कहानी: दुख में अटकना नहीं
मृत्यु को मात दे कर जब नंदिता घर लौटीं और मयंक का बदला रूप देखा तो उन को लगा, सारी मोहमाया, प्यार व विश्वास के अटूट बंधन दरक गए हैं.
मृत्यु को मात दे कर जब नंदिता घर लौटीं और मयंक का बदला रूप देखा तो उन को लगा, सारी मोहमाया, प्यार व विश्वास के अटूट बंधन दरक गए हैं. ऐसे में उन के जीवन में ऐसा क्या हुआ जिस ने उन्हें दुखों से सहज पार पाने की राह दिखाई?
नंदिता ने जल्दी से घर का ताला खोला. 6 बज रहे थे. उन का पोता यश स्कूल से आने ही वाला था. उन्होंने फौरन हाथमुंह धो कर यश के लिए नाश्ता तैयार किया, साथसाथ डिनर की भी तैयारी शुरू कर दी. उन के हाथ खूब फुरती से चल रहे थे, मन में भी ताजगी सी थी. वे अभीअभी किटी पार्टी से लौटी थीं. सोसायटी की 15 महिलाओं का यह ग्रुप सब को बहुत अपना सा लगता था. सब महिलाओं को महीने के इस दिन का इंतजार रहता था. ये सब महिलाएं उम्र में 30 से 40 के करीब थीं. नंदिता उम्र में सब से बड़ी थीं लेकिन उन की चुस्तीफुरती देखते ही बनती थी. अपने शालीन और मिलनसार स्वभाव के चलते वे काफी लोकप्रिय थीं.नंदिता टीचर रही थीं और अभीअभी रिटायर हुई थीं. योग और सुबहशाम की सैर ने उन्हें चुस्तदुरुस्त रखा हुआ था. उन के इंजीनियर पति का कुछ साल पहले देहावसान हुआ था. वे अपने इकलौते बेटे मयंक और बहू किरण के साथ रहती थीं.
किटी पार्टी से जब वे घर आती थीं, उन का मूड बहुत तरोताजा रहता था. सब से मिलना जो हो जाता था. किरण भी औफिस जाती थी. घर की अधिकतर जिम्मेदारियां नंदिता ने अपने ऊपर खुशीखुशी ली हुई थीं. मयंक और किरण शाम को आते तो वे रात का खाना तैयार कर चुकी होती थीं. किरण घर में घुसते ही चहकती, ‘‘मां, बहुत अच्छी खुशबू आ रही है, आप ने तो सब काम कर लिया, कुछ मेरे लिए भी छोड़ देतीं.’’
मयंक हंसता, ‘‘किरण, क्या सास मिली है तुम्हें, भई वाह.’’
किरण नंदिता के गले में बांहें डाल देती, ‘‘सास नहीं, मां हैं मेरी.’’
बहूबेटे के इस प्यार पर नंदिता का मन खुश हो जाता, कहतीं, ‘‘सारा दिन तो अकेली रहती हूं, काम करते रहने से समय का पता नहीं चलता.’’
नंदिता का हौसला सब ने उन के पति की मृत्यु पर देख लिया था, उन के बेटेबहू का लियादिया स्वभाव किसी को पसंद नहीं आया था.
अपने पति की मृत्यु के बाद जब अगले महीने की किटी पार्टी में नंदिता आईं तो सब महिलाएं उन के दुख से दुखी व गंभीर थीं लेकिन उन्होंने अपनेआप को बहुत ही सामान्य रखा. सब महिलाओं के दिल में उन के लिए इज्जत और बढ़ गई. उन्होंने सब के चेहरे पर छाई गंभीरता को दूर करते हुए कहा, ‘‘तुम लोग याद रखना, सुख में भटकना नहीं और दुख में अटकना नहीं, जब सुख मिले उसे जी लो, दुख मिले उसे भी उतनी ही खूबी से जिओ, बिना किसी शिकायत के. उस का अंश, उस की खरोंचें मन पर न रहने दो. उस के परिणाम भी बड़ी हिम्मत से स्वीकार लो और सहज ही पार हो जाओ. जीवन का यही तो मर्म है जो मैं समझ चुकी हूं.’’
सब महिलाएं नम आंखों से उन्हें सुनती रहीं. स्वभाव से अत्यंत नम्र, सहनशील, शांत, स्वाभिमानी, अपनी अपेक्षा दूसरों के सुखों और भावनाओं का ध्यान रखने वाली, जितनी तारीफ करें उतनी कम. इतने सारे गुण इस एक में कैसे आ गए, यह सोच कई बार महिलाएं हैरान रह जातीं.
फिर उन में आए कुछ परिवर्तन सभी ने महसूस किए. वे अचानक सुस्त और बीमार रहने लगीं और जब वे किटी में भी नहीं आईं तो सब हैरान हुईं. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, उन्हीं की बिल्ंिडग में रहने वाली रेनू और अर्चना उन्हें देखने गईं तो वे बहुत खुश हुईं, ‘‘अरे, आओ, आज कैसी रही पार्टी, लेटेलेटे तुम्हीं लोगों में मन लगा रहा आज तो मेरा.’’
उन्हें कई दिनों से बुखार था, उन के कई टैस्ट हुए थे, रिपोर्ट आनी बाकी थी. उन की तबीयत ज्यादा खराब हुई तो उन्हें अस्पताल में भरती करना पड़ा. सब उन्हें देखने अस्पताल जाते रहे. वे सब को देख कर खुश हो जातीं.
उन की रिपोर्ट्स आ गईं. मयंक को बुला कर डा. गौतम ने कहा, ‘‘मि. मयंक, आप की मदर का एचआईवी टैस्ट पौजिटिव आया है, इंफैक्शन अब स्टेज-3 एड्स में बदल गया है जिस की वजह से उन के शरीर के कई अंग जैसे किडनी, बे्रन आदि प्रभावित हुए हैं.’’
मयंक अवाक् बैठा रहा, थोड़ी देर बाद अपने को संयत कर बोला, ‘‘मम्मी तो अपने स्वास्थ्य का इतना ध्यान रखती हैं, धार्मिक हैं,’’ फिर थोड़ा सकुचाते हुए बोला, ‘‘पापा भी कुछ साल पहले नहीं रहे, उन्हें यह बीमारी कहां से हो गई?’’
डा. गौतम गंभीरतापूर्वक बोले, ‘‘आप तो पढ़ेलिखे हैं, धर्म और एड्स का क्या लेनादेना? क्या शारीरिक संबंध ही एक जरिया है एचआईवी फैलने का और अब कब, क्यों, कैसे से ज्यादा जरूरी है कि उन की जान कैसे बचाई जाए? आज कई तरह के इलाज हैं जिन से इस बीमारी को रोका जा सकता है पर सब से जरूरी है उन्हें इस बारे में बताना जिस से वे खुद भी सारी सावधानियां बरतें और इलाज में हमारा साथ दें क्योंकि अब हमें उन्हें एड्स सैल में शिफ्ट करना पड़ेगा.’’
मयंक ने डा. गौतम को ही उन्हें बताने के लिए कहा. पता चलने पर नंदिता सन्न रह गईं. कुछ देर बाद मयंक आया तो मां से नजरें मिलाए बिना सिर नीचा किए बैठा रहा. नंदिता गौर से उस का चेहरा देखती रहीं, फिर अपने को संभालती हुई हिम्मत कर के बोलीं, ‘‘इतने चुप क्यों हो, मयंक?’’
‘‘मां, आप को यह बीमारी कैसे…’’
बेटे को सारी स्थिति समझाने के लिए स्वयं को तैयार करते हुए उन्होंने बताना शुरू किया, ‘‘तुम्हें याद होगा, तुम्हारे पापा का जब वह भयंकर ऐक्सिडैंट हुआ था तो उन्हें खून चढ़ाना पड़ा था. उस समय किसी को होश नहीं था और जिन लोगों ने ब्लड डोनेट किया था उन में से शायद किसी को यह बीमारी थी, ऐसा डाक्टरों ने बाद में अंदाजा लगाया था. तुम्हारे पापा उस दुर्घटना में उस समय तो बच गए लेकिन इस बीमारी ने उन के शरीर में तेजी से फैल कर उन की जान ले ली थी. मैं ने सब को यही बताया था कि उन का हार्टफेल हुआ है. मैं उन की मृत्यु को कलंकित नहीं होने देना चाहती थी.
‘‘तुम्हें याद होगा तुम भी उस समय होस्टल में थे और उन की मृत्यु के बाद ही घर पहुंचे थे. हमारा समाज ऊपर से परिपक्व दिखता है पर अंदर से है नहीं. एड्स को ले कर हमारा समाज आज भी कई तरह के पूर्वाग्रहों से पीडि़त है.’’
मयंक की आंखें मां का चेहरा देखतेदेखते भर आईं. वह उठा और चुपचाप घर लौट गया.
नंदिता को एड्स सैल में शिफ्ट कर दिया गया. वे सोचतीं यह बीमारी इतनी भयानक नहीं है जितना कि इस से बनने वाला माहौल. सब अपनेअपने दर्द से दुखी थे. उस वार्ड में 60 साल के बूढ़े भी थे और 18 साल के युवा भी. उस माहौल का असर था या बीमारी का, उन की हालत बद से बदतर होती जा रही थी. रोज किसी न किसी टैस्ट के लिए उन का खून निकाला जाता जिस में उन्हें बहुत कष्ट होता, कितनी दवाएं दी जातीं, कितने इंजैक्शन लगते, वे दिनभर अपने बैड पर पड़ी रहतीं. अब उन के साथ बस उन का अकेलापन था. वे रातदिन मयंक, किरण और यश से बात करने के लिए तड़पती रहतीं लेकिन बीमारी का पता चलने के बाद से किरण ने तो अस्पताल में पैर ही नहीं रखा था और अब मयंक कईकई दिन बाद आता भी तो खड़ेखड़े औपचारिकता सी निभा कर चला जाता.
नंदिता का कलेजा कट कर रह जाता, यह क्या हो गया था. उन्हें देखने सोसायटी से उन के ग्रुप की कोई महिला आती तो जैसे वे जी उठतीं. कुछ महिलाएं समय का अभाव बता कर कन्नी काट जातीं लेकिन कई महिलाएं उन से मिलने आती रहतीं. वे सब के हालचाल पूछतीं. किसी का मन होता जा कर मयंक और किरण से उन के हालचाल पूछें लेकिन दोनों का स्वभाव देख कर कोई न जाता. वैसे भी महानगर के लोगों को न तो ज्यादा मतलब होता है और न ही कोई आजकल अपने जीवन में किसी तरह का हस्तक्षेप स्वीकार करता है, खासकर मयंक और किरण जैसे लोग.
कोई जब भी नंदिता को देखने जाता तो लगता उन्हें कहीं न कहीं जीने की इच्छा थी, इसी इच्छाशक्ति के जोर पर वे बहुत तेजी से ठीक होने लगीं और 5 महीने बाद वे पूरी तरह से स्वस्थ और सामान्य हो गईं. वे बहुत खुश थीं. एक बड़ा युद्ध जीत कर मृत्यु को हरा कर वे घर लौट रही थीं पर वे यह नहीं जानती थीं कि इन 5 महीनों में सबकुछ बदल चुका था.
उन्हें घर लाते समय मयंक बहुत गंभीर था. नंदिता ने सोचा इतने दिनों से सब को असुविधा हो रही है, थोड़े दिनों में सब पहले की तरह ठीक हो जाएगा. वे जल्दी से जल्दी यश को देखना चाहती थीं और यश की वजह से किरण भी उन से नहीं मिलने आ पाई. उसे कितना दुख होता होगा. यही सब सोचतेसोचते घर आ गया. मयंक पूरे रास्ते चुप रहा था. बस, हांहूं करता रहा था.
मयंक ने ही ताला खोला तो वे चौंकी, ‘‘किरण नहीं है घर पर?’’
मयंक चुप रहा. उन का बैग अंदर रखा. नंदिता ने फिर पूछा, ‘‘किरण और यश कहां हैं?’’
‘‘मां, आप की बीमारी पता चलने के बाद किरण यश के साथ यहां नहीं रहना चाहती थी. हम लोगों ने किराए पर फ्लैट ले लिया है.’’
नंदिता को लगा, सारी मोहमाया, प्यार और विश्वास के बंधन एक झटके में टूट गए हैं, उन की सारी संवेदनाएं ही शून्य हो गईं. उदास, शुष्क, खालीखाली, विरक्त आंखों से मयंक को देखती रहीं, फिर चुपचाप हतप्रभ सी वेदना के महासागर में डूब कर बैठ गईं. वे एकाकी, मौन, स्तब्ध बैठी रहीं तो मयंक ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘मां, एक फुलटाइम मेड का प्रबंध कर दिया है, वह आने वाली होगी. आप को कोई परेशानी नहीं होगी और फोन तो है ही.’’
नंदिता चुप रहीं और मयंक चला गया.
लताबाई ने आ कर सब काम संभाल लिया. नंदिता के अस्पताल से घर आने का पता चलते ही उन की सहेलियां उन से मिलने पहुंच गईं. उन के घर का सन्नाटा महसूस कर के उन की आंखों की उदासी देख कर उन की सहेलियां जिन भावनाओं में डूबी थीं, उन्हें व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं थे उन के पास और जहां शब्द हार मानते हैं वहां मौन बोलता है.
नंदिता सब के हालचाल पूछती रहीं और स्वयं को सहज रखने का प्रयत्न करते हुए मुसकराने लगीं, बोलीं, ‘‘तुम लोग मेरे अकेले रहने के बारे में मत सोचो, इस की भी आदत पड़ जाएगी, सब ठीक है और तुम लोग तो हो ही, मैं अकेली कहां हूं.’’
सब उन की जिंदादिली पर हैरान हुए फिर अपनीअपनी गृहस्थी में सब व्यस्त हो गए. उन का अपना नियम शुरू हो गया. सुबहशाम सैर करतीं, अपनी हमउम्र महिलाओं के साथ गार्डन में थोड़ा समय बिता कर अपने घर लौट जातीं. सब ने गौर किया था वे अब कभी भी अपने बेटेबहू, पोते का नाम नहीं लेती थीं.
कुछ समय और बीता. आर्थिक मंदी की चपेट में किरण की नौकरी भी आ गई और मयंक को औफिस की टैंशन के कारण उच्च रक्तचाप रहने लगा. उस की तबीयत खराब रहने लगी. छुट्टी वह ले नहीं सकता था. दवा की एक प्राइवेट कंपनी में सेल्स मैनेजर था, काम का प्रैशर था ही. दोनों के शाही खर्चे थे, कोई खास बचत थी नहीं. अभी तक नंदिता के साथ रहता आया था. नंदिता के पास अपनी जमापूंजी भी थी, पति द्वारा सुरक्षित भविष्य के लिए संजोया धन था जिस से वे आज भी आर्थिक रूप से सक्षम थीं. अब लताबाई फुलटाइम मेड की तरह नहीं, बस सुबहशाम आ कर काम कर देती थी. नंदिता ने अकेले रहने की आदत डाल ली थी.
किरण के मातापिता अपने बेटे के साथ अमेरिका में रहते थे. किरण अपने जौब के लिए भागदौड़ कर रही थी. यश की देखभाल उचित तरीके से नहीं हो पा रही थी. मयंक और किरण को नंदिता की याद आने लगी. अब उन्हें नंदिता की जरूरत महसूस हुई. वैसे भी नंदिता अब स्वस्थ हो चली थीं.
एक दिन दोनों यश को ले कर नंदिता के पास पहुंच गए. नंदिता के पास उन की कुछ सहेलियां बैठी हुई थीं. मयंक पहले चुपचाप बैठा रहा, फिर उन से धीरे से बोला, ‘‘मां, आप से कुछ अकेले में बात करनी है.’’
उन की सहेलियों ने उठने का उपक्रम किया तो नंदिता ने टोका, ‘‘ये सब मेरी अपनी हैं, मेरे दुखसुख की साथी हैं, जो कहना हो, कह सकते हो.’’
मयंक को संकोच हुआ, किरण सिर झुकाए बैठी थी, यश नंदिता की गोद में बैठ चुका था.
मयंक ने कहा, ‘‘मां, हम यहां आप के पास आ कर रहना चाहते हैं. हम से गलती हुई है, हमें माफ कर दो.’’
नंदिता ने सपाट स्वर में कहा, ‘‘नहीं, अब तुम लोग यहां नहीं रहोगे.’’
मयंक सिर झुकाए अपनी परेशानियां बताता रहा, अपनी आर्थिक और शारीरिक समस्याओं को बताते हुए वह माफी मांगता रहा. सुषमा और अर्चना ने नंदिता के कंधे पर हाथ रख कर बात खत्म करने का इशारा किया तो नंदिता ने कहा, ‘‘नहीं सुषमा, इन्हें भी एहसास होना चाहिए कि परेशानी के समय जब अपने हाथ खींचते हैं तो जीवन कितना बेगाना लगता है, विश्वास नाम की चीज कैसे चूरचूर हो जाती है. मैं समझ चुकी हूं और सब से कहती हूं अपने बच्चों को पालते हुए अपने बुढ़ापे को नहीं भूलना चाहिए, वह तो सभी पर आएगा.
‘‘संतान बुढ़ापे में तुम्हारा साथ दे न दे पर तुम्हारा बचाया पैसा ही तुम्हारे काम आएगा. संतान जब दगा दे जाती है तब इंसान कैसे लड़ता है बुढ़ापे के अकेलेपन से, बीमारियों से, कदम दर कदम पास आती मौत की आहट से, कैसे? यह मैं ही जानती हूं कि पिछला समय मुझे क्या सिखा कर बीता है. मां बदला नहीं चाहती लेकिन हर मातापिता अपनी संतान से कहना चाहते हैं कि जो हमारा आज है वही उन का कल है लेकिन आज को देख कर कोई कल के बारे में कहां सोचता है बल्कि कल के आने पर आज को याद करता है,’’ बोलतेबोलते उन का कंठ भर आया.
कुछ पल मौन छाया रहा. मयंक और किरण ने हाथ जोड़ लिए, ‘‘हमें माफ कर दो, मां. हम से गलती हो गई.’’
यश ने चुपचाप सब को देखा फिर नंदिता से पूछा, ‘‘दादी, मम्मीपापा सौरी बोल रहे हैं? अब भी आप गुस्सा हैं?’’
नंदिता यश का भोला चेहरा देख कर मुसकरा दीं तो सब के चेहरों पर मुसकान फैल गई. सुषमा और अर्चना खड़ी हो गईं, मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘हम चलते हैं.’’
नंदिता को लगा जीवन का सफर भी कितना अजीब है, कितना कुछ घटित हो जाता है अचानक, कभी खुशी गम में बदल जाती है तो कभी गम के बीच से खुशियों का सोता फूट पड़ता है.