कहानी: एक सफल लक्ष्य
विजय समझ नहीं पा रहे थे क्या से क्या हो गया? जो चीत्कार आखिरी सांस पर होनी चाहिए थी, वह मां के गुजर जाने के 13 दिन बाद हुई, जब चारों भाई बहन एकदूसरे से लिपट कर रोए.
सुबह सुबह फोन की घंटी बजी. अनिष्ट की आशंका से मन धड़क गया. मीना की सास बहुत बीमार थीं. रात देर वे सब भी वहीं तो थे. वैंटिलेटर पर थीं वे…पता नहीं कहां सांस अटकी थी. विजय मां को ऐसी हालत में देख कर दुखी थे. डाक्टर तो पहले ही कह चुके थे कि अब कोई उम्मीद नहीं, बस विजय लंदन में बसे अपने बड़े भाई के बिना कोई निर्णय नहीं लेना चाहते थे. मां तो दोनों भाइयों की हैं न, वे अकेले कैसे निर्णय ले सकते हैं कि वैंटिलेटर हटा दिया जाए या नहीं.
निशा ने फोन उठाया. पता चला, रात 12 बजे भाईसाहब पहुंचे थे. सुबह ही सब समाप्त हो गया. 12 बजे के करीब अंतिम संस्कार का समय तय हुआ था.
‘‘सोम, उठिए. विजय भाईसाहब की मां चली ?गईं,’’ निशा ने पति को जगाया. पतिपत्नी जल्दी से घर के काम निबटाने लगे. कालेज से छुट्टी ले ली दोनों ने. बच्चों को समझा दिया कि चाबी कहां रखी होगी.
दोनों के पहुंचने तक सब रिश्तेदार आ चुके थे. मां का शव उन के कमरे में जमीन पर पड़ा था. लंदन वाले भाईसाहब सोफे पर एक तरफ बैठे थे. सोम को देखा तो क्षणभर को आंखें भर आईं. पुरानी दोस्ती है दोनों में. गले लग कर रो पड़े. निशा मीना के पास भीतर चली आई जहां मृत देह पड़ी थी. दोनों बड़ी बहनें भी एक तरफ बैठी सब को बता रही थीं कि अंतिम समय पर कैसे प्राण छूटे. मां की खुली आंखें और खुला मुंह वैसा ही था जैसा अस्पताल में था. अकड़ा शरीर आंखें और मुंह बंद नहीं होने दे रहा था. वैंटिलेटर की वजह से मुंह खुला ही रह गया था.
मां की सुंदर सूरत कितनी दयनीय लग रही थी. सुंदर सूरत, जिस पर सदा मां को भी गर्व रहा, अब इतनी बेबस लग रही थी कि…
विजय भीतर आए और मां का चेहरा ढकते हुए रोने लगे. अभी 4 महीने पहले की ही बात है. कितना झगड़ा हो गया था मांबेटे में. सदा सब भाईबहनों की सेवा करने वाले विजय एक कोने में यों खड़े थे मानो संसार के सब से बड़े बेईमान वही हों. मां को लगता था कि उन का बड़ा बेटा, जो लंदन में रहता है, कहीं खाली हाथ ही न रह जाए और विजय पुश्तैनी घर का मालिक बन जाए. पुश्तैनी घर भी वह जिसे विजय ने कर्ज ले कर फिर से खड़ा किया था.
वह घर जो बहनों का मायका है और भाईसाहब का भी एक तरह का मायका ही है. लंदन तो ससुराल है जहां वे सदा के लिए बस चुके हैं और जीवन भर उन्हें वहीं रहना भी है.
‘तुम्हें क्या लगता है, तुम पतिपत्नी सब अकेले ही खा जाओगे, भाई को कुछ नहीं दोेगे?’ दोनों बहनों और मां ने प्रश्न किया था.
‘खा जाएंगे, क्या मतलब? मैं ने क्या खा लिया? कर्ज ले कर खंडहर मकान खड़ा किया है. पुश्तैनी जमीन को संवारा है, जहां तुम सब आआ कर रहते हो. तनख्वाह का मोटा हिस्सा लोन चुकाने में चला जाता है. हम दोनों पतिपत्नी हाड़तोड़ मेहनत करते हैं तब कहीं जा कर घर चलता है. इस में मैं ने क्या खा लिया किसी का?’
‘जमीन की कीमत का पता किया है हम ने. 60 लाख रुपए कीमत है जमीन की. 30 लाख रुपए तो उस का बनता है न. आगरा में फ्लैट ले कर दे रहे हैं हम बड़े को. तुम 30 लाख रुपए दो.’
‘मैं 30 लाख कहां से दूं. अपने ही घर में रहतेरहते मैं बाहर वाला कैसे हो गया कि आप ने झट से मेरे घर की कीमत भी तय कर दी.’
‘तुझे क्या लगता है, चार दिन भाईबहनों को रोटी के टुकड़े खिला देगा और लाखों की जमीन खा जाएगा.’
मां के शब्दबाण विजय का कलेजा छलनी कर गए थे और यही दोनों बहनें भाईसाहब के साथ खड़ी उन से जवाब तलब कर रही थीं.
भाईसाहब, जिन्हें वे सदा पिता की जगह देखते रहे थे, से इतनी सी आस तो थी उन्हें कि वे ही मां को समझाएं. क्या मात्र रोटी के टुकड़े डाले हैं उन्होंने सब के सामने? पिता की तरह बहनों का स्वागत किया है. प्यार दिया है, दुलार दिया है मीना और विजय ने सब को. गरमी की छुट्टियों में स्वयं कभी कहीं घूमनेफिरने नहीं गए. सदा भाईबहनों को खिलायापिलाया, घुमाया है. बड़े भाईसाहब ने तो कभी मांबाप को नहीं देखा क्योंकि वे तो सदा बाहर ही रहे. पिताजी अस्पताल में बीमार थे तब उन के मरने पर ही 2 लाख रुपए लग गए थे. पिछले साल मां अस्पताल में थीं, 3 लाख रुपए लग गए थे, हर साल उन पर 1 लाख रुपए का बोझ अतिरिक्त पड़ जाता है जो कभी उन का अपना पारिवारिक खर्च नहीं होता. इन तीनों भाईबहनों ने कभी कोई योगदान नहीं किया. कैसे होता है, किसी ने नहीं पूछा कभी, 30 लाख रुपए हिस्सा बनता है सब से आगे हो कर मां ने कह दिया था. तो क्या वह घर का नौकर था जो सदा परिवार सहित सब की ताबेदारी ही करता रहा? बेशर्मी की सभी हदें पार कर ली थीं दोनों बहनों व भाईसाहब ने और मां का हाथ उन तीनों के ऊपर था.
उसी रात पसीने से तरबतर विजय को अस्पताल ले जाना पड़ा था. सोम और निशा ही आए थे मदद को. तनाव अति तक जा पहुंचा था, जिस वजह से हलका सा दिल का दौरा पड़ा था. क्या कुसूर था विजय का? क्यों छोटे भाई को ऐसी यातना दे रहे हैं परिवार के लोग?
भाईसाहब की लंदन जाने की तारीख पास आ रही थी और आगरा में दोनों बहनों ने भाई के लिए जो फ्लैट खरीदने का सोच रखा था वह हाथ से निकला जा रहा था. विजय बीमार हो गए थे. अब पैसों की बात किस तरह शुरू की जाए.
मां ने ही मीना से पूछा था.
‘क्या सोच रहे हो तुम दोनों? पैसे देने की नीयत है कि नहीं?’
‘होश की बात कीजिए, मांजी. जो आदमी दिल का मरीज बन कर अस्पताल में पड़ा है उस से आप ऐसी बातें कर रही हैं.’
‘बहुत देखे हैं मैं ने इस जैसे दिल के मरीज.’
अवाक् रह गई थी मीना. जिस बेटे के सिर पर बैठ कर पूरा परिवार नाच रहा था उसी के जीनेमरने से किसी का कोई लेनादेना नहीं. किस जन्म की दुश्मनी निभा रहे हैं भाईसाहब. हिंदुस्तान में फ्लैट लेना ही चाहते थे तो विजय से बात करते. दोनों भाई कोई रास्ता निकालते, बैठ कर हिसाबकिताब करते. यह क्या तरीका है कि हथेली पर सरसों जमा दी. सोचने और कुछ करने का समय ही नहीं दिया. क्या 3 दिन में सब हो जाएगा?
मीना बड़ी ननदों के सामने कभी बोली नहीं थी. उस के सिर पर एक तरह से 3-3 सासें थीं और बड़े जेठ ससुर समान. जब अपने ही पति के सर पर काल मंडराने लगा तब जबान खुल गई थी मीना की.
‘मां, अगर हिसाब ही करना है तो हर चीज का हिसाब कीजिए न. प्यार और ममता का भी हिसाब कीजिए. जोजो हम आप लोगों पर खर्च करते हैं उस का भी हिसाब कीजिए. हर साल आप की इच्छा पूरी करने के लिए पूरा परिवार इकट्ठा होता है, उस पर हमारा कितना खर्च हो जाता है उस का हिसाब कीजिए. पिताजी और आप की बीमारी पर ही लाखों लगते रहे हैं, उस का भी हिसाब कीजिए. जमीन की कीमत तो आप ने आज 30 लाख रुपए आंकी है, विजय जो वर्षों से खर्च कर रहे हैं उस का क्या हिसाबकिताब?
‘दोनों बहनें बड़े भाई को अपने शहर में फ्लैट ले कर दे रही हैं. इस भाई को काट कर फेंक रही हैं. क्या भाईसाहब लंदन से आ कर बहनों की आवभगत किया करेंगे? और मां, आप अब क्या लंदन में जा कर रहेंगी भाईसाहब की मेम पत्नी के साथ, जिस ने कभी आ कर आप की सूरत तक नहीं देखी कि उस की भी कोई सासू मां हैं, ननदें हैं, कोई ससुराल है जहां उस की भी जिम्मेदारियां हैं.’
‘कितनी जबान चल रही है तेरी, बहू.’
‘जबान तो सब के पास होती है, मां. गूंगा तो कोई नहीं होता. इंसान चुप रहता है तो इसलिए कि उसे अपनी और सामने वाले की गरिमा का खयाल है. अगर आप मेरा घर ही उजाड़ने पर आ गईं तो कैसी शर्म और कैसा जबान को रोकना. विजय को दिल का दौरा पड़ा है, आप उन्हें परेशान मत कीजिए. अब जब हिसाब ही करना है तो हमें भी हिसाब करने का समय दीजिए.’
मीना ने दोटूक बात समाप्त कर दी थी. गुस्से में मां और भाईसाहब दोनों बहनों के पास आगरा चले गए थे. लेकिन पराया घर कब तक मां को संभालता. भाईसाहब वहीं से वापस लंदन चले गए थे और बीमार मां को बहनें 4-5 दिन में ही वापस छोड़ गई थीं.
4 महीने बीत गए उस प्रकरण को. वह दिन और आज का दिन. मीना और विजय मां से लगभग कट ही गए. अच्छाभला हंसताखेलता उन का घर ममत्व से शून्य हो गया था. बच्चे भी दादी से कटने लगे थे. समय पर रोटी, दवा और कपड़े देने के अलावा अब उन से कोई बात ही नहीं होती थी उन की. बुढ़ापा खराब हो गया था मां का. कोई उन से बात ही नहीं करना चाहता था.
क्या जरूरत थी मां को बेटियों की बातों में आने की. अब क्या बुढ़ापा लंदन में जा कर काटेंगी या आगरा जाएंगी?
समय बीता और 5 दिन पहले ही फिर से मां को अस्पताल ले जाना पड़ा. हालत ज्यादा बिगड़ गई जिस का परिणाम उन की मृत्यु के रूप में हुआ.
विजय मां की मौत से ज्यादा इस सत्य से पीडि़त थे कि उन के भाईबहनों ने मिल कर उन की मां का बुढ़ापा बरबाद कर दिया. उन के जीवन के अंतिम 4-5 महीने नितांत अकेले गुजरे. आज मृत देह के पास बैठ कर आत्मग्लानि का अति कठोर एहसास हो रहा है उन्हें. क्यों मीना ने मां से सवालजवाब किए थे? क्यों वह चुप नहीं रही थी? फिर सोचते हैं मीना भी क्या करती, पति की सुरक्षा में वह भी न बोलती तो और कौन बोलता. उस पल की जरूरत वही थी जो उस ने किया था. कहां से लाते वे 30 लाख रुपए. कहीं डाका मारने जाते या चोरी करते. रुपए क्या पेड़ पर उगते हैं जो वे तोड़ लाते.
अच्छाभला, खुशीखुशी उन का घर चल रहा था जिस में विजय मानसिक शांति के साथ जीते थे. हर साल कंधों पर अतिरिक्त बोझ पड़ जाता था जिसे वे इस एहसास के साथ सह जाते थे कि यह घर उन की बहनों का मायका है जहां आ कर वे कुछ दिन चैन से बिता जाती हैं.
बुजुर्गों की दुआएं और पिताजी के पैरों की आहट महसूस होती थी उन्हें. उन्होंने कभी भाईसाहब से यह हिसाब नहीं किया था कि वे भी कुछ खर्च करें, वे भी तो घर के बेटे ही हैं न. अधिकार और जिम्मेदारी तो सदा साथसाथ ही चलनी चाहिए न. कभी जिम्मेदारी नहीं उठाई तो अधिकार की मांग भी क्यों?
कभी विजय सोचते कि क्यों मां दोनों बेटियों की बातों में आ कर उन के प्रति ऐसा कहती रहीं कि वे दिल के मरीज बन कर अस्पताल पहुंच गए. मां की देह पर दोनों भाई गले लग कर रो ही नहीं पाए क्योंकि कानों में तो वही शब्द गूंज रहे हैं :
‘क्या तुम दोनों पतिपत्नी अकेले ही सब खा जाओगे?’
बेटाबहू बन कर सब की सेवा, आवभगत करने वाले क्षणभर में मात्र पतिपत्नी बन कर रह गए थे. एकदूसरे से पीड़ा सांझी न करतेकरते ही मां का दाहसंस्कार हो गया. 13 दिन पूरे हुए और नातेरिश्तेदारों के लिए प्रीतिभोज हुआ.
सब विदा हो गए. रह गए सिर्फ भाईसाहब और दोनों बहनें.
‘‘आइए भाईसाहब, हिसाब करें,’’ विजय ने मेज पर कागज बिछा कर उन्हें आवाज दी. बहनें और भाईसाहब अपनाअपना सामान पैक कर रहे थे.
‘‘कैसा हिसाब?’’ भाईसाहब के हाथ रुक गए थे. वे बाहर चले आए. विजय के स्वर में अपनत्व की जगह कड़वाहट थी जिसे उन्होंने पूरी उम्र कभी महसूस नहीं किया था. बचपन से ले कर आज तक विजय ने सदा बच्चों की तरह रोरो कर ही भाई को विदा किया था. सब हंसते थे विजय की ममता पर जो भाई को पराए देश विदा नहीं करना चाहता था. मां की देह पर दोनों मिल कर रो नहीं पाए, क्या इस से बड़ा भी कोई हिसाब होता जो वे कर पाते?
‘‘30 लाख रुपए का हिसाब. पिछली बार मैं हिसाब नहीं दे पाया था न, अब पता नहीं आप से कब मिलना हो.’’
मीना भी पास चली आई थी यह सोच कर कि शायद पति फिर कोई मुसीबत का सामना करने वाले हैं. बच्चों को उन के कमरे में भेज दिया था ताकि बड़ों की बहस पर उन्हें यह शिक्षा न मिले कि बड़े हो कर उन्हें भी ऐसा ही करना है.
पास चले आए भाईसाहब. भीगी थीं उन की आंखें. चेहरा पीड़ा और ममत्व सबकुछ लिए था.
‘‘हां, हिसाब तो करना ही है मुझे. मैं बड़ा हूं न. मैं ही हिसाब नहीं करूंगा तो कौन करेगा?’’
जेब से एक लिफाफा निकाला भाईसाहब ने. मीना के हाथ पर रखा. असमंजस में थे दोनों.
‘‘इस में 50 लाख रुपए का चैक है. तुम्हारी अंगरेज जेठानी ने भेजा है. उसी ने मुझे मेरी गलती का एहसास कराया है. यह हमारा घर हम दोनों की हिस्सेदारी है तो जिम्मेदारी भी तो आधीआधी बनती है न. तुम अकेले तो नहीं हो न जो घर की दहलीज संवारने के लिए जिम्मेदार हो. हमारा घर संवारने में मेरा भी योगदान होना चाहिए.’’
अवाक् रह गए विजय. मीना भी स्तब्ध.
‘‘13 दिन पहले जब एअरपोर्ट पर पैर रखा था तब एक प्रश्न था मन में. एक घर है यहां जो सदा बांहें पसार कर मेरा स्वागत करता है. ऐसा घर जो मेरे बुजुर्गों का घर है, मेरे भाई का घर है. ऐसा घर जहां मुझे वह सब मिलता है जिसे मैं करोड़ों खर्च कर के भी संसार के किसी कोने में नहीं पा सकता. यहां वह है जो अमूल्य है और जिसे मैं ने सदा अपना अधिकार समझ कर पाया भी है. मुझे माफ कर दो तुम दोनों. मुझे अपने दिमाग से काम लेना चाहिए था. अगर आगरा में घर लेना ही होगा तो किसी और समय ले लूंगा मगर इस घर और इस रिश्ते को गंवा कर नहीं ले सकता. तुम दोनों मेरे बच्चों जैसे हो. तुम्हारे साथ न्याय नहीं किया मैं ने,’’ मानो जमी हुई काई किसी ने एक ही झटके से पोंछ दी. स्नेह और रिश्ते का शीशा, जिस पर धूल जम गई थी, साफ कर दिया किसी ने.
‘‘मां को भी माफ कर देना. उन्हें भी एहसास हो गया था अपनी गलती का. वे अपनी भूल मानती थीं मगर कभी कह नहीं पाईं तुम से. हम सब तुम से माफी मांगते हैं. मीना, तुम छोटी हो मगर अब मां की जगह तुम्हीं हो,’’ बांहें फैला कर पुकारा भाईसाहब ने, ‘‘हमें माफ कर दो, बेटा.’’
पलभर में सारा आक्रोश कहीं बह गया. विजय समझ ही नहीं पाए कि यह क्या हो गया. वह गुस्सा, वह नाराजगी, वह मां को खो देने की पीड़ा. मां के खोने का दुख भाई की छाती से लग कर मनाते तो कितना सुख मिलता.
बहरहाल, जो चीत्कार एक मां की आखिरी सांस पर होनी चाहिए थी वह 13 दिन बाद हुई जब चारों भाईबहन एकदूसरे से लिपट कर रोए. उन्होंने क्या खो दिया तब पता चला जब एक का रोना दूसरे के कंधे पर हुआ. अब पता चला क्या चला गया और क्या पा लिया. जो खो गया उस का जाने का समय था और जो बचा लिया उसे बचा लेने में ही समझदारी थी.
शाश्वत सत्य है मौत, जिसे रोक पाना उन के बस में नहीं था और जो बस में है उसे बचा लेना ही लक्ष्य होना चाहिए था. एक हंसताखेलता घर बचा कर, उस में रिश्तों की ऊष्मा को समा लेने का सफल लक्ष्य.