ़ कर एक मजेदार खाने बना कर खिलाती रही. रेहान के चेहरे पर फिक्र की लकीरें गहरी हो रही थीं. आखिरी दिन मुझे रोक कर बोले, ‘शाफी, मुझे तुम से कुछ बात करनी है.’ रेहान ठहरे हुए गंभीर लहजे मेें आगे बोले, ‘देखो शाफी, हमारा इतना दिनों का साथ है, मैं तुम्हें तनहा नहीं छोड़ना चाहता. तुम गेस्टरूम में रहो या मैं अलग घर का इंतजाम करवा दूंगा. बच्चों पर मेरा हक है पर तुम चाहो तो अपने साथ रखना. पर हम लोगों से दूर मत जाओ, करीब रहो.’


मैं ने दिल में सोचा, बच्चों की जिम्मेदारी मुझ पर डाल कर तुम दोनों ऐश करो. मैं ने गंभीर लहजे में कहा, ‘रेहान, मैं पहले भी कह चुकी हूं, मुझे आप के किसी एहसान की जरूरत नहीं है. और मैं आप का हक भी नहीं छीनना चाहती. आप के बच्चे आप के पास रहेंगे क्योंकि मैं उन्हें वह ऐशोआराम नहीं दे सकती जो आप के पास मिलेगा. मैं सिर्फ आप के घर, आप की जिंदगी से दूर हो जाऊंगी. मैं क्या करूंगी, कहां रहूंगी, इस की आप फिक्र न करें. यह मेरा सिरदर्द है.’


बेइंतहा ताज्जुब से सब मेरा चेहरा देख रहे थे जिस पर कोई जज्बात न थे, एकदम सपाट व बेजान. बेटा असद बोल उठा, ‘मम्मी, आप के जाने के बाद अच्छेअच्छे खाने कौन बनाएगा?’ असद भी बाप की तरह मतलबी था. उसे खाने की पड़ी थी, मां की परवा न थी. मैं ने कहा, ‘आप की नई मां बनाएगी और खिलाएगी.’ शीरी फौरन बोल पड़ी, ‘पर मम्मी, उन्हें तो कुछ पकाना नहीं आता है.’


मैं ने कहा, ‘तुम्हारे पापा की मोहब्बत में सब सीख जाएगी.’ असद को फिर परेशानी हुई. वह भी बाप की तरह लापरवाह और कामचोर था, आज तक अपने कपड़े उठा कर न रखे थे, न प्रैस किए थे, न अलमारी जमाई थी, न कमरा साफ किया था. सारे काम मैं ही करती थी. वह कह उठा, ‘मम्मी, हमारे सब काम कौन करेगा?’


‘तुम्हारी नई मम्मी करेगी. वह सब संभाल लेगी. वह संभालने में ऐक्सपर्ट है, जैसे आप के पापा को संभाल लिया.’


आज मुझे कोई लिहाज नहीं रहा था. दोनों के चेहरे शर्म से झुके हुए थे. फिर मैं ने बच्चों से कहा, ‘आप दोनों जैसी जिंदगी जीने के आदी हो वह आप के पापा ही बरदाश्त कर सकते हैं, मैं नहीं. पर आप दोनों जब चाहो, मुझ से मिलने आ सकते हो.’


दूसरे दिन सुबह ही सोहा कार ले कर आ गई. उसे देख कर मुझे एक साहस मिल गया. फोन पर रोज बात होती थी. हम दोनों साथ ही कोर्ट गए. आधा घंटे समझाइश व नसीहत के बाद खुला मंजूर हो गया. ज्यादा वक्त इसलिए नहीं लगा क्योंकि दोनों पक्ष पूरी तरह सहमत थे. और रहीम साहब भी कोशिश में साथ थे.


मैं ने घर पहुंच कर रेहान को मुबारकबाद दी. मैं ने अपना सामान पहले ही तैयार कर लिया था. सामान ले कर नीचे उतरी. जेवर के 2 डब्बे रेहान को देते हुए कहा, ‘ये दोनों सैट आप की तरफ से मिले थे. आप की नईर् बीवी को देने के काम आएंगे. आप रखिए, आप का दिया सब छोड़ कर जा रही हूं. मां की तरफ से मिली चीजें ले ली हैं. आप से एक गुजारिश है, अगर किसी मोड़ पर हम मिल जाएं तो मुझे आवाज मत देना.’ मैं ने बच्चों को प्यार किया, गले लगाया, दिल अंदर से बिलख रहा था पर मैं पत्थर बनी रही. आबी आगे बढ़ी. मैं ने उसे नजरअंदाज किया और सोहा के साथ बाहर आ गई.


उन लोगों के सामने एक आंसू आंख से गिरने न दिया, यह मेरी आन और खुद्दारी की हार होती. मैं सोहा के कंधे पर सिर रख बिलख पड़ी. सोहा ने कहा, ‘शाफी, आज जीभर कर रो लो. इस के बाद उस बेवफा इंसान के लिए मैं तुम्हें एक आंसू नहीं बहाने दूंगी.’


सोहा के शौहर राहिल बेहद नेक इंसान थे. उन की मां ने मुझे सगी मां की तरह अपनी आगोश में समेट लिया. उन्हीं के कमरे में मुझे सुकून मिलता. सोहा व उस का बेटा भी खूब खयाल रखते. मोहब्बत और अपनेपन के साए में 4 महीने गुजर गए. राहिल मेरी नौकरी और घर की तलाश में लगे रहे. रकम तो मेरे पास काफी थी. चाचा ने अम्मी का घर बेच कर आधी रकम मेरे खाते में डाल दी थी. सोहा की मल्टीस्टोरी बिल्ंिडग में मुझे सैकंड फ्लोर पर एक अच्छा फ्लैट मिल गया. मैं उस में शिफ्ट हो गई. मेरी कौन्वैंट की पढ़ाई काम आई. मुझे एक अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल में जौब मिल गई. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. धीरेधीरे जख्म भरने लगे. सोहा की फैमिली का बड़ा साथ था. अम्मा काफी वक्त मेरे पास बितातीं. मुझे एक अच्छी औरत काम के लिए मिल गई. मैं ने उसे घर में रख लिया.


उस दिन छुट्टी थी. मैं बूआ के साथ काम में लगी थी कि डोरबैल बजी. दरवाजा खोला. राहिल के साथ रेहान खड़े थे. मैं हैरान रह गई. अंदर आने को कहा. राहिल रेहान को छोड़ कर लौट गए. मैं ने रेहान को देखा. 2 साल में काफी फर्क आ गया था. चेहरे पर थकान, उम्र व बेजारी साफ झलक रही थी. कुछ बाल उड़ गए थे. बूआ पानी ले आईं. रेहान टूटे लहजे में बोले, ‘शाफी, मैं अपने किए पर बेहद शर्मिंदा हूं. मुझे अपने गलत काम की खूब सजा मिल रही है. बस, मुझे अब माफ कर दो.’


‘क्यों, ऐसा क्या हो गया. आप ने बड़े शौक से, बड़े अरमान से आबी से शादी की थी.’


‘हां, की थी. भूल थी मेरी, अब पछता रहा हूं. आबी बेहद फूहड़, कामचोर और निकम्मी है. काम से तो उस की जान जाती है. कुछ कहो तो कहती है ‘मैं तो पहले से ऐसी हूं तभी तो आप ने मुझ से इश्क किया. सुघड़, सलीकेमंद और घर संभालने वाली तो शाफी आपा थीं. आप ने उन्हें छोड़ कर मुझे क्यों अपनाया? आप तो मेरे ऐब जानते थे. शाफी आपा के सामने आप ही मुझे काम करने से रोकते थे. आप ही मेरे नाजनखरों और अदाओं पर फिदा थे.’


‘शाफी, जब तुम बेहतरीन खाने खिलाती थीं, घर संभालती थीं, सब की खिदमत करती थीं, इश्क एक शगल की तरह लगता. सारी जरूरतें पूरी होते हुए एक नखरीली महबूबा किसे बुरी लगती है? आज ये तल्ख हकीकत खुली कि तुम्हारे बिना घर जहन्नुम है. सारे काम नौकरों के भरोसे हैं. ज्यादातर होटल से खाना आता है. हम ने अपने ऐश की खातिर बच्चों को भी खूब सिर चढ़ाया. अब बेहद बदतमीज हो गए. बहुत ज्यादा मुंहफट. पूरे वक्त आबी से झगड़े होते रहते हैं. मुझे भी काम करने की आदत न थी. जब चीजें तैयार नहीं मिलतीं तो गुस्सा आता है. फिर आबी से लड़ाई हो जाती है. वह भी बराबरी से जबान चलाती है. चीखतीचिल्लाती है. शाफी, जिंदगी अजाब बन गई है. तुम मुझ पर रहम करो. मैं आबी को तलाक दे दूंगा. तुम मेरी जिंदगी में वापस आ जाओ. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’


मुझे यह एहसास था कि ऐसा होगा. आबी मेरी बहन थी, मैं उस के सारे ऐबों से वाकिफ थी. मैं ने सोचा था कालेज करने के बाद उसे घर के काम की बाकायदा ट्रेनिंग दूंगी. उस के पहले ही उस ने सब तहसनहस कर दिया. मैं ने रेहान की तरफ देखा. वह बेहद थका, टूटा हुआ इंसान लग रहा था.


मैं ने कहा, ‘रेहान, अब यह मुमकिन नहीं. आप से खुला लेने के बाद, आप का बेवफा रूप देखने के बाद मेरे दिल में आप के लिए जरा सी मोहब्बत नहीं है, न ही कोई इज्जत है.


‘मैं किसी कीमत पर आप की जिंदगी में दोबारा नहीं आ सकती. बच्चे एक बार रहीम चाचा के साथ मिलने आए थे. उन्हें मिलने भेज देना, मेहरबानी होगी. आप को अब आने की जरूरत नहीं है.’


नम आखें, झुके कंधे और लड़खड़ाते कदमों से रेहान लौट गए. अपने किए गए गुनाह के अजाब उन्हें ही समेटने थे. उन की बरबाद जिंदगी की खबरें मिलती रहती थीं. बच्चे आ कर मुझ से मिल जाते थे. रेहान को वापस गए भी 7-8 साल हो गए.


मैं 3 दिन पहले सोहा के भाई की बेटी की शादी में उस के साथ गई थी. वह वहीं रुक गई, मैं वहां से लौट रही थी कि आज बरसों बाद आबी को देखा. उसी ट्रेन के उसी कोच में वह भी सफर कर रही थी. उसे देख कर दुख हुआ पर मेरी उस से मिलने या बात करने की जरा भी ख्वाहिश न थी. जब मैं अपने स्टेशन पर उतरी, वह दूसरे गेट पर खड़ी मुझे देख रही थी. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. इन आंसुओं को पोंछने का हक वह मुझ से छीन चुकी थी.

 
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