कहानी: छितराया प्रतिबिंब
मलय ने पुरानी प्रतिच्छवियों के रंग को वर्तमान के जीते इंसानों के जीवन में कुछ इस तरह घोल दिया था कि सारी छवियां मिलजुल कर एकसार हो गई थीं, सब की पहचान ही विकृत हो गई थी.
मेघों की अब मुझ से दोस्ती हो चली थी, शायद इस वजह से अब आसमान को ढक लेने की उन की जिद भी कुछ कम हो चली थी. खुलाखुला आसमान, जो कभी मेरी हसरतों की पहली चाहत थी, मेरे सामने पसरा पड़ा था. मगर क्या यह आसमान सच में मेरा था? मैं निहार रहा था गौर से उसे. सितारों की झिलमिलाहट कैसी सरल और निष्पाप थी. एक आह सी निकल आई जो मेरे दिल की खाली जगह में धुएं सी भर गई.
गंगटोक के होटल के जिस कमरे में मैं ठहरा था वहां से हरीभरी वादियों के बीच घरों की जुगनू सी चमकती रोशनियां और रात के बादलों में छिपा आसमान मेरे जीवन सा ही रहस्यमय था. शायद वह रहस्य का घेरा मैं ने ही अपने चारों ओर बनाया हुआ था या वह रहस्य मेरे जन्म के पहले से ही मेरे चारों तरफ था. जो भी हो, जन्म के बाद से ही मैं इस रहस्यचक्र के चारों ओर चक्कर काट रहा हूं.
मोबाइल बज उठा था, शरारती मेघों की अठखेलियां छोड़ मैं बालकनी से अपने कमरे में आया. बिस्तर पर पड़ा मोबाइल अब भी वाइब्रेशन के साथ बज रहा था. मुझे उसे उठाने की जल्दी नहीं थी, मैं बस नंबर देखना चाह रहा था. मेरी 10 साल की बेटी कुक्कू का फोन था. दिल चाहा उठा ही लूं फोन, सीने से चिपका कर उस के माथे पर एक चुंबन जड़ दूं, या उसे गोद में ही उठा लूं. उस के सामने घुटने मोड़ कर बैठ जाऊं और कह दूं कि माफ कर दे अपने पापा को, पर चाह कर भी मैं कुछ नहीं कर पाया.
फोन की तरफ खड़ाखड़ा देखता रहा मैं, फोन कट गया. मैं मुड़ने को हुआ कि फोन पुन: बजने लगा. मैं उसे उठा पाता कि वह फिर से कट गया. शायद प्रतीति होगी जिस ने मेरे फोन न उठाने पर कुक्कू को डांट कर फोन बंद करा दिया होगा.
गंगटोक में घूमने नहीं छिपने आया हूं. हां, छिपने. वह भी खुद से. जहां मैं ‘मैं’ को न पहचानूं और खुद से दूर जा सकूं. अपने पुरातन से छिप सकूं, अपने पहचाने हुए मैं से अपने ‘अनचीन्हे’ मैं को दूर रख सकूं. अनजाने लोगों की भीड़ में खुद से भाग कर खुद को छिपाने आया हूं.
यहां मुझे आए 9 दिन हो गए और अब तो प्रतीति का फोन आना भी बंद हो गया है. हां, मैं उस का फोन उठाऊं या नहीं, फोन की उम्मीद जरूर करता था और न आने पर जिंदगी के प्रति एक शिकायत और जोड़ लेता था. कुक्कू फिर भी शाम के वक्त एक फोन जरूर करती थी, वह भी ड्राइंग क्लास से. लाड़ में मैं ने ही मोबाइल खरीद दिया था उसे. बाहर अकेले जाने की स्थिति में वह मोबाइल साथ रखती थी. मैं बिना फोन उठाए फोन की ओर देख कर उस से बारबार माफी मांगता हूं, वह भी तब जब पूरी तरह आश्वस्त हो जाता हूं कि यह माफी मेरे पुरातन मैं के कानों तक नहीं पहुंच रही. बड़ा अहंकार है उसे अपने हर निर्णय के सही होने का.
आज रात नींद से मैं चिहुंक कर उठ बैठा. वह मेरा बचपन था, मुझे फिर नोचने आया था, मैं डर कर चीख कर भागता जा रहा था, सुनसान वादियों में कहीं खो चला था कि अचानक कहीं से एक डंडा जोर से हवा में लहराता हुआ आया और मेरे सिर से टकरा गया. मैं ने कराह कर देखा तो सामने पिताजी खड़े थे. मुझे ऐसा एहसास हुआ कि डंडा उन्होंने ही मुझ पर चलाया था, मेरी मां हंसतीगाती अपनी सहेलियों के संग दूर, और दूर चली जा रही थीं. मैं…मैं कितना अकेला हो गया था. आह, क्या भयावह सपना था. मैं ने उठ कर टेबल पर रखा पानी पिया. आज रात और नींद नहीं आएगी, वह हकीकत जो बरसों पहले मेरे दिमाग के पोरपोर में दफन थी, लगभग हर रात मुझे खरोंच कर बिलखता, सिसकता छोड़ कर भाग जाती है और मैं हर रात उन यादों के हरे घाव में आंसू का मरहम लगाता हुआ बिताता हूं.
पिताजी फैक्टरी में बड़े पद पर थे, सो जिम्मेदारी भी बड़ी थी. स्वयं के लिए स्वच्छंद जीवन के प्रार्थी मेरे पिताजी खेल और शिकार में भी प्रथम थे. दोस्तों और कारिंदों से घिरे वे अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहते थे. सख्त और जिम्मेदारीपूर्ण नौकरी के 12-12 घंटों से वे जब भी छूटते, शिकार या खेल, चाहे वह टेनिस का खेल हो या क्रिकेट या क्लब के ताश या चेस का, में व्यस्त हो जाते. मेरी मां अपने जमाने की मशहूर हीरोइन सुचित्रा सेन सी दिखती थीं.
बेहद नाजुक, बेहद रूमानी. उन की जिंदगी के फलसफे में नजाकत, नरमी, मुहब्बत और सतरंगी खयालों का बहुत जोर था. लेकिन ब्याह के बाद 5 अविवाहित ननदों की सब से बड़ी भाभी की हैसियत से उन्हें बेहद वजनी संसार को कंधों पर उठाना पड़ा, जहां प्यार, रूमानियत, नजाकत और उन की नृत्य अभिनय शैली, साजसज्जा के प्रति रुझान का कोई मोल नहीं था. सारा दिन शरीर थकाने वाले काम, ननदों की खिंचाई करने वाली भाषा, सासससुर की साम्राज्यवादी मानसिकता और पति का स्वयं को ले कर ज्यादा व्यस्त रहना. मेरी मां ने धीरेधीरे जीने की कला विकसित कर ली. जीजान से दूसरों के बारे में सोचने वाली मेरी मां में अब काफी कुछ बदल गया था, फिर साक्षी बना मैं. तीनों बेटों को अकेले पालतेपालते कब मैं उन की झोली में आ गिरा पता ही नहीं चला.
रात 3 बजे या कभी 2 बजे तक पिताजी क्लब में चेस या रात्रिकालीन खेल आयोजनों में व्यस्त रहते. इधर मेरी मां मारे गुस्से से मन ही मन कुढ़तीबिफरती रहतीं. सब लोगों को खाना खिला कर खुद बिना खाएपिए सिलाई ले कर बैठ जातीं. और तब तक बैठी रहतीं जब तक पिताजी न वापस आ जाते. सारा दिन और आधी रात बाहर रहने के बाद शायद मां का मोल पिताजी के लिए ज्यादा ही हो जाता, वे मां का सान्निध्य चाहते. लेकिन दिनभर की थकीहारी, प्रेम की भूखी, छोटेछोटे बच्चों को पालने में किसी सहारे की भूखी, ननदों की चिलम जलाने वाली बातों से जलीभुनी, सहानुभूति की भूखी मेरी मां दूसरे की भूख क्या शांत करतीं?
रात के 11 बज रहे होते, मैं मां की इन गपोरी सहेलियों के बीच कहीं अकेला पड़ा मां के इंतजार में थका सा, ऊबा सा सो गया होता.
फिर रात हो उठती भयावह. रोनाधोना, चीखनाचिल्लाना, सिर पटकना-बदस्तूर जारी रहता. तीनों भैया मुझ से बड़े थे. उन के कमरे अलग थे जहां वे तीनों साथ सोते. मैं सब से छोटा होने के कारण अब भी मां के आंचल में था. कुछ हद तक मां मुझे दुलार कर या मेरे साथ अपनी बातें बता कर अकेलापन दूर करतीं. बंद पलकों में मेरी जगी हुई रातें सुबह मेरी सारी ऊर्जा समाप्त कर देतीं.
स्कूल जा कर अलसाया सा रहता. स्कूल के टीचर पिताजी से मेरी शिकायत करते. मैं क्याकुछ सोचता और सोता रहता, स्कूल भेजे जाने का कोई फायदा नहीं, मुझ से पढ़ाई नहीं होगी आदि. मेरी 8 वर्ष की उम्र और पिताजी की बेरहम मार, मां दौड़ कर बचाने आतीं, धक्के खातीं, फिर जाने मां को कितना गुस्सा आता. विद्रोहिणी सीधे पिताजी को धक्के देने की कोशिश करतीं. उलट ऐसा करारा हाथ उन के गालों पर पड़ जाता कि उन का गाल ही सूज जाता. फिर अड़ोसपड़ोस में कानाफूसी, रिश्तों को निभाने का आडंबर सब के सामने अजीब सी नाटकीयता और अकेले में फूला हुआ सा मुंह. सबकुछ मेरे लिए कितना असहनीय था.
क्यों नहीं मेरे पिताजी थोड़ा सा समय मेरी मां के लिए निकालते? क्यों नहीं उन की छोटीबड़ी इच्छाओं का खयाल रखते? क्यों मेरी मां इन ज्यादतियों के बावजूद चुप रहतीं? अकसर ही मैं सोचता.
धीरेधीरे फैक्टरी में काम करने वाले बाबुओं की बीवियां मेरी मां की पक्की सहेलियां बनती गईं. उन के साथ बाहर या पार्टियों में वक्त गुजारना मां का प्रिय शगल बन गया.
मेरे भाइयों की अपने दोस्तों के साथ एक अलग दुनिया बन गई थी, जहां वे खुश थे. शाम को जब वे खेल कर घर वापस आते तो अपनी पढ़ाई वे खुद कर लेते, खापी कर वे सब अपने कमरे में निश्ंिचत सोने चले जाते. मगर मैं मां के सब से करीब था, जरूरत की वजह से भी और अपनी तनहाई की वजह से भी. मेरे जन्म से पहले मेरी मां कैसी थीं, इस से मुझे अब कोई सरोकार न था लेकिन मेरे जन्म के कुछ सालों बाद परिस्थितिवश मेरी मां घरपरिवार की चखल्लस जल्दी से जल्दी निबटा कर शाम होते ही सहेलियों में यों खो जातीं कि मैं तनहा इन बेअदब अट्टहासों की भीड़ में तनहाई की दीवार से सिर पटकता कहीं खामोश सा टूट रहा होता.
रात के 11 बज रहे होते, मैं मां की इन गपोरी सहेलियों के बीच कहीं अकेला पड़ा मां के इंतजार में थका सा, ऊबा सा सो गया होता. तब अचानक किसी के झ्ंिझोड़ने से मेरी नींद खुलती तो उन्हीं में से किसी एक सहेली को कहते सुनता, ‘जाओजाओ, मां दरवाजे पर है.’ मैं गिरतापड़ता मां का आंचल पकड़ता. साथ चल देता, नींद से बोझिल आंखों को मसलते. घर पहुंच कर मेरे न खाने और उन की खिलाने की जिद के बीच कब मैं नींद की गुमनामी में ढुलक जाता, मुझे पता न चलता. नींद अचानक खुलती कुछ शोरशराबे से.
भोर के 3 बज रहे होते, मेरी मां पिताजी पर चीखतीं, अपना सिर पीटतीं और पिताजी चुपचाप अपना बिस्तर ले कर बाहर वाले कमरे में चले जाते. मां बड़बड़ाती, रोती मेरे पास सोई मेरी नींद के उचट जाने की फिक्र किए बिना अपनी नींद खराब करती रहतीं.
मैं जैसेजैसे बड़ा हो रहा था, दोस्तों की एक अलग दुनिया गढ़ रहा था. विद्रोह का बीज मन के कोने में पेड़ बन रहा था. हर छोटीबड़ी बातों के बीच अहं का टकराव उन के हर पल झगड़े का मुख्य कारण था. धीरेधीरे सारी बूआओं की शादी के बाद मेरी दादी भी अपने दूसरे बेटे के पास रहने चली गईं. मां का अकेलापन हाहाकार बन कर प्रतिपल अहंतुष्टि का रूप लेता गया. पिताजी भी पुरुष अहं को इतना पस्त होते देख गुस्सैल और जिद्दी होते गए. तीनों भाइयों की दुनिया में उन का घर यथावत था, लेकिन मुझे हर पल अपना घर ग्लेशियर सा पिघलता नजर आता था.
मैं एक ऐसा प्यारभरा कोना चाहता था जहां मैं निश्ंिचत हो कर सुख की नींद ले सकूं, अपनी बातें अपनों के साथ साझा करने का समय पा सकूं. मैं खो रहा था विद्रोह के बीहड़ में.
मैं इस वक्त 10वीं की परीक्षा देने वाला था और अब जल्दी ही इस माहौल से मुक्त होना चाहता था. सभी बड़े भाई अपनीअपनी पढ़ाई के साथ दूसरे शहरों में चले गए थे. मैं ने भी होस्टल में रहने की ठानी. उन दोनों की जिद भले ही पत्थर की लकीर थी लेकिन मेरी जिद के आगे बेबस हो ही गए वे. मेरे मन की करने की यह पहली शुरुआत थी जिस ने अचानक मेरे विद्रोही मन को काफी सुकून दिया. मुझे यह एहसास हुआ कि मैं इसी तरह अपने को खुश करने की कोशिश कर सकता हूं.
बस, जिस मां को मैं इतना चाहता था, जिसे अपनी पलकों में बिठाए रखना चाहता था, जिस की गोद में हर पल दुबक कर उन की लटों से खेलना चाहता था, उन की नासमझी की वजह से दिल पर पत्थर रख कर मारे गुस्से और नफरत के मैं उन से दूर भाग आया.
समय की धार में बह कर एक दिन मैं सरकारी नौकरी के ऊंचे ओहदे की बदौलत क्वार्टर, औफिस सबकुछ पा गया. एक खोखली सी, जैसा कि मेरा पुरातन मैं सोचता, जिंदगी बाहरी दुनिया के लिए बहारों सी खिल गई थी.
मेरी जिंदगी में अकेलेपन का सफर काफी लंबा हो गया था. होस्टल की पढ़ाई के बीच दोस्तों के साथ मनमानी मौज अकेलेपन को भुलाने की या उस दर्द को फटेचिथड़ों में लपेट कर दबा देने की नाकाम कोशिश भले ही रही लेकिन मेरा नया मैं, हर वक्त मेरे पुरातन मैं से नजरें चुराए ही रहना पसंद करता था.
जीवनयुद्ध में अब कामयाब होने की बारी थी क्योंकि मैं अकेले जीतेजीते इतना परिपक्व हो गया था कि समझ सकता था कि इस के बिना मैं डूब जाऊंगा. मैं अपनेआप को खुश रखने वाली स्थायी चीजों की तलाश में था. मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की और पिताजी की कृपा से मुक्त होने को एक अदद नौकरी की तलाश में प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगा. ऐसा नहीं था कि इस उम्र में लड़कियों ने मेरी जिंदगी में आने की कोशिश न की हो. मैं रूप की दृष्टि से अपनी मां पर गया था, इसलिए भी दूसरों की नजरों में जल्दी पड़ जाना या विपरीत सैक्स का मेरे प्रति सहज मोह स्वाभाविक ही था. और इस मामले में मुझ में गजब का आत्मविश्वास था जिस के चलते मैं स्वयं कभी सम्मोहित नहीं होता था. इन सब के बावजूद शादी को ले कर जो धारणाएं मेरे दिल में थीं उस लिहाज से वे मात्र शरीर सुख के अलावा कुछ नहीं थीं. मगर क्या कहूं इन अच्छे घरों की मासूम लड़कियों को. आएदिन लड़के दिखे नहीं कि थाल में दिल सजा कर आ गईं समर्पण करने.
इस मामले में लड़के भी कम दिलदार नहीं थे. लेकिन मैं इस मामले में पक्का था. जवानी की दहलीज पर दहकती कामनाओं को दिल में पल रहे रोष और विद्रोह का रूप दे कर बस तत्पर था स्थायी सुख की तलाश में.
समय की धार में बह कर एक दिन मैं सरकारी नौकरी के ऊंचे ओहदे की बदौलत क्वार्टर, औफिस सबकुछ पा गया. एक खोखली सी, जैसा कि मेरा पुरातन मैं सोचता, जिंदगी बाहरी दुनिया के लिए बहारों सी खिल गई थी.
कुछ साल और गुजरे. मांपिताजी कभीकभी मेरे बंगले में आ कर रहते. लेकिन बदलते हुए भी बदलना जैसे मुझे आता ही नहीं था.
अब भी मां हर वक्त पिताजी को लगातार कुछ न कुछ सुनाती रहती थीं. शायद अब यह फोबिया की शक्ल ले चुका था. पिताजी ने सोचसमझ कर अपने होंठ सिल रखे थे. ‘हर बात अनसुनी कर दो ताकि सामने वाले को यह एहसास हो कि वह दीवारों से बातें कर रहा है’ की मानसिकता के बूते पर रिश्ते घिसट रहे थे. इन सब के बीच मैं दिनोंदिन ऊबा सा, चिढ़ा सा महसूस करता था, जिस से अब भी उन दोनों को कोई लेनादेना नहीं था.
आखिर मैं ने इस अकेलेपन से उबरने का और थोड़ा मनोरंजन का तरीका ढूंढ़ निकाला, जैसे कि यह कोई जड़ीबूटी या जादू हो. मैं ने दूर प्रदेश की एक रूमानी सूरत वाली गेहुंए रंग की धीर, स्थिर, उच्च शिक्षिता से विवाह कर लिया. तरहतरह की कलाओं में पारंगत, सुंदर, रूमानी और विदुषी बिलकुल मेरी मां की तरह.
नौकरी के शुरुआती साल थे. सुंदर और समझदार पत्नी पा कर मैं घर की ओर से बेफिक्र हो गया था. मैं उसे चाहता था और मेरे चाहने भर से ही वह मुझ पर बिछबिछ जाती थी और यह एहसास जब मेरे लिए काफी था तो उसे पाने की जद्दोजहद कहीं बाकी ही नहीं रही.
इधर, नौकरी में मैं ऊंचे ओहदे पर था. अधीनस्थ मानते थे, सलाह लेते थे, मैं अपने अधिकार का भरपूर प्रयोग कर रहा था. अब तक का जीवन जो अकेलेपन की मायूसी में डूबा था, मेरे काम और तकनीकी बुद्धि की प्रखरता से प्रतिष्ठा की रोशनी से भर गया था. मेरा शारीरिक आकर्षण 30 की उम्र में उफान पर था, आत्मविश्वास चरम पर था, इसलिए मेरा सारा ध्यान बाहरी दुनिया पर केंद्रित था.
मैं एक रौबभरी दमदार जिंदगी का मालिक था, जिस में धीरेधीरे अतीत की हताशाओं पर जीत हासिल करने का दंभ भर रहा था. अतीत का एकांत मेरे पुरातन ‘मैं’ के साथ चमकदमक वाली दुनिया के किसी एक अंधेरे कोने में दुबक कर शिद्दत के साथ मेरा इंतजार कर रहा होता, लेकिन मैं उसे अनदेखा कर के अपनी दुनिया में व्यस्त होता जा रहा था. इसी बीच हमारी जिंदगी में बेटी कुक्कू आ गई. उस के आने के बाद मेरे अंतस्थल में ऐसी और कई परतें उभरीं जिन्हें अब तक मैं नहीं जानता था.
मेरे पिता ने हम बच्चों से दूरी बना कर हमारी नजरों में अपनेआप को जितना बुरा बनाया था और मेरी मां के पिताजी पर चीखनेचिल्लाने से उन की जो छवि हमारी नजरों में बनी थी, मैं अपनी कुक्कू के लिए कतई वह नहीं बनना चाहता था. मैं कुक्कू को पूरी तरह हासिल करने और उस की मां की तरफ झुकाव को बरदाश्त न कर पाने की ज्वाला से कब भरता जा रहा था, न तो मुझे ही पता चला और न ही कुक्कू को.
अब भी मां हर वक्त पिताजी को लगातार कुछ न कुछ सुनाती रहती थीं. शायद अब यह फोबिया की शक्ल ले चुका था. पिताजी ने सोचसमझ कर अपने होंठ सिल रखे थे.
जब भी मुझे फुरसत मिलती, हम आपस में खेलते, बातें करते, लेकिन प्रतीति हमारे बीच आ जाती तो मैं मायूस हो जाता, कहीं कुक्कू का झुकाव उस की मां की तरफ हो जाए तो मैं अकेला रह जाऊंगा, मैं अपने पिता की तरह परिवार से दूर हो जाऊंगा. यह मेरे परिवार की बेटी है, मेरी बेटी है, मेरी अमानत. आखिर कुछ तो हो जो पूरी तरह से मेरा हो.
मैं अपनी मां को चाह कर भी हरदम अपने करीब न पा सका, जब देखो तब वे बस पिताजी को ले कर व्यस्त रहतीं. नहीं, मुझे सख्ती से प्रतीति को कुक्कू से दूर रखना होगा, उस का हर वक्त मेरे बच्चे को सहीगलत बताना, निर्देश देना मैं बरदाश्त नहीं कर पा रहा था.
ऐसा लगता था कि वह मुझे ही आदेश दे रही हो, अप्रत्यक्ष रूप से. बेहद चिढ़ होती है मुझे जब पत्नी पति को सीख दे. यही गलती मेरी मां ने कर के पिताजी को जिद्दी और असंतोषी बना दिया था, घर में अशांति की जड़ है पत्नी का स्वयं को ज्यादा समझना. और अब यही काम मेरी पत्नी कर रही थी. मेरी यह चिढ़ इतनी बढ़ गई थी कि अब प्रतीति की हर बात पर मैं बोल पड़ता. प्रतीति कहती, आओ कुक्कू, दूध पीओ. इधर आओ, ड्रैस बदल दूं, कापी निकालो, होमवर्क करना है, आदि.
मैं झल्ला पड़ता, ‘दिमाग नहीं है, बेवकूफ कहीं की. दिख नहीं रहा वह खेल रही है मेरे साथ, अभी कोई होमवर्क नहीं.’
‘दूध तो पीने दो?’
‘क्यों? तुम कहोगी तो हुक्म बजाना ही पड़ेगा? कोई जबरदस्ती है क्या? नहीं पीएगी अभी दूध, उस की जब मरजी होगी तभी पीएगी.’
उदासी और आश्चर्य से भर उठती प्रतीति. कहती, ‘4 साल की बच्ची की कभी दूध पीने की मरजी होगी भी.’
मैं बोलता, ‘नहीं होगी तो नहीं पीएगी, तुम बीच में मत बोलो.’
प्रतीति मारे हताशा के झल्ला पड़ती, ‘बीच में तो तुम पड़ रहे हो. मुझे समझने दो न उस की जरूरतों को.’
‘कोई जरूरत नहीं है तीसरे को बीच में बोलने की, जब मैं अपनी बेटी के साथ हूं, समझीं.’
प्रतीति अवाक् हो कर मेरा मुंह ताकती और मैं झल्ला कर उसे और नीचा दिखाने की, उस पर गुस्सा उतारने की कोशिश करता ताकि वह मेरी ओर देखती न रहे. उस का मेरी ओर इस तरह एकटक देखना मेरे गलत होने का एहसास दिलाता था और मुझे मेरा गलत साबित होना कतई पसंद नहीं था. मैं ने कमर कस ली कि उसे किसी भी कीमत पर इतना नहीं बढ़ने दूंगा कि वह मुझे समझाना शुरू करे.
मैं ने प्रतीति को हर बात पर डराना, दबाना शुरू कर दिया ताकि वह सहीगलत कुछ भी मुझे बता कर मेरी गलतियों का एहसास न करा पाए. धीरेधीरे मैं ने उस में ऐसे एहसास भर दिए कि अगर उस ने कभी भी किसी बात पर अपनी नापसंदगी जाहिर की तो उसे हमेशा के लिए यह घर छोड़ना होगा और यह नुसखा कारगर साबित हुआ. हो क्यों न, कितनी ही पढ़ीलिखी और समझदार भारतीय औरत हो, हर हाल में निभाने वाली मानसिकता उसे कई बार न बरदाश्त हो सकने वाली चीजों को बरदाश्त करने का हौसला दे देती है, प्रतीति की भी यह शक्ति कम मगर सहनशक्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी. शारीरिक तौर पर वह ड्यूटी के लिहाज से शायद मुझे खुश रखती थी और ज्यादा अंत:स्थ तक प्रवेश करने की मैं भी जहमत नहीं उठाता था.
दिन गुजरते जा रहे थे, कुक्कू बड़ी होती जा रही थी.
ज्योंज्यों मेरा आधिपत्य बढ़ता जा रहा था, प्रतीति अपनेआप में सिमटती जा रही थी. हमारा रिश्ता सिकुड़ता जा रहा था. कुक्कू अचंभित, हैरान दोराहे पर चलती जा रही थी.
मैं कुक्कू को अकसर पढ़ाने बैठता और कुक्कू की गलतियों के लिए मुझे उस की मां को सुनाने का अच्छा मौका मिलता. प्रतीति चुपचाप सुनती रहती और मैं बेटी के सामने खराब हो जाने के डर से प्रतीति पर उलटेसीधे इलजाम लगाना शुरू करता ताकि कुक्कू अपनी मां को बुरा समझे. इन सब से मैं क्या पाता था या मेरी कौन सी चाहत पूरी होती थी, मैं खुद भी नहीं समझ पाता. हां, इतना अवश्य था कि मेरा भूखा पुरातन ‘मैं’ थोड़ा सांस लेता, पुष्ट होता, संतुष्ट होता. बचपन में मैं रात के साढ़े 3 बजे से भोर 5 बजे तक यही सोचता रहता कि मांपिताजी दोनों साथसाथ एक ही घर में रहते ही क्यों हैं? सोचता, ये अगर अलगअलग हो जाएं तो मैं मां के साथ रहूंगा और तीनों भाइयों को पिताजी के साथ भेज दूंगा. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. जिंदगी हिचकोले खाती चलती रही, साथ वह सिलसिला भी.
मगर अब मैं पूरी क्षमता में हूं कि पुरानी गलतियों को सुधार लूं. अब न तो मैं घर में किसी औरत को हायतौबा मचाने दूंगा और न ही घर में अशांति का महाभारत छिड़ने दूंगा. रोजरोज के क्लेश से बेहतर है अलगाव…अलगाव… अलगाव.
प्रतीति शारीरिक और मानसिक भाषा द्वारा कितनी ही समझाने की कोशिश करती, मुझे लगता वह मुझे उल्लू बना रही है, मुझे धोखा दे कर अपनी बात मनवाने की कोशिश कर रही है. मैं जिद से भर उठता, न मानने की जिद से, उसे नीचा दिखाने की जिद से, बातबात पर उस की गलतियां ढूंढ़ कर उस को गलत साबित करने की जिद से, जो शायद हमारे संसार में नहीं था. उस पुरानी कहानी को काल्पनिक रूप से हमारे संसार पर प्रतिबिंबित कर बचपन की उन बिसूरती यादों को सही करने की जिद से, भर उठता था मैं.
छठी में पढ़ने वाली कुक्कू का रिजल्ट आया था. कक्षा में प्रथम आने वाली कुक्कू किसी तरह पास हो कर 7वीं में पहुंची थी, मैं उस का रिपोर्टकार्ड देख कर अपनेआप को रोक नहीं पाया, घर में मेरे काफी देर बवाल मचाने के बाद जब प्रतीति से रहा नहीं गया तो वह मुझ से उलझ ही पड़ी. प्रतीति अपनेआप में बड़बड़ाती हुई कहने लगी, ‘दूभर कर दिया है जीना. कहीं अकेले बैठ कर सोचो कि शादी के बाद मेरे सारे सपनों को कैसे तुम ने हथौड़े मारमार कर तोड़ा, कहीं चैन की सांस नहीं लेने दी. हमेशा मुझ पर गलत तोहमतें लगाईं और मैं ने कभी उन का सही तरीके से विरोध तक नहीं किया. सब उलटेसीधे इलजामों को अपने दिल में दबा कर घुटती रही, लेकिन कर्तव्य से कभी मैं ने मुंह नहीं फेरा. काउंसिलिंग की बात से चिढ़ होती है, लेकिन खुद सोचो कि हम पर…’
वह हर रोज अपनी बेटी का फोन नहीं उठाता था, उसका फोन काट जाने के बाद उससे मांफी मांगता था.
मैं उसी वक्त अपनी पैकिंग में लग गया. दरअसल, मैं ने कितनी ही गलतसही बातें उसे सुनाई हों लेकिन वह कभी भी अपनी जबान नहीं खोलती थी. आज पहली बार था जो मुझे बेहद नागवार गुजरा था. मुझे तैयार होता देख मांबेटी सकते में थीं. कुक्कू अब मुझ से काफी सहमी रहती और इस के लिए मैं पूरी तरह से प्रतीति को दोषी समझता था. पता नहीं क्यों कभी नहीं लगा कि मैं जो इतना उग्र हो जाता हूं उस का बच्ची पर कुछ तो असर होता होगा. कुक्कू किनारे खड़ी हो कर सुबकती हुई अनुनय करने लगी कि मैं न जाऊं.
प्रतीति के लिए यद्यपि ज्यादा मेरे करीब आना मुमकिन नहीं था फिर भी शारीरिक भाषा प्रखर करते हुए राह रोक कर खड़ी हो गई. मैं अपना बैग ले कर लगभग उसे धक्का देते हुए बाहर निकल गया.
आज सुबह से ही मेघों का बोलबाला कुछ ज्यादा था. कुहरे ने स्वस्थ, साफ आसमान को इस कदर ढक लिया था कि अगले कुछ पल बड़े असमंजस भरे थे. मैं बड़ा बेचैन था. मैं ने मोबाइल उठा लिया. सोचा, शहर में ही किसी परिचित को फोन लगाऊं. फिर मां को ही फोन घुमा दिया. मांपिताजी अभी भी उसी पुश्तैनी मकान में रह रहे हैं.
मां ने मेरा फोन पाते ही चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ, मलय? 10 दिनों से रोज तुम्हारे घर फोन कर रही हूं. प्रतीति एक ही बात कह रही है कि तू औफिस के काम से बाहर गया है, इधर तुझे फोन लगाती हूं तो बंद रहता है या उठाता नहीं.’’
‘‘मैं घर से भाग आया हूं और कभी वापस नहीं जाऊंगा.’’
‘‘क्या? यह क्या बोल रहा है तू? कहां है तू?’’
‘‘गंगटोक, यह बात प्रतीति को बताने की जरूरत नहीं, उसे पता नहीं कि मैं कहां हूं.’’
‘‘लेकिन हुआ क्या? वह तो कितनी अच्छी लड़की है.’’
‘‘खबरदार जो गैर लड़की के लिए सिफारिश की तो, बेटा मैं तुम्हारा हूं, तुम मेरी ओर से बोलोगी, बस.’’
‘‘अरे, उस की गलती तो बता?’’
‘‘तुम्हें मैं क्या बताऊं, तुम रहती हो यहां, जो बताऊं? यह मेरा घर है, यहां सबकुछ मेरे अनुसार होगा. मेरी अनुमति के बिना एक पत्ता नहीं हिलेगा.’’
‘‘तू यह क्या कह रहा है? है तो तेरा ही सबकुछ, लेकिन शादी ऐसे निभती है क्या? पति को चाहिए कि पत्नी को वह उतना ही हक और सम्मान दे जितना वह पत्नी से चाहता है.’’
‘‘फिर तुम शुरू हो गईं ज्ञान बघारने. फोन रखो, मैं कहता हूं, फोन रखो.’’
फोन मैं ने काट दिया था और मैं अब किसी से बात नहीं करना चाहता था. बचपन में मेरे मांपिताजी जब अपनी मनमानी करते थे तो तब कोई सिखाने नहीं आया, अब मैं अपने हिसाब से क्यों नहीं चलूं.
मैं बहुत उद्विग्न महसूस कर रहा था. प्रतीति शांत और निश्चिंत कैसे थी? यह सच है कि छोटीछोटी बातों के लिए भी मैं उसे बुराभला कह जाता था, वह शांत रहती थी, यहां तक कि बेटी को हिदायत भी दे डालता था कि उस की मां अहंकारी, पागल और बहुत बुरी है. अगर वह अपनी मां से बातें करेगी तो मुझे खो देगी, प्रतीति मेरी ओर स्थिर दृष्टि से देखती हुई अपनी जगह खड़ी रहती थी. उस का यह शांत रूप मुझे और आक्रामक करता था, मैं अपनी तौहीन देख गालीगलौज पर उतर आता था यहां तक कि उसे मारने तक दौड़ता था. फिर वह शांत हो इतना ही कहती, ‘मुझ से जो गलतियां हुईं उस के लिए माफ करो.’ मैं झल्ला कर बात खत्म करता.
मगर फिर भी इतने दिन होने को आए, मैं कहां हूं, उसे यह भी नहीं पता. 10 दिन पर मां को पता चला तो हो सकता है कि अब उसे पता चला हो लेकिन ये 10 दिन क्या उसे मेरी जरा भी परवा नहीं, बस खर्चे को पैसे उपलब्ध हो गए तो मेरी जरूरत ही नहीं? यही हैं उस के शादी के आदर्श?
भोर के 3 बजे अचानक एक एसएमएस की आवाज से हलकी सी तंद्रा उचट गई. औफिस से 15 दिन की छुट्टी ले कर आया था और बता कर भी कि मैं कहां जा रहा हूं लेकिन इतनी रात गए मुझे मेरे छुट्टी समाप्त होने की सूचना देंगे और जबकि अब भी 2 दिन बाकी हैं. एक क्षण को लगा कि मेरे किसी दोस्त ने अपनी नींद छोड़ कर कोई नौनवेज जोक मारा हो.
अनिच्छा के बावजूद मैं ने एसएमएस चैक किया. मुझ से लेटे हुए यह पढ़ा नहीं गया, मैं उठ बैठा. अपने चारों ओर रजाई को खींच कर ऐसे बैठा जैसे प्रतीति की बांहें मुझे अपने आगोश में बहुत दिनों बाद खींच रही हों.
‘‘प्रिय, और कितनी परीक्षा लोगे? अपनी तकलीफ सहने की शक्ति मैं ने जितनी बढ़ा ली है तुम में भी तकलीफ देने की क्षमता उतनी ही बढ़ती गई है. एक तुम्हारे भरोसे मैं अपनी पिछली सारी दुनिया त्याग कर तुम्हारे पास आ गई और तुम पता नहीं कौन से मन की भूलभुलैया में गुम हो कर मुझे और कुक्कू को छोड़ कर ही चल दिए. तुम कैसे कर सके ये सबकुछ? कुक्कू और मैं तुम्हारे हैं, मगर तुम तो बस खुद के ही हो कर रह गए. मैं जानती हूं कि तुम्हारी जिंदगी का पिछला इतिहास तुम्हें विचलित करता है लेकिन यह नहीं समझते कि इतिहास वर्तमान में हमेशा नहीं आता.’’
एसएमएस समाप्त नहीं हुआ था लेकिन प्रतीति के फोन से आया था. मैं इन बातों का गहराई से मंथन करता कि दूसरा एसएमएस आया. सोचा न जाने किस का हो, लेकिन मन यह सोच कर व्याकुल होने लगा कि न जाने प्रतीति आगे क्या कहना चाह रही होगी.
मैं ने मोबाइल अपनी आंखों के सामने रखा, प्रतीति ने आगे लिखा था, ‘‘तुम ने पुरानी प्रतिच्छवियों का रंग वर्तमान के जीते इंसानों के जीवन में इस तरह घोल दिया है कि सारी छवियां मिलजुल कर एकसार हो गई हैं और सब की पहचान ही विकृत हो गई है. तुम्हारे मन का पुराना संताप और विद्रोह मुझ से अपना प्रतिशोध ढूंढ़ने की कोशिश करता है, क्योंकि तुम्हारे आसपास मैं ही एक ऐसी हूं जो तुम्हारी होते हुए भी तुम्हारा अंश नहीं हूं जिस पर तुम अपना हक जता कर अपना गुस्सा मिटा सको. आज कुछ कड़वा सच बोल लेने दो, मलय, और सहा नहीं जाता.
‘‘तुम्हारे मातापिता ने, जैसा कि तुम चिढ़तेकुढ़ते वक्त कहा करते थे, जो भी जीवन जिया उसे इतिहास में दफन करो. उस असामंजस्य का प्रतिकार तुम मेरे साथ प्रतिशोध ले कर क्यों करना चाहते हो? तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम को विद्रोह की घुटन में क्यों बदलने पर तुले हुए हो? प्रकृति के नियम से कुछ बातें मां और पत्नी होने के नाते हर स्त्री में समान होती हैं लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि किसी और का कर्मफल कोई और भुगते. प्रिय होने के कारण जो कदम तुम अपनी मां के लिए नहीं उठा पाए, पराए घर से आई होने के कारण वह प्रतिशोध तुम ने मुझ से लेने की ठानी. तब तुम टूटे हुए से घर में जुड़ेजुडे़ से थे और अब जुड़े हुए घर को तोड़ने पर आमादा हो.
‘‘समय की इच्छा थी कि हम एक हों और अब यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करता है कि हम आगे भी एक रहें. तुम्हें बेहद चाह कर टूट जाने के कगार पर खड़ी हूं. तुम्हारी बेटी को अपने पापा की, तुम्हारी बीवी को अपने पति की जरूरत है और तुम्हें कोई हक नहीं बनता कि तुम उस का सहारा और प्यार छीन लो.’’
टैक्स्ट पढ़तेपढ़ते मेरी आंखें बोझिल हो गई थीं, आंक रहा था मैं प्रतीति ज्यादा समझदार थी या मैं ज्यादा नासमझ. शायद अहंकार की वजह से मैं ने उसे कभी भाव नहीं देना चाहा. लेकिन आज जब मैं अपने अंतर्मन के साथ बिलकुल अकेला हूं, आसपास के वातावरण में स्वयं को सिद्ध करने की कोई जल्दबाजी नहीं है तो लगता है प्रतीति को मेरी नहीं बल्कि मुझे प्रतीति की जरूरत है. मेरे ठिगने अहंकार, आक्रोश और भावनात्मक प्रतिशोध की सुलगी हुई ज्वाला में प्रतीति के बरसते छींटों की जरूरत है.
मैं ने तत्काल फ्लाइट पकड़ी, एअरपोर्ट से घर पहुंचतेपहुंचते सुबह के 8 बज गए थे. मैं खुली खिड़की से घर के अंदर सब देख सकता था. कुक्कू स्कूल के लिए तैयार हो रही थी, दोनों बेहद बुझीबुझी सी अपना काम कर रही थीं. तैयार हो कर कुक्कू निकलने वाली थी, प्रतीति ने मेरी उपस्थिति से अनजान मुख्यद्वार खोला. मैं अचरज में था. मुझे देख कर उस के मुख पर जरा भी अचरज नहीं आया. जैसे कि उसे अपनी पैरवी पर बेहद यकीन हो.
उस ने मेरे हाथ से बैग लिया और भटक गए बच्चे के घर वापस आ जाने पर सब से पहले उसे सुरक्षित घर के अंदर ले जाने के एहसास से भरी हुई मुझे वह अंदर ले गई.
कुक्कू के शिकायती लहजे को भांप कर प्रतीति ने उस से कहा, ‘‘बेटी, आज खुशीखुशी स्कूल जाओ, वापस आ कर बातें करना, पापा को आराम करने दो.’’
कुक्कू के जाने के बाद घर में सन्नाटा छाने लगा. मैं जो हमेशा डराने में विश्वास करता था, आज खुद डर रहा था.
प्रतीति ने बैग उठा कर अंदर किया और बाथरूम की बालटी में पानी भरने लगी. मैं कुरसी पर चुप बैठा था, डरा वैसा ही जैसा कभी प्रतीति को मैं डरा देखता था. जाने कब मैं क्या बोल पड़ूं. क्या इलजाम लगा कर बच्ची के सामने उसे अपमानित करूं. मेरे पीछे आ कर खड़ी हो गई वह, मेरे सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘बाल रूखे लग रहे हैं, तेल लगा देती हूं.’’
मैं चुपचाप बैठा रहा.
प्रतीति ने बालों में तेल लगाते हुए कहा, ‘‘आज औफिस जाओगे? छुट्टियां तो कल खत्म होंगी.’’
मैं अवाक्, ‘‘तुम्हें कैसे पता?’’
‘‘क्यों न पता हो? मेरा पति कहीं चला जाए और मैं दफ्तर में खबर भी न लूं.’’
‘‘फिर तुम…’’
‘‘कुछ न कहो. तुम ने अपने हिसाब से सब को चलाने की कोशिश कर के देख ली. यह स्वाभाविक था कि मैं तुम्हारी खोजपरख करती. आगे की सोचो, मलय, पीछे का पीछा छोड़ो.’’
‘‘मैं थक चुका हूं.’’
‘‘तुम क्यों इतना चिंतित हो? सारी चिंता मुझ पर छोड़ो और तुम निश्ंिचत हो जाओ. जैसे कुक्कू मेरी जान है वैसे ही तुम मेरे सबकुछ हो. किस से खफा, किस की गलती? जो तुम हो वही तो हम हैं. तुम से अलग तो कुछ भी नहीं. अगर तुम्हें मेरी कुछ आदतें बुरी लगती हैं तो सरल उपाय है कि उन की लिस्ट बना कर मुझे दे दो, मैं ईमानदारी से उन्हें छोड़ने की पहल करूंगी. मगर स्थितियों को इतना गंभीर न बनाओ.’’
जरा चुहल करने का मन हुआ, कहा, ‘‘ईमानदारी से मुझे तो न छोड़ दोगी?’’
‘तुम्हें तो नहीं, हां तुम्हारी एक आदत छुड़ा कर ही दम लूंगी.’
‘‘तुम्हारी नकारात्मक सोच, और मनमुताबिक न होने को शत्रु भाव से ग्रहण करना, जिस की जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि. बुरा सोचोगे तो हर इंसान बुरा ही नजर आएगा. सब कुछ स्वीकार कर लो तो जीवन प्रेममय बन जाता है वरना कुक्कू के साथ भी वही इतिहास दोहराया जाएगा.’’
‘‘प्रतीति…’’ कह कर मैं ने उसे बाहुपाश में भर लिया.
सचाई को महसूस कराती गहरी गरम सांसें एकदूसरे में विलीन हो रही थीं. मैं ने प्रतीति को सीने से लगा कर उस का माथा चूम लिया. जिस खुशी की खोज में वादियों में भटक आया वह खुशी मेरे लिए मेरे घर में बैठी मेरा इंतजार कर रही थी.