कहानी: काश मेरी बेटी होती
घर वालों को जाति और धर्म में ध्यान में रखकर अपने बेटे की शादी करनी थी इसलिए दिक्कत आ रही थी.
जाति के बंधन को तोड़ जब ऋषभ ने अपनी पसंद मां शोभा के सामने रखी तो शोभा का दिल कई शंकाओं से भर गया. जाति से अलग लड़की से शादी की बात से वह कई पूर्वाग्रहों से घिर गई. पति सुकेश का ब्राह्मणवाद उस के आड़े आ गया और फिर…
‘‘यार तू बड़ी खुशनसीब है, तेरी बेटी है,’’ शोभा बोली, ‘‘बेटियां मातापिता का दुखदर्द हृदय से महसूस करती हैं.’’‘‘नहीं यार, मत पूछ, आजकल की बेटियों के हाल. वे हमारे समय की बेटियां होती थीं जो मातापिता, विशेषकर मां, का दुखदर्द शिद्दत से महसूस करती थीं. आजकल की बेटियां तो मातापिता का सिरदर्द बन कर बेटों से होड़ लेती प्रतीत होती हैं. तेरी बेटी नहीं है न, इसलिए कह रही है ऐसा,’’ एक बेटी की मां जयंति बोली, ‘‘बेटी से अच्छी आजकल बहू होती है. बेटी तो हर बात पर मुंहतोड़ जवाब देती है, पर बहू दिल ही दिल में भले ही बड़बड़ाए, पर सामने फिर भी लिहाज करती है, कहना सुन लेती है.’’
‘‘आजकल की बहुओं से लिहाज की उम्मीद करना… तौबातौबा. मुंह से कुछ नहीं बोलेंगी, पर हावभाव व आंखों से बहुतकुछ जता देंगी, रक्षा ने जयंति का प्रतिवाद करते हुए कहा, ‘‘जिन बेटियों का तू अभीअभी गुणगान कर रही थी, आखिर वही तो बहुएं बनती हैं, ऊपर से थोड़े ही न उतर आती हैं. ऐसा नाकों चने चबवाती हैं आजकल की बहुएं, बस, अंदर ही अंदर दिल मसोस कर रह जाओ. बेटे पर ज्यादा हक नहीं जता सकते, वरना बहू उसे ‘मां का लाड़ला’ कहने से नहीं चूकेगी.’’
शोभा दोनों की बातें मुसकराती हुई सुन रही थी. एक लंबा निश्वास छोड़ती हुई बोली, ‘‘अब मैं क्या जानूं कि बेटियां कैसी होती हैं और बहू कैसी. न मेरी बेटी, न बहू. पता नहीं मेरा नखरेबाज बेटा कब शादी के लिए हां बोलेगा, कब मैं लड़की खोजूंगी, कब शादी होगी और कब मेरी बहू होगी. अभी तो कोई सूरत नजर नहीं आती मेरे सास बनने की.’’
‘‘जब तक नहीं आती तब तक मस्ती मार,’’ रक्षा और जयंति हंसती हुई बोलीं, ‘‘गोल्डन टाइम चल रहा है तेरा. सुना नहीं, पुरानी कहावत है, पहन ले जब तक बेटी नहीं हुई, खा ले जब तक बहू नहीं आई. इसलिए हमारा खानापहनना तो छूट गया. पर तेरा अभी समय है बेटा. डांस पर चांस मार ले, मस्ती कर, पति के साथ घूमने जा, पिक्चरें देख, कैंडिललाइट डिनर कर, वगैरहवगैरह. बाद में नातीपोते खिलाने पड़ेंगे और बच्चों से कहना पड़ेगा, ‘जाओ घूम आओ, हम तो बहुत घूमे अपने जमाने में’ तो दिल तो दुखेगा न,’’ कह कर तीनों सहेलियां व पड़ोसिनें खिलखिला कर हंस पड़ीं और शोभा के घर से उन की सभा बरखास्त हो गई.
रक्षा, जयंति व शोभा तीनों पड़ोसिनें व अभिन्न सहेलियां थीं. उम्र थोड़ाबहुत ऊपरनीचे होने पर भी तीनों का आपसी तारतम्य बहुत अच्छा था. हर सुखदुख में एकदूसरे के काम आतीं. होली पर गुजिया बनाने से ले कर दीवाली की खरीदारी तक तीनों साथ करतीं. तीनों एकदूसरे की राजदार भी थीं और लगभग 15 वर्षों पहले जब उन के बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे थे. थोड़ा आगेपीछे तीनों के घर इस कालोनी में बने थे.
तीनों ही अच्छी शिक्षित महिलाएं थीं और इस समय अपने फिफ्टीज के दौर से गुजर रही थीं. जिस के पास जो था उस से असंतुष्ट और जो नहीं था उस के लिए मनभावन कल्पनाओं का पिटारा उन के दिमाग में अकसर खुला रहता.
लेकिन जो है उस से संतुष्ट रहने की तीनों ही नहीं सोचतीं. नहीं सोच पातीं जो उन्हें नियति ने दिया है कि उसे किस तरह से खूबसूरत बनाया जाए.
जयंति की एक बेटी थी जो कालेज के फाइनल ईयर में थी. रक्षा ने एक साल पहले बेटे का विवाह किया था और शोभा का बेटा इंजीनियर व प्रतिष्ठित कंपनी में अच्छे पद पर कार्यरत एक नखरेबाज युवा था. वह मां के मुंह से विवाह का नाम सुन कर नाकभौं सिकोड़ता और ऐसा दिखाता जैसे विवाह करना व बच्चे पैदा करना सब से निकृष्ठ कार्य एवं प्राचीन विचारधारा है और उस के जीवन के सब से आखिरी पायदान पर है. एक तरह से जब सब निबट जाएगा तो यह कार्य भी कर लेगा.
जयंति को अपनी युवा बेटी से ढेरों शिकायतें थीं, ‘घर के कामकाज को तो हाथ भी नहीं लगाती यह लड़की. कुछ बोलो तो काट खाने को दौड़ती है. कल को शादीब्याह होगा, तो क्या सास बना कर इसे खिलाएगी.’ जयंति पति के सामने बड़बड़ा रही होती. अपनी किताबों पर नजरें गड़ाए बेटी मां के ताने सुन कर बिफर जाती, ‘फिक्र मत करो, मु झे खाना बना कर कोई भी खिलाए. आप को तंग करने नहीं आऊंगी.’
बेटी तक आवाज पहुंच रही थी. बेवक्त झगड़े की आशंका से जयंति हड़बड़ा कर चुप हो जाती. पर बेटी का पारा दिल ही दिल में आसमां छू जाता. वह जब टाइट जीन्स और टाइट टीशर्ट डाल कर कालेज या कोचिंग के लिए निकलती तो जयंति का दिल करता कि जीन्स के ऊपर भी उस के गले में दुपट्टा लपेट दे. पर मन मसोस कर रह जाती. घर में जब बेटी शौर्ट्स पहन कर पापा के सामने मजे से सोफे पर अधलेटी हो टीवी के चैनल बदलने लगती तो जयंति का दिमाग भन्ना जाता, ‘आग लगा दे इस लड़की के कपड़ों की अलमारी को’ और उस के दोस्त लड़के जब घर आते तो वह एकएक का चेहरा बड़े ध्यान से पढ़ती. न जाने इन में से कल कौन उस का दामाद बनने का दावा ठोक बैठे.
रोजरोज घर को सिर पर उठा मां से झगड़ा करने वाली बेटी ने जब एक दिन प्यार से मां के गले में बांहें डालीं तो किसी अनहोनी की आशंका से जयंति का हृदय कांप गया. जरूर कोई कठिन मांग पूरी करने का वक्त आ गया है.
‘‘मम्मी, मेरे कुछ फ्रैंड्स कल लंच पर आना चाह रहे हैं. मैं ने उन्हें बताया है कि आप चाइनीज खाना कितना अच्छा बनाती हैं. बुला लूं न सब को?’’ वह मासूमियत से बोली. बेटी की भोलीभाली शक्ल देख कर जयंति का सारा लाड़दुलार छलक आया.
‘‘हांहां, बुला ले अपनी सहेलियों को. बना दूंगी मैं, कितनी हैं?’’‘‘मु झे मिला कर 8 दोस्त हो जाएंगे मम्मी. वे सारा दिन यहीं बिताने वाले हैं…’’ बेटी आने वालों के लिए गोलमाल जैंडर शब्द का इस्तेमाल करती हुई बोली. ‘‘ठीक है…’’
रक्षा की बहू भी तो कोई पुरानी फिल्मों की नायिका न थी. आखिर जयंति की बेटी जैसी ही एक लड़की रक्षा की बहू बन कर घर आ गई थी.
दूसरे दिन जयंति सुबह से बेटी की फरमाइश पूरी करने में लग गई. घर भी ठीक कर दिया. बेटी ने बाकी घर पर ध्यान भी नहीं दिया. सिर्फ अपना कमरा ठीक किया. ठीक 11 बजे घंटी बजी. दरवाजा खोला तो जयंति गिरतेगिरते बची. आगंतुकों में 4 लड़के थे और 3 लड़कियां. जिन लड़कों को वह थोड़ी देर भी नहीं पचा पाती थी, उन्हें उस दिन उस ने पूरा दिन झेला और वह भी बेटी के कमरे में. आठों बच्चों ने वहीं खायापिया, वहीं हंगामा किया और खापी कर बरतन बाहर खिसका दिए. जयंति थक कर पस्त हो गई.
बेटी फोन पर जब खिलखिला कर चमकती आंखों से लंबीलंबी बातें करती तो जयंति का दिल करता उस के हाथ से फोन छीन कर जमीन पर पटक दे. फोन से तो उसे सख्त नफरत हो गई थी. मोबाइल फोन के आविष्कारक मार्टिन कूपर को तो वह सपने में न जाने कितनी बार गोली मार चुकी थी. सारे झगड़े की जड़ है यह मोबाइल फोन.
बेटी कभी अपने दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाती तो कभी लौंगड्राइव पर. हां, इन मस्तियों के साथ एक बात जो उन सभी युवाओं में वह स्पष्ट रूप से देखती, वह थी अपने भविष्य के प्रति सजगता. लड़के तो थे ही, पर लड़कियां उन से अधिक थीं. अपना कैरियर बनाने के लिए उन्मुख उन लड़कियों के सामने उन की मंजिल स्पष्ट थी और वे उस के लिए प्रयासरत थीं. घरगृहस्थी के काम, विवाह आदि के बारे में तो वे बात भी न करतीं, न उन्हें कोई दिलचस्पी थी.
जयंति जब इन युवा लड़कियों की तुलना अपने समय की लड़कियों से करती तो पसोपेश में पड़ जाती. उस का जमाना भी तो कोई बहुत अधिक पुराना नहीं था पर कितना बदल गया है. लड़कियों की जिंदगी का उद्देश्य ही बदल गया. कभी लगता उस का खुद का जमाना ठीक था, कभी लगता इन का जमाना अधिक सही है. लड़केलड़कियों की सहज दोस्ती के कारण इस उम्र में आए स्वाभाविक संवेगआवेग इसी उम्र में खत्म हो जाते हैं और बच्चे उन की पीढ़ी की अपेक्षा अधिक प्रैक्टिकल हो जाते हैं.
पर फिर दिमागधारा दूसरी तरफ मुड़ जाती और वह शोभा व रक्षा के सामने अपनी बेटी को ले कर अपना रोना रोती रहती, उस के भविष्य को ले कर निराधार काल्पनिक आशंकाएं जताती रहती.
उधर, रक्षा की बहू भी तो कोई पुरानी फिल्मों की नायिका न थी. आखिर जयंति की बेटी जैसी ही एक लड़की रक्षा की बहू बन कर घर आ गई थी. अभी एक ही साल हुआ था विवाह हुए, इसलिए गृहस्थी के कार्य में वह बिलकुल अनगढ़ थी. हां, बेटाबहू दोनों एकदूसरे के प्यार में डूबे रहते. सुबह देर से उठते. बेटा भागदौड़ कर तैयार होता, मां का बनाया नाश्ता करता और औफिस की तरफ दौड़ लगा देता. थोड़ी देर बाद बहू भी चेहरे पर मीठी मुसकान लिए तैयार हो कर बाहर आती और रक्षा उसे भी नाश्ते की प्लेट पकड़ा देती. बहू के चेहरे पर दूरदूर तक कोई अपराधबोध न होता कि उसे थोड़ा जल्दी उठ कर काम में सास का हाथ बंटाना चाहिए था. इतना तो उस के दिमाग में भी न आता.
रक्षा सोचती, ‘‘चलो सुबह न सही, अब लंच और डिनर में बहू कुछ मदद कर देगी. पर नाश्ते के बाद बहू आराम से लैपटौप सामने खींचती और डाइनिंग टेबल पर बैठ कर नैट पर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने में व्यस्त हो जाती. वह अपनी लगीलगाई नौकरी छोड़ कर आई थी, इसलिए अब यहां पर नौकरी ढूंढ़ रही थी.
पायल छनकाती बहू का ख्वाब देखने वाली रक्षा का वह सपना तो ढेर हो चुका था. बहू के वैस्टर्न कपड़े पचाने बहुत भारी पड़ते थे. शुरूशुरू में आसपड़ोस की चिंता रहती थी, पर किसी ने कुछ न कहा. सभी अधेड़ तो इस दौर से गुजर रहे थे. वे इस नई पीढ़ी को अपनी पुरानी नजरों से देखपरख रहे थे. बेटा शाम को औफिस से आता तो रक्षा सोचती कि बहू उन के लिए न सही, अपने पति के लिए ही चाय बना दे. पर बेटा जो कमरे में घुसता, तो गायब हो जाता. कभी दोनों तैयार हो कर बाहर आते, ‘मम्मी, हम बाहर जा रहे हैं. खाना खा कर आएंगे.’ उस के उत्तर का इंतजार किए बिना वे निकल जाते और रक्षा इतनी देर से मेहनत कर बनाए खाने को घूरती रह जाती, ‘पहले नहीं बता सकते थे.’’
बेटे के विवाह के बाद उस का काम बहुत बढ़ गया था. आई तो एक बहू ही थी पर उस के साथ एक नया रिश्ता आया था, रिश्तेदार आए थे. जिन को सहेजने में उस की ऐसी की तैसी हो जाती थी. बेटेबहू के अनियमित व अचानक बने प्रोग्रामों की वजह से उस की खुद की दिनचर्या अनियमित हो रही थी. अच्छी मां व सास बनने के चक्कर में वह पिस रही थी. बच्चों की हमेशा बेसिरपैर की दिनचर्या देख कर उस ने बच्चों को घर की एक चाबी ही पकड़ा दी कि वे जब भी कहीं जाएं तो चाबी साथ ले कर जाएं. क्योंकि उन की वजह से वे दोनों कहीं नहीं जा पाते. रसोई में मदद के लिए एक कामवाली का इंतजाम किया. तब जा कर थोड़ी समस्या सुल झी. अब बहू को नौकरी मिल गई थी. सो, वह भी बेटे के साथ घर से निकल जाती और उस से थोड़ी देर पहले ही घर आती व सीधे अपने कमरे में घुस कर आराम करती.
रक्षा सोचती, ‘मजे हैं आजकल की लड़कियों के. शादी से पहले भी अपनी मरजी की जिंदगी जीती हैं और बाद में भी. एक उस की पीढ़ी थी, पहले मांबाप का डर, बाद में सासससुर और पति का डर और अब बेटेबहू का डर. आखिर अपनी जिंदगी कब जी हमारी पीढ़ी ने?’ रक्षा की सोच भी जयंति की तरह नईपुरानी पीढ़ी के बीच झूलती रहती. कभी अपनी पीढ़ी सही लगती, कभी आज की.
उन की खुद की पीढ़ी ने तो विवाह से पहले मातापिता की भी मौका पड़ने पर जरूरत पूरी की. संस्कारी बहू रही तो ससुराल में सासससुर के अलावा बाकी परिवार की भी साजसंभाल की और अब बहूबेटों के लिए भी कर रहे हैं. कल इन के बच्चे भी पालने पड़ेंगे.
शिक्षित रक्षा सोचती, आखिर महिला सशक्तीकरण का युग इसी पीढ़ी के हिस्से आया है. पर उन की पीढ़ी की महिलाएं कब इस सशक्तीकरण का हिस्सा बनेंगी जिन पर पति नाम के जीव ने भी पूरा शासन किया, रुपए भी गिन कर दिए, जबकि, खुद ने अच्छाखासा कमा लाने लायक शिक्षा अर्जित की थी.
तेरी पसंद अच्छी होगी तो क्यों नहीं पसंद करेंगे. पर तू विस्तार से बताएगा उस के बारे में.’’ ‘‘क्या सुनना है आप को? लड़की सुंदर है, शिक्षित है. मेरी तरह इंजीनियर है.
‘‘कैसा महिला सशक्तीकरण?’’ वह आश्चर्य से कहती और जयंति व शोभा के आगे बड़बड़ा कर अपनी भड़ास निकालती. उस की यह विचारधारा उन दोनों शिक्षित महिलाओं को भी प्रभावित करती, पर बाहरी तौर पर. क्योंकि, वे सीधीतौर पर तीसरी पीढ़ी से अभी प्रभावित नहीं हो रही थीं. पर शोभा उन दोनों के अनुभव सुनसुन कर बहू के बारे में तरहतरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो बैठी थी.
पहले तो बेटा ही इतना नखरेबाज था, ऊपर से बहू न जाने कैसी हो. बहू की मनभावन काल्पनिक तसवीर उस ने अपने मस्तिष्क के कैनवास से पूरी तरह मिटा दी थी. रक्षा ठीक कहती है, आजकल की ऐसी बिगड़ैल बेटियां ही तो बहुएं बन रही हैं. आखिर, ऊपर से थोड़े ही न उतरेंगी. उस का वर्षों का मासूम सा सपना भी दिल ही दिल में दम तोड़ चुका था. जब वह सोचा करती थी कि काश, उस की भी बेटी होती. बेटी तो नहीं हुई पर बड़े होते बेटे को देख कर वह नन्हा सा ख्वाब पालने लगी थी कि उस की प्यारी सी बहू आएगी और उस का वर्षों का बेटी का सपना पूरा हो जाएगा. पर रक्षा की बातों से उस ने यह उम्मीद भी छोड़ दी थी.
अब वह मन ही मन हर आने वाले संकट के लिए तैयार हो गई थी. वह उम्र में उन दोनों से थोड़ी छोटी थी. पति की अच्छी आय के चलते उस का घर भी उन दोनों से बड़ा था. उस ने सोच लिया था कि बहू के साथ ज्यादा मुश्किल हुई तो बेटेबहू को ऊपर के पोर्शन में शिफ्ट कर देगी. रक्षा सही कहती है हमारे लिए महिला सशक्तीकरण के माने कब आकार लेगा.
बेटे ने 31वें साल में कदम रख दिया था. अब वह भी चाह रही थी कि बेटे का विवाह कर वह अपनी जिम्मेदारियों से निवृत्त हो जाए. शोभा के पति सुकेश भी सोचते थे कि उन के रिटायरमैंट से पहले बेटे का विवाह निबट जाए तो अच्छा है. पर जैसे ही बेटे से विवाह की बात छेड़ते, बेटा बहाने बना कर उठ खड़ा होता. जब भी किसी रिश्ते के बारे में बात चलती, बेटा हवा में उड़ा देता. जब भी किसी लड़की की तसवीर दिखाई जाती तो परे खिसका देता. यह देखतेदेखते एक दिन वह उखड़ ही गई, ‘‘ऐसा कब तक चलेगा ऋषभ? कब तक शादी नहीं करेगा तू?’’
‘‘अभी जल्दी क्या है मम्मी? आप तो, बस, शादी के पीछे ही पड़ जाते हो,’’ वह उठते हुए बोला. ‘‘मैं तु झे आज उठने नहीं दूंगी. 30 साल का हो गया, अभी शादी की उम्र नहीं हुई, तो कब होगी?’’
‘‘मम्मी. यह आप की ढूंढ़ी लड़कियां आखिर मु झे क्या पता कि ये कैसी हैं. एकदो मुलाकातों में किसी के बारे में कुछ पता थोड़े ही न चलता है.’’ ‘‘तो फिर कैसे देखेगा तू लड़की?’’
‘‘मैं जब तक लड़की को 2-4 साल देखपरख न लूं, हां नहीं बोल सकता.’’ ‘‘क्या मतलब?’’ शोभा आश्चर्यचकित हो बोली. ‘‘मतलब साफ है, मैं अरैंज्ड मैरिज नहीं करूंगा.’’
‘‘तो क्या तू ने कोई लड़की पसंद की हुई है?’’ ऋषभ बिना जवाब दिए अपने कमरे में चला गया. शोभा उस के पीछेपीछे दौड़ी, ‘‘बोल ऋषभ, तू ने कोई लड़की पसंद की हुई है?’’
‘‘हां.’’ ‘‘तो फिर बताता क्यों नहीं, इतने दिनों से हमें बेवकूफ बना रहा है.’’ ‘‘बेवकूफ नहीं बना रहा हूं. बता इसलिए नहीं रहा था कि मेरी पसंद को आप लोग पसंद कर पाओगे या नहीं.’’
‘‘तेरी पसंद अच्छी होगी तो क्यों नहीं पसंद करेंगे. पर तू विस्तार से बताएगा उस के बारे में.’’ ‘‘क्या सुनना है आप को? लड़की सुंदर है, शिक्षित है. मेरी तरह इंजीनियर है. ठीकठाक सा परिवार है पर…’’‘‘पर क्या?’’
‘‘अगर आप के शब्दों में कहूं तो वह छोटी जाति की है. उसी जाति की जिन जातियों के आरक्षण का मुद्दा हमेशा चर्चा का विषय बना रहता है और जिन जातियों पर देश की राजनीति हमेशा गरम रहती है और पापा का ब्राह्मणवाद… वह तो घर के नौकरचाकरों तक पर हावी रहता है. वे तो चाहते हैं कि घर में नौकर भी हो तो ब्राह्मण हो. ऐसी स्थिति में…? और मैं कहीं दूसरी जगह शादी कर नहीं सकता. इसलिए आप मेरी शादी की बात तो भूल ही जाओ.’’
शोभा का मुंह खुला का खुला रह गया. उस की स्थिति देख कर ऋषभ परिहास सा करता हुआ बोला, ‘‘इसीलिए कहता हूं मु झे ही बेटा व बहू दोनों सम झ लो और मस्त रहो,’’ कह कर वह कमरे से बाहर चला गया.
शोभा जड़ खड़ी रह गई. रक्षा और जयंति के बच्चों ने तो उन का सुखचैन ही छीना था पर उस के बेटे ने तो उसे जीतेजी ही मार दिया. घर से भी साधारण और जाति से भी छोटी. जिस लड़की के आने से पहले ही दिल में फांस चुभ गई हो, दिलों में दीवार खड़ी होने की पूरी संभावना पैदा हो गई. उस के घर में आने पर क्या होगा, सोचा जा सकता है. बेटा तो फिर से अपनी दिनचर्या में मस्त और व्यस्त हो गया पर उसे ज्वालामुखी के शिखर पर बैठा गया. उसे पता था, बेटे के हाथ पीले करने हैं तो बात तो माननी ही पड़ेगी. वह पति से बात करने की कूटनीति तैयार करने लगी. बहुत मुश्किल था सुकेश के ब्राह्मणवाद से लड़ना. कई बार तो उस की खुद की भी बहस हो जाती थी इस बात पर सुकेश से. पर उसे नहीं पता था कि ऋषभ उसे इस नैतिक दुविधा में डाल देगा.
खैर डरतेघबराते जब उस ने सुकेश को बताया तो घर कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया. युद्ध का आगाज हो जाने के कारण वह बिना किसी जतन के बेटे के पाले में फेंक दी गई. और सुकेश अपने पाले में अकेले रह गए. नित तोपगोले दागे जाते. दोनों पक्ष व्यंग्यबाणों से एकदूसरे को घायल करने में कोताही न बरतते. कई तरह के तर्कवितर्क होते पर महिला सशक्तीकरण का भूत कुछकुछ शोभा के दिमाग को वशीभूत कर चुका था, इसलिए वह डटी रही. आखिर सुकेश को अपने तीरतरकश जमीन पर रखने ही पड़े. असहाय शत्रु की तरह वे शरण में आ गए इस शर्त पर कि विवाह के बाद बेटेबहू ऊपर के पोर्शन में रहेंगे. इस बात को ऋषभ व शोभा दोनों मान गए और दोनों पक्षों की सफल वार्त्ता के बाद विवाह विधिविधान से संपन्न हो गया.
सुबह शोभा की देर से नींद खुली. उठ कर वह बाथरूम में फ्रैश होने चली गई. मुंह धो कर वह तौलिए से पोंछती हुई बाहर आ रही थी कि सुबहसुबह कोयल सी कुहुक कानों में मधुर संगीत घोल गई.
ऋषभ ने अपने कपड़ों की अटैची उठाई और दान में मिले पलंग व 4 बरतनों के साथ एक गैस का चूल्हा खरीदा और ऊपर के पोर्शन में अपनी गृहस्थी बसा ली. शोभा तो बहू को ले कर पहले ही कई तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त थी, ऊपर से छोटी जाति की लड़की. हालांकि वह बहुत ज्यादा जातिवाद नहीं मानती थी पर फिर भी इस स्तर की जाति तक जाना, रुढ़ीवादिता से ग्रसित उस का मन भी बहुत खुल कर बहू को अपना नहीं पा रहा था. इसलिए उस ने भी पति सुकेश को मनाने की कोशिश नहीं की. बहूबेटे विवाह के अगले दिन 10 दिन के हनीमून ट्रिप पर निकल गए. उस ने भी विवाह के बाद के कार्य, रिश्तेदारों में मिठाईकपड़े वगैरह का लेनदेन निबटाया. अपने निकट रिश्तेदारों का इस विवाह में मूड जो उखड़ा था, उखड़ा ही रहा. वे कर भी क्या सकते थे. ‘बेटे की मरजी थी’ कह कर उन्होंने हाथ झाड़ दिए थे. बच्चों के वापस आने का दिन पास आ रहा था. इसी बीच सुकेश औफिस की तरफ से एक हफ्ते की ट्रेनिंग के लिए चेन्नई चले गए. उस के अगले दिन बेटेबहू हनीमून से वापस आ गए.
सुबह शोभा की देर से नींद खुली. उठ कर वह बाथरूम में फ्रैश होने चली गई. मुंह धो कर वह तौलिए से पोंछती हुई बाहर आ रही थी कि सुबहसुबह कोयल सी कुहुक कानों में मधुर संगीत घोल गई.
‘‘मां, चाय लाई हूं आप के लिए,’’ मुखड़े पर मीठी मुसकान की चाशनी घोले माधवी ट्रे लिए खड़ी थी. सुबहसुबह की धूप से उज्ज्वल मुखड़े पर स्निग्ध चांदनी छिटकी हुई थी.
‘‘पर तुम क्यों लाईं चाय, मैं खुद ही बना लेती,’’ शोभा को एकाएक सम झ नहीं आया, क्या बोले.
‘‘वो, ऋषभ ने कहा कि पापा नहीं हैं तो… आप पी लेंगी. नहीं पीना चाहती हैं तो कोई बात नहीं. मैं वापस ले जाती हूं.’’ मुखड़े की चांदनी जैसे मलिन हो गई. शोभा का हृदय द्रवित हो गया.
‘‘नहींनहीं, रख दो, मैं पी लूंगी.’’ खुश हो माधवी ने ट्रे साइड टेबल पर रख दी. मुखड़ा फिर से लकदक करने लगा. शोभा का दिल किया, बहू को खींच कर छाती से लगा ले पर नहीं, उंगली पकड़ कर उस की गृहस्थी में उस का अनाधिकार प्रवेश? सुकेश कभी भी बरदाश्त नहीं करेंगे. वह 2 मिनट खड़ी रही, फिर चली गई.
शोभा सुबह उठती और चाय की ट्रे ले कर माधवी उस के पास खड़ी हो जाती. न जयंति की बेटी सुबह उठती है न रक्षा की बहू. माधवी भी इंजीनियर है पर यह कैसे? अगले दिन रविवार था. लंच के समय माधवी कढ़ी का कटोरा लिए हाजिर हो गई. ‘‘मां, मैं ने कढ़ी बनाई है आज. खा कर देखिए, कैसी बनी है?’’
कढ़ी खाते हुए शोभा सोच रही थी, ‘इतनी स्वादिष्ठ कढ़ी? इंजीनियरिंग करतेकरते यह लड़की कब गृहस्थी के काम सीख गई. रात को भी माधवी कमल ककड़ी के कोफ्ते रख गई. उस की सुघढ़ता देख कर शोभा के दिल में सुनीसुनाई आजकल की बिगड़ैल बेटीबहुओं की छवि गड्डमड्ड हो रही थी. लड़की माधवी जैसी भी होती है. पर उसे ज्यादा भाव नहीं देना चाह रही थी क्योंकि सुकेश का ब्राह्मणवाद उस के समूचे प्यार व सपनों पर हावी हो रहा था.
दूसरे दिन कामवाली ने छुट्टी ले ली यह कह कर कि उसे अपने भाई के घर जाना है, शाम तक आ जाएगी. ऊपर भी वही काम करती थी. सुबह माधवी चाय रख गई. अभी शोभा चाय पी ही रही थी कि उसे किचन में बरतनों की खटरपटर की आवाज सुनाई दी. वह किचन में गई तो देखा, माधवी जल्दीजल्दी रात के बरतन धो रही है. यह क्या कर रही हो माधवी?
‘‘मां, आज कामवाली दीदी ने छुट्टी की है न, इसलिए बरतन धो रही हूं. ऊपर के तो मैं ने उठते ही धो लिए थे.’’
शोभा आश्चर्य व ममता से माधवी को निहारने लगी, तु झे औफिस के लिए देर नहीं हो रही?
‘‘नहीं, अभी तो टाइम है. बस, तैयार हो जाऊंगी जल्दी से,’’ बरतन रख कर, सिंक धो कर वह उस की तरफ पलटती हुई बोली.
जयंति और रक्षा को तो कितनी शिकायतें हैं अपनी बेटी और बहू से. पर माधवी, कितनी अलग है. उस की खुद की बेटी होती तो क्या ऐसी ही होती या उन के जैसी होती. दिल फिर किया, बहू को छाती से लगा ले, मनभर कर दुलार कर ले. पर सुकेश की बड़ीबड़ी गुस्सैल आंखें याद आ गईं. ‘नहींनहीं, शादी करा दी किसी तरह. बस, दोनों खुश रह लें आपस में. अब नहीं उल झना उसे.’
शोभा अपनी बहू का यह रूप देखकर खुशी से झूम उठी , उन्होंने कहा कि अगर बेटी होती तो शायद ऐसा नहीं करती.
हाथ पोंछ कर माधवी चली गई. एक हफ्ता गुजर गया. आज रात की ट्रेन से सुकेश आने वाले थे. सुबह चाय पी कर शोभा गेट का ताला खोलने के लिए बाहर जा रही थी कि बरामदे की सीढ़ी से पैर लड़खड़ा गया. एक चीख मार कर वह वहीं बैठ गई. उस की जोर की चीख सुन कर ऋषभ और माधवी भागतेदौड़ते नीचे उतर कर उस के पास पहुंच गए. वह अपना पैर पकड़ कर कराह रही थी.
क्या हुआ मां? माधवी बोली.
‘‘अचानक से पैर लड़खड़ा गया सीढ़ी पर. दाएं पैर में बहुत दर्द हो रहा है.’’
‘‘ओह, कहीं फ्रैक्चर न हो गया हो,’’ कह कर ऋषभ शोभा को उठा कर अंदर ले आया. माधवी उस के पैरों के पास बैठ कर हलके हाथों से मलहम लगाती हुई बोली, ‘‘अभी डाक्टर के पास ले चलते हैं मां. चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा.’’ उस ने उस के पैर में कस कर क्रेप बैंडेज बांध दी.
दोनों उसे अस्पताल ले गए. एक्सरे में फ्रैक्चर नहीं आया. मोच आ गई थी. डाक्टर ने कुछ दिन आराम करने के लिए कहा. सबकुछ करा कर उसे घर छोड़ कर ऋषभ औफिस चला गया. लेकिन माधवी थोड़ी देर बाद उस के पास जा कर बैठ गई.
तू औफिस नहीं गई? वह आश्चर्य से बोली.
नहीं मां, ऐसी हालत में आप को छोड़ कर औफिस कैसे चली जाऊं मैं. फिलहाल कुछ दिन की छुट्टी ले ली है. पापा भी आ जाएंगे आज. ऐसे में खाना भी कैसे बनाएंगी आप?’’
कुछ न बोला गया शोभा से. मन भर आया और आंखें भी. सुकेश के डर पर दिल के उद्गार भारी पड़ गए. ‘मेरी बेटी होती तो ऐसी ही होती,’ उस ने सोचा, ‘नहींनहीं, ऐसी ही क्यों होती, बल्कि यही है मेरी बेटी.’
उस ने माधवी का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा. माधवी ने आश्चर्य से उस की आंखों में देखा. पर शोभा की आंखों में वात्सल्य का अनंत महासागर हिलोरें ले रहा था. वह हुलस कर शोभा की बांहों में समा गई. शोभा का वर्षों का सपना पूरा हो गया था.
माधवी ने उस के घर व उस के दिल में तो प्रवेश पा लिया था पर सुकेश के दिल में प्रवेश पाना टेढ़ी खीर था. रात की ट्रेन से सुकेश आए. शोभा के पैर में पट्टी बंधी देख कर परेशान हो गए. पर शोभा के चेहरे पर दर्द व परेशानी का नामोनिशान न था. वह आराम से पलंग पर पीछे तकिया लगा पीठ टिकाए बैठी मुसकरा रही थी. न यह शिकायत कि एक हफ्ता तुम्हारे बिना मन नहीं लगा वगैरहवगैरह.
‘‘कुछ तो गड़बड़ है,’’ सुकेश अपनी उधेड़बुन में कपड़े बदल कर नहाने चले गए. बाथरूम से फ्रैश हो कर लौटे,
‘‘दर्द तो नहीं हो रहा तुम्हें?’’
‘‘बिलकुल नहीं,’’ शोभा मुसकराते हुए बोली.
‘‘कुछ खाना तो बना नहीं होगा. बाहर से और्डर कर देता हूं.’’
तभी दरवाजे पर आहट हुई. देखा, तो माधवी 2 प्लेटों में खाना लिए खड़ी थी. मुसकराती हुई आगे बढ़ी, एक प्लेट माधवी को पकड़ा दी. बिना िझ झके, सुकेश से बिना डरे शोभा ने प्लेट पकड़ ली. सुकेश आश्चर्य से माधवी को देख रहे थे. माधवी ने िझ झकते हुए दूसरी प्लेट साइड टेबल पर रखी और वापस चली गई. शोभा इत्मीनान से खाना खाने लगी.
‘‘तुम कब से खाने लगी हो इस के हाथ का?’’ सुकेश के स्वर में क्रोध भरा था.
‘‘तरीके से बात करो सुकेश. वह तुम्हारे बेटे की पत्नी है और इस घर की बहू. अब जो जाति हमारी वही उस की,’’ शोभा तनिक रोष में बोली.
शोभा के रोष को भांप कर सुकेश थोड़ा आराम से बोले, ‘‘ठीक है, पर मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा. तुम से पहले ही बात हो गई थी. यह शादी मैं ने सिर्फ ऋषभ की जिद के कारण की थी. वरना, इतनी छोटी जाति में… तुम जानती हो.’’
‘‘मुझे तो चोट लगी थी. खाना बना नहीं सकती थी. और वैसे भी, मैं तो कभी ब्राह्मणवाद के पीछे इतनी पागल भी नहीं रही हूं. पर तुम खाना बाहर से और्डर कर लो अपने लिए. लेकिन ध्यान रखना, जिस जगह और्डर करो, वहां किचन में खाना किस ने बनाया है, उस के ब्राह्मण होने का प्रमाणपत्र अवश्य ले लेना,’’ शोभा विर्दूप स्वर में बोली.
सुकेश ठगे से शोभा को देखने लगे.
‘‘हांहां, ऐसे क्या देख रहे हो. ब्याहशादियों में जाते हो. खाना बनाने वालों का, स्नैक्स सर्व करने वाले वेटरों की जाति भी पूछी है तुम ने कभी? सड़क मार्गों से लंबीलंबी यात्राएं करते हो औफिशियल दौरों के लिए, रास्तेभर रुकतेरुकाते, खातेपीते जाते हो, क्या वहां पर सब की जाति पूछ कर खातेपीते हो? उन सब की जाति पूछ लो. अगर वे सब ऊंची जाति के हों तो मैं अपनी ऐसी सुघढ़, सल्लज और प्यारी बहू के हाथ का खाना बंद कर दूंगी, वादा है तुम से. पर तब तक तुम मु झे टोकना मत,’’ कह कर शोभा खाना खाने लगी.
सुकेश थोड़ी देर किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रह गए. शोभा के तर्कों में दम था. अधिकतर शोभा उन की बात हंसीखुशी मान जाती थी पर जब वह किसी बात पर अड़ती थी तो उसे डिगाना मुश्किल होता था. वे खड़े सोचते रहे. बात तो सच है, इतनी जगह खाना खाते हैं क्या जाति पूछ कर. माधवी तो उन की बहू है. बेटे ने, शोभा ने उसे सहज अपना लिया. उन की वंशवेल उसी से आगे बढ़ेगी और झूठे दंभ व झूठी जिद्द के कारण वे उसे अपना नहीं पा रहे हैं.
उन्होंने खाने की प्लेट उठाई और शोभा की बगल में बैठ गए. पलभर के लिए दोनों की नजरें टकराईं. सुकेश ने रोटी का टुकड़ा तोड़ कर सब्जी में डुबोया और मुंह में डाल लिया. अंदर की मुसकराहट व दिल की पुलक अंदर ही दबाए शोभा चुपचाप खाना खाती रही. दोनों ने खाना खत्म किया ही था कि माधवी फिर आ गई.
‘‘मां, कुछ चाहिए तो नहीं?’’ पर पापा को खाते देख वह अचंभित सी हो गई. बिना छेड़े चुपचाप वापस पलट गई.
‘‘रुको माधवी,’’ सुकेश अपनी जगह पर खड़े हो गए, ‘‘बहुत अच्छा खाना बनाया तुम ने बेटा. इंजीनियरिंग करतेकरते कैसे सीख लिया इतना सबकुछ?’’
हतप्रभ हो माधवी अचल खड़ी हो गई. उस से यह सब संभल नहीं पा रहा था. भावविह्वल स्वर में बोली, ‘‘आप को अच्छा लगा पापा?’’
‘‘हां, बहुत अच्छा लगा. आज पहली बार तुम्हारे हाथ का खाना खाया है, इसलिए इनाम तो बनता है,’’ सुकेश ने अलमारी से कुछ रुपए निकाल कर माधवी के हाथ में रखे, ‘‘मांपापा की तरफ से अपने लिए कुछ ले लेना.’’
‘‘जी पापा,’’ वह भरी आंखों से पैरों में झुक गई. सुकेश ने झुकी हुई माधवी को उठा कर छाती से लगा लिया, ‘‘माफी चाहता हूं तुम से बेटा. कभीकभी बड़ों से भी गलतियां हो जाती हैं.’’
‘‘नहीं पापा, कुछ मत बोलिए, मु झे कोई शिकायत नहीं है.’’
जाति को ले कर बिना कोई तर्कवितर्क किए माधवी ने सुकेश के ब्राह्मणवाद के किले को फतेह कर लिया था. दोनों -पिता और बहूरूपी पुत्री – सजल नेत्रों से गले लिपटे हुए थे. तभी ऋषभ माधवी को ढूंढ़ता हुआ नीचे उतर आया. कमरे में आया तो पितापुत्री को गले लगे देखा. प्रश्नवाचक दृष्टि मां पर डाली पर वहां भी सजल मुसकराहट में सारे उत्तर थे. गरदन हिलाता हुआ वह भी मुसकरा दिया और उलटे पैरों वापस लौट गया, शायद ऊपर से अपना बोरियाबिस्तर समेटने के लिए.